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ट्रैजडी किंग दिलीप कुमार ने जब प्यासा फ़िल्म को ठुकरा दिया...
11-Dec-2022 3:43 PM
ट्रैजडी किंग दिलीप कुमार ने जब प्यासा फ़िल्म को ठुकरा दिया...

-वंदना

बात 1980 के दशक की है जब फ़िल्म 'प्रेम रोग' की शूटिंग चल रही थी. निर्देशक राज कपूर अभिनेता ऋषि कपूर के चेहरे पर एक हारे हुए प्रेमी की मायूसी, उदासी और लाचारगी देखना चाहते थे.

लेकिन बार-बार कोशिश करने पर भी राज कपूर को ऋषि कपूर के चेहरे पर वो भाव नहीं दिख रहे थे.

राज कपूर के सब्र का बाँध टूट गया और पूरी यूनिट के सामने वो ऋषि कपूर पर चिल्ला कर बोले, "मुझे यूसुफ़ चाहिए. चेहरे पर वही दर्द चाहिए जो ऐसा शॉट देते हुए यूसुफ़ की आँखों में होता..वही सच्चाई."

राज कपूर यूसुफ़ ख़ान यानी दिलीप कुमार की बात कर रहे थे. ये किस्सा दिलीप कुमार की आत्मकथा 'दिलीप कुमार- द सब्सटांस एंड द शैडो' में दर्ज है.

ये दर्शाता है कि बतौर अभिनेता दिलीप कुमार अभिनय के किस ऊंचे पायदान पर थे कि राज कपूर जैसा शोमैन अपने बेटे को अपने सबसे बड़े 'प्रतिदंद्वी' की मिसाल देता था.

यूसुफ़ ख़ान, दिलीप कुमार या बासु देव...

100 साल पहले यानी 11 दिसंबर 1922 को मौजूदा पाकिस्तान के पेशावर में जन्मे दिलीप कुमार अपने परिवार के साथ 30 के दशक में बॉम्बे (अब मुंबई) आ गए थे.

बॉम्बे आए तो लड़कपन वाले यूसुफ़ की हसरत दुनिया का बेहतरीन फ़ुटबॉल खिलाड़ी बनने की थी.

लेकिन क़िस्मत उन्हें फ़िल्मी दुनिया में ले आई. यहाँ आते ही एक पठान कारोबारी का 22 साल का शर्मीला बेटा यूसुफ़ दिलीप कुमार बन गया.

1970 मे बीबीसी को दिए इंटरव्यू में दिलीप कुमार ने ख़ुद पर ही चुटकी लेते हुए कहा था, "पिटाई के डर से मैंने ये नाम रखा. मेरा पिता के दोस्त थे बशेश्वरनाथ जिनके बेटे पृथ्वीराज कपूर फ़िल्मों में काम करते थे."

"मेरे पिता अक्सर उनसे शिकायत करते कि 'तुम्हारा बेटा नौजवान है, सेहतमंद है लेकिन नौटंकी में काम करता है. वो फिल्मों के ख़िलाफ़ थे.'

"जब मेरी फ़िल्म रिलीज़ होने वाली थी तो दो-तीन नाम मेरे सामने रखे गए- यूसुफ़, दिलीप कुमार, बासु देव. मैंने कहा कि भई यूसुफ़ मत रखिए बाकी कुछ भी रख दीजिए. दो-तीन महीने बाद जब एक फ़िल्मी इश्तेहार में मैंने अपना नाम देखा तो मालूम हुआ कि अब मेरा नाम दिलीप कुमार है."

कैसे मिला मौका?

अपनी किताब में दिलीप कुमार ने उस दिन का पूरा ब्योरा दिया है जब उन्हें पहला ऑफ़र मिला. 1942 की एक शाम नौकरी की तलाश में यूसुफ़ बॉम्बे के चर्चगेट स्टेशन से दादर जा रहे थे.

