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दिल्ली दंगे 2020: पूर्व जजों की रिपोर्ट में पुलिस, सरकार और मीडिया पर गंभीर सवाल
08-Oct-2022 6:41 PM
दिल्ली दंगे 2020: पूर्व जजों की रिपोर्ट में पुलिस, सरकार और मीडिया पर गंभीर सवाल

-इक़बाल अहमद

चार पूर्व जजों और भारत के एक पूर्व गृह सचिव ने साल 2020 में दिल्ली के उत्तरपूर्वी इलाक़े में हुए सांप्रदायिक दंगों पर एक रिपोर्ट जारी की है.

रिपोर्ट ने दिल्ली पुलिस की जाँच पर गंभीर सवाल उठाए हैं.

इस रिपोर्ट में दिल्ली पुलिस के अलावा, केंद्रीय गृहमंत्रालय, दिल्ली सरकार और मीडिया की भूमिका पर भी कई सख़्त टिप्पणी की गईं हैं.

फ़रवरी 2020 में दिल्ली के उत्तरपूर्वी इलाक़े में सांप्रदायिक दंगे हुए थे जिनमें 53 लोग मारे गए. मरने वालों में 40 मुसलमान और 13 हिंदू थे.

दंगों में कई घर, दुकान और धार्मिक स्थलों को भी नुक़सान पहुँचा था.

इस रिपोर्ट को लेकर आईं प्रतिक्रियाओं में कहा गया है कि इसे मौजूदा सरकार की ओर से कोई तवज्जो मिलने की कोई उम्मीद नहीं है. लेकिन ये रिपोर्ट तय करती है कि नाइंसाफ़ी को दस्तावेज़ों में दर्ज किया गया है, उसे भुलाया नहीं गया है.

कमेटी का गठन
केंद्र और राज्य सरकारों में काम कर चुके पूर्व नौकरशाहों के एक समूह 'कॉन्स्ट्यूटिशनल कंडक्ट ग्रुप (सीसीजी)' ने अक्टूबर 2020 में इन दंगों की निष्पक्ष और स्वतंत्र जाँच के लिए पूर्व जजों और नौकरशाहों की एक कमेटी बनाई थी.

इस कमेटी ने अपनी रिपोर्ट सीसीजी को कब सौंपी इसकी आधिकारिक जानकारी नहीं है लेकिन सीसीजी ने यह रिपोर्ट शुक्रवार (सात अक्टूबर, 2022) को सार्वजनिक कर दी है.

कमेटी के सदस्य कौन थे?
जस्टिस मदन लोकुर (रिटायर्ड)- सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज, अध्यक्ष

जस्टिस एपी शाह (रिटायर्ड)- दिल्ली हाईकोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश, सदस्य

जस्टिस आरएस सोढ़ी (रिटायर्ड)- दिल्ली हाईकोर्ट के पूर्व जज, सदस्य

जस्टिस अंजना प्रकाश (रिटायर्ड)- पटना हाईकोर्ट की पूर्व जज, सदस्य

जीके पिल्लई- पूर्व केंद्रीय गृह सचिव, सदस्य

रिपोर्ट में क्या है?
पूर्व जजों की इस कमेटी ने अपनी रिपोर्ट का नाम 'अनसर्टेन जस्टिस: ए सिटिज़ेन्स कमेटी रिपोर्ट ऑन द नॉर्थ ईस्ट डेल्ही वॉयलेंस 2020' (Uncertain Justice: A Citizens Committee Report on the North East Delhi Violence 2020) रखा है.

171 पन्नों की इस रिपोर्ट को तीन हिस्सों में बांटा गया है.

पहले हिस्से में इस बात की जाँच की गई है कि दंगों से पहले किस तरह से सांप्रदायिक माहौल बनाया गया, दंगों के दौरान क्या हुआ, पुलिस और सरकार का रोल कैसा रहा.

