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केजरीवाल और मोदी के 'हिंदुत्व' में कितने फ़िट बैठते हैं आंबेडकर
13-Oct-2022 9:17 AM
केजरीवाल और मोदी के 'हिंदुत्व' में कितने फ़िट बैठते हैं आंबेडकर

 

-रजनीश कुमार

  • आंबेडकर हिन्दू धर्म की जमकर आलोचना करते थे
  • 1951 में आंबेडकर ने नेहरू की कैबिनेट से इस्तीफ़ा दे दिया था
  • 1956 में आंबेडकर ने बौद्ध धर्म अपना लिया था
  • बौद्ध धर्म अपनाने के दौरान उन्होंने हिन्दू देवी-देवताओं की पूजा नहीं करने की शपथ ली थी
  • यही शपथ इसी महीने केजरीवाल के मंत्री राजेंद्र पाल गौतम ने दिलवाई तो उन्हें इस्तीफ़ा देना पड़ा

हिन्दी के जाने-माने कवि मुक्तिबोध आपसी बातचीत में अक्सर एक लाइन सवाल की तरह दोहराते रहते थे- पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है?

मुक्तिबोध क्लास पॉलिटिक्स की बात करते थे और उनकी यह लाइन आज भी सवाल के रूप में उछलती रहती है. एक लाइन का यह सवाल भारतीय समाज और राजनीति में आज भी उतना ही प्रासंगिक है.

अरविंद केजरीवाल का एक वीडियो क्लिप आए दिन शेयर होता रहता है. इस वीडियो में अरविंद कह रहे हैं, ''जब बाबरी मस्जिद का ध्वंस हुआ तो मैंने नानी से पूछा कि नानी अब तो तुम बहुत ख़ुश होगी? अब तो आपके भगवान राम का मंदिर बनेगा. नानी ने जवाब दिया कि नहीं बेटा मेरा राम किसी की मस्जिद तोड़कर ऐसे किसी मंदिर में नहीं बस सकता.''

केजरीवाल ने 2014 में अपनी नानी की यह कहानी सुनाई थी.

लेकिन इसी साल 11 मई को गुजरात के राजकोट में अरविंद केजरीवाल ने अपनी नानी के उलट एक बूढ़ी अम्मा की कहानी सुनाई. इस कहानी में केजरीवाल बताते हैं, ''एक बूढ़ी अम्मा आईं. आकर धीरे से मेरे कान में कहा, बेटा अयोध्या के बारे में सुना है?"

मैंने कहा, "अयोध्या जानता हूँ अम्मा. वही अयोध्या न जहाँ भगवान राम का जन्म हुआ था?" वो बोलीं, "हाँ, वही अयोध्या. कभी गए हो वहाँ पर?" मैंने कहा, "हाँ गया हूँ. राम जन्मभूमि जाकर बहुत सुकून मिलता है." वो बोलीं, "मैं बहुत ग़रीब हूँ. गुजरात के एक गाँव में रहती हूँ. मेरा बहुत मन है अयोध्या जाने का."

मैंने कहा, "अम्मा आपको अयोध्या ज़रूर भेजेंगे. एसी (एयर कंडीशनर) ट्रेन से भेजेंगे. एसी होटल में ठहराएंगे. गुजरात की एक बुज़ुर्ग और माताजी को हम अयोध्या में रामचंद्रजी के दर्शन कराएंगे. अम्मा एक ही विनती है. भगवान से प्रार्थना करो कि गुजरात में आम आदमी पार्टी की सरकार बने."

जब केजरीवाल ने नानी की कहानी सुनाई तब आम आदमी पार्टी कच्ची उम्र में थी और इस साल मई महीने में बूढ़ी अम्मा की कहानी सुनाई तो समय से पहले वयस्क हो चुकी थी.

