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राजस्थान : सियासी उठापटक का पहला अध्याय समाप्त, दूसरा पहले से चालू है
21-Aug-2020 9:41 AM
राजस्थान : सियासी उठापटक का पहला अध्याय समाप्त, दूसरा पहले से चालू है

-पुलकित भारद्वाज

राजस्थान के पूर्व उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट पिछले हफ्ते जयपुर लौट आए. मुख्यमंत्री अशोक गहलोत से अदावत के चलते वे एक महीने से ज़्यादा समय से भाजपा शासित हरियाणा में रुके हुए थे. जयपुर आने से एक दिन पहले पायलट और उनके समर्थक विधायकों ने कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी और पार्टी की महासचिव प्रियंका गांधी से मुलाकात की थी. सचिन पायलट गुट का दावा है कि इस मुलाकात में उनकी मांगों और शिकायतों को तफ़सील से सुना गया. इस मुलाकात में कथित तौर पर सचिन पायलट ने भी भरोसा दिलाया कि गहलोत सरकार को कार्यकाल पूरा करने में उनकी तरफ़ से कोई व्यवधान नहीं पहुंचेगा. इसके बाद 14 अगस्त को बुलाए गए विधानसभा सत्र में अशोक गहलोत सरकार ध्वनिमत से बहुमत साबित करने में सफल रही. वहीं रविवार देर रात पार्टी हाईकमान ने पायलट की मांगों और शिकायतों के निदान के लिए वरिष्ठ नेता अहमद पटेल, के सी वेणुगोपाल राव और अजय माकन की सदस्यता वाली कमेटी का गठन कर दिया.

इस सब को देखते हुए जानकारों के एक वर्ग का मानना है कि राजस्थान में अब तक जो सियासी घमासान मचा हुआ था उसका निपटारा हो चुका है. लेकिन कई विश्लेषक ऐसे भी हैं जिनके मुताबिक यह खींचतान फिलहाल भले ही थमती नज़र आ रही है. लेकिन यह स्थिति कब तक बनी रहेगी, इसका अनुमान लगा पाना मुश्किल है.

पहले सचिन पायलट की ही बात करें तो वे राजस्थान आ तो गए हैं, लेकिन अब उनके पास न तो उपमुख्यमंत्री का पद है और न ही पार्टी प्रदेशाध्यक्ष का. फिर जयपुर आने के बाद उन्होंने मीडिया में जितने भी बयान दिए हैं उनमें एक ही लाइन को बार-बार दोहराया है कि ‘पद हो या ना हो, प्रदेश की जनता के प्रति अपने दायित्व को निभाता रहूंगा’. उनकी इस बात का यह मतलब निकाला जा रहा है कि शायद राजस्थान में उन्हें पार्टी या सरकार में हाल-फिलहाल कोई बड़ी जिम्मेदारी नहीं मिलने वाली है. वे अपने समर्थकों को जताना चाहते हैं कि उनकी लड़ाई सिर्फ स्वाभिमान के लिए ही थी और उन्हें कभी किसी पद का कोई लालच नहीं था. संभावना यह भी जताई जा रही है कांग्रेस हाईकमान पायलट को संगठन में प्रदेश के बजाय राष्ट्रीय स्तर पर कोई जिम्मेदारी सौंप सकता है. हालांकि यह किसी से नहीं छिपा है कि उनका मन केंद्र के बजाय राजस्थान की राजनीति में ही ज़्यादा रमता है.

विश्लेषकों के मुताबिक यदि सचिन पायलट तमाम हालातों के मद्देनज़र दिल्ली में कोई जिम्मेदारी संभाल लेते हैं तो उनके लिए 2023 के अगले विधानसभा चुनाव तक राजस्थान की सरकार और पार्टी संगठन में कोई प्रत्यक्ष और प्रभावशाली भूमिका निभा पाने की गुंजाइश कम ही नज़र आती है. इस हिसाब से राजस्थान की राजनीति में सचिन पायलट का करियर कम से कम तीन वर्ष के लिए पीछे खिसकता दिख रहा है. और यदि 2023 में राजस्थान के मतदाताओं ने चुनाव-दर-चुनाव सत्ता बदलने की अपनी परंपरा को बरक़रार रखा तो मुख्यमंत्री बनने के लिए पायलट को कम से कम आठ साल का इंतज़ार करना पड़ेगा. तब तक उनकी उम्र 50 का आंकड़ा पार कर चुकी होगी. और उस वक्त भी उनका वक्त तब आएगा जब सारी राजनीतिक परिस्थितियां उनके पक्ष में होंगी.

