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‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : पुलिस का माफिया राज हाईकोर्ट ने उजागर किया
22-Apr-2024 4:09 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय :  पुलिस का माफिया राज हाईकोर्ट ने उजागर किया

छत्तीसगढ़ पुलिस का एक नया कारनामा हाईकोर्ट की मेहरबानी से उजागर हुआ है। अपने पड़ोसी द्वारा सडक़ पर अपना अहाता बनाने की शिकायत करने के लिए एक रिटायर्ड शिक्षिका और उनकी इंजीनियर बेटी पुलिस थाने पहुंचे थे, पुलिस ने उन्हें ही गिरफ्तार कर लिया, शाम को अदालत में पेश किया, और कानूनी मदद नहीं लेने दी, और बॉंड भरकर जमानत पर रिहा होने का मौका भी नहीं दिया। पुलिस ने इस रिटायर्ड शिक्षिका को थाने में थप्पड़ भी मारे। अब छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की अगुवाई वाली बेंच ने इसे स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन माना है, और इन्हें तीन लाख रूपए मुआवजा देने का आदेश राज्य सरकार को दिया है। जमानत पर रिहाई के पहले मां-बेटी तीस घंटे जेल में रखे गए थे, और उसका यह मुआवजा अब सरकार की जेब से जाने वाला है। यह तो शहर का मामला है, और शिकायकर्ता हाईकोर्ट तक जाने की ताकत रखते थे, लेकिन छत्तीसगढ़ के गांव-देहात और जंगलों में बसे हुए लोग इतने कमजोर रहते हैं कि उनके लिए थाने तक जाना भी मुश्किल रहता है, और अगर किसी कानूनी मदद से वे अदालत तक पहुंच भी पाते हैं, तो कई बार तो उनके मामले खारिज ही हो जाते हैं। हम हाईकोर्ट का यह ताजा फैसला इसलिए भी महत्वपूर्ण मानते हैं कि इसके बाद छत्तीसगढ़ पुलिस को कुछ सबक मिलने के आसार बन सकते हैं। हमारा यह भी ख्याल है कि जो पुलिसवाले इस मामले में जिम्मेदार पाए जाते हैं, उनके खिलाफ विभागीय कार्रवाई भी होनी चाहिए, और पुलिस को यह अक्ल भी मिलनी चाहिए कि शिकायतकर्ता महिलाओं की ऐसी गिरफ्तारी जैसी अराजकता इस प्रदेश में अभी नहीं है। अभी ऐसी कोई इमरजेंसी लगी हुई नहीं है कि पुलिस इतनी मनमानी कर सके, और न ही ये शिकायतकर्ता मां-बेटी पेशेवर मुजरिम हैं जिन्हें कि जेल भेजने की नीयत से इस तरह का इंतजाम किया गया। एक अवैध कब्जा और अवैध निर्माण करने वाले की हिमायती बनकर अगर पुलिस ने शिकायतकर्ता को चुप करवाने की सुपारी उठाई थी, तो इसकी सजा भी उन सबको मिलनी चाहिए जो इसके लिए जिम्मेदार थे। हम हाईकोर्ट के इस कड़े फैसले को किसी संदेह के लायक नहीं मान रहे हैं, और यह फैसला न सिर्फ पुलिस बल्कि दूसरे सरकारी विभागों के लिए भी एक मिसाल बननी चाहिए। हमें सरकारी नियमों की बारीकियां नहीं मालूम हैं लेकिन अगर इन पुलिसवालों की बददिमागी से सरकार को जुर्माना देना है, तो उसकी वसूली भी इन लोगों से होनी चाहिए। 