केजरीवाल का राम प्रेम
अरविंद केजरीवाल ने शायद अपनी नानी की बात नहीं मानी. वह पिछले साल ही अयोध्या गए और रामलला का दर्शन किया. केजरीवाल न केवल ख़ुद अयोध्या में जाकर रामलला का दर्शन कर रहे हैं, बल्कि हिन्दुओं के बीच चुनावी वादा भी कर रहे हैं कि वह बुज़ुर्गों को सरकारी ख़र्च पर अयोध्या ले जाएंगे.

नवंबर 2019 में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली पाँच जजों की बेंच ने सर्वसम्मति से फ़ैसला मंदिर के पक्ष में तो सुनाया, लेकिन साथ में यह भी कहा कि बाबरी मस्जिद तोड़ना एक अवैध कृत्य था. सुप्रीम कोर्ट के इस फ़ैसले पर काफ़ी सवाल भी उठे थे.

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस गांगुली उन पहले लोगों में थे जिन्होंने अयोध्या फ़ैसले पर कई सवाल खड़े किए थे. जस्टिस गांगुली का मुख्य सवाल था कि सुप्रीम कोर्ट ने जिस आधार पर हिन्दू पक्ष को विवादित ज़मीन देने का फ़ैसला किया है, वो उनकी समझ से परे है.

केजरीवाल ख़ुद को राम भक्त बताने के अलावा आंबेडकर के सिद्धांतों पर भी चलने का दावा करते हैं. लेकिन हाल की घटना से उनके आंबेडकर प्रेम पर सवाल उठ रहे हैं.

राजेंद्र पाल गौतम अरविंद केजरीवाल की कैबिनेट का दलित चेहरा थे. वह बौद्ध हैं. उत्तर-पूर्वी दिल्ली की सीमापुरी रिज़र्व सीट से वह दूसरी बार विधायक चुने गए हैं. वह ख़ुद को आंबेडकरवादी बताते हैं.

अरविंद केजरीवाल ने 2017 में राजेंद्र पाल गौतम को अपनी कैबिनेट में शामिल किया था.

गौतम की एंट्री को भी उसी रूप में देखा गया जैसे शीला दीक्षित और बीजेपी की सरकारों में प्रतीक के तौर पर दलित चेहरे रखे जाते थे. पाँच अक्तूबर को राजेंद्र पाल गौतम दिल्ली में एक कार्यक्रम में मौजूद थे, जहाँ सैकड़ों हिन्दू बौध धर्म अपना रहे थे. राजेंद्र पाल गौतम कार्यक्रम में मंच पर थे.

राजेंद्र पाल गौतम का कहना है कि वह सालों से इस कार्यक्रम में शामिल होते रहे हैं. यहाँ बौद्ध धर्म स्वीकार करने वाले लोग वही संकल्प दोहराते हैं, जो भीम राव आंबेडकर ने हिन्दू धर्म छोड़ बौद्ध धर्म अपनाने के दौरान लिया था.

आंबेडकर जब बौद्ध बने
अक्तूबर 1956 में बीआर आंबेडकर ने हिन्दू धर्म छोड़ बौद्ध धर्म अपना लिया था. पाँच अक्तूबर को राजेंद्र पाल जिस मंच पर थे उससे शपथ दिलवाई गई थी कि हिन्दू देवी-देवताओं की पूजा नहीं करनी है.

इसी शपथ को लेकर बीजेपी के नेताओं ने केजरीवाल को घेरना शुरू किया. बीजेपी ने आम आदमी पार्टी को हिन्दू विरोधी बताया. मोदी सरकार में किरेन रिजिजू एकमात्र बौद्ध मंत्री हैं और उन्होंने भी इस वाक़ये को लेकर सोशल मीडिया पर मोर्चा खोल दिया कि केजरीवाल हिन्दुओं से इतनी नफ़रत क्यों करते हैं.

इस मामले में अरविंद केजरीवाल फँसे हुए लग रहे थे. राजेंद्र पाल गौतम ने बयान जारी किया कि वह किसी भी धर्म के अराध्य का अपमान नहीं करते हैं.

