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‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : दवा और दुआ में से अधिक जरूरी को छांटने में लगती है अक्ल, और वैज्ञानिक चेतना
28-Sep-2024 7:10 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : दवा और दुआ में से अधिक  जरूरी को छांटने में लगती है  अक्ल, और वैज्ञानिक चेतना

दो दिन पहले की रिपोर्ट है कि भारत सरकार के दवा नियंत्रक ने 50 से अधिक दवाओं को घटिया मानते हुए एक रिपोर्ट दी है, और इस फेहरिस्त में बहुत आम प्रचलित दवाएं शामिल हैं जिनमें जीवन रक्षक डायबिटीज की दवा, हाई ब्लड प्रेशर की दवा भी है। अभी तक यह साफ नहीं हुआ है कि सरकार इस पर क्या करने जा रही है, और ये दवाएं देश की बड़ी दवा कंपनियों की बनाई हुई भी हैं। कुछ दवाओं के बारे में यह समाचार भी आया है कि उनके कैप्सूल के खोल में चेहरे पर लगाने वाला पावडर भरकर सरकारी अस्पतालों को सप्लाई कर दिया गया है। एक से बढक़र एक नामी-गिरामी कंपनियां घटिया दवाई बनाने की दोषी पाई गई हैं। और एक दिक्कत यह है कि आन्ध्र, अरूणाचल, असम, बिहार, छत्तीसगढ़, गोवा, गुजरात, हरियाणा, हिमाचल, मणिपुर, राजस्थान, मेघालय, मिजोरम, नगालैंड, ओडिशा, पंजाब, सिक्किम, तमिलनाडु, पांडिचेरी, तेलंगाना, दिल्ली, उत्तराखंड, पश्चिम बंगाल, अंडमान-निकोबार, दादर-नगर हवेली, दमन-दीव, लक्षदीप ने भारत सरकार के दवा नियंत्रक को उनके राज्य में दवा की क्वालिटी पर कोई रिपोर्ट नहीं दी है। अब इस लंबी लिस्ट के बाहर क्या देश में कोई राज्य बच भी गया है? जितनी लंबी लिस्ट रिपोर्ट न देने वाले राज्यों की है, उतनी ही लंबी लिस्ट देश की प्रमुख दवा कंपनियों की भी है।

कल की एक दूसरी खबर है कि किस तरह देश के एक सबसे प्रमुख हिन्दू मंदिर, तिरुपति में लड्डुओं में मछली के तेल, गाय और सुअर की चर्बी मिले होने की जांच के लिए आन्ध्र सरकार ने एक विशेष जांच दल बनाया है। लड्डुओं से परे जो जीवन रक्षक दवाएं हैं, उनके घटिया क्वालिटी के होने को लेकर किसी जांच दल की अभी खबर नहीं है। इस देश में धर्म से जुड़ा प्रसाद जांच का सामान है, लेकिन सभी धर्मों के लोगों की जिंदगियां बचाने वाली दवाएं अगर घटिया बन रही हैं, मिलावटी हैं, उनमें दवा की जगह चेहरे का पावडर भर दिया गया है, तो भी उसकी किसी जांच की न तो मांग उठ रही है, और न ही मानो जनता को इसकी कोई परवाह रह गई है। यह गजब की हैरान करने वाली नौबत है कि लोगों को अपने परिवार की जिंदगी के लिए जरूरी दवाओं से अधिक मंदिर के प्रसाद की परवाह है। इससे यह भी पता चलता है कि जनता किस हद तक अंधभक्ति का शिकार हो चुकी है, और उसे विज्ञान की कोई परवाह नहीं रह गई है जो कि इन दवाओं को बनाता भी है, और इनमें घटिया क्वालिटी को पकड़ता भी है।

