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असम में कड़ी ठंड में तीन हफ़्ते से धरने पर बैठे हैं सैकड़ों लोग
11-Jan-2021 1:01 PM
असम में कड़ी ठंड में तीन हफ़्ते से धरने पर बैठे हैं सैकड़ों लोग

DILIP SHARMA/ bbc

-दिलीप कुमार शर्मा

"हमारे साथ यहां धरना देने आईं 55 साल की रेवती पाव की पहले मौत हुई. वह ज्यादा ठंड के कारण बीमार पड़ गई थीं. यहां स्वास्थ्य केंद्र और सरकार से कोई सुविधा नहीं मिली. उन्हें देखने कोई डॉक्टर नहीं आया. उसके बाद कुस्मिता मोरांग की मेडिकल में मौत हो गई. वह गर्भवती थी."

"आज सुबह इंद्रा मीली के नाक से खून बहने लगा. वह अब सरकारी अस्पताल में भर्ती है. मैं 80-82 साल की हूं और इस ठंड में प्लास्टिक के टेंट में रह रही हूं. हमें यहां 21 दिन हो गए है. अगर सरकार माई-बाप है तो हमारे साथ अन्याय क्यों हो रहा है?"

असम के तिनसुकिया शहर में जिला परिषद कार्यालय के ठीक पीछे बोरगुरी में धरने पर बैठी मिसिंग जनजाति की दमयंती लगासू जब ये बातें कहती है तो उनका दर्द चेहरे पर दिखने लगता है.

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21 दिसंबर से तिनसुकिया बोरगुरी इलाके के एक खुले मैदान में लाइका और दोधिया गांव के 1480 परिवार धरने पर बैठे हुए है. ब्रह्मपुत्र नदी के दक्षिणी तट में स्थित डिब्रू-सैखोवा नेशनल पार्क के मुख्य क्षेत्र में मिसिंग जनजाति के ये दो वन गाँव बीते 70 सालों से बसे हुए है.

लेकिन राष्ट्रीय उद्यान होने के कारण वहां लोगों को मिलने वाली बुनियादी सुविधाओं से जुड़ी सरकारी योजनाओं को बंद कर दिया गया है.

ऐसे में लाइका और दोधिया गांव के लोग पिछले कई सालों से स्थायी पुनर्वास की मांग को लेकर आंदोलन करते आ रहे हैं. लेकिन अब इनकी मांग है कि जबतक सरकार किसी दूसरी ज़मीन पर इन्हें स्थायी तौर पर बसा नहीं देती ये धरना स्थल पर ही रहेंगे.

कड़ाके की इस ठंड में प्रदर्शन स्थल पर अबतक दो महिलाओं की मौत हो चुकी है जबकि कई लोग लगातार बीमार पड़ रहे हैं. दमयंती अपने विरोध और दर्द को मिसिंग जनजाति का एक गीत गाकर बयां करती हैं तो पास बैठी महिलाएं रोने लगती हैं.

इस गीत का मतलब पूछने पर वो कहती है,"पहाड़, नदियां, विशाल पत्थर, पेड़ पौधे भी मानव जीवन की ऐसी तकलीफ़ पर रोते होंगे. हमारा कोई ठिकाना नहीं है और हमें नहीं पता इस शिविर में हमारा आगे क्या होगा? हम ज़िंदा भी रहेंगे या नहीं.हमारे साथ सरकार क्या करेगी,जिस तरह ब्रह्मपुत्र का पानी बह रहा है उसे पता नहीं वो कहां जाकर गिरेगा, ठीक वैसा ही हमारा जीवन हो गया है. मैं यही बातें अपनी गीत में गा रही थी."

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महिलाओं की अहम भूमिका
भारत में बीते कुछ महीनों के दौरान शाहीन बाग से लेकर किसान आंदोलन तक महिलाएं जिस तरह सामने आई हैं,वही ज़ज़्बा और जोश मिसिंग जनजाति की महिलाओं में भी दिखा. धरना स्थल पर कवरेज के लिए आने वाले मीडिया के लोगों से ज्यादातर महिलाएं ही बात कर रही हैं.

40 साल की राधिका चंक्रा प्लास्टिक के तंबू दिखाते हुए कहती है,"हम इतनी ठंड में इन प्लास्टिक के तंबू में रह रहें है और यहीं ज़मीन पर सोते है. रात को जब ठंड ज्यादा होती है तो लकड़ियां जलाकर हमें रातभर जागना पड़ता है. दिन में धूप से ये तंबू गर्म हो जाते है. हमें अपने बच्चों की चिंता हो रही है. यहां लोग लगातार बीमार पड़ रहे हैं."

