अंतरराष्ट्रीय
अफ़ग़ानिस्तान के रणनीतिक रूप से अहम समांगन प्रांत की राजधानी को भी तालिबान ने सोमवार को अपने कब्ज़े में ले लिया. इसी दौरान अफ़ग़ानिस्तान सरकार समर्थित एक कमांडर ने भी तालिबान के पक्ष में जाने का फ़ैसला किया.
उत्तरी अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान तेज़ी से बढ़ रहा है. कहा जा रहा है कि अशरफ़ ग़नी सरकार पर इस्तीफ़े का दबाव लगातार बढ़ता जा रहा है.
अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने अफ़ग़ानिस्तान से 31 अगस्त तक अपने सभी सैनिकों को वापस बुलाने की घोषणा की है. तभी से तालिबान का अफ़ग़ानिस्तान में प्रभाव लगातार बढ़ा है. अब तक 90 फ़ीसदी से ज़्यादा अमेरिकी सैनिक वापस जा चुके हैं.
सैनिकों को बुलाने को लेकर दुनिया भर में राष्ट्रपति बाइडन की आलोचना हो रही है. कहा जा रहा है कि अमेरिका ने 20 साल तक उस लड़ाई को लड़ा, जिसका कोई नतीजा नहीं निकला और अफ़ग़ानों को बीच मँझधार में छोड़कर निकल गया.
मंगलवार को अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने अफ़ग़ानिस्तान से अपने सैनिकों की वापसी के फ़ैसले का बचाव किया और कहा कि उन्हें इसके लिए कोई पछतावा नहीं है.
व्हाइट हाउस में मंगलवार को पत्रकारों से बात करते हुए बाइडन ने कहा, ''मैं अफ़ग़ान नेताओं से आग्रह करता हूँ कि वे एकजुट होकर अपने मुल्क के लिए लड़ें. अमेरिका अपनी प्रतिबद्धता को लेकर आज भी डटा हुआ है. हम हवाई मदद कर रहे हैं, सेना को वेतन दे रहे हैं और सैनिकों को उपकरणों के साथ खाद्य सामग्री भी मुहैया करा रहे हैं. उन्हें अपने लिए लड़ना होगा.''
पिछले तीन दिनों में तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान की चार अन्य प्रांतीय राजधानियों पर कब्ज़ा किया है. कहा जा रहा है कि उत्तरी अफ़ग़ानिस्तान में जितनी तेज़ी से तालिबान बढ़ रहा है, ऐसे में मज़ार-ए-शरीफ़ पर कब्ज़ा भी मुश्किल नहीं है.
कई अहम शहरों में तालिबान और अफ़ग़ान बलों की भीषण लड़ाई चल रही है. अहम संघर्षों में राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी की हार के बाद उन पर दबाव बढ़ता जा रहा है. ग़नी सरकार में लगातार मंत्री और सैन्य कमांडर बदले जा रहे हैं और इसे उथल-पुथल के तौर पर ही देखा जा रहा है.
कहा जा रहा है कि अगर अफ़ग़ानिस्तान में सभी राजनीतिक ताक़तें एकजुट होकर एक युद्ध योजना के साथ नहीं आती हैं तो अशरफ़ ग़नी की सरकार कुछ ही हफ़्तों में बेदख़ल हो सकती है. टोलो न्यूज़ के अनुसार अफ़ग़ानिस्तान के कार्यकारी वित्त मंत्री ख़ालिद पयिंदा ने देश छोड़ दिया है.
इसी साल अप्रैल महीने में अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने अफ़ग़ानिस्तान से सभी अमेरिकी सैनिकों को बुलाने की घोषणा की थी. तब से ही तालिबान ने देश भर में अफ़ग़ान की वर्तमान सरकार और सेना के ख़िलाफ़ हमला बोला है.
हालाँकि ट्रंप प्रशासन से क़तर के दोहा में फ़रवरी 2020 में तालिबान ने शांतिपूर्ण समाधान की बात मानी थी. अमेरिका से प्रशिक्षित अफ़ग़ान सैनिक तालिबान के सामने कमतर साबित हो रहे हैं.
सरकार समर्थक तालिबान के पाले में क्यों जा रहे?
अफ़ग़ानिस्तान में सोवियत यूनियन के हमले के ख़िलाफ़ मोर्चा खोलने वाले जाने-माने कमांडर और राजनीतिज्ञ अहमद शाह मसूद के भाई अहमद वली मसूद ब्रिटेन में अफ़ग़ानिस्तान के राजदूत रहे हैं.
उन्होंने वॉल स्ट्रीट जर्नल से कहा है, ''भ्रष्ट नेताओं और सरकार की खातिर लड़ने के लिए सैनिकों के बीच कोई प्रेरणा नहीं है. ये ग़नी के लिए नहीं लड़ रहे हैं. इन्हें ठीक से खाना भी मिल रहा. इन्हें क्यों लड़ना चाहिए? किसके लिए लड़ना चाहिए? ये तालिबान के साथ बेहतर हैं. इसीलिए ये अपना पक्ष बदल रहे हैं.''
वॉल स्ट्रीट जर्नल ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि हाल के हफ़्तों में सरकारी नियंत्रण बुरी तरह से ध्वस्त हुआ है लेकिन राष्ट्रपति ग़नी बेतहाशा आशावादी बयान दे रहे हैं. इस रिपोर्ट में कहा गया है कि जब तालिबान ने शनिवार को प्रांतीय राजधानियों पर कब्ज़ा करना शुरू किया तो ग़नी सरकारी बैठकों में व्यस्त रहे.
