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नाइजीरिया: चुनाव में सुरक्षा और महंगाई बना सबसे बड़ा मुद्दा
18-Feb-2023 1:51 PM
नाइजीरिया: चुनाव में सुरक्षा और महंगाई बना सबसे बड़ा मुद्दा

अफ्रीका की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और सबसे अधिक आबादी वाले देश नाइजीरिया में आम चुनाव होने वाले हैं. जनता देश के नए राष्ट्रपति का चुनाव करने वाली है. सुरक्षा, तेल चोरी और बढ़ती महंगाई इस चुनाव में सबसे बड़ा मुद्दा है.

  डॉयचे वैले पर इसाक मुगाबी की रिपोर्ट-

नाइजीरिया में 25 फरवरी को राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव होना है. मौजूदा राष्ट्रपति मुहम्मदु बुहारी इस बार चुनाव में शामिल नहीं हो रहे हैं, क्योंकि मई महीने में वे संवैधानिक तौर पर अपने दो कार्यकाल पूरे कर लेंगे. देश की जनता इस बार नए राष्ट्रपति का चुनाव करेगी, ताकि वे उन सभी समस्याओं को दूर कर सकें जिनसे नाइजीरिया के लोग जूझ रहे हैं.

इसके अलावा, मतदाता इस चुनाव में हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव के लिए नए सीनेटर और सदस्य भी चुनेंगे. ऐसे में संभावना जताई जा रही है कि देश की राजनीति में काफी ज्यादा उथल-पुथल मच सकती है. वहीं, 11 मार्च को नाइजीरिया के 36 में से 28 राज्यों के राज्यपाल के लिए भी चुनाव होगा.

आइए जानते हैं कि इस चुनाव को लेकर नाइजीरिया में कैसा माहौल है.

किसके-किसके बीच मुकाबला है?
राष्ट्रपति पद के लिए कुल 18 प्रत्याशी मैदान में हैं. कुछ चुनावी अनुमानों से पता चलता है कि मुख्य मुकाबला सत्तारूढ़ पार्टी ऑल प्रोग्रेसिव कांग्रेस (एपीसी) के बोला टीनुबु, मुख्य विपक्षी पार्टी पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) के अतीकु अबुबकर और लेबर पार्टी के पीटर ओबी के बीच है.

फिलहाल पक्के तौर पर यह कहना मुश्किल है कि सत्ता पर कौन काबिज होगा. हालांकि, सत्तारूढ़ पार्टी को इस चुनाव में बड़ा फायदा मिलता दिख रहा है. इसकी वजह यह है कि वह समर्थन जुटाने के लिए सरकारी तंत्र का इस्तेमाल कर सकती है.

बोला टीनुबु और अतीकु अबुबकर का पूरे नाइजीरिया में मजबूत जनाधार है. जबकि, पीटर ओबी देश की अर्थव्यवस्था और सामान्य लोगों की सुरक्षा को लेकर बढ़ती चिंता को मुद्दा बनाते हुए दोनों बड़ी पार्टियों के खिलाफ मतदाताओं को गोलबंद करने की कोशिश कर रहे हैं.

मुख्य मुद्दे क्या हैं?
नाइजीरिया अफ्रीका का सबसे बड़ा तेल उत्पादक देश है. साथ ही, वह पश्चिम अफ्रीका में इस्लामवादी विद्रोहियों के खिलाफ लड़ाई में पश्चिमी देशों का प्रमुख सहयोगी है. देश में तेजी से बढ़ रही असुरक्षा इस बार के चुनाव में नाइजीरियाई मतदाताओं का सबसे बड़ा मुद्दा है.

दरअसल, नाइजीरिया के लोग असुरक्षा और अस्थिरता से जूझ रहे हैं. देश के उत्तर-पश्चिम इलाके में फिरौती के लिए अपहरण के मामले बढ़ गए हैं. उत्तर-पूर्व इलाका 13 साल से इस्लामवादी विद्रोह से जूझ रहा है. दक्षिण-पूर्व में अलगाववादी हिंसा चरम पर है. उत्तर-मध्य क्षेत्र में चरवाहों और किसानों के बीच दशकों पुराना जातीय तनाव बरकरार है.

इसके अलावा, महंगाई पिछले दो दशकों में अपने उच्च स्तर पर पहुंच गई है. मुद्रास्फीति की दर दो अंकों के आंकडों को छू रही है. नाइजीरिया के कुछ लोगों का यह भी कहना है कि 2015 में बुहारी के सत्ता में आने के बाद से जिंदगी और कठिन हो गई है. देश की मुद्रा नाइरा की कीमत अपने निम्न स्तर पर पहुंच चुकी है, क्योंकि तेल की काफी ज्यादा चोरी से कच्चे तेल का निर्यात प्रभावित हुआ है. हर जगह भ्रष्टाचार बढ़ चुका है.

खराब होती अर्थव्यवस्था को देखते हुए नाइजीरिया के सैकड़ों मेधावी लोगों ने देश से पलायन करने का फैसला किया है. इससे देश की स्वास्थ्य सेवा प्रणाली कमजोर हो रही है. बैंकिंग से लेकर तकनीकी सेवाएं तक बाधित हो रही हैं.

