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अशोक कुमारः ब्रिटेन की राजनीति में ख़ास जगह बनाने वाले हरिद्वार के वैज्ञानिक
07-Nov-2021 9:32 PM
अशोक कुमारः ब्रिटेन की राजनीति में ख़ास जगह बनाने वाले हरिद्वार के वैज्ञानिक

 

-माइकल वाइल्ड

अशोक कुमार उत्तर-पूर्वी इंग्लैंड का संसद में प्रतिनिधित्व करने वाले पहले अश्वेत सांसद थे.

नस्लवाद और व्यक्तिगत चुनौतियों का सामना करने वाले भारतीय मूल के रसायन इंजीनियर अशोक कुमार ब्रितानी संसद के सबसे सम्मानित सांसदों में से एक बने.

तीस साल पहले हुए उप-चुनाव में जीत हासिल करके अशोक कुमार ने सबको चौंका दिया था.

मार्च 2010 की उस दोपहर नॉर्थ यॉर्क मूर्स की पत्थर से बनी सड़कों पर एक शवयात्रा निकल रही थी. लोग समूहों में दुकानों के दरवाज़ों पर खड़े थे. कुछ के हाथों में शॉपिंग बैग थे तो कुछ ने कसकर रूमाल पकड़े हुए थे.

शववाहन के आगे एक बुज़ुर्ग चल रहा था, उसकी कमर और सिर झुके हुए थे. पीछे-पीछे परिवार के दूसरे लोग चल रहे थे. इन सबके पीछे उनके सांसद बेटे अशोक कुमार का ताबूत था.

अशोक कुमार की शवयात्रा
गाइसबोरो के लाल ईंटों से बने मेथोडिस्ट चर्च में हुई प्रार्थना सभा में लेबर पार्टी के मंत्री हैरियट हर्मन ने अशोक कुमार को याद करते हुए कहा कि वो बहुत कम उम्र में चले गए. रवि कुमार ने अपने भाई को याद करते हुए कहा कि वो दूसरे के दर्द को महसूस करते थे.

कुमार बचपन में अपने दो भाइयों और माता-पिता के साथ भारत के हरिद्वार से इंग्लैंड पहुंचे थे. उनके पिता एक पोस्टमास्टर थे जिन्हें काम खोजने के लिए बहुत संघर्ष करना पड़ा था. कुमार ने पहले स्थानीय सेकेंड्री स्कूल में पढ़ाई की और फिर एस्टन यूनिवर्सिटी से केमिकल इंजीनियर की डिग्री ली और आगे चलकर पीएचडी भी की.

1980 के दशक में कुमार इंपीरियल कॉलेज लंदन के साथ तीन साल काम करने के बाद टीसाइड में ब्रिटिश स्टील के साथ रिसर्च साइंटिस्ट के तौर पर जुड़ गए.

उनके अपने मज़बूत राजनीतिक विचार थे और काम के बाद वो स्थानीय मुद्दों पर समुदाय के बीच काम करते थे. 1987 में वो मिडिल्सबोरो के अकेले एशियाई मूल के काउंसलर थे.

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कंज़र्वेटिव सांसद रिचर्ड होल्ट की 1991 में अचानक मौत के बाद पास की ही संसदीय सीट लैंगबार्फ़ खाली हो गई थी. कुमार के समर्थक चाहते थे कि उप-चुनाव की रेस में वो भी शामिल हों.

ट्रेड यूनियन कुमार का समर्थन कर रही थीं और उनके पास स्टील उद्योग की समस्याओं की जानकारी भी थी लेकिन लेबर पार्टी के कुछ लोगों को आशंका थी कि वोटर एक एशियाई उम्मीदवार को वोट देंगे या नहीं.

लैंगबार्फ़ लेबर पार्टी के गढ़ रहे हार्टलपूल, मिडिल्सबोरो, स्टॉक्टन नॉर्थ और रेडकार सीटों से कुछ ही मील दूर थी लेकिन ये अलग ही दुनिया थी.

इस सीट में स्किनग्रोव और लोफ्टस जैसे कई ओद्योगिक क़स्बे थे और साथ ही क्लीवलैंड वे और जेनटील तटीय रिजॉर्ट साल्टबर्न के दूरस्थ कृषि समुदाय भी थे.

ये इंग्लैंड की सर्वाधिक गोरे वोटों वाली सीट भी थी. कुमार के व्यक्तित्व को लेकर भी कुछ चिंताएं थीं. कुछ समय बाद ही राष्ट्रीय चुनाव थे ऐसे में देशभर के मीडिया की नज़रें भी इस सीट पर थीं.

