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-अपूर्व गर्ग
बंगाली दुर्गा पूजा में जब भोग बँटता है तो कतार लग जाती है. प्रसाद के तौर के अलावा लोग इसके स्वाद के भी दीवाने होते हैं .
ये भोग खिचड़ी का होता है . मेरे एक मित्र जो वेज खाने के शौक़ीन नहीं हैं वो सिर्फ़ प्रसाद के तौर पर लाइन में लगते हैं तो कई ऐसे हैं जो इसके स्वाद के भी दीवाने हैं .
शायद हज़ारों लोगों के लिए जिस ढंग से बनती है वो स्वाद घर की खिचड़ी के स्वाद से कहीं अलग होता है .
पूजा का माहौल ही अलग होता है . भोग खिचड़ी खाते -मिलते लोग जिस तरह 'घी -खिचड़ी' होते हैं , उसकी बात ही क्या .
हमारी एक ऑन्टी ऐसी शानदार खिचड़ी बनाती थीं कि मसाले और घी की महक़ के बाद लोग सीधे खाने को उतावले हो जाते .
देर होती तो सब चीखते क्या बीरबल की खिचड़ी पक रही और बनते ही जब लोग टूटते तो वो उस कहावत की याद
दिलातीं 'खीरां आई खिचड़ी अर टिल्लो आयो टच्च यानि जब खिचड़ी पक गयी तो टिल्ला खाने के लिए झट से आ गया '
ख़ैर , खिचड़ी को लेकर बहुत बातें हैं , कहावतें हैं , विप्लव है ..बल्कि 'खिचड़ी विप्लव ' का इतिहास ही है !
वैसे बाबा नागार्जुन जब हमारे घर आये थे उससे पहले उनका 'खिचड़ी विप्लव देखा मैंने ' आ चुका था , उन्हें जो पसंद था , वो खिलाया वो खिचड़ी नहीं थी ..
कुछ खिचड़ी नापसंद भी होते हैं . खिचड़ी नाम सुनते ही उनका मुँह करेले सा हो जाता है और गला अंदर तक नीम .
सुनिए , राहुल सांकृत्यायन को खिचड़ी बचपन से ही पसंद न थी . बाल्यावस्था के बाद जब भी राहुल जी घर छोड़ कर
भागे तो शायद नापसंदगी के बावजूद खिचड़ी भी उनके साथ -साथ चलती रही .
जब वे हरिद्वार से सीधे बद्रीनाथ के रास्ते पर थे तो थक जाने पर उनके बचपन केसाठी यागेश कहते -'' भैया बना न लें .'' राहुल जी कहते सुनते ही मेरे तन -बदन में आग लग जाती .बालपन के शत्रुभोजनों में खिचड़ी का स्थान अभी ज्यों का त्यों था और वे यागेश को डाँट देते .कहते ' यागेश मुझे चिढ़ाने के लिए वैसा नहीं कहते हैं .खिचड़ी बनने में कम मेहनत और जल्दी होती है -इसी ख्याल से उनका यह प्रस्ताव होता ..'
ऐसे ही राहुल जी जब दक्षिण में तिरुमीशी के मठ में थे उनसे रात को कहा गया 'चलो ,गोष्ठी में , पुंगल प्रसाद ग्रहण करने .
राहुल जी लिखते हैं -'' गोष्ठी से तो मैंने अंदाज़ लगा लिया - कई आदमियों का एक जगह एकत्रित होना . किन्तु पुंगल सुनकर मुझे ख़्याल आया कोई महार्घ पकवान होगा ...
खिड़की झरोखा न रहने के कारण दिन में भी अँधेरा रहता था ...मधुर स्वर में कोई मुरली बजा रहा था . पुजारी पीतल के बर्तनों से निकाल -निकाल कर हाथ में चार -पांच आंवले के बराबर कोई चीज डालता जा रहा था .....मेरे हाथ में भी 'पुंगल' पड़ा . बड़े उत्साह के साथ मुँह में डाला , देखा तो खिचड़ी -हाँ वही खिचड़ी जिस खिचड़ी के खाने की बात कहने पर यागेश को कितनी ही बार बात सुननी पड़ती थी.
मैंने धीरे से हरिनारायणचारी की ओर घूम कर कहा -'खिचड़ी ! यही पुंगल !!!वहां से लौटते वक़्त हरिनारायण जी ने एक घटना सुनाई -
'बलिया जिले के नए बने दो अचारी बाप-बेटे तीरथ करने दक्षिणापथ आये .
इसी तरह गोष्ठी में वो भी बड़े उत्साह के साथ पुंगलप्रसाद के लिए बैठे . आपकी तरह हाथ के पुंगल को मुँह में डाला , तो लड़का चिल्ला उठा -'अरे खिचड़ी है ,हे बाबूजी , ससुर ने पुंगल कह के जाति ले ली .''