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के चंद्रशेखर राव की पार्टी राष्ट्रीय राजनीति में अपनी जगह बना पाएगी?
06-Oct-2022 4:27 PM
के चंद्रशेखर राव की पार्टी राष्ट्रीय राजनीति में अपनी जगह बना पाएगी?

-जिंका नागाराजू

तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव ने अपनी राष्ट्रीय पार्टी का एलान कर दिया है. तेलंगाना राष्ट्र समिति के बदले अब उनकी पार्टी को भारत राष्ट्र समिति के नाम से जाना जाएगा.

लेकिन सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या मौजूदा स्थिति में वे राष्ट्रीय राजनीति में अपनी पैठ बना सकते हैं?

क्या तेलंगाना की क्षेत्रीय पहचान के चलते वे दूसरे राज्यों में लोगों का समर्थन हासिल कर सकते हैं और देश की मौजूदा राजनीति में क्या राष्ट्रीय पार्टी के रूप में भारत राष्ट्र समिति के लिए जगह भी है?

भारत में लंबे समय से किसी राष्ट्रीय राजनीतिक दल का गठन नहीं हुआ है. आज़ादी के बाद भारत में केवल एक राष्ट्रीय पार्टी का गठन हुआ है और वह पार्टी है भारतीय जनता पार्टी. हालांकि ये बात और है कि कई क्षेत्रीय दल अपने नाम में अखिल भारतीय या ऑल इंडिया लिखते आए हैं. जैसे ऑल इंडिया तृणमूल कांग्रेस, ऑल इंडिया एडीएमके, एआईएमआईएम, ऑल इंडिया फ़ॉरवर्ड ब्लॉक, लेकिन इनमें कोई भी पार्टी राष्ट्रीय नहीं है.

हालांकि ऐसी भी कई पार्टियां हैं जो अलग-अलग राज्यों में चुनाव लड़ती हैं और वहां सीटें भी जीतने में कामयाब रही हैं और उन्हें चुनाव आयोग की परिभाषा के मुताबिक़ राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा भी हासिल हुआ है. लेकिन वैसी पार्टियां भी राष्ट्रीय स्तर पर अपना विस्तार नहीं कर सकी हैं. कम्युनिस्ट पार्टियों का आधार तो इतनी तेज़ी से खिसका है कि उनके सामने राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा खोने का संकट खड़ा हो गया है.

 

राष्ट्रीय पार्टी के मायने क्या हैं?

हाल के दिनों में अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी किसी दूसरे राज्य में सरकार बनाने वाली पहली क्षेत्रीय पार्टी बनी है. ऐसे में मौजूदा समय में कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी ही दो ऐसी पार्टियां हैं जिनकी उपस्थिति अखिल भारतीय है. कांग्रेस की स्थापना 1885 में हुई थी जबकि भारतीय जनता पार्टी का गठन 1980 में हुआ.

बीते कुछ दशक में कई राजनीतिक दलों का उदय हुआ, लेकिन कुछ समय के बाद उनका प्रभाव कम होता गया. इनमें समाजवादी पार्टी, मुस्लिम लीग, विभिन्न वाम दल, विभिन्न किसान दल जैसे दल शामिल रहे हैं. जनसंघ को भी इस सूची में गिना जा सकता है.

अगर चुनाव के हिसाब से देखें तो पहले आम चुनाव यानी 1952 में भारत में राष्ट्रीय राजनीतिक दलों की संख्या 14 थी जो 2019 के आम चुनाव के आते-आते सात रह गई. 2019 के बाद पूर्वोत्तर की नेशनल पीपल्स पार्टी को राष्ट्रीय दर्जा हासिल हुआ. यह दर्जा चुनाव आयोग द्वारा निर्धारित मापदंडों को पूरा करने पर मिलता है, लेकिन इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं है कि पार्टी का प्रभाव राष्ट्रीय स्तर पर है.

चुनाव आयोग किसी पार्टी को राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा तब देता है जब वह पार्टी अपने मूल राज्य के अलावा कम से कम चार अन्य राज्यों में कुछ निर्धारित सीटें हासिल कर ले. ख़ुद को नेशनल पार्टी घोषित कर लेने से कोई पार्टी राष्ट्रीय नहीं हो जाएगी, इसके लिए उसे चुनाव आयोग की शर्तों को पूरा करना होगा.

क्षेत्रीय पार्टियों का दौर

इस देश की राजनीति में क्षेत्रीय पार्टियों का अस्तित्व 1952 से ही है. 1952 के आम चुनाव के वक्त देश में 19 क्षेत्रीय पार्टियां थीं. हालांकि क्षेत्रीय पार्टियों के उभार का दौर 1984 के बाद ही देखने को मिला. 1984 में कांग्रेस आख़िरी बार अपने दम पर केंद्र में सरकार बना सकी थी.