कुमार एक विनम्र व्यक्ति थे जो कम ही बोलते थे. वो अधिकतर शामें अकेले अपने घर में राजनीतिक सिद्धांत पढ़ते हुए और जैज़ संगीत सुनते हुए बिताते थे. ऐसे में गरम राजनीतिक माहौल इस शांत काउसंलर के बहुत अनुकूल नहीं था.

लेकिन स्टील और कोयला उद्योग की गहन जानकारी की वजह से पार्टी के नेता उन्हें पसंद करते थे और जल्द ही उनकी उम्मीदवारी पर मुहर लग गई.

लेकिन उप-चुनाव जितना उन्होंने लोगों ने सोचा था उससे कहीं ज़्यादा मुश्किल साबित हुआ.

चुनावी अभियान की हर सुबह एक जैसी ही होती थी. उम्मीदवार अस्थाई मंच पर होते थे, अगल-बगल में शैडो मंत्री खड़े होते थे और सभी ने लाल गुलाब लगाया होता था.

मार्गेरेट बैकेट, जॉन प्रैसकोट, जॉन स्मिथ, गोर्डन ब्राउन जैसे विपक्ष के बड़े नेता उत्तर-पूर्व के इस इलाक़े के दौरे कर रहे थे. स्थानीय कॉलेजों और नर्सिंग केंद्रों में फोटो खिंचवाए जाते थे.

आमतौर पर शांत रहने वाले अशोक कुमार मीडिया के सामने पार्टी के दूसरे नेताओं को पेश करके ख़ुश थे. लेकिन सोमवार 19 अक्तूबर को जब प्रचार का तीसरा दिन ही था तब प्रेसवार्ता में कुमार की सीट खाली थी.

हैरियट हर्मन ने संक्षिप्त बयान देते हुए बताया कि उनकी मां का देहांत हो गया है और वो अपने घर चले गए हैं. लेकिन चुनाव अभियान में कोई बदलाव नहीं किया गया. हर्मन योजनानुसार मतदाताओं से मिलने गाइसबोरो के अस्पताल में चली गईं.

कुमार भी अगले दिन चुनाव अभियान में लौट आए थे. इसी बीच कंज़र्वेटिव पार्टी इस बात पर ज़ोर दे रही थी कि उनके सामने एक कमज़ोर उम्मीदवार है.

लेबर पार्टी के चुनाव प्रचार में कुमार की जिस संख्या में तस्वीरें प्रकाशित हो रहीं थीं उतनी ही कंज़र्वेटिव पार्टी भी अपने राजनीतिक साहित्य में इस्तेमाल कर रही थी. ऐसा उनके भारतीय मूल पर ध्यान केंद्रित करने के लिए किया जा रहा था.

कंज़र्वेटिव पार्टी ने नारा दिया था- 'योर लोकल टोरी- योर स्ट्रेट च्वाइस'. लेबर पार्टी ने इसे कुमार के व्यक्तिगत जीवन पर निशाना माना था. कुमार के बीवी-बच्चे नहीं थे. हालांकि कंज़र्वेटिव पार्टी ने इन आरोपों को खारिज किया था. अनाधिकारिक पर्चे भी बांटे गए थे जिनमें भद्दी भाषा का इस्तेमाल किया था और नस्लवादी टिप्पणियां की गईं थीं.

लंबे थकाऊ और विवादित चुनाव अभियान के बाद कुमार ने जीत तो दर्ज की लेकिन अंतर सिर्फ़ 1975 वोटों का ही रहा. कुमार ने जीत के बाद पत्रकारों से कहा था कि व्यक्तिगत हमलों ने उन्हें दुख पहुंचाया और ये बहुत 'पीड़ादायक' चुनाव अभियान था.

सच ये था कि कुमार का दुख इससे भी कहीं गहरा था. वो अपनी मां के देहांत से पीड़ा में थे. वो उनकी मौत का ग़म मना भी नहीं पाए थे कि उन्हें लेबर के नए सांसद के रूप में वेस्टमिंस्टर पहुंचना पड़ा.

संसद में उनका कार्यकाल बहुत लंबा नहीं रहा. मार्च 1992 में जॉन मेयर ने संसद भंग करके आम चुनावों की घोषणा कर दी. इस बार कंज़र्वेटिव पार्टी के माइकल बेट्स ने जीत हासिल की और कुमार ब्रिटिश स्टील के साथ नौकरी पर लौट गए.

