मनोरंजन

फ़िल्म एनिमल: मारधाड़ वाला मनोरंजन या औरतों के लिए ख़तरनाक 'अल्फ़ा' मर्द?
06-Dec-2023 4:34 PM
फ़िल्म एनिमल: मारधाड़ वाला मनोरंजन या औरतों के लिए ख़तरनाक 'अल्फ़ा' मर्द?

नासिरुद्दीन

इन दिनों प्रदर्शित फ़िल्म एनिमल का शोर चारों तरफ़ है. इस फ़िल्म के निर्देशक संदीप वेंगा रेड्डी हैं जबकि मुख्य कलाकार रणबीर कपूर, रश्मिका मंदाना, अनिल कपूर और बॉबी देओल हैं.

यह दावा भी किया जा रहा है कि फ़िल्म हिट है, ख़ूब क़माई कर रही है. व्यापार के पैमाने पर कामयाबी का पैमाना तो क़माई ही होता है.

लेकिन यह जानना दिलचस्प है कि यह क़माई किस तरह की फ़िल्म बनाकर की जा रही है? फ़िल्म में ख़ामोशी से क्या बताने की कोशिश की जा रही है?

यह फ़िल्म विचार के स्तर पर ख़तरनाक दिखती है. यह कहीं से महज़ मनोरंजन नहीं है. यह सामाजिक स्तर पर ख़तरनाक है. यह पूर्वग्रहों को मज़बूत करती है.

यह आधुनिक स्त्रियों की कहानी है लेकिन उनकी ज़िंदगी पर नियंत्रण उनका नहीं है. मुसलमानों की ख़ास बनी-बनाई छवि पेश करती है. सबसे बढ़कर वह हिंसक, दबंग, धौंसवाली मर्दानगी को बढ़ावा देती है.

हिंसा और ख़ून का ख़तरनाक मायाजाल

इस फ़िल्म के केन्द्र में बदला और हिंसा है. छोटी-मोटी हिंसा नहीं. यही इसका प्रभावी स्वर है. बड़े पर्दे पर गोलियाँ ही गोलियाँ और चारों तरफ़ ख़ून ही ख़ून हिंसा का मायाजाल रचती है.

हिंसा का वीभत्स से वीभत्स रूप देखने को मिलता है. क्रूरतम व्यवहार दिखता है. हत्याओं के भयानक तरीक़े देखने को मिलते हैं. यह सब कोई विलेन ही नहीं कर रहा होता है. यह हीरो करता है.

जो काम हीरो करता है, वह उसकी ख़ूबी या ख़ासियत होती है. कई बार वह बाहरी दुनिया में इंसान के व्यवहार का पैमाना भी बनाता है.

तब सहज सवाल उठता है कि हिंसा दिखाई क्यों जा रही है? फ़िल्म में हिंसा का महिमा मंडन है या उससे सबक लेने की कोई कोशिश दिखती है?

इस फ़िल्म में ऐसा कुछ नहीं दिखता है. बल्कि वह तो हिंसा को ही समाधान बनाकर पेश करती है. इस लिहाज़ से यह हिंसा, किसी भी सूरत में नाक़ाबिले बर्दाश्त होनी चाहिए.

मगर दर्शक उस हिंसा और ख़ून में शामिल हो जाता है. वह उस हिंसा और चेहरे पर बिखरे ख़ून का मज़ा लेता है.

अल्फ़ा मर्द की रचना

फ़िल्म की बुनियाद एक शब्द है- अल्फ़ा मर्द! यह अल्फ़ा मर्द क्या होता है?

फ़िल्म में रणबीर कपूर रश्मिका को बताते हैं कि सदियों पहले अल्फ़ा मर्द कैसे होते थे- स्ट्राँग बंदे! मर्द बंदे! जंगलों में घुसकर शिकार कर लाते थे. वह शिकार बाक़ी सब में बँटता था.

हीरो हीरोइन को बताता है, महिलाएँ खाना बनाती थीं. बच्चों और बाक़ी सबको खिलाती थीं.

वे सिर्फ खाना ही नहीं पकाती थीं बल्कि वे यह भी तय करती थीं कि शिकारियों में से कौन मर्द उसके साथ बच्चे पैदा करेगा. कौन उसके साथ रहेगा और कौन उसे प्रोटेक्ट करेगा यानी उसकी हिफ़ाज़त करेगा? समुदाय ऐसे ही चलता था.

हीरो जानकारी देता है कि इसके उलट होते थे कमज़ोर मर्द. ये क्या करते? इनके पास स्त्रियाँ कैसे आतीं?