1989 से लेकर 2014 तक देश में गठबंधन सरकारों का दौर दिखा. 2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी ने अकेले दम पर सरकार बनाने का बहुमत हासिल कर लिया था. हालांकि इस दौरान भी बीजेपी ने कई क्षेत्रीय पार्टियों के साथ अपने गठबंधन को कायम रखा और अपना आधार भी बढ़ाती रही. 2019 में उसे कहीं ज़्यादा समर्थन हासिल हुआ. वहीं कांग्रेस पार्टी के प्रदर्शन में लगातार गिरावट देखने को मिला है.

ऐसे में स्पष्ट है कि एक नेशनल पार्टी का प्रभाव कम हो रहा है तो निश्चित तौर पर देश में एक और राष्ट्रीय पार्टी की जगह तो है. ऐसे में केसीआर की कोशिश को महज ख्याली नहीं कहा जा सकता है, हालांकि वे उस जगह को भर पाते हैं या नहीं, ये दूसरी बात है.

केसीआर जगह बना पाएंगे?

कांग्रेस जहां-जहां कमज़ोर हुई है, वहां उसकी जगह बीजेपी ने ली या फिर किसी क्षेत्रीय पार्टी ने. आंध्र प्रदेश में कांग्रेस के कमज़ोर होने से जो जगह बनी उसे बीजेपी नहीं भर पाई है. वहां क्षेत्रीय वाईएसआर कांग्रेस ने वो जगह हथिया ली और वाईएस जगन मोहन रेड्डी राज्य के मुख्यमंत्री बने. राज्य से कांग्रेस का सफ़ाया हो गया और बीजेपी भी वहां प्रवेश नहीं कर सकी. ऐसे में क्या केसीआर वहां कामयाबी हासिल कर पाएंगे?

तेलंगाना, तमिलनाडु, ओडिशा, पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में ना तो कांग्रेस की स्थिति मज़बूत है और ना ही भारतीय जनता पार्टी की. इन राज्यों की क्षेत्रीय पार्टियों ने अपने राज्य में किसी नेशनल पार्टी को प्रवेश करने नहीं दिया है. केसीआर ने भी अपने राज्य में बीजेपी को मज़बूत नहीं होने दिया है, ऐसे में साफ़ है कि नरेंद्र मोदी को चुनौती देने के लिए, उन्हें दूसरे राज्यों के क्षेत्रीय दलों की चुनौती का सामना करना होगा.

यही वजह है कि अपनी पार्टी को राष्ट्रीय पार्टी बनाने की उनकी घोषणा का तेलंगाना से बाहर कोई असर नहीं दिखा है.

आंध्र प्रदेश में क्या स्थिति है?

आंध्र प्रदेश के मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य को अगर देखें तो वाईएसआर कांग्रेस और तेलुगू देशम पार्टी के रहते, वहां किसी तीसरी पार्टी के लिए कोई जगह नहीं है. बीजेपी भी अकेले दम पर राज्य में चुनाव लड़ने की स्थिति में नहीं है. ऐसे में बीजेपी को राज्य में किसी अन्य दल से समझौता करना होगा. यही स्थिति अभिनेता पवन कल्याण की पार्टी जन सेना पार्टी की है. एक दशक पुरानी पार्टी होने के बाद भी राज्य में उसकी स्थिति बहुत अच्छी नहीं है.

ऐसे में केसीआर की पार्टी के लिए राज्य में क्या स्थिति होगी? इस सवाल पर सेवानिवृत राजनीति विज्ञान के लेक्चरर ए. चंद्रशेखर कहते हैं, "यह काफ़ी मुश्किल होगा. आज की तारीख़ में आंध्र प्रदेश में किसी नेशनल पार्टी का कोई प्रभाव नहीं है. ना तो कांग्रेस का और ना ही बीजेपी का. ऐसे में कोई नई राजनीतिक पार्टी के लिए जगह कहां से बनेगी?"

हालांकि रायलसीमा विद्यावनतुला वेदिका के संयोजक एम पुरुषोत्तम रेड्डी का कहना है, "केसीआर की नेशनल पार्टी, महज़ स्लोगन भर है. उनका लक्ष्य अभी भी केवल तेलंगाना है. वे नेशनल पार्टी के नाम पर तेलंगाना में राजनीतिक फ़ायदा हासिल करने की कोशिश कर रहे हैं. आज की तारीख में तेलंगाना में उन्हें बीजेपी से चुनौती मिल रही है. यह उनकी रणनीति है. आंध्र प्रदेश में उन्हें कुछ हासिल नहीं होगा."

रेड्डी के मुताबिक़, ''केसीआर आंध्र प्रदेश में अलोकप्रिय भी हैं और लोग उन्हें तेलंगाना वाले केसीआर के तौर पर जानते हैं.''