चार साल बाद जब संडरलैंड से सांसद क्रिस मलिन की कुमार से मुलाक़ात हुई तो वो नई बनी मिडिल्सबोरो साउथ एंड ईस्ड क्लीवलैंड सीट के उम्मीदवार नामित हो चुके थे.

अपनी डायरी में मलिन ने लिखा था कि कुमार अपनी जीत को लेकर बहुत आशंकित थे. लेकिन उन्हें इतनी चिंता करनी नहीं चाहिए थे. उन्होंने टोनी ब्लेयर के नेतृत्व में लेबर पार्टी की 1997 की लहर में 10 हज़ार से अधिक वोटों से ये सीट जीत ली.

अशोक कुमार धर्मनिर्पेक्ष थे और ब्रिटिश ह्यूमैनिस्ट एसोसिएशन से जुड़े थे लेकिन मौके पर वो हिंदुओं के हित में बोलते थे. 2005 के हमलों के बाद जब हिंदुओं पर टिप्पणियां की गईं तो उन्होंने खुलकर इसकी आलोचना की.

अशोक कुमार पर नस्लीय हमले होते रहे, साल 2004 में दक्षिणपंथी समूहों ने उन्हें जान से मारने की धमकी दी.

लेकिन व्यक्तिगत स्तर पर उनका सबसे बड़ा संघर्ष इराक़ युद्ध को लेकर था जिसका उन्होंने समर्थन किया था जबकि उनकी अपनी लेबर पार्टी के बहुत से सदस्य इसके विरोध में थे.

कुमार ऐसे सांसद थे जो संसद की लाइब्रेरी में अधिक समय बिताते थे और पब और दूसरी सामाजिक जगहों पर कम ही दिखते थे. मिलनसार ना होने की कीमत भी उन्हें चुकानी पड़ी और वो कभी बैकबैंच से आगे निकलकर मुख्य भूमिका में नहीं आ पाए.

2010 में चुनाव अभियान के बीच ही हार्ट अटैक से उनकी मौत हो गई. वो शुक्रवार को वेस्टमिंस्टर से मार्टन में अपने घर के लिए निकले थे, जहां वो अकेले रहते थे. सोमवार को जब उनके दफ़्तर के कर्मचारी उनसे संपर्क नहीं कर पाए तो उन्हें लेकर चिंता हुई. बाद में उनकी मौत के बारे में पता चला.

टोनी ब्लेयर ने उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए कहा कि नज़दीकी सीट से सांसद के रूप में वो उत्तर-पूर्वी इंग्लैंड के लिए उनकी प्रतिबद्धता को जानते थे.

तत्कालीन प्रधानमंत्री गोर्डन ब्राउन ने कहा कि वो टीसाइड के लोगों के शुभचिंतक थे और उनके मुद्दों को उठाते थे.

उनकी मौत के बाद उनके दफ़्तर में सैकड़ों लोगों ने फ़ोन किया और स्थानीय अख़बारों में उनके बारे में पत्र लिखे गए.

अशोक कुमार अपने क्षेत्र के लोगों के मुद्दों को उठाने के लिए हरसंभव प्रयास करते थे. उनके पास अनुभवी और समर्पति लोगों की टीम थी.

उप-चुनाव में जीतने के कुछ महीने बाद ही सीट हारने के बाद ही उन्हें समझ आ गया था कि वो अपने समर्थकों को हल्के में नहीं ले सकते हैं. यही वजह थी कि वो अपने मतदाताओं से व्यक्तिगत स्तर पर जुड़े.

उनकी मौत के बाद शोक प्रकट करते हुए एक स्थानीय निवासी ने एक पत्रकार से कहा था कि कुमार हर किसी के लिए खड़े रहते थे, उनके लिए ये मायने नहीं रखता था कि उनके पास आया व्यक्ति कौन है या किस नस्ल से है.

कुमार ने स्टील उद्योग से जुड़े लोगों के हितों के लिए एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाया था.

उनके एजेंट और दोस्त डेविड वॉल्श ने कहा था कि कुमार ना ही कभी वेस्टमिंस्टर के प्रभावशाली गुटों का हिस्सा रहे. वो अपने आप को वैज्ञानिक जगत में भी अलग-थलग ही पाते थे.

वो कहते हैं, "उस दौर में विज्ञान जगत में भी अधिकतर उच्च पदों पर गौरे लोग ही थे. उन्होंने बौद्धिक स्तर पर महान उपलब्धियां हासिल की थीं लेकिन उन्हें लगता था कि कभी-कभी उन्हें सिर्फ़ एक भारतीय रसायनिक ही समझा जाता है."

(bbc.com)

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