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राजपथ-जनपथ : कुलपति नियुक्ति में कितनी राजनीति?
07-May-2024 2:39 PM
राजपथ-जनपथ : कुलपति नियुक्ति में कितनी राजनीति?

कुलपति नियुक्ति में कितनी राजनीति?

करीब 7 साल पहले बिलासपुर यूनिवर्सिटी, जो अब अटल विवि के नाम से जाना जाता है, उसमें बनारस विश्वविद्यालय के प्रो. सदानंद शाही की कुलपति पद पर नियुक्ति की गई थी। उस वक्त भाजपा की सरकार थी और राज्यपाल बलराम दास टंडन भी केंद्र की भाजपा सरकार की ओर से नियुक्त किए गए थे। पर भाजपा से संबद्ध छात्र इकाई अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् ने उनकी नियुक्ति के विरोध में प्रदर्शन किया। राजभवन ने उनके पदभार संभालने पर रोक लगा दी। रोक का कारण यह बताया गया था कि प्रोफेसर के रूप में उनका 10 साल का अनुभव नहीं है, न ही उन्होंने रिसर्च साइंटिस्ट के तौर पर 6 साल काम किया है। कुलपति के लिए यह जरूरी मापदंड था। मगर अभाविप ने जो विरोध किया था, वह इस आधार पर नहीं था। उसका कहना था कि प्रो. शाही वामपंथी विचारधारा के हैं। वे कुलपति बन गए तो विश्वविद्यालय में अपने ‘राष्ट्रविरोधी’ एजेंडे को पूरा करेंगे।

सन् 2018 में जब कांग्रेस की सरकार बनी उसके बाद कुलपतियों की नियुक्ति को लेकर लगातार टकराव बना। तत्कालीन राज्यपाल अनुसुईया उइके पर कांग्रेस सरकार ने आरोप लगाया कि वे बाहरी लोगों को कुलपति बनाना चाहती हैं, स्थानीय विद्वानों की उपेक्षा हो रही है। तब राजभवन से सफाई आई कि 14 विश्वविद्यालयों में से 9 में स्थानीय कुलपति काम कर रहे हैं। बचाव में डॉ. रमन सिंह भी सामने आए थे। उन्होंने कहा था कि कांग्रेस विश्वविद्यालयों में तो स्थानीय कुलपति की मांग करती है, मगर राज्यसभा में केटीएस तुलसी जैसे बाहरी लोगों को छत्तीसगढ़ से भेजती है, जो कभी यहां आते भी नहीं।

कामधेनु विश्वविद्यालय, पं. सुंदरलाल शर्मा मुक्त विश्वविद्यालय, कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विवि, संत गहिरा गुरु विवि सरगुजा, सभी में कुलपतियों की नियुक्ति को लेकर टकराव होता रहा। स्थिति यह रही कि कई विश्वविद्यालयों में कुलपति कार्यकाल खत्म होने के बावजूद सेवा विस्तार पाते जा रहे हैं। ऐसे विस्तार के खिलाफ यूजीसी खिलाफ रहता है। इन्हें नीतिगत फैसले लेने के अधिकार कम होते हैं। कामधेनु विश्वविद्यालय और कुशाभाऊ ठाकरे विश्वविद्यालय का नामकरण क्रमश: वासुदेव चंद्राकर और चंदूलाल चंद्राकर के नाम से करने की कोशिश भी कांग्रेस सरकार ने की, मगर राजभवन में यह फाइलें रुकी रही।

कुछ दूसरे गैर भाजपा शासित राज्यों की तरह छत्तीसगढ़ में भी कांग्रेस सरकार ने राज्यपाल के अधिकारों में कटौती की कोशिश की थी, पर इन हस्ताक्षर भी राज्यपाल का ही होना था, जो नहीं हो पाया।

