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कोरोना वैक्सीन को लेकर फ़ार्मा कंपनियों में पहले जंग फिर दोस्ती... आख़िर मामला क्या है?
06-Jan-2021 10:17 AM
कोरोना वैक्सीन को लेकर फ़ार्मा कंपनियों में पहले जंग फिर दोस्ती... आख़िर मामला क्या है?

भारत में कोरोना वायरस से बचाव के लिए वैक्सीन तैयार करने वाली कंपनियों भारत बायोटेक और सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ़ इंडिया ने मंगलवार को एक साझा बयान जारी किया है.

इस बयान में कंपनियों ने बताया है कि वे यह बात समझती हैं कि इस समय दुनिया के लोगों और देशों के लिए वैक्सीन की अहमियत क्या है, ऐसे में हम इस बात का प्रण लेते हैं कि कोविड 19 वैक्सीन की उपलब्धता वैश्विक स्तर पर हो सके.

ये बयान जारी करने के बाद सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ़ इंडिया के सीइओ अदार पूनावाला ने अपने ट्वीट में लिखा, "इस (साझा बयान) से किसी भी तरह की ग़लतफ़हमी दूर हो जानी चाहिए. हम इस महामारी के ख़िलाफ़ जंग में एक साथ खड़े हैं."

भारत बायोटेक ने अपने ट्विटर अकाउंट पर ये साझा बयान शेयर करते हुए लिखा है, "हमारा प्रण भारत और विश्व में सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ़ इंडिया के साथ सहज ढंग से वैक्सीन पहुँचाना है."

दोनों कंपनियों ने कोविड 19 के ख़िलाफ़ जंग में एकजुट होकर काम करने की बात कही है. लेकिन कुछ घंटों पहले तक दोनों कंपनियों के शीर्ष अधिकारी एक दूसरे की वैक्सीन पर हमला बोलते दिख रहे थे.

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क्या साझा बयान भरेगा घाव?

स्वास्थ्य क्षेत्र के कई विशेषज्ञों और राजनेताओं ने कंपनियों के बीच जारी विवाद पर केंद्र सरकार से सवाल जवाब किए.

राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने वैक्सीन को मंज़ूरी दिए जाने और दोनों कंपनियों के बीच जारी रहे गतिरोध को लेकर केंद्र सरकार को आड़े हाथों लिया.

गहलोत ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से इस मामले में दख़ल देने की अपील की थी.

गहलोत ने अपने आधिकारिक ट्विटर अकाउंट से ट्वीट किया, "सीरम इंस्टीट्यूट और भारत बायोटेक कंपनियों की वैक्सीन को भारत में मंज़ूरी मिलने के बाद दोनों कंपनियों के बीच हुई आपसी बयानबाज़ी दुर्भाग्यपूर्ण है. यह संवेदनशील मुद्दा है जिसमें प्रधानमंत्री को दख़ल देना चाहिए."

कैसे शुरू हुआ ये विवाद?

बीते कुछ दिनों से कोविशील्ड और कोवैक्सीन को मंज़ूरी दिए जाने पर काफ़ी विवाद जारी है.

दोनों ही वैक्सीनों की एफ़िकेसी यानी प्रभावकारिता को लेकर सवाल किए जा रहे हैं.

एक सरल सवाल ये पूछा जा रहा है कि कौन सी वैक्सीन कितनी प्रभावी है.

इसी सिलसिले में जब सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ़ इंडिया के सीईओ अदार पूनावाला से एक टीवी कार्यक्रम में दवा के बारे में पूछा गया.

इस पर उन्होंने कहा, "इस समय दुनिया में सिर्फ़ तीन वैक्सीन हैं जिन्होंने अपनी प्रभावकारिता सिद्ध की है. इसके लिए आपको बीस से पच्चीस हज़ार लोगों पर दवा आज़मानी होती है. कुछ भारतीय कंपनियां भी इस पर काम कर रही हैं. और उनके नतीजों के लिए हमें इंतज़ार करना होगा. लेकिन फ़िलहाल सिर्फ़ तीन वैक्सीन फ़ाइज़र, मॉडर्ना और एस्ट्रोज़ेनेका ऑक्सफ़ोर्ड हैं जिन्होंने ये साबित किया है कि ये काम करती हैं. इसके अलावा कोई भी चीज़ जिसने ये साबित किया है कि वह सुरक्षित है. वह पानी जैसी है. जैसे पानी सुरक्षित होता है. लेकिन एफ़िकेसी 70%, 80% या 90% होती है. ये सिर्फ़ इन तीन वैक्सीनों ने साबित किया है."

पूनावाला के इस बयान से काफ़ी विवाद पैदा हुआ क्योंकि ये कहना कि बाक़ी सारी वैक्सीन पानी जैसी हैं, भारत में बन रही वैक्सीन की गुणवत्ता पर एक सवाल की तरह था.

