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एक भारतीय नेटवर्क पर पाकिस्तान के ख़िलाफ़ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दुष्प्रचार अभियान चलाने के 'ईयू डिसइन्फ़ोलैब' के आरोपों को भारत ने पूरी तरह ख़ारिज किया है.
विदेश मंत्रालय ने कहा कि एक ज़िम्मेदार लोकतंत्र के तौर पर भारत ने ग़लत सूचनाएं फैलाने का अभियान नहीं चलाया. ऐसा करने वाला भारत नहीं बल्कि पड़ोसी है जो आंतकवादियों को पनाह देता है और ऐसे अभियान चलाता है.
यूरोपीय यूनियन में फ़ेक न्यूज़ पर काम करने वाले एक संगठन' ईयू डिसइन्फ़ोलैब' ने दावा किया है कि पिछले 15 सालों से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक नेटवर्क काम कर रहा है जिसका मक़सद अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पाकिस्तान को बदनाम करना और भारत के हितों को फ़ायदा पहुँचाना है.
ईयू डिसइन्फ़ोलैब ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि इस काम के लिए कई निष्क्रिय संगठनों और 750 स्थानीय फ़र्ज़ी मीडिया संस्थानों का इस्तेमाल किया गया.
शुक्रवार को एक प्रेस कॉऩ्फ्रेंस को संबोधित करते हुए विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अनुराग श्रीवास्तव ने इस मामले पर भारत का पक्ष रखा.
साथ ही उन्होंने ग़लत सूचनाएं फैलाने के लिए परोक्ष रूप से पाकिस्तान को ज़िम्मेदार ठहराया. हालांकि, उन्होंने साफ़तौर पर पाकिस्तान का नाम नहीं लिया.
अनुराग श्रीवास्तव ने कहा, ''ग़लत सूचनाएं वो लोग फैलाते हैं जिनका छुपाने का रिकॉर्ड रहा है जैसे ओसामा बिन लादेन सहित अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ढूंढे जा रहे आंतकवादियों को पनाह देना और 26/11 के मुंबई हमले में अपनी भूमिका को छुपाने के असफल प्रयास करना.''
अनुराग श्रीवास्तव ने कहा, ''एक ज़िम्मेदार लोकतंत्र होने के नाते भारत ग़लत सूचनाएं फैलाने का अभियान नहीं चलाता है. बल्कि, अगर आप ग़लत सूचनाएं देखना चाहते हैं तो सबसे अच्छा उदाहरण है पड़ोसी जो काल्पनिक और मनगढ़ंत डोज़ियर देता रहा है और लगातार फेक न्यूज़ फैलाता रहा है.''
ईयू डिसन्फ़ोलैब की रिपोर्ट
ईयू डिसइन्फ़ोलैब का कहना है कि "पाकिस्तान को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बदनाम" करने और संयुक्त राष्ट्र की मानवाधिकार काउंसिल और यूरोपीय संसद में फ़ैसलों को प्रभावित करने के इरादे से इस नेटवर्क को बनाया गया था.
इस दुष्प्रचार अभियान के लिए जिस व्यक्ति की पहचान चुराई गई उन्हें अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार क़ानून के जनक में से एक माना जाता है. उनकी मौत साल 2006 में ही हो गई थी. तब वो 92 साल के थे.
'इंडियन क्रोनिकल्स' के नाम से बनी इस जाँच रिपोर्ट को इसी बुधवार प्रकाशित किया गया था.
बीते साल ईयू डिसइन्फ़ोलैब ने आंशिक तौर पर इस नेटवर्क का पर्दाफ़ाश किया था लेकिन अब संस्था का कहना है कि ये अभियान पहले उन्हें जितना शक था उससे कहीं अधिक बड़ा और विस्तृत है.
हालांकि, रिपोर्ट में इस नेटवर्क का भारत सरकार से कोई सीधा संबंध होने की बात नहीं की गई है. इससे जुड़े कोई सबूत नहीं मिले हैं.
