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कानून अंधा कानून न बने, प्राकृतिक न्याय को भी देखे
28-Apr-2024 4:01 PM
कानून अंधा कानून न बने,  प्राकृतिक न्याय को भी देखे

मेरे एक पुराने अखबारनवीस सहयोगी ने हमारे बड़े लंबे साथ की वजह से सम्मान जताते हुए एक बार एक बात कही थी। उन्होंने कहा था कि जब किसी खबर को लेकर मन में बहुत बड़ी दुविधा रहती है कि क्या किया जाए, क्या करना चाहिए, तो वे यह कल्पना करते हैं कि वैसी दुविधा अगर मेरे सामने होती, तो मैंने क्या किया होता? और कुछ पल में उन्हें सही राह दिख जाती है। अब यह बात एक बहुत ऊंचे दर्जे के सम्मान की है, जिसे पचाना भी मेरे लिए आसान नहीं है। और वैसे तो आज इस जिक्र का भी कोई खास मकसद नहीं है, सिवाय एक बात के कि जब मेरे सामने लिखने को किसी मुद्दे की कमी रहती है, और पिछले एक बरस से यूट्यूब के लिए कैमरे के सामने बोलने को जब कोई मुद्दा नहीं सूझता है, तो मैं सुप्रीम कोर्ट की तरफ देखता हूं। सुप्रीम कोर्ट से जजों के किसी फैसले से ही मुद्दा नहीं सूझता, बल्कि वहां पहुंचे हुए मामलों से, दोनों तरफ के वकीलों के तर्कों से, कई चीजों से कोई विषय सूझता है। आज इस कॉलम को लिखने के लिए कुछ ऐसा ही हुआ है। बीच में कई हफ्ते यह कॉलम लिखना नहीं हो पाता, क्योंकि सोचने-विचारने की कोई बात नहीं सूझती। 

सुप्रीम कोर्ट में अभी एक मामला पहुंचा है जिसमें निचली अदालत, और हाईकोर्ट, दोनों का फैसला एक सरीखा था, और उसके खिलाफ मुकदमा हारने वाले ने सुप्रीम कोर्ट का रूख किया। पति-पत्नी के बीच झगड़े और घरेलू हिंसा की बात है, और पत्नी ने पुलिस में शिकायत की, निचली अदालत में मामला चला, वहां से पति को एक बड़ा जुर्माना सुनाया गया, और यह जुर्माना हर्जाने-मुआवजे की शक्ल में पत्नी को मिलना था। लेकिन पति के वकीलों का तर्क था कि यह जुर्माना पति की आर्थिक हैसियत के आधार पर नहीं लगना चाहिए, यह घरेलू हिंसा किस दर्जे की थी, उस आधार पर लगना चाहिए। न तो निचली अदालत ने यह तर्क माना, और न हाईकोर्ट ने, अब सुप्रीम कोर्ट के दो जज इस मामले को सुन रहे हैं, और यह तय होगा कि शादीशुदा जोड़े में जो हिंसक साथी है, उसकी आर्थिक क्षमता के आधार पर फैसला दिया जाए, या हिंसा की शिकार साथी को हुए नुकसान के आधार पर? 

मैं बरसों से इस बात को लिखते चले आ रहा हूं कि किसी भी जुर्म में सजा या जुर्माना तय करते हुए इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि मुजरिम, और जुर्म के शिकार के बीच दर्जे का क्या फर्क है। हिन्दुस्तान जैसी स्थितियों में देखें तो यह दर्जा औरत और मर्द के फर्क का सबसे पहले होता है जो कि इस मामले में भी दिख रहा है। शादीशुदा जोड़ों में आमतौर पर महिला हिंसा की शिकार होती है, और समाज और परिवार में अपनी कमजोर स्थिति की वजह से, शारीरिक रूप से पुरूष से कमजोर होने की वजह से वह मार खाती ही है, महिला पुरूष को मारे, ऐसा कम ही होता है। इसलिए औरत और मर्द एक पैमाना है दर्जे के फर्क का। दर्जे के फर्क का दूसरा पैमाना भारत में जाति व्यवस्था है, सवर्ण कही जाने वाली जातियां, दलित-आदिवासी समुदायों पर जुल्म करने की अधिक ताकत रखती हैं, और इसीलिए देश में एक बड़ा जायज कानून बनाया गया है जिससे एससी-एसटी समुदाय पर गैर एससी-एसटी के जुल्म होने पर अधिक कड़ी सजा का प्रावधान है। आज के भारत को देखें तो धार्मिक अल्पसंख्यक लोग भी धार्मिक बहुसंख्यक लोगों की हिंसा के शिकार होने का खतरा उठाते हैं, और जगह-जगह जहां भी भीड़त्या होती है, उनमें दलित-आदिवासी, या अल्पसंख्यक ही आमतौर पर शिकार होते हैं। अब भेदभाव के एक और बड़े पैमाने की चर्चा कर ली जाए, संपन्न और विपन्न के बीच ताकत का बहुत बड़ा फासला रहता है। एक दौलतमंद जब किसी गरीब पर जुल्म करते हैं, तो गरीब को इंसाफ मिलने की गुंजाइश बड़ी कम रहती है।