तो इन्होंने कविता करनी शुरू कर दी. ये स्त्रियों को रिझाने के लिए कविताओं में चाँद-तारे तोड़ कर लाते थे. समाज के लिए जो करते हैं, वे अल्फ़ा मर्द ही करते हैं. कमज़ोर मर्द कविताई करते हैं.

यही नहीं, उसके मुताबिक शारीरिक रूप से कम ताक़तवर लोग समाज के लिए बेकार है. उनका कोई उपयोग नहीं है.

इसलिए समाज में ऐसे ही लोग पैदा होने चाहिए जो ताक़तवर हैं. यह विचार अपने आप में ख़तरनाक है.

एक जगह हीरोइन को देख कर हीरो अंग्रेज़ी में बोलता है, ''तुम्हारा पिछला हिस्सा बड़ा है. तुम अपने शरीर में स्वस्थ शिशुओं को पाल सकती हो.''

हीरोइन की मंगनी एक युवक से तय हो चुकी है. उसका इशारा है कि उसका मंगेतर एक कमज़ोर कविताई करने वाला मर्द है. दूसरी ओर, वह वह अल्फ़ा मर्द है.

उसे उसकी तरफ़ आना चाहिए. वह बाद में उसकी तरफ़ आती भी है और शादी भी करती है.

यह अल्फ़ा मर्द स्त्रियों को क्या बता रहा है?

सदियों पुरानी बातें आज की स्त्री को क्यों बताई जा रही है? मर्द उसे क्यों बता रहा है कि उसे कैसे पुरुष के साथ रहना चाहिए? कौन सा पुरुष मर्द है और कौन नहीं, ये बातें वह आज की लड़कियों को क्यों बता रहा है?

फ़िल्म में यह बात साफ़ होती है. रणबीर कपूर की एक बड़ी बहन है. विदेश से एमबीए की है. वह शादीशुदा है और घर में रहती है. रणबीर उसके पति को नापसंद करता है.

वह कहता है, 'मैं छोटा था. वरना यह शादी होने नहीं देता.' उसका बहनोई उसके पिता को मारने की साजिश में शामिल रहता है.

इस तरह फ़िल्म बहन के फ़ैसले को ग़लत भी साबित करती है. उसकी बात को सही साबित करती है.

इसीलिए एक जगह वह अपनी छोटी बहन से कहता है, 'जो हाथ तेरी माँग में सिंदूर भरेगा, उसकी हर लकीर पहले मैं चेक करूँगा. मैं तुम्हारे लिए स्वयंवर करवाऊँगा.'

यही नहीं, वह अपनी बहन को यह भी बताता है कि बतौर लड़की उसे कौन सी शराब पीनी चाहिए. यह पितृसत्ता का दुलारा रूप है. जहाँ वह प्रेम दिखाकर लोगों की ज़िंदगी पर क़ाबू करती है.

अल्फ़ा यानी दबंग, धौंस वाली ज़हरीली मर्दानगी

ऐसे मर्द दबंग होते हैं. धौंस जमाने वाले होते हैं. वे लोगों पर नियंत्रण रखते हैं. वे स्त्रियों पर नियंत्रण रखते हैं. इनसे लोग डरते हैं. डर कर सम्मान करते हैं.

दरअसल इस फ़िल्म का हीरो सबका रखवाला बनने की कोशिश करता है. उसके पास हर समस्या का समाधान हिंसा है.

ऐसा ही समाधान वह तब करता है जब वह स्कूल में ही पढ़ता है. उसकी बहन को कॉलेज में कुछ लड़के काफ़ी परेशान करते हैं.

जब रणबीर को यह पता चलता है तो वह भरी क्लास में बड़ी बहन को लेकर पहुँच जाता है. क्लास में गोलियाँ चलाता है. बड़े गर्व से कहता है, 'तेरी सेफ़्टी के लिए मैं कुछ भी कर सकता हूँ.'

बड़ी बहन की हिफ़ाज़त छोटे भाई के हाथ में है. यह सब पता चलने पर उसके पिता अनिल कपूर बहुत नाराज़ होते हैं.

तब वह पिता से कहता है कि 'ऐसी सम्पत्ति से क्या फ़ायदा जब मैं अपनी बहन की ही सुरक्षा नहीं कर सकता. उनके बाद वही है, जिसे परिवार की हिफ़ाज़त करनी है.

क्यों? क्योंकि वह मर्द है. भले ही उम्र में छोटा है.'

पितृसत्ता की किताब है फ़िल्म

पितृसत्ता की जड़ें गहरी कैसे जमी हैं, यह समझना है तो यह फ़िल्म बताती है.

पितृसत्ता कैसे काम करती है, यह उसका उदाहरण है. पिता, पिता और पिता …फ़िल्म की बुनावट में यह शामिल है.