लेकिन बात यहीं तक नहीं रुकी. नौ अक्तूबर की शाम राजेंद्र पाल गौतम ने ट्विटर पर केजरीवाल कैबिनेट से इस्तीफ़े की घोषणा कर दी. गौतम ने लिखा है, ''मैं नहीं चाहता कि मेरी वजह से अरविंद केजरीवाल जी और मेरी पार्टी पर किसी तरह की आँच आए.''

अपने इस्तीफ़े में राजेंद्र पाल गौतम ने स्वीकार किया है कि वह पाँच अक्तूबर को विजयादशमी के मौक़े पर दिल्ली में रानी झांसी रोड पर स्थित आंबेडकर भवन में जय भीम बुद्धिस्ट सोसायटी ऑफ़ इंडिया की ओर से आयोजित बौद्ध धम्म दीक्षा समारोह में शामिल हुए थे.

राजेंद्र पाल गौतम ने लिखा है, ''इसी कार्यक्रम में बाबा साहब के प्रपौत्र राजरत्न आंबेडकर ने बीआर आंबेडकर के 22 संकल्प दोहराए थे और उन्होंने भी 10 हज़ार लोगों के साथ यह शपथ दोहराई थी. इसी शपथ में हिन्दू देवी-देवताओं की पूजा नहीं करने की बात है.''

15 अक्तूबर, 1956 को बीआर आंबेडकर के सामने हज़ारों की भीड़ खड़ी थी और उन्होंने लोगों को ये 22 शपथ दिलवाई थी-

इन 22 शपथ को लेकर राजेंद्र पाल गौतम के मामले में आम आदमी पार्टी की स्थिति जटिल हो गई थी. यह एक तरह हिन्दू पहचान को चुनौती थी और दूसरी तरफ़ दलितों के उभार का मामला था. केजरीवाल के लिए दोनों को ख़ारिज कर देना आसान नहीं था.

राजेंद्र पाल गौतम जब मंत्री के तौर पर धर्मांतरण कार्यक्रम में शामिल हुए तो हिन्दूवादी केजरीवाल को घेर रहे थे और जब उन्होंने इस्तीफ़ा दे दिया तब भी सवाल उठ रहा है. इस्तीफ़े के बाद सवाल उठ रहा है कि केजरीवाल ने हिन्दुत्व की राजनीति के सामने आंबेडकरवाद को कोने में रख दिया.

पंजाब यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान के प्रोफ़ेसर आशुतोष कुमार कहते हैं, ''केजरीवाल को आंबेडकर से कोई प्रेम नहीं है. पंजाब में उन्हें सत्ता में आना था और वहां दलितों की आबादी 32 फ़ीसदी है. इसीलिए केजरीवाल ने आंबेडकर को लेकर प्रेम जताया. राजेंद्र गौतम के मामले में उनका आंबेडकरवाद एक्सपोज हो चुका है. केजरीवाल के पंजाब पैकेज में भगत सिंह और आंबेडकर थे.

इसी के तहत उन्होंने दोनों की तस्वीर सरकारी दफ़्तरों में टिका दी है. अब उन्हें पता है कि पंजाब के बाहर भगत सिंह और आंबेडकर से काम चलेगा नहीं. इसीलिए गुजरात में ख़ुद को कट्टर हनुमान भक्त कह रहे हैं. केजरीवाल मध्य वर्ग की राजनीति करते हैं और मध्य वर्ग राइट विंग के साथ है. हम कहते हैं कि पॉलिटिक्स इज़ आर्ट ऑफ़ कंट्राडिक्शन और केजरीवाल भी यही राजनीति कर रहे हैं. केवल केजरीवाल ही नहीं बल्कि भारत की लगभग सभी राजनीतिक पार्टियाँ.''

बीआर आंबेडकर के प्रपौत्र प्रकाश आंबेडकर कहते हैं, ''केजरीवाल से हम उम्मीद नहीं करते हैं कि वह बाबा साहब के सिद्धांतों पर चलेंगे. लेकिन राजेंद्र पाल गौतम के मामले में वह संविधान का भी पालन करते तो उनका इस्तीफ़ा नहीं लेते. संविधान में लिखा है कि आप किसी भी धर्म को छोड़ सकते हैं और किसी भी धर्म को अपना सकते हैं.

