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थाना संभालने के साथ मुशायरे की महफिल जमा रहे सुहैब फारूकी
13-Dec-2020 3:45 PM
थाना संभालने के साथ मुशायरे की महफिल जमा रहे सुहैब फारूकी

नई दिल्ली, 13 दिसंबर | सुहैब अहमद फारुकी पेशे से पुलिसवाले हैं लेकिन अगर इनकी जिंदगी के पन्ने को पलटा जाए तो वह एक बहुत अच्छे शायर भी हैं। बीते 10 सालों से यह दो किरदार में नजर आ रहे है और दोनों ही किरदार को एक साथ निभाना बड़ा ही मुश्किल है, लेकिन सुहैब अब इन दोनों किरदारों को एक साथ निभाने के आदी हो चुके हैं। दिल्ली पुलिस में एक थाने की जिम्मेदारी के साथ शायर की भूमिका में भी नजर आ रहे हैं। पुलिस की जिंदगी जीने के साथ सुहैब बतौर शायर भी जाने जाते हैं। देश भर के विभिन्न जगहों में होने वाले मुशायरों में हिस्सा भी लेते रहे हैं।

ये जान कर हैरानी होगी सुहैब की आदत और भाषा को सुनकर एक अपराधी अपनी सजा पूरी करने के बाद सुहैब से मिलने आया था। सुहैब ने आईएएनएस को बताया, करीब 2 महीने पहले कुछ अपराधी पकड़े थे। इसके 15-20 दिन बाद ही वह जमानत पर छूट गए। उस दौरान वो अपने घर जाने के बजाए मुझसे मिलने आए। उनको मेरी आदत और भाषा बहुत अच्छी लगी थी।

सुहेब की पैदाइश 1969 में यूपी के इटावा में हुई। लेकिन पिता उत्तरप्रदेश में सिंचाई विभाग में बतौर जूनियर इंजीनियर थे, जिसके कारण सुहेब की पढ़ाई कहीं एक जगह नहीं हो सकी। सुहेब की स्कूलिंग यूपी के एटा, उत्तराखंड के देहरादून में हुई। कॉलेज शिक्षा मुरादाबाद स्थित हिंदू कॉलेज से की, साथ ही सुहेब ने उर्दू शिक्षा भी हासिल की हुई है।

1993 में दिल्ली आने के बाद नगर निगम के प्राथमिक स्कूल में अध्यापक रहे। उसके बाद 1995 में दिल्ली पुलिस में सब इंस्पेक्टर भर्ती हुए।

घरों में उर्दू का माहौल होने की वजह से सुहेब के जहन में हमेशा उर्दू भाषा को लेकर जगह बनी रही। जामिया उर्दूू बोर्ड से अदीब ए कामिल (उर्दू में बीए) परीक्षा देने के लिए उर्दू की पढ़ाई भी की। लेकिन पुलिस की नौकरी के चलते समय नहीं दे सके।

सुहैब के मुताबिक 40 साल की उम्र के बाद इंसान की जिंदगी में एक ठहराव आता है। उस समय थोड़ा बहुत लिखते रहते थे। ये बात जानकर हैरानी होगी कि सोशल मीडिया की बदौलत सुहैब को एक दूसरी पहचान मिल सकी।

सुहैब ने आईएएनएस को बताया, शुरूआती दौर में सोशल मीडिया पर ऑरकुट एक प्लेटफॉर्म हुआ करता था, वहां ग्रुप बनने शुरू हुए। उसी दौरान ख्यालात की तब्दीली हुई। उसी समय मुझे एहसास हुआ कि मैं शायरी लिख पढ़ सकता हूं।

फेसबुक आने के बाद से एक मेरी जिंदगी मे रिवोल्यूशन सा हुआ, क्योंकि वहां आप अपने मन के ख्यालों को लिख सकते थे और बीच मे कोई एडिटर नहीं हुआ करता था। आपकी बातों को छापने के लिए किसी की शिफारिश की जरूरत नहीं पड़ती थी।

उन्होंने आगे बताया, 2010 में बतौर इंस्पेक्टर प्रमोशन हुआ। 2015 में जामिया नगर में एडिशनल एसएचओ तैनात हुआ। जामिया मिलिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी का जो मुझे माहौल मिला उससे भी सीखने को मिला। उर्दू भाषा जानने वाले लोगों के साथ बातचीत शुरू हुई। जिसके कारण मेरी भाषा में और सुधार हुआ।