ऐसे में भारत बायोटेक के एमडी कृष्णा एल्ला ने अपनी वैक्सीन को लेकर एक प्रेस कॉन्फ्रेंस की जिसमें उन्होंने काफ़ी भावनात्मक होते हुए कई दलीलों से अपनी वैक्सीन का बचाव करने की कोशिश की.

उन्होंने कहा, "किसी कंपनी ने मुझे (कोवैक्सिन को) पानी की संज्ञा दी है. इस वजह से मुझे ये बताना पड़ रहा है. अगर मैं थोड़ा नाराज़गी के साथ बोलूं तो मुझे माफ़ करिएगा. इस सबसे दुख होता है. एक वैज्ञानिक को दुख होता है जो 24 घंटे काम करता है. क्योंकि उसे लोगों की ओर से आलोचना मिलती है. वो भी उन लोगों के स्वार्थी कारणों की वजह से. इससे दुख होता है."

एल्ला ने कहा है, "कई लोग कहते हैं कि मैं अपने डेटा को लेकर पारदर्शी नहीं हूं. मुझे लगता है कि लोगों में थोड़ा धैर्य होना चाहिए ताकि वे इंटरनेट पर पढ़ सकें कि हमने कितने लेख प्रकाशित किए हैं. अंतरराष्ट्रीय जर्नल्स में हमारे 70 से ज़्यादा लेख प्रकाशित हो चुके हैं. कई लोग गपशप कर रहे हैं. ये सिर्फ़ भारतीय कंपनियों के लिए एक झटका है. ये हमारे लिए ठीक नहीं है. हमारे साथ ये सलूक नहीं होना चाहिए. मर्क कंपनी की इबोला वैक्सीन ने कभी इंसानों पर क्लिनिकल ट्रायल पूरा नहीं किया लेकिन विश्व स्वास्थ्य संगठन ने फिर भी लाइबेरिया और गुआना के लिए आपातकालीन मंज़ूरी दे दी."

"जब अमरीकी सरकार कहती है कि अगर कंपनी का अच्छा इम्यूनाइज़ेशन डेटा है तो उसे इमरजेंसी मंज़ूरी दी जा सकती है. मर्क कंपनी की इबोला वैक्सीन को मंज़ूरी फ़ेज़ 3 ट्रायल पूरा होने से पहले दी गई. जॉन्सन एंड जॉन्सन ने सिर्फ़ 87 लोगों पर टेस्ट किया, और उसे मंज़ूरी मिल गई."

दलीलें कितनी सही?

इस प्रेस कॉन्फ्रेंस में इल्ला ने अपने बचाव में तमाम तर्क दिए लेकिन सवाल ये उठता है कि क्या इन दलीलों से वैक्सीन की गुणवत्ता सिद्ध हो सकती है.

प्रसिद्ध संक्रामक रोग विशेषज्ञ जय प्रकाश मुलियल कहते हैं, "उन्हें डेटा देना चाहिए. मुझे लगता है कि हमारे देश को किसी भी वैक्सीन को तब तक स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए जब तक उसका डेटा पियर रिव्यू के चरण से पार नहीं हो जाए और उसके बारे में कहा जा सके कि वह काम करती है."

"और मुझे नहीं लगता है कि हमें वैक्सीन को लेकर किसी के बयान पर भरोसा करना चाहिए. इसके लिए एक प्रक्रिया है, और वैक्सीन को मंज़ूरी देने के लिए उसका ठीक ढंग से पालन किया जाना चाहिए."

विवाद से साझा बयान तक

कई घंटों तक विवाद जारी रहने के बाद मंगलवार सुबह अदार पूनावाला ने ट्वीट करके जानकारी दी कि उनकी कंपनी और भारत बायोटेक जल्द ही एक बयान जारी करेगी.

और दोनों कंपनियों की ओर से संयुक्त बयान जारी होने के बाद कहा है कि वे उम्मीद करते हैं कि इससे हर तरह की ग़लतफ़हमी दूर हो जाएगी.

ये संभव है कि इस साझा बयान से दोनों कंपनियों के बीच जारी जंग को लेकर कुछ ग़लतफ़हमियां दूर भी हो जाएं. इस मुद्दे पर की जा रही ख़बरों की संख्या में कमी आ जाए.

लेकिन सवाल ये है कि विवादों से भरे इस अध्याय से कोविड 19 टीकाकरण अभियान को कितना नुक़सान पहुँचा है.

टीकाकरण अभियान को पहुँचा नुक़सान

डॉक्टर जयप्रकाश मुलियल मानते हैं कि दोनों कंपनियों के शीर्ष अधिकारियों का व्यवहार काफ़ी निराशापूर्ण है.