दूसरे हिस्से में मेनस्ट्रीम मीडिया और सोशल मीडिया की भूमिका की जाँच की गई है कि कैसे उन्होंने दंगों से ठीक पहले और उसके बाद, रिपोर्ट के अनुसार 'पूरे माहौल को दूषित किया.'

तीसरे हिस्से में दिल्ली पुलिस की जाँच को क़ानूनी नज़रिए से परखा गया है और ख़ासकर यूएपीए क़ानून लगाने को लेकर गहन अध्ययन किया गया है.

कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में कुछ सिफ़ारिशें भी की हैं.

'ईमानदार दस्तावेज़'
सुप्रीम कोर्ट के जाने माने वरिष्ठ वकील संजय हेगड़े ने इस रिपोर्ट पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहा, "चार पूर्व जजों और एक पूर्व केंद्रीय गृह सचिव की इस रिपोर्ट को मौजूदा सरकार की ओर से कोई तवज्जो मिलने की कोई उम्मीद नहीं है. लेकिन भविष्य में इतिहासकार और शोधकर्ता इस रिपोर्ट को दिल्ली में 2020 में सचमुच में क्या हुआ था, इसके एक ईमानदार दस्तावेज़ के तौर पर रेफ़ेरेंस की तरह इस्तेमाल करेंगे."

संजय हेगड़े आगे कहते हैं, "सत्ता के ख़िलाफ़ व्यक्ति का संघर्ष भूल जाने के ख़िलाफ़ याद रखने का संघर्ष जैसा होता है और यह रिपोर्ट इस बात को सुनिश्चित करती है कि नाइंसाफ़ी को दस्तावेज़ों में दर्ज किया गया है, उसे भुलाया नहीं गया है."

रिपोर्ट में कहा गया है कि दिल्ली में हिंसा फ़रवरी के महीने में हुई थी. लेकिन उससे ठीक पहले दिसंबर 2021 और जनवरी 2022 में माहौल को ख़राब करने और ख़ासकर मुसलमानों के ख़िलाफ़ माहौल पैदा करने की पूरी कोशिश की गई थी.

दिसंबर 2019 में पारित हुए नागरिक संशोधन क़ानून (सीएए) के कारण मुसलमानों को इस बात का ख़ौफ़ हो गया था कि सीएए और एनआरसी के ज़रिए उनकी नागरिकता को ख़तरा हो सकता है.

दिसंबर में देश के कई इलाक़ों में सीएए के विरोध में प्रदर्शन होने लगे जिसमें दिल्ली (शाहीन बाग़ और उत्तर पूर्वी दिल्ली विरोध का ) एक प्रमुख केंद्र बन गया था.

इसी बीच दिल्ली में विधानसभा चुनाव की घोषणा हो गई.

बीजेपी ने सीएए के विरोध में प्रदर्शनों को अपने चुनाव प्रचार का मुख्य मुद्दा बनाया और इन प्रदर्शनों को राष्ट्र विरोधी और हिंसक क़रार दिया.

अनुराग ठाकुर और कपिल मिश्रा जैसे बीजेपी नेताओं ने सीएए के विरोध में प्रदर्शन कर रहे लोगों को खुलेआम देश का 'ग़द्दार' कहा और उन्हें 'गोली मारने' का नारा लगाया.

मुसलमानों के ख़िलाफ़ बनाए जा रहे इस माहौल को टीवी चैनलों और सोशल मीडिया ने और हवा दी.

मीडिया की भूमिका
कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में नेशनल न्यूज़ चैनलों और सोशल मीडिया पर आरोप लगाया है कि उन्होंने सीएए के विरोध में हुए प्रदर्शनों को बदनाम करने और मुसलमानों के ख़िलाफ़ नफ़रत को और हवा दी.

कमेटी ने दिसंबर 2019 से लेकर फ़रवरी 2020 तक भारत के छह प्रमुख न्यूज़ चैनलों के प्राइमटाइम शो के 500 से भी ज़्यादा घंटे के फ़ुटेज का अध्ययन किया है.