तेलंगाना में क्या होगा प्रभाव

केसीआर की राष्ट्रीय पार्टी को लेकर तेलंगाना में भी लोगों की मिली-जुली प्रतिक्रिया है. जहां उनके समर्थक उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर मोदी के विकल्प के तौर पर पेश कर रहे हैं. वहीं कई लोग इसे महज़ ड्रामा क़रार दे रहे हैं.

तेलंगाना सरकार के सलाहकार और राजनीतिक विश्लेषक टंकासाला अशोक कहते हैं, "कांग्रेस ने देश को कई मोर्चों पर निराश किया है. बीजेपी देश और समाज को नष्ट कर रही है. ऐसे में देश को बचाने के लिए एक नए एजेंडे की ज़रूरत है. केसीआर नए एजेंडे के साथ आए हैं. उन्होंने अपना घोषणापत्र जारी नहीं किया है, लेकिन वे कई बार कह चुके हैं कि देश का विकास ही उनका एजेंडा है."

अशोक तो यहां तक कहते हैं कि जिस तरह के राष्ट्र निर्माण का सपना नेहरू ने देखा था, वैसा ही सपना आज केसीआर देख रहे हैं. वहीं भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय सचिव के. नारायना ने केसीआर की घोषणा का स्वागत किया है, लेकिन एक चेतावनी भी दी है.

वे कहते हैं, "केसीआर ने बीजेपी से लड़ने के लिए नेशनल पार्टी के गठन का एलान किया है. इसका स्वागत है. बीजेपी देश की हर संस्था को नष्ट कर रही है. लेकिन केसीआर को यह देखना होगा कि दूसरी पार्टियों ने बीजेपी के ख़िलाफ़ जो लड़ाई शुरू की है, उसे वो नुक़सान नहीं पहुंचाएं."

हालांकि राज्य के जाने-माने राजनीतिक विश्लेषक तेलकापल्ली रवि कहते हैं, "केसीआर राज्य का आगामी चुनाव, नेशनल पॉलिटिक्स के नाम पर लड़ना चाहते हैं. चुनाव स्थानीय होगा, नारे राष्ट्रीय होंगे. केसीआर का कोई राष्ट्रीय एजेंडा नहीं है. उन्हें बीजेपी से ख़तरा महसूस हुआ है, इसलिए उन्होंने आगामी चुनाव के लिए यह रणनीति बनाई है."

तेलकापल्ली रवि के मुताबिक चरण सिंह, मोरारजी देसाई, वीपी सिंह और देवे गौड़ा भी मुख्यमंत्री बनने के बाद प्रधानमंत्री बने, लेकिन केसीआर इन लोगों की क़तार में आ पाएंगे, इसमें संदेह है. वहीं तेलंगाना कांग्रेस के नेता डॉक्टर मालू रवि कहते हैं कि केसीआर की यह कोशिश, बीजेपी के ख़िलाफ़ लड़ाई करने वाले मोर्चे को कमज़ोर करने वाली है.

तेलंगाना की पहचान से बाहर निकल पाएंगे?

के. चंद्रशेखर राव की बीते दो दशक में सबसे बड़ी पहचान तेलंगाना के नेता की रही है. उन्हें तेलंगाना के राजनीतिक पर्याय के तौर पर देखा जाता रहा है. ऐसी पहचान वाले नेता को, क्या दूसरे राज्य के लोगों का समर्थन हासिल होगा? क्या तेलंगाना की पहचान उनका रास्ता रोकेगी?

ओस्मानिया यूनिवर्सिटी के राजनीति विज्ञान के सेवानिवृत प्रोफ़ेसर के. श्रीनिवासूलू कहते हैं, "नरेंद्र मोदी की पहचान भी गुजराती नेता की थी. लेकन बीजेपी जैसी पार्टी की वजह से रातों रात वे नेशनल लीडर बन गए. मोदी ने राष्ट्रीय राजनीति में अपनी कोई पार्टी गठित नहीं की. मोदी एक मज़बूत पार्टी के आधार पर अपनी गुजराती पहचान से बाहर निकलने में कामयाब रहे. केसीआर अगर नेशनल लीडर बनना चाहते हैं तो उन्हें भी अपनी क्षेत्रीय पहचान को पीछे छोड़ना होगा."

हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी के राजनीति विभाग के प्रोफ़ेसर ई. वेंकटेसू कहते हैं कि केसीआर के लिए तेलंगाना की पहचान से बाहर निकल पाना आसान नहीं होगा. वेंकटेसू के मुताबिक़, ''अगर तेलंगाना से जुड़ी पहचान को कायम रखते हुए केसीआर नेशनल लीडर बनना चाहते हैं तो उनके लिए बेहतर होता कि बीजेपी विरोधी पार्टी खड़ी करने के बदले बीजेपी विरोधी मोर्चा का हिस्सा बनते.'' (bbc.com/hindi)

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