हमने बार-बार इस बात को लिखा है, और इस कॉलम में भी मैंने कई बार यह लिखा है कि पैसेवाले किसी गरीब के खिलाफ कोई जुर्म करें, जुल्म करें, या ऊंचे ओहदे पर बैठे हुए लोग किसी कमजोर के खिलाफ कुछ करें, तो उसके लिए अलग से कड़ी सजा का इंतजाम होना चाहिए, अलग से मोटे जुर्माने का भी। अभी इसी हफ्ते हमने अपने अखबार या यूट्यूब चैनल पर इस बात को दोहराया भी है कि बलात्कार की शिकार अगर कोई गरीब लडक़ी या महिला रहती है, तो उसमें बलात्कारी की दौलत का एक हिस्सा उसे मिलना चाहिए, जो कि बलात्कारी की बीवी, या उसके बच्चों के हिस्से के बराबर का रहे। ऐसा होने पर ही उस बलात्कारी को अपने परिवार के भीतर भी सजा मिलेगी, जब पारिवारिक सदस्यों के संभावित हिस्से से कुछ दौलत कम हो जाएगी। और ऐसा पर्याप्त मुआवजा बलात्कार की शिकार को मिलने से उसकी कुछ हद तक आर्थिक भरपाई हो सकेगी। 

हमारा यह ख्याल है कि विदेश में बसा हुआ यह पति अपनी बड़ी दौलत के दम पर सुप्रीम कोर्ट गया जरूर है, लेकिन वहां भी उसकी हार होगी। घरेलू हिंसा में हिंसा कितनी हुई है, इसके साथ-साथ यह बात अनिवार्य रूप से मायने रखती है कि हिंसा करने वाले व्यक्ति की मुआवजा देने और भरपाई करने की ताकत कितनी है। ऐसे में किसी व्यक्ति पर लगाए जाने वाले जुर्माने की रकम अगर कानून में तय कर ली जाएगी, तो वह बड़ा ही नाजायज होगा। किसी के ओहदे, उसकी ताकत, और उसकी आर्थिक संपन्नता, इन सभी चीजों को देखकर इसके हिसाब से ही उस पर जुर्माना लगाया जा सकता है। एक मजदूर अपनी बीवी को पीटने पर शायद कुछ हजार रूपए जुर्माने को भुगते, लेकिन एक करोड़पति अपनी बीवी को पीटने पर कुछ हजार देने लायक नहीं रहता, उस पर जुर्माना उसकी संपन्नता के अनुपात में रहना चाहिए। इसी तरह हमने पहले भी कई बार इस बात पर लिखा है कि अगर कोई अरबपति भूमाफिया किसी गरीब दलित की जमीन पर कब्जा करे, तो भारत की जाति व्यवस्था के हिसाब से भी जुर्माना तय होना चाहिए, और संपन्नता के फासले के आधार पर भी। बहुत संपन्न के खिलाफ तो किसी मामले के खड़े होने की गुंजाइश भी भारतीय लोकतंत्र में कम रहती है, इसलिए किसी तरह अगर मामला अदालती फैसले तक पहुंचे, तो उस पर जुर्माना तगड़ा लगना चाहिए, करोड़पति-अरबपति को सस्ते में छोडऩा उनकी शान के भी खिलाफ होगा, इसलिए गरीब को इंसाफ दिलाने के लिए न सही, दौलतमंद की सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए जुर्माना तो मोटा ही लगना चाहिए। 

देखते हैं अदालत में इस मामले पर क्या फैसला होता है, प्राकृतिक न्याय की हमारी साधारण समझ हिंसा के दर्जे से ऊपर, संपन्नता के आधार पर जुर्माने की वकालत करती है। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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