दरअसल देश में भावनात्मक मुद्दों का सैलाब इतना बड़ा हो गया है कि जिंदगी के असल मुद्दे किनारे हो गए हैं। यह एक अलग बात है कि तमाम किस्म के पाखंडी और देवदूत होने का दावा करने वाले लोग भी जब खुद बीमार पड़ते हैं, तो वे आधुनिक विज्ञान से चलने वाले अस्पतालों में ही जाते हैं। और बात-बात में अंधभक्ति और अंधविश्वास फैलाने वाले बड़े-बड़े लोग तो दूसरे देशों के अस्पतालों तक भी जाकर इलाज करवाते हैं, और देश की आम जनता को अलग-अलग धर्मों के प्रवचन करने वाले लोगों, चमत्कारी बाबाओं, चंगा करने वाले पादरियों, तांत्रिकों, और बैगा-गुनिया के हवाले कर देते हैं। कल की ही खबर है कि किस तरह उत्तरप्रदेश में एक स्कूल के संचालक ने स्कूल को कामयाब करने के लिए एक बच्चे की बलि दे दी, और इस स्कूल संचालक का पिता ही बलि देने वाला तांत्रिक था।

देश के लोगों में वैज्ञानिक चेतना टुकड़ों में नहीं आती, ऐसा नहीं हो सकता कि कोई व्यक्ति किसी एक मामले में तो तर्क और समझ से काम ले, और बाकी मामलों में वे अंधविश्वासी हो जाएं। लोगों का मिजाज एक साथ ही बनता और बिगड़ता है। आज देश की आबादी के एक बड़े हिस्से को गाय के नाम पर, धर्म के नाम पर, प्रसाद में चर्बी के नाम पर, हिजाब और बुर्के के नाम पर, किसी धर्म के प्रचार के नाम पर इस हद तक भडक़ाया जा सकता है कि वे हिंसक हो जाएं, और इंसानों का कत्ल करने को जायज मानने लगें। आज देश में जगह-जगह गौ-गुंडे अपने आपको गौरक्षक कहते हुए जब कानून अपने हाथ में लेते हैं, पांवोंतले कुचलते हैं, और दूसरे धर्म या दूसरी जाति के लोगों को गौ-हत्यारे कहते हुए मार डालते हैं, और सरकारें उन्हें बचाने का काम करती हैं, तो फिर यह हिंसक धर्मान्धता, और अंधविश्वास जंगल की आग की तरह चारों तरफ तेजी से फैलते हैं। यही अंधविश्वास है जो प्रसाद को राष्ट्रीय बहस का सामान मानता है, और जिसे घटिया और नकली दवाईयां पाना बुरा नहीं लगता, उसका विरोध जरूरी नहीं लगता।

हमारे पास की ही एक दूसरी खबर है कि एक स्कूल में क्लास चलते हुए बीच में एक बच्चे ने जयश्रीराम का नारा लगा दिया, और शिक्षिका ने उसे सजा देने के लिए क्लास के बाहर खड़ा कर दिया। यह बात बच्चे के मां-बाप से होकर जब एक हिन्दूवादी छात्र संगठन तक पहुंची, तो उसके कार्यकर्ता स्कूल पहुंचकर प्रदर्शन करने लगे, और उस शिक्षिका के खिलाफ कार्रवाई मांगने लगे। अब एक क्लास के भीतर पढ़ाई के दौरान एक धार्मिक नारा लगाने को जायज हक मानते हुए, उस पर मामूली सजा देने पर शिक्षिका के खिलाफ अगर आंदोलन हो रहा है, तो इसका यही मतलब है कि स्कूलों में अब पढ़ाई की नहीं, कीर्तन भर की जरूरत रह गई है। ऐसी सोच किसी राजनीतिक दल को वैज्ञानिक चेतनाविहीन लोगों के वोट जरूर दिलवा सकती है, लेकिन किसी देश को आगे नहीं बढ़ा सकती। देश को दवा, और दुआ में से अगर किसी एक को प्राथमिकता देनी है, तो यह याद रखें कि जो लोग सोते-जागते बात दुआ की करते हैं, वे भी अपनी तबियत खराब होते ही दौड़े-भागे दवा की शरण में पहुंच जाते हैं, और भगवा लंगोटी वाले बाबा को ऑक्सीजन मास्क लगाए आईसीयू में लोगों ने देखा हुआ ही है।  

 (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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