कुछ विश्लेषकों का कहना है कि इस दौरान पार्टी हाईकमान सूबे में किसी तीसरे चेहरे को मुख्यमंत्री पद के लिए आगे बढ़ाने पर भी विचार कर सकता है. कई पायलट समर्थकों का भी यह कहना है कि सचिन पायलट की पूरी लड़ाई ख़ुद मुख्यमंत्री बनने की नहीं बल्कि गहलोत को पद से हटाने की थी. इनकी बात के समर्थन में कहा जा सकता है कि तीसरे मुख्यमंत्री का विकल्प पायलट ने 2018 में भी पार्टी शीर्ष नेतृत्व के सामने रखा था. हालांकि इसे समझना कोई मुश्किल बात नहीं कि पायलट के लिए यह मजबूरी का विकल्प ही रहा होगा. और इस विकल्प को सामने रखकर वे किसी न किसी तरह खुद की दावेदारी ही मजबूत करना चाह रहे होंगे

वर्तमान घटनाक्रम से पहले तक इस बात का ठीक-ठीक अंदाजा शायद कम ही लोगों को था कि राजस्थान में कांग्रेस के सभी विधायकों में से कितने पायलट के पक्ष में हैं और कितने गहलोत के. लेकिन हालिया घटनाक्रम के दौरान पायलट के साथ पार्टी के 100 में से सिर्फ 18 और तेरह निर्दलीय में से महज तीन विधायकों ने ही हरियाणा में डेरा जमाया था. ग़ौरलतब है कि मुख्यमंत्री गहलोत के ख़िलाफ़ खोले गए मोर्चे में पायलट अपने कई करीबी विधायकों और मंत्रियों तक का समर्थन हासिल नहीं कर पाए. इनमें राज्य के परिवहन मंत्री प्रताप सिंह खाचरियावास प्रमुख थे जो इस पूरे विवाद के दौरान अपने बयानों के ज़रिए पायलट पर बड़े हमले बोलने की वजह से चर्चाओं में रहे थे. जबकि स्वास्थ्य मंत्री रघु शर्मा बहुत पहले ही पायलट से दूरी बना चुके हैं.

जानकारों की मानें तो कांग्रेस आलाकमान राजस्थान में नेतृत्व परिवर्तन की सचिन पायलट की मांग पर सिर्फ़ तभी विचार कर सकता था जब वे पांच सप्ताह हरियाणा में जमे रहने के बजाय शुरुआती दिनों में ही उससे जाकर मिल लेते. सूत्रों के मुताबिक उन दिनों ख़ुद प्रियंका गांधी ने कई बार पायलट से संपर्क साधने की कोशिश की थी. पर नाकाम रहीं. लेकिन जब पायलट को इस बात का अहसास हुआ कि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत उन्हें और उनके समर्थक विधायकों को अयोग्य घोषित करवाने के बाद बहुमत भी साबित कर देंगे तब जाकर उन्हें गांधी परिवार की याद आई. पायलट के इस डर को भाजपा की कद्दावर नेता व प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के अस्पष्ट राजनीतिक रुझानों ने भी हवा देने का काम किया. दरअसल सचिन पायलट आरोप लगाते रहे हैं कि विपक्षी दलों से होने के बावजूद सिंधिया और गहलोत पर्दे के पीछे एक-दूसरे की मदद करते रहते हैं.

