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चावल का सबसे बड़ा निर्यातक होने पर भारत खुश हो या परेशान
11-Aug-2023 5:03 PM
चावल का सबसे बड़ा निर्यातक होने पर भारत खुश हो या परेशान

अगर भारत अपने कृषि निर्यातों को सीमित करता है तो दुनिया में बड़ा खाद्यान्न संकट खड़ा हो सकता है, वहीं अगर वह इसी तरह इन फसलों का उत्पादन जारी रखता है तो देश के अंदर बड़ा भूजल संकट खड़ा हो सकता है.

   डॉयचे वैले पर अविनाश द्विवेदी की रिपोर्ट

भारत दुनिया में चावल का सबसे बड़ा निर्यातक है. आजादी के तुरंत बाद के दौर में देश खाद्यान्न के मामले में काफी गरीब रहा था. हालांकि आज अपने बड़े निर्यातक के दर्जे पर काफी गर्व करता है. बदलती सच्चाईयों के बीच, यह गर्व नहीं चिंता की बात लगने लगी है. इसकी मुख्य वजह है, पानी. पानी, जो चावल यानी धान की खेती में बहुत ज्यादा मात्रा में चाहिए होता है.

चावल या ऐसी ही अन्य फसलों में, उन फसलों की शक्ल में छिपकर असल में देश का भूजल निर्यात हो रहा होता है. पानी के इस छिपे हुए निर्यात को ‘वर्चुअल वाटर एक्सपोर्ट‘ कहा जाता है. भूजल के मामले में पहले से ही गरीब भारत से यह वर्चुअल वाटर एक्सपोर्ट लगातार जारी है.

भारत से उलट दुनिया की राह

साल 2021 को छोड़ दें तो साल 2017 के बाद से लगातार चीन ने चावल के उत्पादन में कमी की है. मिस्र खेती के अपने स्रोतों का पूरा इस्तेमाल नहीं करता और अपने खाद्य उत्पादन का करीब 40 फीसदी आयात करता है. हाल ही में थाईलैंड ने अपने किसानों से चावल के बजाए, पानी के कम इस्तेमाल वाली फसलों की खेती करने को कहा है.

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दूसरी तरफ बीच के दो एक सालों को छोड़ दें तो भारत से चावल का निर्यात 2016 के बाद से लगातार बढ़ा है. बल्कि 2016 से तुलना करें तो 2022 में यह दोगुना हो गया था. इस मामले में बारीकी से देखें तो भारत सिर्फ चावल नहीं बल्कि चावल उगाने में भारी मात्रा में इस्तेमाल होने वाले भूजल का भी निर्यात कर रहा है. और यह संकट लगातार बढ़ रहा है.

भारत में पानी की गरीबी

इसकी वजह है गेहूं और चावल जैसी फसलों के बड़े निर्यातक, भारत की इन फसलों की खेती के लिए भूजल पर निर्भरता का और बढ़ते जाना. आज भारत सालभर में कुल मीठे पानी का जितना इस्तेमाल करता है, उसका 80 फीसदी सिर्फ खेती में इस्तेमाल होता है. आने वाले वर्षों में अल नीनो, जलवायु परिवर्तन और अत्यधिक भूजल का दोहन समस्या को और गंभीर बनाने वाले हैं.

भारत जलवायु परिवर्तन से सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाले इलाकों में से एक है. भारत जल स्रोतों के मामले में सबसे समृद्ध दुनिया के पांच देशों की लिस्ट से भी बाहर है. वाटर रिसोर्सेज ग्रुप के मुताबिक भारत के पास अपनी जरूरत का सिर्फ 50 फीसदी पानी होगा. यह खतरा अब टाला नहीं जा सकता और खेती पर इसका बहुत बुरा असर होना तय है.

टिकाऊ खेती या घाटा

अनियमित बारिश के बीच किसानों के लिए फसलें उगाने के लिए भूजल ही स्थायी स्रोत होते हैं. कुछ इलाकों में नहरों से सिंचाई के लिए भी पानी उपलब्ध कराया जाता है. लेकिन देश के बहुत से इलाकों में इसकी सुचारु व्यवस्था नहीं है. बिहार के बेतिया और सासाराम जैसे सीमावर्ती जिलों में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं. उत्तर प्रदेश के एटा जिले के किसान बृजेश यादव बताते हैं कि सिंचाई के लिए बारिश के भरोसे भी रहना संभव नहीं होता. ऐसे में वह और इलाके के ज्यादातर किसान ट्यूबवेल से सिंचाई करते हैं. कई बार खरीदे हुए पानी से सिंचाई करनी होती है.