केजरीवाल वैदिक हिन्दू धर्म की वर्णाश्रम व्यवस्था को मानते हैं और उनसे हम उम्मीद नहीं कर सकते कि वह बाबा साहब की बताए राह पर चलें. केजरीवाल शुरू में आरक्षण का भी विरोध करते थे. दलित और आदिवासी वर्णाश्रम व्यवस्था का हिस्सा नहीं हैं और केजरीवाल इन्हें लंबे समय तक गुमराह नहीं कर सकते हैं.''

प्रकाश आंबेडकर कहते हैं, ''केजरीवाल ने झाड़ू चुनाव चिह्न जान-बूझ कर चुना था. झाड़ू का संबंध वाल्मीकि समाज से रहा है. साफ़ सफ़ाई के काम में वाल्मीकि समाज शुरू से रहा है. लेकिन केजरीवाल ने झाड़ू की गरिमा नहीं समझी.''

दरअसल, अरविंद केजरीवाल राम और बीआर आंबेडकर दोनों की राजनीति पर दावा करते हैं. आठ अक्तूबर को अरविंद केजरीवाल ने गुजरात में एक चुनावी रैली को संबोधित करते हुए कहा था, ''मैं हनुमान जी का कट्टर भक्त हूँ. कंस की औलादें मेरे ख़िलाफ़ एकजुट हैं. मेरा जन्म जन्माष्टमी के दिन हुआ था. मुझे भगवान ने कंस की औलादों को ख़त्म करने के लिए स्पेशल काम देकर भेजा है.''

पंजाब में दलित
दिल्ली विधानसभा में 2021 के बज़ट सेशन में अरविंद केजरीवाल ने कहा था कि वह दिल्ली में राम राज्य लाने के लिए काम कर रहे हैं.

केजरीवाल ने कहा था, ''भगवान राम अयोध्या के राजा थे. भगवान राम के शासन में जनता संतुष्ट थी क्योंकि सारी बुनियादी सुविधाएं लोगों की पहुँच में थीं. हम इसे ही राम राज्य कहते हैं. हम दिल्ली में भी यह राम राज्य लाना चाहते हैं.''

केजरीवाल ने दिल्ली के मंदिर में राम की 30 फ़ुट ऊंची मूर्ति बनाने को उलपब्धि के तौर पर गिनाया था.

केजरीवाल ने 2021 के बजट में अपनी सरकार की ओर से बीआर आंबेडकर के सम्मान में कार्यक्रम आयोजित करने के लिए 10 करोड़ रुपए का आवंटन किया था.

इसी साल जनवरी महीने में पंजाब में चुनाव अभियान के दौरान केजरीवाल ने वादा किया था कि उनकी पार्टी सरकार में आई तो सभी सरकारी दफ़्तरों में केवल आंबेडकर और भगत सिंह की तस्वीर लगाएगी.

आम आदमी पार्टी सत्ता में आई और वहाँ के सरकारी दफ़्तरों में ऐसा ही किया गया. केजरीवाल ने दिल्ली के सचिवालय में भी ऐसा ही किया है.

इसी साल फ़रवरी महीने में दिल्ली सरकार ने दो हफ़्ते तक दिन में दो बार आंबेडकर के जीवन पर म्यूज़िकल इवेंट का आयोजन करवाया था. आप प्रमुख अरविंद केजरीवाल ने अपने कई भाषणों में कहा है कि वह बाबा साहब के सपनों को पूरा करने के लिए काम कर रहे हैं.

2011 की जनगणना के अनुसार, पंजाब में दलितों की आबादी 31.9 प्रतिशत है. इनमें से 19.4 फ़ीसदी दलित सिख हैं और 12.4 प्रतिशत दलित हिन्दू हैं. पंजाब में कुल 34 सीटें अनुसूचित जातियों के लिए रिज़र्व हैं.

