रायपुर

लौह शिल्प ढाल रहे बस्तरिहा हाथ
13-Sep-2023 8:50 PM
लौह शिल्प ढाल रहे बस्तरिहा हाथ

‘छत्तीसगढ़’ संवाददाता

रायपुर, 13 सितंबर। आदिवासी लोककला अकादमी की ओर से 10 दिवसीय लौह शिल्प कार्यशाला मंगलवार को महंत घासीदास संग्रहालय परिसर रायपुर में शुरू हुई। यहां कोंडागांव बस्तर से आए शिल्पकार दिन भर कलाकृतियां बनाने में जुटे हुए हैं।

परिसर के एक हिस्से में इन कलाकारों ने भ_ियां सुलगाई हैं और इसमें लोहे को तपा कर ये शिल्पकार छेनी-हथौड़ी व अन्य उपकरणों की मदद से नया आकार दे रहे हैं। इनके ज्यादातर शिल्प सजावटी सामान से लेकर देवी-देवताओं की मूर्तियां हैं।

आदिवासी लोक कला अकादमी के अध्यक्ष नवल शुक्ल ने बताया कि रोजाना सुबह 10:30 से शाम 5:30 बजे तक आयोजित इस कार्यशाला में 21 सितंबर तक शिल्प निर्माण जारी रहेगा। वहीं 21 व 22 सितंबर को इनकी बनाई कलाकृतियों की प्रदर्शनी कला वीथिका रायपुर में लगाई जाएगी। यहां शामिल कलाकारों में सुंदरलाल विश्वकर्मा, शिवचरण विश्वकर्मा,लोकमन विश्वकर्मा,बीजूराम विश्वकर्मा,रामसूरज मरकाम, राजकुमार बघेल, चरन सिंह एवं सनत शामिल हैं।

इन कलाकारों में ज्यादातर का मानना है कि बदलते दौर में लौह शिल्प निर्माण तकनीक आसान हुई है और बाजार भी अच्छा मिल रहा है। इसलिए बहुत से कलाकार अपने खेती के बजाए लौह शिल्प पर ज्यादा ध्यान दे रहे हैं। शिवचरण विश्वकर्मा बताते हैं कि लौह शिल्प को बस्तर आर्ट के नाम से देश और दुनिया में जब से पहचान मिली है, तब से बाजार में उनकी कलाकृतियों को अच्छा दाम मिल रहा है।

शिवचरण के पिता स्व. सोनाधर विश्वकर्मा राष्ट्रीय सम्मान प्राप्त शिल्पी थे और उन्हीं की परंपरा को शिवचरण व उनका परिवार आगे बढ़ा रहा है। शिवचरण बताते हैं कि उनके पिताजी के दौर तक शिल्पकार कच्चा लोहा पत्थर लाने जंगल जाते थे और बड़ी मेहनत से पहाड़ों से खोद कर लाते थे।

उसके बाद कोयले की भ_ियां जला कर उसमें कच्चा लोहा पिघलाया जाता था और रात भर के इंतजार के बाद सुबह काम के लायक लोहा मिलता था, जिसे ‘’घाना लोहा’’ कहते हैं। लेकिन बाद में परिस्थितियां बदल गई। फिर तो बाजार में लोहे का सामान मिलने लगा, जिन्हें भ_ियों में गला कर फिर पीट-पीट कर मनचाहा आकार दे देते हैं।

शिवचरण ने बताया कि लौह शिल्प के माध्यम से वह देश भर में घूम चुके हैं और देश के हर हिस्से में लौह शिल्प के कद्रदान हैं। लोकमन विश्वकर्मा भी परंपरागत ढंग से लौह शिल्प निर्माण का कार्य कर रहे हैं। वह बताते हैं, पहले किसानी का काम मुख्य होता था और बचे समय में लौह शिल्प बनाते थे। लेकिन देश और दुनिया में बस्तर आर्ट की मांग बढऩे के बाद उनके क्षेत्र के ज्यादातर लोग लौह शिल्प को प्राथमिकता देने लगे हैं। लोकमन बताते हैं कि अब कच्चा माल यानि बाजार से लोहा आसानी से मिल जाता है। इसलिए शिल्प निर्माण में ज्यादा दिक्कत नहीं आती है। 

बीजूराम विश्वकर्मा बताते हैं कि उनके परिवार में भी परंपरागत ढंग से लौह शिल्प का कार्य होता आया है। पहले जहां देवी-देवता और शादी-ब्याह से जुड़े सामान लौह शिल्प में बनाते थे, वहीं अब हर तरह का सजावटी सामान मांग के अनुरूप बनाते हैं। बीजूराम के पिताजी नानजात विश्वकर्मा और मां सोना देई राष्ट्रीय सम्मान प्राप्त शिल्पकार रहे हैं। बीजूराम का कहना है कि लौह शिल्प को सरकारी स्तर पर पर्याप्त प्रोत्साहन मिला है। इस वजह से इसे देश-विदेश में बाजार भी अच्छा मिल जाता है।

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