आज हिन्दुस्तान के बहुत से राज्यों में गलत काम करने वालों का ही राज चलता है। जैसा कि इस मामले में हुआ है, अवैध कब्जा और अवैध निर्माण करने वाले को पुलिस से इस दर्जे की गैरकानूनी मदद भी मिली है। अवैध कामों में ही कमाई मोटी रहती है, और ऐसे माफिया का भागीदार बनने के लिए पुलिस और दूसरे सरकारी विभाग सभी उतावले बने रहते हैं। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में ही एक सबसे महंगी रिहायशी कॉलोनी ऐसी है जिसके मालिक ने हाईकोर्ट के आदेश के खिलाफ कोटवार की जमीन अपने घेरे में लेकर कॉलोनी का नक्शा भी पास करा लिया है, और शहर की सबसे महंगे प्लाट भी वहां बेच दिए हैं। जिस-जिस विभाग में इसकी शिकायत हुई, वहां के अफसरों ने भी इस कॉलोनी में जमीनें ले ली, मंत्रियों और नेताओं ने पहले से बहती गंगा में हाथ धो लिए थे। नतीजा यह है कि हर तरह के अवैध काम करने के बाद भी, हाईकोर्ट के आदेश के खिलाफ ऐसी कॉलोनी पनप रही है, और उपकृत आला अफसरों की मेहरबानी से वह अपनी दूसरी कॉलोनियों में भी तरह-तरह के अवैध काम कर रही है। यह किसी एक कारोबारी का हाल नहीं है, और न ही किसी एक कारोबार का, जिनका सरकारी नियमों से कोई भी वास्ता पड़ता है, उन सबके कामों के अवैध दर्जे का यही हाल है। इसलिए ऐसे ताकतवर लोगों के खिलाफ जब कोई शिकायत आती है, तो शिकायतकर्ता को निपटाने के लिए इनकी कॉलोनियों के प्लाट और मकान मालिक बने नेता और अफसर टूट पड़ते हैं। सरकार और कारोबार का यह माफियाई-रिश्ता इतना मजबूत है कि फेविकोल को इसी को अपने इश्तहार में इस्तेमाल करना चाहिए। 

फिर पुलिस की बात पर लौटें, तो पुलिस की कोई भी कार्रवाई यह तौल लेने के साथ शुरू होती है कि जिसके खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए, उससे कमाई की कोई उम्मीद है, या नहीं, उसकी कोई राजनीतिक पहुंच है या नहीं, और अगर राजनीति पहुंच है तो वह सत्तारूढ़ पार्टी में है, या विपक्ष में। जिस तरह हंसों के बारे में कहा जाता है कि वे मोती चुन लेते हैं, उसी तरह हिन्दुस्तानी पुलिस बिना राजनीतिक खतरे वाले मामलों को चुन लेती है, और फिर जिससे कमाई नहीं होने वाली है, उसके खिलाफ कार्रवाई शुरू कर देती है। जिस जांच एजेंसी को बिना पूर्वाग्रह के सच को परखना चाहिए, उसके काम की शुरूआत ही फायदे के एक फैसले पर पहुंच जाने से होती है, और फिर उस फैसले के मुताबिक सुबूत जुटाने का सिलसिला चलता है। यह बात बस्तर जैसे इलाके में, नक्सल प्रभावित जंगल और गांव में आदिवासियों के खिलाफ अक्सर ही इस्तेमाल होती है, और उनके तो मामले भी हाईकोर्ट में जाकर दर्जनों के हिसाब से थोक में खारिज हो जाते हैं। वह एक अलग और लंबा सिलसिला है, इसलिए उसकी चर्चा यहां मुमकिन नहीं है। लेकिन बिलासपुर में एक मां-बेटी को जिस तरह उनकी शिकायत शांत करवाने के लिए, और एक अवैध कब्जा-निर्माण करने वाले का साथ देने के लिए पुलिस ने जिस तरह मां-बेटी को जेल भेजा, वह शहरी छत्तीसगढ़ के लिए भी थोड़ी सी अटपटी बात है, और प्रदेश की भाजपा सरकार के राजनीतिक, और दूसरे संगठनों के लोगों को इस पर ध्यान देना चाहिए कि उनकी सरकार की पुलिस अगर इस तरह मुजरिम-दर्जे का काम कर रही है, तो उसे सुधारा जाना चाहिए। ऐसा न होने पर पुलिस सत्ता को कितने गहरे गड्ढे में गिरा सकती है, यह राज्य में पिछले पांच बरस में अच्छी तरह साबित हो चुका है। प्रदेश की भाजपा सरकार को ऐसे अफसरों से सावधान रहना चाहिए जो कि सत्तारूढ़ नेताओं को तुरंत तो खुश करके रखें, लेकिन पांचवें बरस तक इतने गहरे गड्ढे में डाल दें कि संघ के तमाम लोग मिलकर भी भाजपा को नुकसान से न निकाल सकें। हम इस चर्चा को किसी के राजनीतिक नफे-नुकसान के लिए नहीं कर रहे हैं, हम सिर्फ बेकसूर जनता के लोकतांत्रिक हक के लिए यह बात कर रहे हैं, लेकिन इस मिसाल को देना जरूरी इसलिए है कि सत्तारूढ़ नेता इस एक खतरे को कुछ जल्दी समझ पाते हैं। 

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