इस साल हुए विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी को अनुसूचित जातियों के लिए सुरक्षित 34 सीटों में से 29 पर जीत मिली थी. यानी पंजाब में आम आदमी पार्टी को अनुसूचित जाति के लिए रिज़र्व 85 फ़ीसदी सीटों पर जीत मिली थी. भारत में पंजाब वैसा राज्य है, जहाँ अनुसूचित जातियों की तादाद सबसे ज़्यादा है.

दिल्ली में कुल 1.2 करोड़ मतदाताओं में दलित मतदाता 20 प्रतिशत हैं. दलितों में जाटव, वाल्मीकि और दूसरी उपजातियां हैं. दिल्ली में अनुसूचित जातियों की कुल 12 सीटें रिज़र्व हैं और पिछले विधानसभा चुनाव में सभी रिज़र्व सीटों पर आम आदमी पार्टी को जीत मिली थी.

2013 के पहले बहुजन समाज पार्टी भी दिल्ली में अपनी मौजूदगी दर्ज कराती थी, लेकिन केजरीवाल के उभार के बाद बीएसपी दिल्ली से ख़त्म हो चुकी है. दलितों के बीच बीआर आंबेडकर की प्रतिष्ठा केजरीवाल बख़ूबी समझते हैं और उत्तर भारत में मायावती के बाद यह चुनावी मैदान ख़ाली है.

2012 में आम आदमी पार्टी अन्ना हज़ारे के नेतृत्व वाले भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से निकली थी. आम आदमी पार्टी नवउदारवादी आर्थिक व्यवस्था स्थापित होने के बाद बनी है.

सिविल राइट एक्टिविस्ट आनंद तेलतुंबड़े ने आम आदमी पार्टी के बनने के दो साल बाद यानी 2014 में इकनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली में लिखा था, ''आम आदमी पार्टी नव उदारवादी व्यवस्था में बनी पार्टी का सबसे अच्छा उदाहरण है. इसके साथ ही यह पार्टी इस बात की भी मिसाल है कि राजनीतिक पतन के दौर में मध्य वर्ग में तेज़ी से जगह बनाती गई.

आप की वेबसाइट पर कहा गया है कि यह पार्टी विचारधारा केंद्रित नहीं बल्कि समाधान मुहैया कराने पर ज़ोर देती है. केजरीवाल ने विचारधारा के सवाल पर अपने जवाब में चीन को आर्थिक ताक़त बनाने में अहम भूमिका निभाने वाले देंग शियाओपिंग के एक उद्धरण का उल्लेख किया था. देंग शियाओपिंग ने कहा था, ''बिल्ली जब तक चूहा पकड़ती है तब तक यह मायने नहीं रखता है कि वह काली है या सफ़ेद.''

प्रोफ़ेसर आशुतोष कुमार कहते हैं, ''अन्ना आंदोलन गांधीवादी तरीक़े से ज़मीन पर उतरा था. अनशन और सत्याग्रह को आंदोलन का हथियार बनाया गया. मंच पर गांधी की बड़ी तस्वीर लगी रहती थी. लेकिन सत्ता मिलते ही सबसे पहले केजरीवाल ने गांधी को छोड़ा. केजरीवाल को पता है कि गांधी से कोई वोट बैंक नहीं सधने वाला है. इस मामले में आंबेडकर उनके काम आ सकते हैं.

दलितों के बीच आंबेडकर भगवान की तरह हैं. गांधी और नेहरू को आप गाली दे सकते हैं. बीजेपी के लोग तो सार्वजनिक रूप से देते हैं, लेकिन आंबेडकर के साथ ऐसा नहीं कर सकते. अभी भारतीय राजनीति में वोट आंबेडकर की पूजा और गांधी नेहरू को गाली देने से मिलता है. ज़ाहिर है केजरीवाल भी वोट बैंक की ही राजनीति कर रहे हैं."