फ़िल्म की शुरुआत से ही पुत्र का पिता के लिए लगाव दिखता है. मगर यह लगाव सामान्य बाप बेटे का प्रेम नहीं है. उसे पिता जैसा बनना है. माँ उसके जीवन में गौण है. वह पिता के लिए किसी हद तक जा सकता है. वह पिता की सालगिरह पर गिफ़्ट के तौर पर अपने लम्बे बाल कटवा लेता है.

वह घर से बग़ावत कर निकल जाता है लेकिन जब उसके पिता पर हमला होता है तो वह बदला लेने के लिए विदेश से आ जाता है. फ़िल्म में पिता के पिता, उनके भाई, भाइयों के बेटे…यानी मर्दों की सक्रिय दुनिया है. उस दुनिया में कठपुतली की तरह यहाँ-वहाँ स्त्रियाँ हैं.

इस समानता से स्त्रियों का कुछ नहीं होने वाला

फ़िल्म में हीरोइन को कई जगह हीरो से बराबरी से बहस करते और एक-दो जगह थप्पड़ मारते भी दिखाया गया है. यह किस तरह की समानता है?

इस समानता में कोई समानता नहीं है. क्योंकि इन सबके बावजूद अंतत: वह उसके नियंत्रण में ही रहती है.

एक जगह हीरो कहता है, शादी में डर होना चाहिए. पकड़ कर रखो. डर गया, सब गया.

एक बार हीरोइन अपने मन से गाउन जैसा एक कपड़ा पहनती है तो वह एतराज़ करता है. हीरोइन पूरी फ़िल्म में या तो सलवार सूट में है या साड़ी में. वह संस्कारी है. धार्मिक रीति-रिवाजों का पालन करती है.

अल्फ़ा मर्दानगी और सेक्स

दबंग मर्दानगी का सेक्स से गहरा रिश्ता है. वह यौन संबंधों को लेकर बेहद चिंतित रहता है. चिंतित के साथ-साथ वह यह भी दिखाना चाहता है कि यौन सम्बंधों में वह कितना दमदार है.

उसकी काम इच्छाएँ कितनी मज़बूत हैं और इस कर्म में वह कितना मज़बूत है. इस फ़िल्म में यह बात कई स्तरों पर बार-बार दिखती है. यौन संबंधों में प्रदर्शन की बात बार-बार आती है.

हीरो ही नहीं बल्कि विलेन भी जब मन करता है और जहाँ मन करता है, यौन संबंध बना लेता है. यही नहीं, वो शादी से इतर भी संबंध बनाता है. वह उनके शरीर पर दिए गए निशानों को गर्व से दिखाता है.

यह उसके लिए अल्फ़ा मर्द होने की निशानी है. इसके बरअक्स स्त्रियाँ निष्क्रिय दिखती हैं. वे बस हैं. जो करना है, वह मर्द को करना है. फ़िल्म का एक प्रभावी स्वर यही दबंग मर्दाना सेक्स भी है.

दुश्मन धर्म बदल लेता है

रणबीर कपूर जिस परिवार में पैदा हुआ है. वह काफ़ी अमीर है. पिता अनिल कपूर का स्टील का व्यवसाय है. कम्पनी का नाम स्वास्तिक है. शक्ति, प्रगति, विजय उसका सूत्र है.

यह एक बड़ा संयुक्त परिवार है. सालों पहले सम्पत्ति के विवाद में परिवार का एक भाई अलग हो जाता है. वह सिर्फ़ अलग होता तो यह कहानी सामान्य होती.

वह विदेश जाकर मुसलमान बन जाता है. दुश्मन धर्म बदल लेता है या दूसरे धर्म वाले दुश्मन होते हैं!

अब जब वह मुसलमान बन गया है तो फ़िल्म बताती है कि उसकी कई बीवियाँ हैं और कई बच्चे हैं.

यही नहीं, उसके बेटे की भी तीन बीवियाँ हैं. कुछ ध्यान आया? कुछ नफ़रती नारे ध्यान आए?

जैसे- हम पाँच, हमारे पच्चीस! यह जो परिवार मुसलमान बन गया है, वही स्वास्तिक पर कब्जा करना चाहता है. वह बाक़ियों के लिए ख़तरा है. वह क्रूर है.

इसका ख़ात्मा करने के लिए संयुक्त परिवार के बाक़ी सदस्य एक साथ आते हैं. वे परिवार के ही एक बड़े मुसलमान दुश्मन को ख़त्म करते हैं.

लेकिन इस दुश्मन का ख़तरा बना हुआ है. फ़िलहाल इस तरह स्वास्तिक को बचाया गया है. आगे भी इसी तरह बचाया जा सकता है.

