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‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : इक्कीसवीं सदी का भारत का संविधान भी महिला को क्या सेक्स-सामान मानेगा?
04-May-2024 3:54 PM
 ‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय :  इक्कीसवीं सदी का भारत का संविधान भी महिला को क्या सेक्स-सामान मानेगा?

मध्यप्रदेश हाईकोर्ट ने पत्नी के साथ अप्राकृतिक सेक्स करने के आरोपी पति को बरी कर दिया है। पत्नी ने यह रिपोर्ट लिखाई थी, और अदालत ने यह मान लिया है कि पत्नी के साथ किसी भी तरह का सेक्स अपराध नहीं है। जिसे अप्राकृतिक कहा जाता है, और जो धारा 377 के तहत अपराध है, वह भी पत्नी के मामले में पुरूष पर लागू नहीं होता। जस्टिस जी.एस.अहलूवालिया ने यह फैसला सुनाते हुए कहा कि अगर एक वैध पत्नी विवाह के बाद पति के साथ रह रही है, तो उसके द्वारा किया गया कोई भी सेक्स जुर्म नहीं माना जा सकता, अगर पत्नी 15 बरस से छोटी नहीं है। जज ने कहा कि शादीशुदा जोड़ों में रेप को अभी तक कानूनी रूप से नहीं माना गया है, इसलिए यह मामला रद्द किया जा रहा है। पत्नी ने रिपोर्ट लिखाई थी कि पति ने उसके साथ कई बार अप्राकृतिक सेक्स किया, और किसी को बताने पर तलाक की धमकी भी दी थी। 

अब यहां पर कई सवाल खड़े होते हैं, जो कि कानून को लेकर भी हैं, बड़ी अदालतों द्वारा कानून की व्याख्या को लेकर भी हैं, और कानून बनाने वाली संसद को लेकर भी हैं। क्या सचमुच ही आज 21वीं सदी के हिन्दुस्तान में महिला के इतने भी हक नहीं हैं कि वह पति द्वारा जबर्दस्ती करके किए जा रहे अप्राकृतिक सेक्स का विरोध कर सके? क्या संविधान की व्याख्या करने वाले हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट आज के वक्त में भी भारतीय महिला को एक इंसान की तरह देखने से इंकार कर सकते हैं? क्या मौजूदा कानूनों की इतनी संकुचित व्याख्या की जा सकती है जो कि महिला के बुनियादी इंसानी हकों को भी नकार दे? अगर भारतीय संवैधानिक अदालतों की सोच महिला को मनुस्मृति के नजरिए से देखती है, तो यह लोकतंत्र के साथ मेल नहीं खाती। हमारा ख्याल है कि यह मामला जबलपुर हाईकोर्ट के बाद अगर किसी तरह सुप्रीम कोर्ट पहुंच पाएगा, और वहां पर इसकी संवैधानिक व्याख्या के लिए कोई संविधानपीठ बैठेगी, तो वह महिला के अधिकारों की एक बेहतर व्याख्या करेगी। अभी जबलपुर हाईकोर्ट के जज ने भारतीय पति को जो खुली छूट दी है, उसने भारतीय शादीशुदा महिला को हर किस्म के बलात्कार का सामान करार दिया है। यह फैसला दिल दहलाता है, और महिला अधिकारों के लिए लडऩे वाले कुछ वकीलों को खुद होकर सुप्रीम कोर्ट में इसके खिलाफ जाना चाहिए क्योंकि जब तक सुप्रीम कोर्ट इसके खिलाफ कोई राय जाहिर नहीं करेगी, तब तक इस हाईकोर्ट का यह फैसला एक नजीर की तरह निचली अदालतों में इस्तेमाल किया जाता रहेगा। 