भारत की हर राजनीतिक पार्टियों का अतीत विरोधाभासों से भरा हुआ है. भारत के राजनेताओं के आचरण में भी ये विरोधाभास रचे-बसे हैं. आम आदमी पार्टी 2012 में इन्हीं विरोधाभासों के ख़िलाफ़ बनी थी, लेकिन जानकारों के मुताबिक़ ख़ुद भी इसकी चपेट में आ गई.

आम आदमी पार्टी दिल्ली में काफ़ी तेज़ी से लोकप्रिय हुई थी. नवंबर 2012 में आम आदमी पार्टी बनी और दिसंबर, 2013 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में 70 में से 28 सीटों पर जीत मिली. इस चुनाव में कांग्रेस महज़ आठ सीटों पर सिमट गई थी.

अरविंद केजरीवाल ने अपने बच्चों की क़समें खाई थीं कि वह बीजेपी और कांग्रेस से साथ कभी गठबंधन नहीं करेंगे. लेकिन वह 2013 में कांग्रेस के समर्थन से मुख्यमंत्री बन गए.

केजरीवाल के सत्ता में आने की शुरुआत ही अपने कहे से पलटने के साथ हुई. फ़रवरी 2015 में दिल्ली में फिर से विधानसभा चुनाव हुआ और आम आदमी पार्टी ने बीजेपी, कांग्रेस का सूपड़ा साफ़ कर दिया. आप को 70 में से 67 सीटों पर जीत मिली. अरविंद केजरीवाल प्रचंड बहुमत के साथ दिल्ली के मुख्यमंत्री बने.

इन पाँच सालों में केजरीवाल अन्ना आंदोलन में बनाई अपनी छवि से मुक्त होते रहे. 2020 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में केजरीवाल ने फिर से 70 में से 62 सीटों पर जीत दर्ज की और वह तीसरी बार दिल्ली के मुख्यमंत्री बने.

2022 में पंजाब में विधानसभा चुनाव हुआ और आम आदमी पार्टी ने यहाँ भी बहुमत से सरकार बनाई. अपने दस सालों के इतिहास में आम आदमी पार्टी अन्ना आंदोलन के दौरान गढ़ी गई छवि से पूरी तरह मुक्त हो गई है और भारत के बहुदलीय लोकतंत्र में एक बाक़ी पार्टियों की तरह स्थापित हो चुकी है.

बीजेपी विनायक दामोदर सावरकर के हिन्दुत्व की विचारधारा को मानती है. हिन्दुत्व और हिन्दूइज़्म को सावरकर भी एक नहीं मानते थे.

हिन्दुत्व को आरएसएस और बीजेपी के राजनीतिक दर्शन के रूप में देखा जाता है और हिन्दूइज़्म को हिन्दू धर्म से जोड़कर देखा जाता है. हिन्दुत्व की विचारधारा में हिन्दू राष्ट्रवाद और हिन्दू श्रेष्ठता निहित है जबकि हिन्दूइज़्म को समावेशी माना जाता है.

कनाडा के मैकगिल यूनिवर्सिटी में रेलिजियस स्टडीज़ के प्रोफ़ेसर अरविंद शर्मा कहते हैं कि उदारवादी मानते हैं कि पहले हिन्दूइज़्म आया तब हिन्दुत्व जबकि हिन्दू राष्ट्रवादी मानते हैं कि पहले हिन्दुत्व आया फिर हिन्दूइज़्म.

शर्मा कहते हैं, ''हिन्दू उदारवादी भारत में मुस्लिम शासकों को लेकर सहिष्णु भाव रखते हैं और ब्रिटिश शासन को अत्याचारी बताते हैं. दूसरी ओर हिन्दुत्ववादी इतिहासकार मुस्लिम शासकों को ज़्यादा क्रूर मानते हैं और ब्रिटिश शासन को लेकर बहुत आक्रामक नहीं रहते हैं.''