तभी उनकी नज़र मनोवैज्ञानिक डॉक्टर मसानी पर पड़ी जो कभी उनके कॉलेज आए थे. वो उन्हें अपने साथ बॉम्बे टॉकीज़ ले गए कि शायद वहाँ कोई काम मिल जाए.

बॉम्बे टॉकीज़ में यूसुफ़ की मुलाक़ात देविका रानी से हुई जिन्होंने सिर्फ़ इतना पूछा, 'उर्दू आती है?' जवाब मिला 'हाँ'.

देविका रानी ने तपाक से कहा, "क्या तुम एक्टर बनोगे. 1250 रुपए मिलेंगे हर महीने. मुझे पढ़े-लिखे, युवा और ख़ूबसूरत एक्टर की तलाश है."

जब 1944 में आई फ़िल्म 'ज्वार भाटा' में देविका रानी ने उन्हें पहला मौका दिया तो किसी ने नहीं सोचा होगा कि एक ऐसा सितारा अपनी शुरुआत कर रहा है जिसे आने वाली पीढ़ियाँ सलाम करेंगी.

कैसे की थी देवदास की तैयारी

दिलीप कुमार उस अदाकारी का चेहरा बने जो सहज और नेचुरल थी. लोग अक्सर कहते हैं कि अपने किरदार में खो जाने का फ़न कोई दिलीप कुमार से सीखे.

1955 में आई 'देवदास' में एक सीन था जहाँ थका हारा और शराब के नशे में धुत्त देवदास आता है और दुखी चंद्रमुखी कहती है, "और मत पियो देवदास".

फ़िल्म के सेट पर वैयजंतीमाला अपने डायलॉग के साथ तैयार थीं पर दिलीप कुमार कहीं नज़र नहीं आ रहे थे.

तब कैमरामैन ने बताया कि दिलीप साहब काफी देर से लगातार सेट के चक्कर लगा रहे हैं.

दिलीप कुमार ने कैमरामैन को तैयार रहने के लिए कहा था ताकि जब उनकी एंट्री हो तो वो वाकई थके हुए लगें और उनके माथे पर पसीने और थकन की असल लकीरें हों.

ये बातें वैजयंतीमाला ने दिलीप कुमार की किताब में साझा की है और लिखा है, "सीन में दिलीप कुमार को इस तरह देखा तो बरबस ही मेरे मुँह से निकला 'और मत पियो देवदास'. वो भाव मेरे चेहरे पर कभी नहीं आता, अगर मेरे सामने दिलीप कुमार इस तरह लड़खड़ाते हुए नहीं खड़े होते."

रोल के लिए सीखा सितार

मेथड एक्टिंग दिलीप कुमार की ख़ूबी थी लेकिन पर्दे पर वो बहुत सहज नज़र आते थे.

'देवदास' जैसी ही तकनीक उन्होंने फ़िल्म 'गंगा जमुना' के उस मुश्किल सीन में अपनाई जहाँ उन्हें गोली लग चुकी होती है और उन्हें लड़खड़ाते हुए गाँव के पुश्तैनी घर में ढेर हो जाना होता है.

1960 में आई फ़िल्म 'कोहिनूर' भी उनकी लगन की मिसाल है. फ़िल्म के गाने 'मधुबन में राधिका नाचे रे' में दिलीप कुमार को सितार बजाना था जो आसान नहीं है.

इधर फ़िल्म की शूटिंग चलती रही उधर दिलीप साहब उस्ताद अब्दुल हलीम जाफ़र ख़ान से तालीम लेते रहे. गाने में जिस महारत से सितार पर दिलीप कुमार की ऊंगलियाँ चलती हैं, वो उसी मेहनत का नतीजा था.

ट्रैजेडी किंग से लेकर एंटी हीरो तक

दिलीप कुमार 'ट्रैजेडी किंग' के नाम से ज़्यादा मशहूर हुए लेकिन उनकी एक्टिंग रेंज ग़ज़ब की थी.