इन छह चैनलों में अंग्रेज़ी के दो (रिपब्लिक और टाइम्स नाउ) और हिंदी के चार (आज तक, ज़ी न्यूज़, इंडिया टीवी, रिपब्लिक भारत) चैनल शामिल हैं.

कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है, "न्यूज़ चैनलों और सोशल मीडिया के विश्लेषण से पता चलता है कि सीएए संबंधित रिपोर्टों को न्यूज़ चैनलों ने मुसलमान और हिंदू के मुद्दे की तरह पेश किया. मुसलमानों को हमेशा पूर्वाग्रह के साथ और शक की नज़र से दिखाया गया. चैनलों ने सीएए विरोध प्रदर्शनों को हमेशा बदनाम किया, आधारहीन साज़िश को हवा दी और उन विरोध प्रदर्शनों को जबरन ख़त्म करवाने की माँग की."

कमेटी का दावा है कि नफ़रत ने इस तरह का माहौल बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई जिसमें समाज के एक बड़े हिस्से को मुसलमानों के ख़िलाफ़ हिंसा के लिए उकसाया जा सका.

दिल्ली पुलिस की भूमिका
इस रिपोर्ट में क़ानून-व्यवस्था बनाए रखने की ज़िम्मेदार दिल्ली पुलिस की भूमिका पर गंभीर सवाल उठाए गए हैं.

रिपोर्ट के अनुसार "23 फ़रवरी के दिन और उससे पहले भी राजनेताओं के ज़रिए हेट-स्पीच दिए जाने के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने के मामले में दिल्ली पुलिस बुरी तरह नाकाम रही."

रिपोर्ट में दावा किया गया है कि इस तरह के कई दस्तावेज़ मौजूद हैं जिससे पता चलता है कि दिल्ली पुलिस के लोगों ने भीड़ की मदद की और कई जगह मुसलमानों के ख़िलाफ़ हमलों में ख़ुद शामिल हुए.

कमेटी ने इन दंगों में दिल्ली पुलिस की भूमिका की जाँच के लिए कोर्ट की निगरानी में एक स्वतंत्र कमेटी बनाए जाने की सिफ़ारिश की है.

केंद्रीय गृहमंत्रालय की भूमिका
कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में केंद्रीय गृहमंत्रालय पर भी उंगली उठाई है.

रिपोर्ट में लिखा गया है, "दिल्ली पुलिस और केंद्रीय पैरामिलिट्री बल पर नियंत्रण होने के बावजूद केंद्रीय गृहमंत्रालय सांप्रदायिक हिंसा को रोकने के लिए प्रभावी क़दम उठाने में नाकाम रहा. पुलिस और सरकार के उच्च अधिकारियों ने 24 और 25 फ़रवरी को बार-बार यह विश्वास दिलाया था कि स्थिति नियंत्रण में है लेकिन इसके बावजूद ज़मीन पर हिंसा होती रही."

केजरीवाल सरकार पर भी आरोप

रिपोर्ट में दिल्ली की केजरीवाल सरकार पर भी गंभीर आरोप लगाए गए हैं.

रिपोर्ट में कहा गया है कि आम आदमी पार्टी की सरकार ने इस दौरान दोनों समुदायों के बीच मध्यस्थता की कोई कोशिश नहीं की. हालांकि 23 फ़रवरी से पहले ही हालात के ख़तरनाक होने के साफ़ संकेत मिल रहे थे.

रिपोर्ट कहती है कि हिंसा के कुछ ही दिन पहले मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भारी बहुमत के साथ जीतकर आए थे लेकिन दंगों के दौरान वो अप्रभावी और असहाय से दिखे.

कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में दंगा प्रभावित लोगों को राहत पहुँचाने के मामले में भी केजरीवाल सरकार पर सख़्त टिप्पणी की है.

आम आदमी पार्टी या केजरीवाल सरकार ने अभी तक इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है.