हालांकि 1995 में सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस जेएस वर्मा की बेंच ने एक फ़ैसला दिया था जिसके बाद चीज़ें और जटिल हो गई थीं. 1995 में जस्टिस वर्मा ने हिन्दुत्व पर अपने फ़ैसले में कहा था कि हिन्दुत्व, हिन्दूइज़्म और भारतीयों की जीवन पद्धति तीनों एक हैं. इनका संकीर्ण हिन्दू धार्मिक कट्टरता से कोई लेना-देना नहीं है.

आंबेडकर न केवल हिन्दुत्व को दुत्कारते थे बल्कि हिन्दूइज़्म पर भी हमलावर रहते थे. आंबेडकर हिन्दू धर्म में जातीय भेदभाव को लेकर बहुत ख़फ़ा रहते थे.

दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास पढ़ाने वाले डॉ. राहुल गोविंद ने इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली में एक पेपर में उनके कार्यों का विश्लेषण करके भारतीय इतिहास पर सावरकर और अंबेडकर के बीच मूलभूत अंतर पर चर्चा की है. गोविंद "क्रांति और प्रतिक्रांति" का हवाला देते हैं, जहां आंबेडकर ने लिखा था, "लोगों के सामाजिक और आध्यात्मिक जीवन पर स्थायी प्रभाव की दृष्टि से, बौद्ध भारत के ब्राह्मणवादी आक्रमण उनके प्रभाव में इतने गहरे रहे हैं कि उनकी तुलना में हिंदू भारत पर मुस्लिम आक्रमणों का प्रभाव वास्तव में सतही रहा है. और क्षणिक". यह सावरकर की भारतीय इतिहास में बौद्ध धर्म और इस्लाम की समझ के विपरीत है. यह सीधे तौर पर आंबेडकर की हिंदू धर्म की मौलिक आलोचना से भी जुड़ा हुआ है, जिसे आंबेडकर 'आक्रमण' के रूप में देखते हैं और जाति को एक धर्मशास्त्रीय आधार देकर समानता और करुणा के बौद्ध आदर्शों को हराते हैं जो तब से हिंदू समाज की एक विशेषता बनी हुई है.

सावरकर अपने हिन्दुत्व में पुण्यभूमि और पितृभूमि की बात करते हैं. पुण्यभूमि से मतलब है कि जिनके मज़हब का जन्म भारत से बाहर हुआ, उनके अनुयायियों की पुण्यभूमि भारत नहीं है.

सावरकर का कहना था कि पुण्यभूमि और पितृभूमि का बँटा होना मुल्क के प्रति प्रेम का भी बँटा होना होता है.

सावरकर का पूरा ज़ोर मध्यकाल में मुस्लिम शासकों को आक्रांता और विध्वंसक दिखाने पर रहा, लेकिन आंबेडकर ने प्राचीन काल में बौद्धों के उभार और उसके विरोध के बीच के टकराव पर ज़्यादा ज़ोर दिया.

आंबेडकर कहते थे कि वह भारत के इतिहास से ख़ुश नहीं हैं क्योंकि भारत में मुसलमानों की जीत पर ज़्यादा ज़ोर दिया गया है.

डॉक्टर राहुल गोविंद ने अपने लेख में आंबेडकर के नोट से उनके उद्धरण का इस्तेमाल किया है.

इसमें आंबेडकर ने कहा था, ''बौद्ध भारत पर ब्राह्मणों के हमले का यहाँ के समाज पर सबसे ज़्यादा असर पड़ा है. इसकी तुलना में हिन्दू भारत में मुसलमानों का हमला कमतर है. इस्लामिक हमले के बाद भी हिन्दूइज़्म बचा रहा, लेकिन बौद्धों पर ब्राह्मणों के हमले के बाद भारत से यह मज़हब ख़त्म हो गया.''