बीते साल शोधकर्ताओं को दुनिया के 65 देशों में भारत का समर्थन करने वाली 265 वेबसाइट्स के बारे में पता चला था. इन वेबसाइट्स को ट्रेस करने पर पता चला कि इनके तार दिल्ली स्थित एक भारतीय कंपनी श्रीवास्तव ग्रूप से जुड़े हैं.
लेकिन, मौजूदा रिपोर्ट के मुताबिक श्रीवास्तव ग्रुप की ओर से चलाया जा रहा ये अभियान कम से कम 116 देशों में फैला हुआ है. इसमें यूरोपीय संसद के कई सदस्यों और संयुक्त राष्ट्र के कई कर्मचारियों को निशाना बनाया गया है.
डिसइन्फॉर्मेशन नेटवर्क के जानकार बेन निम्मो ने बीबीसी को बताया कि अब तक उन्होंने जो देखा है "उसमें ये सबसे अधिक जटिल और लगातार काम करने वाला अभियान है." हालांकि वो भी इसे किसी ख़ास संगठन के साथ जोड़ कर देखने से परहेज़ करने की बात कहते हैं.
डिजिटल मॉनिटरिंग कंपनी ग्राफ़िका के जाँच निदेशक निम्मो इंटरनेट पर इस तरह के बड़े ट्रोलिंग अभियानों के उदाहरण देते हैं जो निजी तौर पर चलाए गए थे. वो कहते हैं, "केवल इसलिए कि ये व्यापक तौर पर चलाया गया अभियान है, इसका मतलब ये नहीं कि ये सरकार प्रायोजित है."
प्रोफ़ेसर लुई बी शॉन के नाम का इस्तेमाल
जाँच से पता चलता है कि श्रीवास्तव ग्रूप के इस अभियान की शुरूआत संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार संगठन यूएनएचसीआर के मौजूदा स्वरूप के अस्तित्व में आने के कुछ महीनों बाद साल 2005 में हुई.
एक एनजीओ जिस पर शोधकर्ताओं का ध्यान गया वो था कमीशन टू स्टडी द ऑर्गेनाइज़ेशन ऑफ़ पीस (सीएसओपी). ये संगठन साल 1930 में बना और 1975 में इसे संयुक्त राष्ट्र से मान्यता भी मिली लेकिन 1970 के दशक के आख़िरी सालों में इस संगठन ने अपना काम बंद कर दिया था.
जाँच में पता चला कि सीएसओपी के एक पूर्व चेयरमैन प्रोफ़ेसर लुई बी शॉन का नाम साल 2007 में हुए यूएनएचसीआर के एक कार्यक्रम के सत्र में सीएसओपी के प्रतिभागी, लुई शॉन के तौर पर लिखा था. साल 2011 में वॉशिगटन में हुए एक और कार्यक्रम में भी उनका नाम था.
उनका नाम देख कर शोधकर्ताओं को आश्चर्य हुआ क्योंकि उनकी मौत साल 2006 में हो चुकी थी.
लुई 20वीं सदी के अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार क़ानूनों के जानकारों में अग्रणी थे और 39 सालों तक हावर्ड लॉ फ़ैकल्टी के सदस्य रहे थे.
शोधकर्ताओं ने अपनी रिपोर्ट प्रोफ़ेसर लुई को समर्पित की है और कहा है कि "फ़र्ज़ी तत्वों ने उनके नाम का इस्तेमाल किया."
'इंडियन क्रॉनिकल' के लेखकों का कहना है कि "अंतरराष्ट्रीय संस्थानों का ग़लत इस्तेमाल करने वालों के ख़िलाफ़ प्रतिबंध लगाने संबंधी ढांचा बनाने के लिए नीतिनिर्माता" उनके शोध के निष्कर्षों का इस्तेमाल कर सकते हैं. (bbc.com)