ऐसे में जानकारों का मानना है कि पायलट अब एक खुली मुट्ठी की तरह हो गये हैं जिनके लिए कांग्रेस हाईकमान ने अपने दरवाजे भले ही खोल दिए हों लेकिन वह उनकी हर शर्त को मानेगा ही यह कह पाना मुश्किल है! हालांकि राजस्थान में पायलट समर्थकों को शीर्ष नेतृत्व द्वारा गठित की गई कमेटी से बड़ी उम्मीदें है. इन समर्थकों का मानना है कि यह कमेटी ऐसा कोई रास्ता ज़रूर निकालेगी जिसके सहारे उनके नेता सूबे में सम्मानजनक तरीके से सक्रिय रह सकें. लेकिन विश्लेषकों का यह भी मानना है कि यदि कमेटी पायलट गुट को कुछ खास संतुष्ट कर पाने में नाकाम रही तो एक बार फिर कांग्रेस को राजस्थान में अस्थिरता का माहौल देखने को मिल सकता है. ग़ौरतलब है कि मीडिया को दिए अपने बयानों में पायलट ने जिस एक और बात को दोहराया है उसका लब्बोलुआब है कि ‘जो बीत गया उसकी चर्चा आवश्यक नहीं और जो भविष्य में होने वाला है उसके बारे में आज निश्चित तौर पर कुछ कहा नहीं जा सकता है.’

सचिन पायलट की नाराज़गी के दौरान मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का एक बयान ख़ूब चर्चाओं में रहा था कि ‘पायलट बिना रगड़ाई के ही पार्टी प्रदेशाध्यक्ष और केंद्रीय मंत्री बन गए, इसलिए वे अच्छा काम नहीं कर पा रहे हैं.’ इस पर प्रदेश के एक वरिष्ठ पत्रकार चुटीले लहजे में कहते हैं कि बीते एक महीने में पूर्व उपमुख्यमंत्री की शायद उचित रगड़ाई हो चुकी है. इस दौरान उन्होंने अपने विश्वस्तों की सलाह को आंख मूंदकर मानने के दुष्परिणाम भी झेले हैं और राजनीति के कई रंगों से भी उनका सामना पहली बार ही हुआ है.

ग़ौरतलब है कि जैसे ही पायलट के गांधी परिवार के साथ मुलाकात की ख़बरें सामने आईं, उनके खेमे के कुछ विधायक तुरंत ही जयपुर स्थित मुख्यमंत्री आवास पर हाज़िरी लगाने पहुंच गए. भंवरलाल शर्मा ऐसा करने वाले पायलट गुट के पहले विधायक थे. वे शर्मा ही थे जिन पर कांग्रेस ने एक ऑडियो टेप जारी कर राजस्थान में विधायकों की ख़रीद-फ़रोख़्त करने और गहलोत सरकार को गिराने का षडयंत्र रचने का आरोप लगाया था. इस टेप में शर्मा कथित तौर पर केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत से फ़ोन पर बात कर रहे थे. लेकिन गहलोत से मुलाकात के बाद भंवरलाल शर्मा ने मीडिया को स्पष्ट बयान दिया कि ‘अन्य बाग़ी विधायकों को भी जयपुर लौट आना चाहिए. राजस्थान में हमारे मुखिया अशोक गहलोत हैं.’

सचिन पायलट के साथ हरियाणा जाने वाले विधायकों में प्रदेश के कुछ पुराने व नए जाट विधायक विशेष तौर पर सुर्ख़ियों में रहे थे. इनमें भरतपुर के पूर्व राजघराने से ताल्लुक रखने वाले विश्वेंद्र सिंह और छात्र राजनीति से जुड़े रहे नागौर जिले के मुकेश भाकर और रामनिवास गावड़िया शामिल थे. बग़ावत के दौरान विश्वेंद्र सिंह ने कई बार भाकर और गावड़िया की हरसंभव तरीके से जमकर हौसला अफजाई और तारीफ़ें की थीं. कहा जा रहा है कि ऐसा उन्होंने जान-बूझकर किया ताकि वे दोनों मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और राजस्थान के दिग्गज जाट नेताओं की नज़रों में खटक सकें. जानकार कहते हैं कि विश्वेंद्र सिंह अपने बेटे अनिरुद्ध सिंह को मुख्यधारा की राजनीति में उतारने की तैयारी में हैं. ऐसे में वे शायद ही चाहेंगे कि राज्य में सर्वाधिक आबादी वाले जाट समुदाय से अनिरुद्ध सिंह का हमउम्र कोई भी नेता ज़्यादा आगे बढ़े.