लेख में डॉ. गोविंद भी रेखांकित करते हैं कि आंबेडकर का तर्क है कि मनुस्मृति और गीता दोनों में कर्म की दार्शनिक अवधारणा को जाति के संदर्भ में देखा जाना चाहिए. डॉ गोविंद का तर्क है कि आंबेडकर की व्याख्या, जो तिलक की व्याख्याओं की आलोचनात्मक है, विस्तृत साक्ष्य और समकालीन विद्वता द्वारा समर्थित है.

इतिहासकार और लेखक राजमोहन गांधी कहते हैं कि बीआर आंबेडकर की यह चिंता बिल्कुल वाजिब थी.

वह कहते हैं, ''अगर भारत में बौद्ध धर्म होता तो यहाँ जातीय भेदभाव, विषमता, नाइंसाफ़ी और छुआछूत जैसी बुराइयाँ नहीं होतीं. समाज में इंसाफ़ ज़्यादा होता. लेकिन बौद्ध धर्म को यहाँ से मिटा दिया गया और यह इतिहास की बड़ी घटना थी.''

राजमोहन गांधी कहते हैं, ''अब राजनीति बदल चुकी है. आज की राजनीति का मुख्य मक़सद चुनाव में जीत हासिल करना है. इन्हें जहाँ आंबेडकर की ज़रूरत होगी वहाँ उनकी तस्वीर का इस्तेमाल करेंगे और जहाँ गांधी की ज़रूरत होगी, वहाँ उन्हें लाएंगे. कांग्रेस की राजनीति में आंबेडकर बहुत अनफ़िट नहीं है. नेहरू ने ही उन्हें मंत्री बनाया था. बीजेपी के लिए आंबेडकर बिल्कुल उलट हैं. लेकिन अब इससे बहुत फ़र्क़ नहीं पड़ता है.''

राजमोहन गांधी
राजमोहन गांधी कहते हैं कि बीजेपी सावरकर की विचारधारा पर चलती है और वो आंबेडकर को पोस्टर से ज़्यादा नहीं बर्दाश्त कर सकते हैं.

राजमोहन गांधी कहते हैं, ''नेहरू कैबिनेट से 1951 में बीआर आंबेडकर ने इस्तीफ़ा दिया था. आंबेडकर हिन्दू कोड बिल में देरी नहीं चाहते थे. उन्होंने ही इसे तैयार किया था और नेहरू का पूरा समर्थन था. दूसरी ओर नेहरू पर हिन्दूवादी नेताओं का दबाव था कि इसे पास ना होने दें.

हिन्दू राइट विंग इसे पास नहीं होने देना चाहते थे. ऐसे लोग कांग्रेस में भी थे. बीजेपी को सोचना चाहिए कि आंबेडकर क्यों हिन्दू राष्ट्र का विरोध करते थे. पीएम मोदी ने भी आंबेडकर इस्तीफ़े का मुद्दा उठाया था, लेकिन वह ईमानदारी से देखते तो पता चल जाता कि उनकी विचारधारा के कारण ही इस्तीफ़ा देना पड़ा था.''

राजनीति विरोधाभासों को साधने की कला है. इसीलिए सावरकर की विचारधारा पर चलने वाली बीजेपी भी आंबेडकर की बात करती है और ख़ुद को कट्टर हनुमान भक्त बताने वाले अरविंद केजरीवाल भी.

नेहरू आंबेडकर की विद्वता से परिचित थे, इसलिए उन्होंने विरोधी होने के बावजूद आंबेडकर को क़ानून मंत्री बनाया था. नेहरू के इस ऑफ़र से ख़ुद आंबेडकर भी हैरान थे.

बीजेपी नेता भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने की बात करते हैं, लेकिन आंबेडकर इसके सख़्त ख़िलाफ़ थे.

भारत की आबादी में दलितों की तादाद क़रीब 17 फ़ीसदी है और आंबेडकर इनके लिए भगवान से कम नहीं हैं. वोट सभी राजनीतिक पार्टियों को चाहिए और इस 17 फ़ीसदी आबादी के आइकन की उपेक्षा भला कौन कर सकता है? (bbc.com/hindi)

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