पार्टी का पक्ष जानने के लिए विधायक सौरभ भारद्वाज से संपर्क करने की कोशिश की गई लेकिन उनका कोई जवाब नहीं आया.

पार्टी या दिल्ली सरकार का पक्ष मिलते ही कॉपी में अपडेट कर दिया जाएगा.

दिल्ली पुलिस और दंगों की जाँच
इस रिपोर्ट में दंगों के बाद दर्ज हुए केस की जाँच को लेकर दिल्ली पुलिस पर गंभीर सवाल उठाए गए हैं.

दिल्ली के अलग-अलग थानों में इन दंगों से जुड़े क़रीब साढ़े सात सौ केस दर्ज किए गए थे.

पुलिस ने 1700 से ज़्यादा लोगों को गिरफ़्तार भी किया था.

कमेटी का कहना है कि पुलिस ने उन लोगों की कोई जाँच नहीं की जिन्होंने दंगों से पहले हेट-स्पीच दी और लोगों को हिंसा के लिए उकसाया.

कमेटी ने यूएपीए के तहत दर्ज किए मामलों और आईपीसी की धाराओं के तहत दर्ज किए गए मामलों का अलग-अलग अध्ययन किया है.

दिल्ली दंगे, 2020
दिल्ली पुलिस ने अदालत में जो चार्जशीट दाख़िल की है उसमें दंगों के लिए एक सुनियोजित साज़िश का ज़िक्र किया है. लेकिन कमेटी का कहना है कि पुलिस ने जो आरोप लगाए हैं वो सब बाद में दिए गए बयानों पर आधारित हैं और उनमें कई विरोधाभास और अनियमतिताएं हैं. कमेटी के अनुसार क़ानून के नज़रिए से देखा जाए तो उनपर भरोसा करना मुश्किल है.

कमेटी का कहना है कि दिल्ली पुलिस का यह आरोप बहुत ही हास्यास्पद है कि सीएए का विरोध करने वालों ने दंगों के लिए साज़िश रची जिसमें सबसे ज़्यादा नुक़सान मुसलमानों और सीएए का विरोध करने वालों का ही हुआ.

कमेटी मानती है कि पुलिस ने जानबूझकर कुछ लोगों को निशाना बनाते हुए उनपर यूएपीए की धारा लगाई है जबकि ऐसा कोई सबूत नहीं है कि यह कोई आतंकवादी गतिविधि थी जिससे देश की अखंडता और सार्वभौमिकता को कोई ख़तरा हो.

कमेटी का कहना है कि यूएपीए मामले में ज़्यादातर लोग आख़िरकार अदालत से बरी हो जाते हैं लेकिन इस बीच उन्हें बेल नहीं मिलती और कई साल जेल में गुज़ारने पड़ते हैं. कमेटी के अनुसार इन मामलों में क़ानूनी प्रक्रिया ही अपने आप में सज़ा हो जाती है.

कमेटी ने यूएपीए क़ानून की समग्र समीक्षा की सिफ़ारिश की है.

कमेटी ने दिल्ली दंगों की निष्पक्ष जाँच के लिए एक स्वतंत्र जाँच आयोग के गठन की सिफ़ारिश की है और यह भी कहा है कि जाँच आयोग का अध्यक्ष ऐसे व्यक्ति को बनाया जाना चाहिए जिनकी निष्पक्षता और योग्यता पर दंगा पीड़ितों को पूर्ण विश्वास हो.

अदालत ने भी दिल्ली पुलिस की जाँच पर उठाए हैं सवाल
दंगों के बाद जब मामला अदालत में पहुँचा, उस दौरान ऐसे कई मौक़े आए जब अदालतों ने दिल्ली पुलिस पर सख़्त टिप्पणी की और उनकी जाँच के स्तर को ख़राब क़रार दिया.