यदि इन कयासों में थोड़ी भी सच्चाई है तो सचिन पायलट को भविष्य में कोई बड़ी उड़ान भरने से पहले न सिर्फ़ विपक्ष और कांग्रेस में अपनेे विरोधी गुट बल्कि अपने ख़ुद के खेमे में भी पनप रही राजनीति को समझते हुए उससे पार पाने का हुनर भी सीखना होगा. ग़ौरतलब है कि जयपुर आने के बाद अन्य बाग़ी विधायकों की ही तरह सिंह ने भी अशोक गहलोत को अपना नेता मानने से गुरेज़ नहीं किया. जबकि कांग्रेस ने जो ऑडियो टेप जारी किया था उसमें उसने भंवरलाल शर्मा के साथ विश्वेंद्र सिंह की भी आवाज़ होने का दावा किया था. शर्मा और सिंह के जयपुर आने के बाद प्रदेश कांग्रेस ने उन्हें निलंबित करने के आदेश को रद्द कर दिया है और इन दोनों नेताओं के ख़िलाफ़ बैठाई गई सभी जांचें भी अब ठंडे बस्ते में जाती दिखाई दे रही हैं.

बहरहाल; पायलट के ही लहजे में कहा जाए तो ‘भविष्य में जो भी हो’ लेकिन हाल-फिलहाल इस पूरी उठापटक का उनकी लोकप्रियता पर विपरीत प्रभाव पड़ता नज़र आया है. दरअसल राजस्थान के जनमानस में पायलट ने जाने-अनजाने अपनी छवि एक ऐसे नेता के तौर पर स्थापित कर ली थी जिससे पीछे हटने की उम्मीद कम ही की जा सकती है. ऐसे में एक बड़ा राजनीतिक बवाल खड़ा करने के बाद क़दम पीछे खींच लेने की वजह से उनके समर्थकों में निराशा है. इसे सूत्रों के इस दावे से समझा जा सकता है कि बुधवार को पायलट पहले विमान से दिल्ली से जयपुर आने वाले थे. फिर उन्होंने इस यात्रा के लिए सड़क मार्ग को चुना. लेकिन यह बात चौंकाने वाली थी कि 250 किलोमीटर से ज़्यादा के उस सफ़र में कहीं भी उनका कोई बड़ा स्वागत नहीं हुआ. जबकि यह पूरा क्षेत्र गुर्जर बाहुल्य है और सचिन पायलट व उनके दिवंगत पिता राजेश पायलट की कर्मभूमि रह चुका दौसा जिला भी इसी रास्ते में पड़ता है. यही नहीं पूर्व उपमुख्यमंत्री के स्वागत के लिए उनके जयपुर स्थित निवास पर भी जो भीड़ जुटी वह भी अपेक्षा से बेहद कम थी.

इसके जवाब में सचिन पायलट के करीबी होने का दावा करने वाले लोग कहते हैं कि उनके नेता ख़ुद इस तरह का कोई आयोजन नहीं चाहते थे. वहीं कुछ जानकारों के मुताबिक यह भी हो सकता है कि हाईकमान की तरफ़ से ही पायलट को ऐसा कोई भी राजनीतिक स्टंट न करने का निर्देश मिला हो.

मुख्यमंत्री अशोक गहलोत पर असर!

इस पूरी उठापटक में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत जीते हुए भी नज़र आ रहे हैं और नहीं भी! वे अपने पद और सरकार को तो बचा पाने में सफल नज़र आ रहे हैं. लेकिन उनकी जो मुख्य कवायद पायलट की सदस्यता रद्द करवाकर उन्हें हमेशा के लिए पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाने की थी उसमें वे नाकाम हुए हैं. कुछ जानकारों के अनुसार शायद गहलोत को इस बात का अंदाजा पहले से था कि देर-सवेर गांधी परिवार पायलट के साथ संवाद करने के लिए तैयार हो जाएगा. इसलिए ही उन्होंने इस मामले में अति की जल्दबाज़ी भी दिखाई. लेकिन पहले तो पायलट गुट ने अदालत जाकर और फिर राजस्थान के राज्यपाल कलराज मिश्र ने विधानसभा बुलाने की अनुमति न देकर गहलोत को अपनी रणनीति में कामयाब नहीं होने दिया.