बोरगुरी प्रदर्शन स्थल के पास ही प्रदर्शनकारियों ने करीब 1500 लोगों के रहने के लिए प्लास्टिक के अस्थाई तंबू लगा रखे हैं. इन तंबुओं के अंदर ज़मीन पर भी सोने के लिए प्लास्टिक बिछी हुई है. तंबुओं के बाहर बुझे हुए चुल्हे,जूठे बर्तन और गंदगी - ये इलाक़ा एक शरणार्थी शिविर जैसा लगता है.

इन तंबू में छोटे-छोटे समूह बनाकर महिलाएं अपने छोटे बच्चों और बुजुर्गों के साथ रह रहीं है. यहां ना तो शौचालाय की अच्छी व्यवस्था है और न ही बिजली आती है. पीने के पानी के लिए कुछ हैंड पंप लगाए गए हैं. मगर यहां धरना दे रहें सभी लोगों ने तय किया है कि चाहे कितनी भी तकलीफ़ उठानी पड़े, वो अब सरकार से स्थायी ज़मीन लेकर ही लौटेंगे.

बुज़ुर्गों को लेकर चिंता
चबुआ के एक कॉलेज से बीए की पढ़ाई कर रही मीनू पाटिर को इस ठंड में अपने बुजर्गों की बेहद फिक्र है. वो कहती है," हम अपने मां-पिता और परिवार के बुजर्गों के साथ केवल इसलिए यह आंदोलन कर रहे हैं ताकि हमें रहने के लिए एक स्थायी ठिकाना मिले. मैं एक छात्रा हूं और इस समय मुझे अपनी क्लास में होना चाहिए था लेकिन मैं धरने पर बैठी हूं."

"मैं एनसीसी कैडेट की ट्रेनिंग भी ले रही हूं. मेरा सपना पुलिस सेवा में जाने का है लेकिन फिलहाल दिमाग में केवल एक ही बात है कि सरकार हमारी तकलीफ़ को समझे और स्थायी तौर पर हमें रहने के लिए जगह दे."

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धरना-स्थल पर अपने लोगों का हौसला बुलंद कर रहें ताकम मिसिंग पोरिन केबांग अर्थात मिसिंग छात्र संगठन के नेता प्रसन्ना नाराह ने कहा,"1950 में जो भूकंप आया था उस समय हमारे लोगों की ज़मीन ब्रह्मपुत्र में चली गई थी और गांव बँट गए थे. हमें उस समय की सरकार ने वन विभाग की मदद से लाइका, दोधिया गांव में बसाया था. यह इलाक़ा डिब्रू फॉरेस्ट रिजर्व के अंतर्गत था इसलिए इन गांवों को वन गांव के तौर पर घोषित किया गया. बाद में समय के साथ 1986 में उस फॉरेस्ट रिजर्व को वन्यजीव अभ्यारण्य के रूप में घोषित किया गया और 1999 में भारत सरकार ने इसे राष्ट्रीय उद्यान का दर्जा दे दिया."

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"वन्यजीव अभ्यारण्य बनने तक सरकार इन दो गांव के लोगों को उनके मौलिक अधिकार के तहत सारी सुविधाएँ प्रदान कर रही थीं. लेकिन 1999 में जब डिब्रू और सैखोवा नाम के दो आरक्षित वन और कुछ अन्य क्षेत्रों को शामिल कर नेशनल पार्क बनाया गया उसके बाद से स्कूल, स्वास्थ्य केंद्र, बिजली-पानी जैसी तमाम बुनियादी सुविधाओं को सरकार ने बंद कर दिया. लेकिन चुनाव के दौरान सभी पार्टी के लोग वोट मांगने जरूर आते हैं. हमारे लोग 1986 से स्थायी पुनर्वास की मांग करते आ रहें है. क्योंकि कानूनी तौर पर भी नेशनल पार्क में गांव नहीं बस सकते."

असम में अगले चार महीने में विधानसभा चुनाव होने वाले है. प्रदेश की राजनीति समझने वाले लोगों का मानना है कि मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल पर मिसिंग जनजाति लोगों के इस मुद्दे को लेकर दबाव इसलिए बनाया जा रहा है क्योंकि ये दोनों गांव चबुआ विधानसभा क्षेत्र के अंतर्गत मुख्यमंत्री के पैतृक गांव बिंधाकाटा ग्राम पंचायत के अंतर्गत आते है.

डिब्रूगढ़ में बीते कई सालों से पत्रकारिता कर रहें अविक चक्रवर्ती कहते हैं,"असम में मिसिंग लोगों की जनसंख्या करीब 14 लाख के आसपास है. मुख्यमंत्री सोनोवाल के खुद के चुनावी क्षेत्र माजुली में मिसिंग जनजाति के करीब 45 हजार मतदाता है. वहां 15 साल बाद कांग्रेस के उम्मीदवार को पिछले चुनाव में सोनोवाल ने हराया था."