यह चर्चा इसलिये क्योंकि हाल ही में राहुल गांधी ने आरोप लगाया कि विश्वविद्यालयों में पात्रता को नहीं, कुछ संगठनों से जुड़े होने की योग्यता को देखकर कुलपतियों की नियुक्ति की जा रही है। इसका विरोध करते हुए करीब 200 विश्वविद्यालयों के कुलपति ने एक पत्र लिखकर राहुल गांधी पर एफआईआर दर्ज करने की मांग की है। राहुल गांधी के बचाव में कांग्रेस का बयान आया है कि आरएसएस और उसी तरह के संगठनों से जुड़े कुलपतियों को इंडिया गठबंधन की सरकार आने पर हटा दिया जाएगा। छत्तीसगढ़ में बीते पांच सालों में कुलपतियों और विश्वविद्यालयों पर आधिपत्य के लिए कुलाधिपति ( राज्यपाल) व सरकार के बीच तनातनी चलती रही, जिससे यह साफ है कि कुलपति की नियुक्ति में केवल अकादमिक उपलब्धि नहीं देखी जाती, राजनीतिक झुकाव भी देखा जाता है। इन उच्च शिक्षा संस्थानों में सत्ता चाहे किसी की हो, अपना नियंत्रण चाहती हैं।

भाजपा-कांग्रेस में एक जैसा डर

छत्तीसगढ़ में 11 सीटों पर चुनाव बेहद रोचक मोड़ पर है। भाजपा 11 में 11 सीटें जीतने के लिए लड़ रही है। बोल भी रहे हैं कि इस बार 11 में 11 सीटें आ जाएंगी। डर भी रहे हैं कि आएगी कि नहीं? ऐसा इसलिए क्योंकि राजनांदगांव, कांकेर, महासमुंद, बस्तर, बिलासपुर और जांजगीर जैसी सीटों पर कांग्रेस ने जो प्रत्याशी तय किए हैं, वे भाजपा की एकतरफा जीत की उम्मीद पर पानी फेर रहे हैं। राजनांदगांव में पूर्व सीएम भूपेश बघेल कांग्रेस के प्रत्याशी हैं। इससे दुर्ग और रायपुर लोकसभा सीट पर वे चुनाव हार चुके हैं। इस बार ऐसा कोई परिणाम आया तो संदेश जाएगा कि पूर्व सीएम की हार हो गई। 

ताम्रध्वज साहू और डॉ. शिव डहरिया हाल ही में विधानसभा चुनाव हारे हैं। तब वे मंत्री थे, लेकिन दोनों ही सीटों महासमुंद और जांजगीर में परिस्थितियां उनकी ओर है। इधर, भाजपा के एक-एक मंत्री और सीनियर नेता भी दबाव में हैं। जब कांग्रेस की 68 सीट थी, तब 9 सीटों पर जीत मिली। इससे कम हुआ तो ऊपर तक संदेश गलत जाएगा।

ऑब्जर्वर बघेल और गहलोत

सन् 2018 की विधानसभा जीत के बाद से कांग्रेस हाईकमान का भरोसा भूपेश बघेल और अशोक गहलोत पर बढ़ता ही गया। इनमें भी भूपेश बघेल का वजन अधिक रहा। गहलोत के साथ थोड़ी खटास तब आ गई थी जब उन्होंने एआईसीसी का अध्यक्ष बनने से मना कर दिया था। मुख्यमंत्री रहते बघेल को कई राज्यों में कांग्रेस के चुनाव अभियानों को संभालने के लिए भेजा गया। इस बार बघेल को रायबरेली का तथा गहलोत को अमेठी का मुख्य पर्यवेक्षक बना दिया गया है। जैसी चर्चा है कि रायबरेली सीट कांग्रेस के लिए कुछ आसान है। इसलिये यदि यहां से राहुल गांधी जीत जाते हैं तो बघेल के खाते में एक कामयाबी जुड़ जाएगी। वहीं अमेठी में स्मृति ईरानी के खिलाफ गांधी परिवार के नजदीकी किशोरी लाल शर्मा को टिकट दी गई है। यदि कांग्रेस अमेठी की सीट पर ईरानी को हराने में सफल होती है तो यह रायबरेली से ज्यादा महत्वपूर्ण जीत होगी। ऐसे में गहलोत का कद बघेल के मुकाबले बढ़ा हुआ दिखेगा। बहरहाल, प्रतिष्ठा तो दोनों की दांव पर लगी है।

पांच नहीं छह का पंजा..

पंजे पर उंगलियों की संख्या वैसे तो पांच ही होती हैं, पर कहीं-कहीं छह उंगलियों वाले लोग भी होते हैं। दक्षिण भारत में एक चुनाव प्रचार के दौरान दीवार पर ऐसी ही छह उंगलियों वाला पंजा दिखा तो किसी ने सोशल मीडिया पर अपलोड कर दिया।

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