कांग्रेस का राजनीतिक इतिहास बताता है कि वह बाग़ियों को मौके देने में विश्वास रखती आई है. इसे सचिन पायलट के पिता राजेश पायलट के उदाहरण से ही समझा जा सकता है. 1998 में जब सोनिया गांधी ने पार्टी के अध्यक्ष पद के लिए दावेदारी पेश की तो बाग़ी नेता जितेंद्र प्रसाद ने उनके ख़िलाफ़ चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी. उस चुनाव में राजेश पायलट ने जितेंद्र प्रसाद का साथ दिया था. लेकिन इसके बावजूद राजेश पायलट के ख़िलाफ़ पार्टी आलाकमान ने कोई बड़ा क़दम नहीं उठाया. अब उस हिसाब से देखें तो सचिन पायलट की बग़ावत कुछ भी नहीं है.

इस पूरे विवाद के दौरान गांधी परिवार की तरफ़ से कभी भी पायलट के ख़िलाफ़ खुलकर नाराज़गी ज़ाहिर नहीं की गई. पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर तो कोरोना महामारी के दौरान राजस्थान सरकार को अस्थिर करने की कोशिश करने का आरोप लगाया था. लेकिन तब भी उन्होंने सीधे पायलट को लेकर कुछ नहीं कहा. वहीं, सचिन पायलट भी इस पूरी अवधि में पार्टी या किसी भी नेता के ख़िलाफ़ बयान देने से बचते रहे, फ़िर चाहे वह अशोक गहलोत ही क्यों न हों. जानकारों के मुताबिक आख़िर में पायलट को इस ख़ामोशी का बड़ा फ़ायदा मिला है. भले ही यह राजनीतिक कमज़ोरी की वजह से अपनाई गई थी या रणनीति के तहत या फिर मर्यादा के चलते.

जानकारों की मानें तो इस पूरी रस्साकशी के बाद सचिन पायलट को राहुल गांधी के करीबी होने का लाभ तो मिला ही है, लेकिन कहा यह भी जा रहा है कि पायलट को पार्टी से बाहर कर गांधी परिवार भी गुजरात से लेकर राजस्थान, उत्तरप्रदेश और दिल्ली तक के बड़े हिस्से में अपना प्रभाव रखने वाले गुर्जर समुदाय को नाराज़ नहीं करना चाहता है. कुछ लोग यह कयास भी लगाते हैं कि इन विपरीत परिस्थितियों में पायलट के ससुराल पक्ष यानी कश्मीर के अब्दुल्ला परिवार ने उनके और कांग्रेस शीर्ष नेतृत्व के बीच एक मजबूत कड़ी का काम किया. वहीं कुछ का मानना है कि खास तौर पर प्रियंका गांधी को इस बात का अनुमान लग गया था कि सचिन पायलट की विदाई के बाद मुख्यमंत्री अशोक गहलोत एक बार तो बहुमत के मुहाने पर खड़ी अपनी सरकार को बचा लेंगे. लेकिन भाजपा के शीर्ष नेतृत्व के इस मामले में खुलकर सक्रिय होने के बाद गहलोत के लिए भी ऐसा लंबे समय तक कर पाना आसान काम नहीं होता. और शायद गहलोत भी इस बात को समझ रहे थे इसीलिए उन्होंने इस विवाद के आख़िरी दिनों में बाग़ी विधायकों को लेकर अपना रुख नर्म कर लिया था.