वॉल स्ट्रीट जर्नल ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है, ''छोटे स्तर के कमांडर तालिबान के सामने सरेंडर कर रहे हैं. सोमवार को समांगन के पूर्व सीनेटर और ताजिक जमिअत-ए-इस्लामी पार्टी के प्रमुख आसिफ़ अज़िमी पाला बदलकर तालिबान के साथ चले गए.''
अज़िमी के तालिबान के साथ जाने को बहुत अहम और ग़नी सरकार के लिए बड़े झटके के तौर पर देखा जा रहा है. कहा जा रहा है कि अज़िमी के पाला बदलने का असर बाक़ियों पर भी पड़ेगा. इससे इस तर्क को बल मिलेगा कि तालिबान की जीत को रोकना अब मुश्किल है.
अहमद शाह मसूद के नेतृत्व में जमीयत-ए-इस्लामी 2001 में अमेरिका के हमले से पहले तालिबान के ख़िलाफ़ एक अहम गठबंधन था.
अज़िमी ने वॉल स्ट्रीट जर्नल से फ़ोन पर कहा है, ''जमीयत-ए-इस्लामी की स्थापना 1980 के दशक में सोवियत समर्थित शासन के ख़िलाफ़ इस्लामिक शासन लागू करने के लिए हुई थी. लेकिन 2001 में अमेरिका के साथ गठबंधन के बाद हम इस रास्ते से भटक गए थे. हम एक इस्लामिक सरकार चाहते हैं. यह सरकार अमेरिका की कठपुतली है. जो भी इस सरकार के ख़िलाफ़ खड़ा होगा, हम उसके साथ हैं. मेरे सभी समर्थन अब इसी रास्ते पर बढ़ेंगे.''
तालिबान हर दिन अपनी लड़ाई तेज़ कर रहा है. पश्चिमी अफ़ग़ानिस्तान के हेरात शहर पर नियंत्रण के लिए तालिबान ने हमले और मज़बूत कर दिए हैं. तालिबान ने यहाँ तीन तरफ़ से हमला शुरू किया है.
टोलो न्यूज़ के अनुसार तालिबान ने फ़राह शहर के ज़्यादातर हिस्सों को अपने नियंत्रण में ले लिया है. हेरात में अफ़ग़ान बलों के एक कमांडर अब्दुल रज़ाक़ अहमदी ने कहा है कि यहाँ युद्ध जैसी स्थिति है. उन्होंने कहा कि तालिबान ने अपने लड़ाकों को बड़ी संख्या में जुटा लिया है. इन लड़ाकों में विदेशी भी शामिल हैं.
अफ़ग़ान सैनिक इतने लाचार क्यों?
अफ़ग़ानिस्तान में काग़ज़ पर 350,000 सैनिक हैं. इतनी बड़ी संख्या तालिबान को हराने के लिए काफ़ी है लेकिन ऐसा होता नहीं दिख रहा है. लेकिन कहा जा रहा है कि तालिबान के साथ संघर्ष शुरू होने के बाद 250,000 अफ़ग़ान सैनिक ही सेवा में हैं.
ज़्यादातर लोगों ने गोला-बारूद और खाने-पीने के सामान ख़त्म होने के बाद सरेंडर कर दिया है. कई रिपोर्ट्स के मुताबिक़ सैनिक महीनों से बिना सैलरी के काम कर रहे हैं.
बाइडन ने जुलाई महीने के पहले हफ़्ते में भी अपने फ़ैसले का बचाव करते हुए अफ़ग़ान सैनिकों की संख्या का हवाला दिया था. उन्होंने कहा था, "अफ़ग़ानिस्तान में एक और साल की लड़ाई कोई हल नहीं है. बल्कि वहाँ अनंत काल तक लड़ते रहने का एक बहाना है."
बाइडन ने इस बात से भी इनकार किया था कि अफ़ग़ानिस्तान की सत्ता पर तालिबान के आने से रोका नहीं जा सकता है. उन्होंने कहा कि तीन लाख अफ़ग़ान सुरक्षा बलों के सामने 75 हज़ार तालिबान लड़ाके कहीं से नहीं टिक सकेंगे.
अमेरिका ने नेटो सहयोगियों के साथ अफ़ग़ानिस्तान में पिछले 20 सालों में जिस सेना को तैयार किया था, वो नाकाफ़ी और निष्प्रभावी साबित हो रही है. अफ़ग़ानिस्तान की सेना और एयर सपोर्ट बाहरी कॉन्ट्रैक्टरों पर आश्रित है.
कहा जा रहा है कि अफ़ग़ानिस्तान जैसे मुल्क में यह व्यवस्था कभी टिकाऊ नहीं हो सकती, जहाँ चीज़ें सीमित और स्किल की कमी है. अफ़ग़ानिस्तान की वायु सेना के पास तालिबान के ख़िलाफ़ मुक़ाबले लायक हथियार भी हैं.
कुछ अफ़ग़ान लड़ाकू विमान और हेलिकॉप्टर उड़ाने में भी सक्षम हैं लेकिन पश्चिमी कॉन्ट्रैक्टर यहाँ से चले गए हैं. ऐसे मुश्किल वक़्त में अफ़ग़ान सैनिक ख़ुद को अकेले पा रहे हैं.
जुलाई में ही अफ़ग़ानिस्तान के एक हज़ार से ज़्यादा सैनिक पड़ोसी देश ताजिकिस्तान भाग गए थे. सैनिकों में कोई उत्साह नहीं है क्योंकि कई स्तरों पर ज़रूरी चीज़ों की कमी है.