किसान बताते हैं कि खेतों की समुचित सिंचाई सिर्फ समृद्ध किसानों के लिए ही संभव हो पाती है. वंचित जातियों के लोगों के पास जो थोड़े बहुत खेत हैं, वो उनकी सिंचाई का भी प्रबंध नहीं कर पाते. यूपी की सीमा पर स्थित बिहार के कुछ जिलों के किसान बताते हैं कि धान की फसल के लिए कुछ हद तक बारिश पर निर्भर रहना पड़ता है, नहीं तो पूरी तरह से डीजल इंजन से सिंचाई करना इतना महंगा पड़ेगा कि खेती से कमाई के बजाए घाटा होगा.

इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ वाटर मैनेजमेंट में मुख्य वैज्ञानिक डॉ दिलीप कुमार पांडा कहते हैं, "बारिश के अनिश्चित पैटर्न के बीच भूजल से सिंचाई की परंपरा पिछले दो दशकों में ज्यादा बढ़ी है.”

खेती पर निर्भर लोग संकट में

सिंचाई के मामले में सिंचाई के लिए पानी की फिजूलखर्ची भी है. दुनिया भर में सामान्य कृषि उपज के लिए जितना पानी इस्तेमाल होता है, उत्तर प्रदेश में उतनी ही उपज के लिए  दो से तीन गुना पानी इस्तेमाल होता है. इसके अलावा राज्य भारत में ग्रीनहाउस गैसों का सबसे बड़ा उत्सर्जक भी है.

फिर बाढ़ और सूखे का दुष्चक्र भी है, जिससे भारत जैसे विकासशील देशों में गरीब आबादी पर सबसे ज्यादा बुरा असर होता है. भारत में भी 60 फीसदी से ज्यादा आबादी अपने गुजारे के लिए सीधे खेती पर निर्भर होती है. वह इससे सबसे ज्यादा प्रभावित होती है. इसलिए भी भारत के लिए तेजी से जलवायु परिवर्तन के हिसाब से योजनाएं बनाना जरूरी हो जाता है.

सरकारी योजनाएं, ऊंट के मुंह में जीरा

भारत सरकार ने इस दिशा में कुछ कदम उठाए भी हैं. राष्ट्रीय जल मिशन, भूजल प्रबंधन से जुड़े मिशन जैसे, अटल भूजल योजना, और जिम्मेदार ढंग से पानी के इस्तेमाल को प्रोत्साहित करने वाली योजना जैसे प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना. कई प्राइवेट बिजनेस को भी पानी के जिम्मेदारी के साथ इस्तेमाल के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है. ईएसजी जैसे मानक इसी क्रम में पालन किए जा रहे हैं. जिनमें किसी बिजनेस की पर्यावरण के प्रति जिम्मेदारी का आकलन किया जाता है. हालांकि इतना सब काफी नहीं है.

जानकार मानते हैं कि खेती के पारंपरिक तरीकों पर निर्भरता बढ़ाना और गेहूं, चावल, गन्ने जैसी अधिक पानी के इस्तेमाल वाली फसलों के बजाए पारंपरिक अनाजों और सब्जियों को खेती को बढ़ावा भी एक उपाय हो सकता है.

निर्यात नहीं, असल समस्या चावल

डॉ दिलीप कुमार पांडा कहते हैं, "असल समस्या चावल का निर्यात नहीं बल्कि चावल खुद है. भारत के अंदर भी खाद्यान्न के तौर पर उसे बढ़ावा दिया जा रहा. भारत में बहुत से ऐसे राज्य हैं, जहां राजनीतिक दल जीत के बाद मुफ्त चावल देने का वादा करते हैं. ऐसे वादे से भी चावल का उत्पादन प्रोत्साहित होता है.”

डॉ पांडा के मुताबिक ऐसे में चावल के विकल्प के तौर पर अन्य अनाजों को प्रोत्साहित करने की योजना एक अच्छा कदम हो सकती है. उड़ीसा जैसे कुछ राज्यों ने पहले ही इस दिशा में प्रयास किए हैं.

मार्केट भी इसके लिए बदले

इसके लिए प्राइवेट कंपनियों को भी किसानों से की जाने वाली खाद्य उत्पादों की मांग में बदलाव लाने होंगे और अपने उत्पादों को उसी हिसाब से बदलना होगा. इस प्रक्रिया में जब तक किसी फसल को उगाना किसानों के लिए फायदेमंद नहीं होगा, वो उसे उगाने के लिए आकर्षित नहीं होंगे.

साथ ही देश के कुछ इलाकों में टिकाऊ खेती के जो प्रयोग सफल रहे हैं, उन्हें बड़े इलाके में लागू करने की योजना भी होनी चाहिए. मनरेगा स्कीम इसमें काम आ सकती है. (dw.com)

 

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