मुख्यमंत्री गहलोत के राजनीतिक करियर में इससे पहले ऐसा कोई मोड़ नज़र नहीं आता जब वे प्रदेश कांग्रेस में मन की कर पाने या अपने किसी बड़े विरोधी नेता को पूरी तरह पटकनी दे पाने में नाकाम रहे हैं. इस पूरे घटनाक्रम से पायलट का क़द ज़रूर प्रभावित हुआ है, लेकिन उनके तेवर और संतुलन में कोई कमी नहीं आई है. शुक्रवार को भी विधानसभा सत्र के दौरान जब उनके बैठने की व्यवस्था को हमेशा की तरह आगे की बजाय पीछे गैलेरी में कर दिया गया तो प्रतिक्रिया में उन्होंने बहुत प्रभावी ढंग से यह कहकर अपने आलोचकों का भी ध्यान खींच लिया कि - आपने (विधानसभा अध्यक्ष) मेरी सीट में बदलाव किया. पहले जब मैं आगे बैठता था, सुरक्षित और सरकार का हिस्सा था. फिर मैंने सोचा मेरी सीट यहां क्यों रखी है. मैंने देखा कि यह पक्ष और विपक्ष की सरहद (बगल में भाजपा विधायकों की लाइन शुरु होती) है. सरहद पर अपने सबसे मजबूत योद्धा को भेजा जाता है... इस सरहद पर कितनी भी गोलीबारी हो मैं कवच और ढाल, गदा और भाला बनकर इसे सुरक्षित रखुंगा.’

जबकि इसी सत्र के दौरान अशोक गहलोत ने उनकी सरकार को अस्थिर करने का आरोप लगाते हुए भारतीय जनता पार्टी के साथ पायलट पर भी अप्रत्यक्ष रूप से जमकर निशाना साधा था. विश्लेषकों का मानना है कि इस पूरे घटनाक्रम के दौरान गहलोत जिस तरह से पेश आए वह उनकी छवि के बिल्कुल विपरीत था. एक-एक शब्द को कई-कई बार सोचकर बोलने के लिए पहचाने जाने वाले मुख्यमंत्री गहलोत ने बीते दिनों मीडिया को दिए बयान में पायलट को नकारा और निकम्मा तक कह दिया था. इसके लिए उन्हें बड़े स्तर पर आलोचनाओं का सामना करना पड़ा था. इसके अलावा उन्होंने यह साबित करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी कि सचिन पायलट भारतीय जनता पार्टी के संपर्क में आकर ही उनकी सरकार को अस्थिर करने की कोशिश कर रहे हैं. लेकिन इस सब के बाद भी गांधी परिवार जिस तरह से सचिन पायलट को अपनाने के लिए तैयार दिखा है उससे निश्चित तौर पर गहलोत को झटका लगा होगा.

इसकी ताजा बानगी के तौर पर रविवार देर रात प्रदेश संगठन में हुए बदलाव को देखा जा सकता है. कांग्रेस आलाकमान ने राजस्थान में पार्टी प्रभारी अविनाश पांडे को हटाकर उनकी जगह पूर्व केंद्रीय मंत्री अजय माकन को ये जिम्मेदारी सौंपी है. ग़ौरतलब है कि पायलट-गहलोत विवाद के बीच अविनाश पांडे का झुकाव शुरुआत से ही गहलोत की तरफ़ देखा गया था. पायलट ने इसकी शिकायत शीर्ष नेतृत्व से कर दी और पांडे को इसका ख़ामियाज़ा भुगतना पड़ा. सूत्र बताते हैं कि पांडे को बचाने के लिए मुख्यमंत्री गहलोत ने अपनी तरफ़ से हर ज़रूरी प्रयास किया. लेकिन सफल नहीं हो पाए. वहीं, माकन राहुल गांधी के विश्वस्त नेताओं में शुमार रहे हैं. इसलिए माना जा रहा है कि पार्टी हाईकमान ने उन्हें दोहरी जिम्मेदारी (प्रभारी और कमेटी में सदस्यता) देकर सचिन पायलट को सहज रखने की कोशिश की है. आलाकमान के इस निर्णय ने पायलट के पक्ष में बड़ी हवा बनाने का काम किया है.