"कांग्रेस ने भी मिसिंग समुदाय से अपनी सरकार में मंत्री बनाए थे और मौजूदा सोनोवाल सरकार में भी मंत्री बनाए गए है. हाल ही में कांग्रेस दल के नेता देवब्रत सैकिया धरना स्थल पर लोगों से मिलने आए थे. लिहाजा राजनीति तो हो रही है. लेकिन लाइका और दोधिया गांव के मिसिंग लोगों की यह समस्या बहुत पुरानी है और अबतक किसी भी सरकार ने इसका कोई स्थाई हल नहीं निकाला है. इस समस्या का समाधान हो जाने से सबसे अच्छी बात यह होगी कि नेशनल पार्क में वन और विविध वन्य-जीवन ज्यादा सुरक्षित हो जाएगा."

 

DILIP SHARMA

तिनसुकिया ज़िले में पर्यावरण संरक्षण के लिए बीते दो दशकों से काम करते आ रहें निरंता गोहाईं असम में डिब्रू-सैखोवा नेशनल पार्क की अहमियत के बारे में कहते है,"लाइका और दोधिया गांव की समस्या 20 साल पुरानी है और इससे पार्क को काफी नुकसान पहुंचा है.यहां के ग्रामीणों को रजिस्टर्ड फारेस्ट विलेजर्स के तौर पर मान्यता दी गई थी."

"जब 1986 में इस क्षेत्र को वन्यजीव अभ्यारण्य घोषित किया गया उस समय सरकारी गज़ट अधिसूचना में यह उल्लेख किया गया कि इन दोनों गांव के लोगों को अभ्यारण्य से बाहर दूसरी जगह बसाया जाएगा लेकिन इस दौरान कई सरकारें आई लेकिन किसी ने कुछ नहीं किया. 1999 में जब यह नेशनल पार्क बन गया तो सरकार ने यहां के गांव मिलने वाली सारी सुविधाओं को समाप्त कर दिया. इसके फलस्वरूप यहां के लोग अपनी जीविका और अन्य जरूरी ख़र्चों के लिए पेड़ो की कटाई करना और वन्यजीवों को मारना शुरू कर दिया.ऐसी गतिविधियों से इस नेशनल पार्क को बहुत नुकसान पहुंच रहा है.जबकि डिब्रू-सैखोवा विश्व का सबसे बड़ा 340 वर्ग किलोमीटर में फैला रिवर आईलैंड नेशनल पार्क है."

"ब्रह्मपुत्र नदी के दक्षिणी तट में स्थित जैव विविधता वाला डिब्रू-सैखोवा नेशनल पार्क दुनिया के 19 जैव विविध हॉट स्पॉट वाले क्षेत्रों में से एक है. यह पार्क अपने प्राकृतिक सौंदर्य और विविध वन्य-जीवों के लिए विश्व भर में प्रसिद्ध है और पर्यटन के नज़रिए से इसकी बहुत अहमियत है. नेशनल पार्क राष्ट्रीय संपत्ति है और इसे बचाने के लिए लाइका-दोधिया के लोगों को पार्क से बाहर बसाना बहुत ज़रूरी है."

जल्द होगा समाधान - बीजेपी
स्थायी पुनर्वास की मांग को लेकर जारी आंदोलन और अपनी सरकार की हो रही आलोचना का जवाब देते हुए चबुआ इलाके के भाजपा विधायक बिनोद हज़ारिका कहते है,"जो लोग धरने पर बैठे है उनकी मांग जायज़ है. सरकार के खिलाफ उनकी नाराज़गी रहेगी. क्योंकि 20 साल पहले जब उस क्षेत्र को नेशनल पार्क घोषित किया था उसी समय उनका स्थायी पुनर्वास करना चाहिए था. उस समय कांग्रेस की सरकार थी. हमारी पार्टी की सरकार बने साढे़ चार साल हुए उसमें सीएए विरोध और कोविड के कारण करीब एक साल सरकारी कामकाज ठप हो गया."

DILIP SHARMA/BBC

"मैंने असम विधानसभा में लाइका-दोधिया गांव का मुद्दा कई बार उठाया है. अभी 15 दिन पहले मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल के नेतृत्व में संबंधित सभी विभागों के शीर्ष अधिकारियों के साथ हमारी बैठक हुई है और हमने फैसला किया है इसी महीने के अंत तक स्थायी पुनर्वास के तहत इन लोगों को दूसरी ज़मीन का अधिकार दे दिया जाएगा. इस तरह के काम में दो-तीन साल का समय लगता है लेकिन हम 15 दिन में करने का प्रयास कर रहे है. लखीमपुर के आदाकोना जगह में 900 परिवार के लिए हमारी सरकार ने सारी सुविधाओं से लैस एक मॉडल विलेज की योजना तैयार की है. बाकि के परिवारों को तिनसुकिया जि़ले में बसाया जाएगा."  (bbc.com)
 

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