क्या यह हमारे समाज के बारे में भी कुछ बता रहा है

मगर सबसे बड़ा सवाल है कि आज के वक़्त में यह फ़िल्म इतनी लोकप्रिय कैसे हो रही है? फ़िल्म के दर्शकों में एक बड़ा वर्ग लड़कियों और स्त्रियों का भी है, वे ऐसी मर्दानगी को कैसे देख रही हैं?

फ़िल्म एक मज़बूत माध्यम है. यह लोगों के दिलो-दिमाग़ पर असर डालता है. यह समाज का आईना भी है और कैसा समाज बनाना चाहते हैं, उसे बताने का ज़रिया भी.

हमारा देश और समाज इस वक़्त दबंग मर्दानगी के दौर से गुज़र रहा है. राष्ट्र, धर्म, समाज, संस्कृति सबमें इस दबंग और धौंसपूर्ण मर्दानगी का असर देखा जा सकता है.

इससे स्त्रियाँ और स्त्रियों की ज़िंदगी अछूती नहीं रह सकती.

इस फ़िल्म पर चर्चा क्यों ज़रूरी है

असल में इस हिट फ़िल्म पर चर्चा इसलिए ज़रूरी हो जाती है कि ऐसी फ़िल्में आमतौर पर एक बहस छेड़ देती हैं. वह बहस है, स्त्रियों को कितनी आज़ादी चाहिए और मर्द कैसा होना चाहिए.

इसी से जुड़ी बात है कि ऐसी फ़िल्में किस तरह के समाज की कल्पना करती हैं. एनिमल नाम की यह फ़िल्म जिस तरह के अल्फ़ा मर्द की वक़ालत करती है, वह मर्दों को एक ख़ास दबंग ढाँचे में क़ैद करता है.

यही नहीं, अल्फ़ा मर्द स्त्रियों को भी एक ख़ास भूमिका में क़ैद करके रखता है. वह आज़ादी देता है, लेकिन स्त्री की आज़ादी की डोर उसके हाथ में है.

लड़कियों के पास आधुनिक तालीम है तो है, लेकिन उनकी प्राथमिक ज़िम्मेदारी क्या है, यह अल्फ़ा मर्द तय कर रहे हैं. चाहे माँ हो या बहनें या फिर पत्नी, वे लालन-पालन और घर के लोगों की देखभाल का काम करेंगी.

वे क्या पहनेंगी, क्या पियेंगी, यह वह नहीं तय करेंगी. उनकी हिफ़ाज़त की ज़िम्मेदारी सदियों पहले भी मर्दों के हाथ में थी आज भी है. लेकिन ध्यान रहे, वे मर्द आम मर्द नहीं हैं. वे अल्फ़ा हैं. दबंग. शारीरिक रूप से ताक़तवर. बदला लेने वाले. ख़ून से खेलने वाले.

जो मर्द ऐसे नहीं हैं, फ़िल्म के मुताबिक वे कमज़ोर हैं और वे कविताई करने वाले लोग हैं. यही ख़तरनाक विचार है. समाज में ज़्यादातर मर्द ऐसे ही हैं.

अल्फ़ा पैदा नहीं होते, अल्फ़ा बनाए जाते हैं. अल्फ़ा का बनना स्त्रियों और समाज के लिए नुक़सानदेह और ख़तरनाक है.

एक फ़िल्म कई स्तरों पर बात कह रही होती है. इसलिए इस फ़िल्म में अनेकों ऐसी बातें हैं, जिनपर विस्तार से चर्चा मुमकिन है.

और अंत में, किसी इंसान को ‘एनिमल’ यानी जानवर क्यों कहा जाए? वैसे, किस तरह के इंसानों को एनिमल कहा जाएगा? अगर ऐसे इंसानों के गुणों की फ़ेहरिस्त बनाई जाए तो वह सूची किस तरह की बनेगी?

उस फ़ेहरिस्त को देख कर एनिमल समूह का एक तबका कहीं एतराज़ कर दे तब क्या होगा? क्या यह तुलना वाक़ई पशु अधिकार के दायरे में सही होगी?

यही नहीं, जिसे एनिमल कहा जा रहा है, यह फ़िल्म उस एनिमल के प्रति आकर्षण पैदा करने के लिए है. एनिमल ही हीरो है.

यानी अगर ऐसे दबंग और ज़हरीली मर्दानगी वाले व्यवहार को कोई एनिमल कहे तो यह बात तारीफ़ की मानी जाए न कि आलोचना की. (bbc.com)

अन्य पोस्ट

Comments

chhattisgarh news

cg news

english newspaper in raipur

hindi newspaper in raipur
hindi news