इस सब को देखते हुए कयास लगाए जा रहे हैं कि राजस्थान में बहुप्रतिक्षित मंत्रिमंडल विस्तार और राजनीतिक नियुक्तियों का सिलसिला कुछ और समय के लिए ठंडे बस्ते में जा सकता है. क्योंकि मुख्यमंत्री गहलोत अपने साथ रुके सौ से ज़्यादा विधायकों के हितों को प्राथमिकता देने की घोषणा सार्वजनिक तौर पर कर चुके हैं. वहीं दूसरी तरफ़ सचिन पायलट भी अपने करीबी विधायकों को लाभ पहुंचाने के लिए अपनी पूरी ताकत झोंकने में शायद ही कोई कसर छोड़ेंगे. सूत्र बताते हैं कि इन हालातों के मद्देनज़र मुख्यमंत्री गहलोत जल्द ही कांग्रेस शीर्ष नेतृत्व से मुलाकात करने दिल्ली जा सकते हैं. यदि ऐसा हुआ तो देखने वाली बात होगी कि वे वहां सचिन पायलट को लेकर कितना मोल-भाव कर पाते हैं.

हाईकमान द्वारा गठित की गई कमेटी की भूमिका!

कांग्रेस हाईकमान द्वारा गठित की गई उच्चस्तरीय कमेटी में राज्यसभा सांसद अहमद पटेल का शामिल होना इस पूरे मामले के सबसे अहम पहलुओं में से एक साबित हो सकता है. यह तो तय है कि पायलट-गहलोत विवाद को लेकर यह कमेटी जो भी रिपोर्ट तैयार करेगी उस पर पटेल का बड़ा प्रभाव रहेगा. लिहाजा पटेल का झुकाव इन दोनों कद्दावर नेताओं में से जिस किसी की भी तरफ़ रहेगा कांग्रेस शीर्ष नेतृत्व द्वारा उसी के पक्ष में जाने की संभावना बढ़ जाती है. ऐसे में विश्लेषकों की मानें तो सचिन पायलट और मुख्यमंत्री गहलोत के बीच चयन की स्थिति में अहमद पटेल गहलोत को तवज्जो दे सकते हैं. इसके तीन बड़े कारण माने जा रहे हैं.

पहला तो यह कि बीते कुछ वर्षों से कांग्रेस पार्टी बड़े स्तर पर युवा बनाम वरिष्ठ नेताओं की अंदरूनी खींचतान से जूझ रही है. पार्टी में जब तक राहुल गांधी का वर्चस्व रहता है युवा नेताओं का पलड़ा भारी हो जाता है जो वरिष्ठ नेताओं के अनुभवों को दरकिनार कर नए तौर-तरीकों से संगठन को दोबारा खड़ा करना चाहते हैं. लेकिन संगठन में अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी का दखल बढ़ते ही वे वरिष्ठ नेता मजबूत स्थिति में आ जाते हैं जो इंदिरा गांधी के जमाने से ही पार्टी के विश्वस्त रहे हैं. यह खेमा पार्टी के युवा नेताओं को कम योग्य भी समझता है लेकिन उनसे असुरक्षित भी महसूस करता है. लिहाजा ये दोनों ही गुट एक-दूसरे को प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से कमतर साबित करने का कोई मौका हाथ से नहीं जाने देते. ऐसे में इस बात की संभावना जताई जा सकती है कि राजस्थान कांग्रेस की भी युवा बनाम वरिष्ठ की इस लड़ाई में अहमद पटेल का रुख स्वाभाविक तौर पर वरिष्ठ के प्रति ही ज़्यादा नरम रहेगा.

दूसरे, 2017 में गुजरात की तीन सीटों के लिए हुए राज्यसभा चुनाव में अहमद पटेल को जितवाने में अशोक गहलोत ने बड़ी भूमिका निभाई थी. वे तब कांग्रेस की तरफ़ से गुजरात के चुनाव प्रभारी थे. भाजपा के तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के सीधे दखल वाला यह चुनाव पटेल के लिए नाक का सवाल बन गया था जिसमें उनकी लाज बड़ी मुश्किल से बच पाई थी. ऐसे में माना जा रहा है कि अशोक गहलोत के प्रति अपनी कृतज्ञता जताने का अहमद पटेल के पास यह एक अच्छा मौका हो सकता है. सूत्र बताते हैं कि 2018 में भी मुख्यमंत्री की रेस में पटेल ने पायलट की बजाय गहलोत को आगे बढ़ाने में अंदरखाने जमकर मदद की थी.