महबूब ख़ान की 1954 में आई फ़िल्म 'अमर' में एंटी हीरो का रोल उन्होंने बख़ूबी निभाया था. एक वकील जिसकी प्रेमिका है लेकिन वो अपने ही घर में काम करने वाली एक औरत का बलात्कार करता है.

इसी तरह ज़िया सरहदी की फ़िल्म 'फ़ुटपाथ' में दिलीप कुमार ने ब्लैक मार्किटियर का रोल किया था.

दोनों ही फ़िल्मों में नैतिक द्वंद्व में फँसे शख़्स की कहानी उन्होंने आँखों और आवाज़ के उतार-चढ़ाव के ज़रिए पेश की जो उनकी ख़ूबी थी.

कैमरे की ओर पीठ करके धीमी आवाज़ में डायलॉग बोलना जहाँ बिना देखे भी आप उनके दिल का हाल समझ जाएँ और अपने दाएँ हाथ के इस्तेमाल वाला उनका स्टाइल काफ़ी मशहूर हुआ.

गायक, लेखक.....

ये बात कम ही लोग जानते हैं कि दिलीप साहब गाते भी थे. बीबीसी को 1970 में दिए इंटरव्यू में उन्होंने ख़ूबसूरत ग़ज़ल सुनाई थी.

1957 में आई फ़िल्म 'मुसाफ़िर' में लता मंगेश्कर के साथ उन्होंने गाना भी गाया.

उर्दू समेत कई ज़बानों पर उनकी पकड़, सधा हुआ अभिनय, सेट, स्क्रिप्ट, निर्देशन से लेकर मेकअप तक पर दिलीप कुमार की महारत, पर्दे पर उनके काम में साफ़ झलकती थी.

दिलीप कुमार की 'गंगा जमुना' और 'मुग़ल-ए-आज़म' लगभग एक साथ शूट हो रही थीं. एक रोल उर्दू बोलने वाले कोमल, शाही राजकुमार का तो दूसरा भोजपुरी बोलने वाला गाँव का डकैत.

'गंगा जमुना' जैसी फ़िल्मों के स्क्रीनप्ले से लेकर, लोकेशन ढूँढना, डायलॉग लिखने तक का काम वो ख़ुद करते थे.

फ़िल्म 'आदमी' का निर्देशन यूँ तो भीम सिंह ने किया था लेकिन फ़िल्म की अभिनेत्री वहीदा रहमान भी कह चुकी हैं कि तकरीबन सारा काम दिलीप कुमार ने ख़ुद किया था.

मनोवैज्ञानिक से मशवरा

एक समय 'ट्रैजडी किंग' का टैग इतना हावी हो गया था कि दिलीप कुमार को फ़िल्म 'प्यासा' के लिए गुरु दत्त का रोल ठुकराना पड़ा था.

ट्रैजिक भूमिकाओं का उनकी निजी ज़िंदगी में इतना असर हुआ कि उन्हें डॉक्टर की सलाह लेनी पड़ी.

बीबीसी को दिए एक इंटरव्यू में उन्होंने बताया था, "ट्रैजडी वाली कहानी का असर देर तक मन पर रहता है. सोचिए कि रोज़ सुबह स्टूडियो आना है और वही रोने-मरने वाला सीन. आपको पता है कि जिसने माँ का रोल किया है वो ज़िंदा है, इनका नाम ललित पवार है, अभी इन्होंने पेट भरके खाना खाया है."

"लेकिन फ़िल्म में आपको उसी माँ के मरने का मातम मनाना है. एक तरह से अपने नर्वस सिस्टम को सज़ा देने वाली बात है, बदनसीबी की मुहर सी लग गई थी."

"मैंने ब्रिटेन जाकर ड्रामा से जुड़े लोगों से बात की, मनोवैज्ञानिक से मशवरा लिया. उन्होंने कहा कि कॉमेडी, एक्शन की फ़िल्में करिए. तब मैंने 'आज़ाद', 'कोहिनूर', 'राम और शाम' जैसी फ़िल्में कीं."