ऐसा लगता है कि भारत में शादीशुदा जोड़ों के बीच बलात्कार की बात को मानने से कानून जिस तरह इंकार करता है, उस पर भी एक बार और गौर करने की जरूरत है, फिर चाहे इस देश की सरकारें, राजनीतिक दल, और सुप्रीम कोर्ट भी अब तक पत्नी की बलात्कार की शिकायत को किसी सजा के लायक नहीं मान रहे हैं। पुरानी चली आ रही सामाजिक व्यवस्था में फेरबदल आसानी से नहीं होता है। सतीप्रथा से लेकर बाल विवाह तक के खिलाफ कानून आसानी से नहीं बन पाए थे, और उन पर अमल तो और भी मुश्किल से हो पाया था, और आज दशकों बाद भी हम अपने आसपास गांव-कस्बों के मामले देखते हैं जहां पुलिस और प्रशासन जाकर बाल विवाह को रोकते हैं। इसलिए जिस देश में हाईकोर्ट के कई जज बहुत से फैसलों में औपचारिक रूप से मनुस्मृति का हवाला देते हैं, वहां महिला अधिकार की बात करना आसान नहीं है। जहां बड़ी अदालतें अपने लिखत फैसलों में महिलाओं के अधिकार कुचलने में जरा भी लिहाज नहीं करती हैं, वहां पर सुप्रीम कोर्ट ने अगर शादीशुदा महिला की रेप की शिकायत को किसी लायक नहीं माना है, तो उसमें हैरानी नहीं होती है। यह बात सिर्फ हिन्दुस्तान की नहीं है, हम अमरीका की बात करें तो वहां सदियों के लोकतंत्र के बाद भी 1920 तक तो महिलाओं को वोट डालने का हक नहीं मिला था, जबकि इसके पहले आधी सदी से देश भर में इसके लिए संघर्ष चल रहा था। दुनिया के बाकी देशों का इतिहास भी अलग-अलग दर्जों का तालिबानी इतिहास रहा है, जो कि आज हम अफगानिस्तान में देख रहे हैं। और जब जजों का यह हाल रहता है कि वे महिला के किसी बुनियादी अधिकार के बारे में नहीं सोचते हैं, तो उनके नीचे के, कानून की और इंसाफ की कुछ कमसमझ रखने वाले वकील और अफसर और क्या सोच सकते हैं? नतीजा यह होता है कि थाने से लेकर हाईकोर्ट तक महिला के हक अलग-अलग कई तरह के बूटों से कुचले जाते हैं। फिलहाल तो सुप्रीम कोर्ट भी महिलाओं को बराबरी के नागरिक अधिकार और मानवाधिकार देते हुए नहीं दिख रहा है, और राजनीतिक दल और संसद तो दकियानूसी रहते ही हैं। सुधारवादी, प्रगतिशील, और न्यायप्रिय नजरिया जब किसी तबके का नहीं रहता, तो महिला को अपनी लड़ाई खुद ही लडऩी पड़ती है। हाईकोर्ट के इस ताजा फैसले के बाद इसकी जरूरत और अधिक लग रही है कि महिला को सेक्स के सामान की तरह इस्तेमाल किए जाने पर रोक कैसे लग सकती है। 

लोगों को याद होगा कि कुछ देशों में आईएसआईएस, अलकायदा जैसे आतंकी संगठनों ने इस्लाम की एक किसी बहुत ही तंगनजरिए की व्याख्या करते हुए महिलाओं को सेक्स-गुलाम बनाने को भी जायज ठहराया था। ऐसे सैकड़ों मामले मीडिया में बड़ी बारीकी से दर्ज हैं जिसमें इस्लामिक स्टेट नाम के आतंकी संगठन ने हजारों महिलाओं को सेक्स-गुलाम बनाया, और औपचारिक रूप से उसे धर्म के अनुरूप भी कहा। भारत सहित दुनिया के तमाम देशों में मुस्लिम महिलाओं पर बुर्का और हिजाब लादकर रखा जाता है, जो कि सीधे-सीधे उन्हें समाज के भीतर दूसरे दर्जे का नागरिक बनाने का काम है। इसके अलावा चार शादियां, तीन तलाक जैसे और रिवाज भी हैं जो कि महिलाओं के इंसानी हकों के खिलाफ हैं। इसलिए लड़ाई सिर्फ किसी एक धर्म की महिला की अपनी सामाजिक व्यवस्था, या अपने देश के कानून से लड़ाई की नहीं है, उसे कदम-कदम पर संघर्ष करना रहता है, और जबलपुर हाईकोर्ट के इस फैसले के खिलाफ भी भारत की महिलाओं को संघर्ष करना रहेगा। अभी हम मौजूदा कानूनों की बेहद तकनीकी व्याख्या करके महिला की शिकायत को खारिज करने पर अधिक कुछ कहना नहीं चाहते, लेकिन प्राकृतिक न्याय की हमारी बड़ी साधारण समझ यह कहती है कि यह फैसला सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिकपीठ में टिकना नहीं चाहिए, फिर चाहे वह संवैधानिकपीठ संसद को ही यह सिफारिश क्यों न करे कि उसे महिला के साथ पति द्वारा जबरिया सेक्स के खिलाफ कानून बनाना चाहिए।  (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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