जामिया यूनिवर्सिटी से मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला। इसी वजह से मेरा जो शौक था वो निखर कर आया। हमने इस दौरान काफी मुशायरे भी कराए। जिनमें राहत इंदौरी साहब भी मौजूद हुए। उनसे भी काफी कुछ सीखने को मिला।

सुहेब का मानना है कि यदि कोई व्यक्ति साहित्य में रुचि रखता है तो उसका प्रभाव आपकी जीवन शैली में जरूर पड़ता है। बाहरी लोगों को सुनकर अच्छा लगता है। लेकिन पुलिस में नौकरी में रहने के लिए ये हैरान कर देने वाली बात है।

दरअसल पुलिस की नौकरी करते वक्त भाषा में काफी बदलाव आता है। हर तरफ क्राइम या अपराधी देख देख कर आपकी जिंदगी पर भी असर पड़ता है। हालांकि सुहेब मुशायरा भी करते हैं जिसका असर उन्हें स्टेज पर भी देखना को मिला है।

सुहेब के साथ कई बार ऐसा हुआ है कि उन्होंने पुलिस की भाषा को मुशायरे में जोड़ दिया। जिसके कारण सुनने वालों को अजीब लगा।

उन्होंने इस बात पर बताया कि, मुझे काफी बार याद रखना पड़ता है कि मैं अभी पुलिस में नौकरी कर रहा हूं या स्टेज पर मुशायरे कर रहा हूं। कई बार ऐसे भाषा निकल जाती है कि आपको खुद को समझाना पड़ता है कि मैं अदब की महफिल में बैठा हूं।

उर्दू मुशायरे में हिंदी का प्रयोग और हिंदी मुशायरे में उर्दू के शब्द का प्रयोग सुनने में बड़ा अजीब सा लगता है। स्टेज पर काफी दफा ऐसा हुआ है जब लोगों से ये अपील की गई हैं कि ये पुलिस में हैं इनके मुंह से अगर कुछ गलत शब्द निकल आए तो इन्हें माफ कर देना।

सुहेब को इस कारण स्टेज पर ताना भी सुनना पड़ा। उनको लगता था कि इनका शायरी से कोई लेना देना नहीं है। एक पुलिस अफसर है तो सिफारिश के चलते यहां तक आ गए हैं। लेकिन जब लोगों ने शायरी सुनी तो खूब तालियां भी बटोरी और लोगों के मुंह से ये तक निकला कि एक पुलसी वाला भी शायरी कर सकता है।

उन्होंने बताया, मेरे पहले मुशायरे के दौरान इंदौरी साहब ने कहा था कि एक पुलिस वाले शायरी पढ़कर गये हैं। अच्छी बात है लेकिन खुदा की कसम ऐसा लगता है कि जब पुलिस वाला शायरी करता है तो ऐसे लगता है जैसे शैतान कुरान ए शरीफ पढ़ रहा हो।

अगले मुशायरे के दौरान इंदौरी साहब फिर आए हुए थे। उस वक्त मैंने वापसी में कहा था कि मैंने इंदौरी साहब के बयान को दुआ के रूप में लिया।

सुहैब के साथ कई बार ऐसा भी हुआ है कि मुशायरे के दौरान किसी आला अफसर का फोन आने लगा जिसके कारण वो शायरी भी भूल गए। सुहैब का मानना है कि आप चाहे जितने भी काबिल शायर हों, लेकिन आप परफॉर्मर नहीं तो सब बेकार है।

हालांकि सुहैब की पत्नी भी शायरी पढ़ने का शौक रखती है जिसके कारण इनके घर मे झगड़े कम होते हैं।

सुहैब ने आगे बताया, कोरोना महामारी के दौरान मेरी एक नज्म 'कोरोना से जंग' काफी चर्चित रही। पुलिस विभाग में भी मुझे इज्जत दी जाती हैं। एक शायर की तरह देखा जाता है। साहित्य ने मेरी जिंदगी को सुकून दिया।

नफरत तुम्हें इतनी ही उजालों से अगर है

सूरज को भी फूंकों से बुझा क्यों नहीं देते

शोलों की लपट आ गई क्या आपके घर तक

अब क्या हुआ शोलों को हवा क्यों नहीं देते

अब इतनी खमोशी भी सुहैब अच्छी नहीं है

एहबाब को आईना दिखा क्यों नहीं देते (आईएएनएस)
 

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