दिल्ली हाईकोर्ट के जज रहे जस्टिस एस मुरलीधर, अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश विनोद यादव, और दिल्ली के चीफ़ मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट अरुण कुमार गर्ग कई बार सुनवाई के दौरान दिल्ली पुलिस को चेतावनी दे चुके हैं.

अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश विनोद यादव ने तो एक मामले की सुनवाई के बाद दिल्ली पुलिस पर 25 हज़ार रूपए का जुर्माना भी लगाया था.

दिल्ली दंगे, 2020
दिल्ली पुलिस का क्या कहना हैदिल्ली पुलिस की प्रवक्ता सुमन नालवा ने कहा कि यह मामला अदालत के समक्ष है इसलिए वो इस पर कोई भी टिप्पणी नहीं करना चाहेंगी.

लेकिन इससे पहले जब कभी भी दिल्ली दंगों में पुलिस की भूमिका पर सवाल उठे हैं, दिल्ली पुलिस ने तमाम आरोपों को ख़ारिज किया है.

दिल्ली पुलिस का कहना है कि उसने वीडियो एनालिटिक्स से लेकर आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस जैसी तकनीकों की मदद से इन मामलों की जाँच की है.

केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह भी संसद में दिल्ली पुलिस के काम की सराहना कर चुके हैं.

गृह मंत्री अमित शाह ने 11 मार्च 2020 को संसद में दिल्ली के दंगों को "एक बड़ी सुनियोजित साज़िश का हिस्सा" बताते हुए दिल्ली पुलिस के बारे में कहा था कि "उन्होंने सराहनीय काम करते हुए दंगों को 36 घंटे के भीतर क़ाबू में कर लिया."

दिल्ली दंगों पर पहले भी रिपोर्ट आईं हैं

दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग की रिपोर्ट
दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग की ओर से गठित एक कमेटी ने जुलाई 2020 में एक रिपोर्ट जारी की थी.

सुप्रीम कोर्ट के वकील एमआर शमशाद कमेटी के चेयरमैन थे जबकि गुरमिंदर सिंह मथारू, तहमीना अरोड़ा, तनवीर क़ाज़ी, प्रोफ़ेसर हसीना हाशिया, अबु बकर सब्बाक़, सलीम बेग, देविका प्रसाद और अदिति दत्ता कमेटी के सदस्य थे.

इस कमेटी ने भी अपनी रिपोर्ट में कहा था कि दिल्ली पुलिस की भूमिका बहुत ख़राब थी.

उन्होंने भी हाईकोर्ट के किसी रिटायर्ड जज की अध्यक्षता में एक जाँच आयोग के गठन की सिफ़ारिश की थी.

मार्च, 2020 में बुद्धिजीवियों और शिक्षाविदों के एक समूह (जीआईए) ने 48 पन्नों की एक रिपोर्ट जारी की थी. इस समूह में सुप्रीम कोर्ट की वकील मोनिका अरोड़ा भी थीं. इस रिपोर्ट में दिल्ली दंगों के लिए 'अर्बन-नक्सल-जिहादी नेटवर्क' को ज़िम्मेदार ठहराया गया था.

इस रिपोर्ट का नाम था, 'दिल्ली दंगे: साज़िश का पर्दाफ़ाश'.

70 पन्नों की इस रिपोर्ट को बॉम्बे हाइकोर्ट के एक रिटायर्ड जज, जस्टिस अम्बादास के नेतृत्व वाली एक छह सदस्यीय कमेटी ने तैयार किया था. कमेटी ने इस रिपोर्ट को केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह को भी सौंपी थी.

जीआईए और सीएफ़जे दोनों रिपोर्टों में कहा गया है कि 'राष्ट्रविरोधी, चरमपंथी इस्लामिक समूहों और अन्य अतिवादी समूहों' ने मिलकर एक साज़िश रची और एक पूर्व नियोजित और संगठित तरीक़े से हिंदू समुदाय को निशाना बनाकर हमला किया. (bbc.com/hindi)

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