और तीसरे, अहमद पटेल हमेशा से केंद्रीय राजनीति में सक्रिय रहे हैं जबकि मुख्यमंत्री गहलोत का ध्यान प्रदेश की राजनीति पर ज़्यादा रहा है. अब यदि किसी कारण से गहलोत को मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ता है तो उनके क़द के हिसाब से हाईकमान को उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर कोई बड़ी जिम्मेदारी देते हुए दिल्ली बुलाना पड़ेगा. और उनके दिल्ली पहुंचने से कांग्रेस के जिस नेता पर सबसे ज़्यादा प्रभाव पड़ सकता है वे अहमद पटेल ही हैं. क्योंकि पटेल की ही तरह गहलोत भी सोनिया गांधी के विश्वस्त हैं. गुजरात और कर्नाटक के विधानसभा चुनावों में जिस तरह पार्टी ने उनके मार्गदर्शन में बेहतर प्रदर्शन किया उसके चलते वे पटेल से इक्कीस नज़र आने लगे हैं. ऐसे में सामान्य समझ से भी यह बात कही जा सकती है कि पटेल गहलोत को उनके ही नहीं बल्कि अपने फ़ायदे के लिए भी राजस्थान तक ही सीमित रखना चाहेंगे. और ऐसा तभी हो सकता है जब वे मुख्यमंत्री बने रहें. लेकिन यह शायद सचिन पायलट को बर्दाश्त नहीं होगा.

इस सब के मद्देनज़र राजस्थान के वरिष्ठ पत्रकार राकेश गोस्वामी हम से कहते हैं कि ‘पहले भी हाईकमान ने इन दोनों नेताओं (पायलट और गहलोत) के बीच राजीनामे के लिए एक कमेटी का गठन किया था. लेकिन बमुश्किल उसकी एक ही बैठक आयोजित हो पाई थी. लिहाजा ये संभावना कम ही लगती है कि ये नई कमेटी भी इन दोनों नेताओं के बीच विवाद का कोई उचित हल निकाल पाने में कामयाब रहेगी.’ बकौल गोस्वामी, ‘पायलट और गहलोत की अदावत कोई तात्कालिक तो है नहीं जिसे दो-पांच दिन में मिल-बैठकर दूर कर लिया जाए. ये नाराज़गी कई वर्षों की उपज है जिसे दूर करने में भी एक समय लगेगा. हाल-फिलहाल तो इन दोनों कद्दावर नेताओं ने सार्वजनिक तौर पर हाथ मिला लिए हैं. लेकिन इनके दिल भी कभी मिल पाएंगे, ये कहना मुश्किल है!’

वहीं वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक राजन महान का इस बारे में मानना है कि ‘आने वाले दिनों में मंत्रिमंडल विस्तार और राजनीतिक नियुक्तियों के मौके पर एक बार फिर राजस्थान कांग्रेस में बड़ी उठापटक देखने को मिल सकती है. क्योंकि दोनों ही खेमे सत्ता में ज़्यादा से ज़्यादा भागीदारी चाहते हैं. ऐसे में दोनों में से किसी एक पक्ष के विधायकों को तो मन मसोस कर रहना पड़ेगा.’ सत्याग्रह से हुई बातचीत में महान आगे जोड़ते हैं, ‘इस सब के चलते राजस्थान कांग्रेस में जो अस्थिरता पैदा हो सकती है उसे भुनाने में भारतीय जनता पार्टी इस बार कोई चूक नहीं करेगी. वो तो वैसे भी किसी भी राज्य में ‘ऑपरेशन लोटस’ को अंजाम देने के लिए हरदम तैयार रहती है!’(satyagrah)

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