इश्क़ की दास्तां

1966 में दिलीप कुमार ने सायरा बानो से शादी की. उनकी प्रेम कहानी काफ़ी दिलचस्प है.

यूँ तो मधुबाला और दिलीप कुमार में भी गहरा रिश्ता रहा लेकिन 'मुग़ल-ए-आज़म' तक आते-आते ये रिश्ता ख़त्म हो चुका था.

उनसे आख़िरी मुलाक़ात को याद करते हुए दिलीप कुमार ने अपनी किताब में लिखा, "सायरा से निकाह के बाद की बात है. मुधबाला का फ़ोन आया कि वो फ़ौरन मुझसे मिलना चाहती हैं. जब मैं उनसे मिलने गया तो मधु को देखकर बहुत तकलीफ़ हुई. वो काफ़ी बीमार और कमज़ोर थीं."

"मुझे देखकर वो बहुत ख़ुश हुई और बोलीं कि आख़िर हमारे शहज़ादे को उसकी शहज़ादी मिल गई. वो कुछ निजी मामलों में मेरी सलाह चाहती थीं. वो हमारी आख़िरी मुलाक़ात थी. 23 फ़रवरी 1969 को मधु की मौत हो गई."

हालांकि उनकी निजी ज़िंदगी में उस समय खलबली मच गई थी जब 1982 में दिलीप कुमार ने असमा रहमान नाम की एक महिला से शादी कर ली जिसका उन्होंने बाद में अफ़सोस भी जताया.

दूसरी पारी

1976 में सायरा बानो के साथ आई फ़िल्म 'बैराग' के वक़्त वो 54 साल के हो चुके थे. अगले कई कुछ सालों तक उन्होंने फ़िल्मों से दूरी बनाए रखी.

उनकी दूसरी पारी 1981 में आई 'क्रांति' और 1982 में आई 'विधाता' से शुरू हुई जिसके बाद 'कर्मा', 'मशाल', 'शक्ति' और 'सौदागर' जैसी फ़िल्मों में उन्होंने बेहतरीन अभिनय किया.

मुझे फ़िल्म 'मशाल' का वो सीन हमेशा याद रहता है जहाँ एक पत्रकार (दिलीप कुमार), तेज़ बारिश में एक सुनसान सड़क पर आती जाती गाड़ियों को रोकने की कोशिश करता है ताकि दर्द से तड़पती अपनी पत्नी को अस्पताल ले जा सके.

उनकी आवाज़ सीन ख़त्म होने के बाद देर तक कानों में गूँजती रहती है.

1991 में आई 'सौदागर' के समय दिलीपु कमार 69 साल के थे. दोस्ती और दुश्मनी के जज़्बे के बीच झूलते वीर सिंह के रोल में उनकी अदायगी की खनक और ठसक बिल्कुल बरकरार थी.

साथ ही लोगों को 30 साल बाद दिलीप कुमार और राज कुमार को साथ देखने का मौका मिला.

1998 में उन्होंने रेखा के साथ डबल रोल किया. ये फ़िल्म दिलीप कुमार की सल्तनत का आख़िरी क़िला साबित हुई.

अलविदा...

दिलीप कुमार, राज कपूर, अशोक कुमार, महबूब खान, बिमल रॉय, देव आनंद, प्राण और यश चोपड़ा जैसे दिग्गजों के बेहद करीब थे.

दिलीपु कुमार ज़िंदगी के आख़िरी लम्हों में अक्सर अपने इन दोस्तों को याद किया करते थे.

दिलीप-राज-देव की तिकड़ी एक समय हिंदी सिनेमा की जान हुई करती थी.

सोचती हूँ कि अब शायद तीनों दोस्त दूर बैठे कहीं महफ़िल सजा रहें होंगे जिसमें लाइट, कैमरा और एक्शन की बातें होंगी, पंजाबी लतीफ़े होंगे, लज़ीज़ खाना होगा, बॉम्बे, लाहौर,पेशावर की गलियों की महक होगी (bbc.com/hindi)

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