वे कहते हैं, "भारत के लोगों को काफ़ी परेशानियों का सामना करना पड़ा. और हम शुरुआत में काफ़ी ख़ुश थे कि कंपनियां आगे आकर वैक्सीन बनाने के लिए तैयार हुई हैं. इस वायरस के बारे में अच्छी बात ये है कि ये काफ़ी इम्यूनेजेनिक वायरस है. ऐसे में इससे वैक्सीन बनाना आसान है. और हमारी तकनीक काफ़ी विकसित हुई है तो ये कंपनियां तकनीक की मदद से वैक्सीन बना सकती हैं. ऐसे में सब कुछ अच्छा है."

"लेकिन जब व्यापारिक स्थिति पैदा होती है तो सामान्य रूप से प्रतिस्पर्धा आ जाती है. कंपनियां ज़्यादा मुनाफ़े के लिए एक दूसरे के साथ झगड़ती हैं. लेकिन यहां मैंने सोचा था कि इन लोगों की प्राथमिकता ये नहीं होगी. मैंने सोचा था कि प्राथमिकता लोगों की ज़िंदगियां बचाना होगी. ऐसा नहीं है कि उन्हें पैसे नहीं कमाने चाहिए. बिलकुल कमाने चाहिए. लेकिन वह मुख्य प्राथमिकता नहीं हो सकती. ऐसे में इन कंपनियों के इस व्यवहार को लेकर मैं काफ़ी निराश हूं. क्योंकि मुझे इन कंपनियों से आचार-विचार और मूल्यों को लेकर काफ़ी उम्मीदें थीं."

डॉ. मुलियल मानते हैं कि कंपनियों के बीच खड़े हुए इस विवाद से टीकाकरण अभियान को काफ़ी नुक़सान पहुँचता है.

वे कहते हैं, "इससे पहले लोग इन कंपनी मालिकों को एक मसीहा की तरह देखते. लेकिन अब लोग उन्हें सामान्य व्यापारियों की तरह देखेंगे. ये अच्छा नहीं है. इससे टीकाकरण अभियान को नुक़सान पहुँचता है."

वहीं, पब्लिक हेल्थ फ़ाउंडेशन ऑफ़ इंडिया से जुड़े संक्रामक रोगों के विशेषज्ञ डॉ. गिरिधर बाबू मानते हैं कि कंपनियों की ओर से बयानबाज़ी टीकाकरण अभियान के लिए ठीक नहीं है.

वे कहते हैं, "अभी तक जो भी टीकाकरण अभियान होते थे, उसमें वैक्सीन किस कंपनी की ओर से बनाई गई है, ये कभी भी पब्लिक नॉलेज में नहीं आता था. रेगुलेटर वैक्सीन को मंज़ूरी देते थे और सरकार या यूनिसेफ़ जो भी वैक्सीन लेते थे, वो सरकारी तंत्र में चली जाती थी. इस बार जो हुआ है, वो सब काफ़ी दुर्भाग्यशाली है. ये सब नहीं होना चाहिए था. मैं पोलियो टीकाकरण पर कई सालों तक काम किया है."

डॉ. गिरिधर बाबू कहते हैं, "मैं अपने अनुभव से कह सकता हूँ कि लोगों का वैक्सीन में भरोसा पैदा करने में बहुत समय लगता है. लोगों के पास जाकर वैक्सीन से जुड़ीं शंकाओं का निवारण करना होता है. ये सब करने में कई साल लगे हैं. जब एक वैक्सीन को लेकर शक पैदा किया जाता है तो जनता को नहीं पता होता है कि किस वैक्सीन को लेकर बात की गई है. वे सभी वैक्सीनों को शक की नज़र से देखते हैं. इस वजह से ये जो चर्चा है, वो वैज्ञानिकों के लिए मुफ़ीद है. मुझे लगता है कि ये सब बातें आम जनमानस तक पहुँचाने का वक़्त नहीं है."

"इस समय ज़रूरत है कि वैक्सीन के प्रति भरोसा पैदा किया जाए, लोगों को बताया जाए कि फ़लां वैक्सीन अच्छी है और उसे लिया जा सकता है. जब ट्रायल पूरी होगी, तब कौन सी वैक्सीन अच्छी, ये सब को बताया जाएगा. तब तक तसल्ली रखें और इंतज़ार करें."

इतिहास के पन्ने पलटें तो पाकिस्तान से लेकर अफ़ग़ानिस्तान और दुनिया के तमाम देशों में पोलियो टीकाकरण के दौरान स्वास्थ्यकर्मियों को वैक्सीन के प्रति शक की वजह से हिंसा तक का सामना करना पड़ा है.

लेकिन एक सवाल अभी भी बना हुआ है कि अगर कोई भी वैक्सीन लोगों को कोरोना वायरस के संक्रमण से बचाने में पूरी तरह कामयाब नहीं है, तो सरकार की ओर से सरल शब्दों में इसे लेकर सूचना जारी क्यों नहीं होती है. (bbc)

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