क्या वादे कर रहे राजनीतिक दल?
देश की दोनों प्रमुख पार्टियों के बीच कोई स्पष्ट वैचारिक मतभेद नहीं है. हकीकत यह है कि वे विचारधारा के बजाय अन्य मुद्दों के सहारे अपनी राजनीति करते हैं. तेल से घटता राजस्व, सुरक्षा, जातीय प्रतिद्वंद्विता जैसे मुद्दे आमतौर पर नाइजीरिया के चुनावों में बड़ी भूमिका निभाते हैं.

ओबी पहले पीडीपी में थे. पिछले साल वे पुरानी पार्टी को छोड़ लेबर पार्टी में शामिल हुए थे. 2019 के चुनाव में वे अबुबकर के रनिंग मेट थे. आसान शब्दों में कहें, तो जिस व्यक्ति को रनिंग मेट चुना जाता है वह उप-राष्ट्रपति का उम्मीदवार होता है. अगर अबुबकर उस समय चुनाव जीत जाते और राष्ट्रपति बनते, तो ओबी उनकी सरकार में उप-राष्ट्रपति बनते.

इस बार के चुनाव में ओबी ने खुद को सुधारवादी के तौर पर पेश किया है. उन्होंने कहा कि वे नाइजीरिया की राजनीतिक व्यवस्था में सुधार करना चाहते हैं. हालांकि, नीति के मामले में देखें, तो मुख्य पार्टियों के नेताओं और इनके बीच काफी ज्यादा फर्क नहीं है.

टीनुबु, अबुबकर और ओबी सभी का कहना है कि अर्थव्यवस्था को फिर से बेहतर बनाना और देश में असुरक्षा की भावना को खत्म करना उनकी सर्वोच्च प्राथमिकता होगी. साथ ही, उन्होंने सुरक्षा बलों को बेहतर वेतन और विद्रोहियों का सफाया करने के लिए अधिक सैन्य उपकरण उपलब्ध कराने का वादा किया है.
टीनुबु, अबुबकर और ओबी सभी का कहना है कि अर्थव्यवस्था को फिर से बेहतर बनाना है

उनके घोषणापत्र में कहा गया है कि वे ईंधन सब्सिडी को समाप्त कर देंगे. पिछले साल इस सब्सिडी पर 10 अरब डॉलर की लागत आयी थी. हालांकि, सब्सिडी को समाप्त करने के समय को लेकर उनकी राय अलग-अलग है. इन सभी उम्मीदवारों ने विदेशी मुद्रा बाजार में सुधार करने और शिक्षा में अधिक निवेश करने का वादा किया है।

किस तरह संपन्न होगा चुनाव?
देश में करीब 9.34 करोड़ लोगों ने वोट देने के लिए पंजीकरण कराया है. इनमें से तीन-चौथाई की उम्र 18 से 49 वर्ष के बीच है. हालांकि, पार्टियों के लिए सबसे बड़ी चुनौती वोट पाना है. कई युवा नाइजीरियाई कहते हैं कि वे दो सबसे बड़ी पार्टियों के उम्मीदवार से जुड़ाव महसूस नहीं करते हैं. दोनों उम्मीदवार सत्तर वर्षीय राजनीतिक दिग्गज हैं.

चुनाव आयोग के आंकड़े बताते हैं कि 2019 में महज 35 फीसदी मतदाताओं ने अपने मताधिकार का इस्तेमाल किया था.

पर्यवेक्षकों ने इस तथ्य पर चिंता व्यक्त की है कि नाइजीरिया में चुनावी धोखाधड़ी का एक लंबा इतिहास रहा है. हालांकि, इस वर्ष स्वतंत्र राष्ट्रीय चुनाव आयोग (आईएनईसी) बिमोडल वोटर एक्रेडिटेशन सिस्टम (बीवीएएस) का इस्तेमाल करके, फिंगरप्रिंट और फेशियल रिकग्निशन के जरिए मतदाताओं की पहचान करेगा. उम्मीद जताई जा रही है कि इससे चुनाव में किसी तरह की धांधली नहीं होगी.

मतदान के दिन मतदान केंद्रों के बाहर नतीजे चिपकाए जाएंगे. साथ ही, बीवीएएस के जरिए उन्हें राजधानी अबूजा स्थित आईएनईसी के पोर्टल पर भेजा जाएगा. थोड़े-थोड़े अंतराल के बाद पोर्टल को अपडेट किया जाएगा, ताकि जनता उन नतीजों को देख सके.

चुनाव के पांच दिनों के अंदर आधिकारिक परिणाम जारी किए जाने की उम्मीद है. सबसे ज्यादा वोट पाने वाले प्रत्याशी को विजयी घोषित किया जाएगा. हालांकि, इसके लिए जरूरी शर्त ये है कि उसे नाइजीरिया के 36 राज्यों और राजधानी के दो-तिहाई हिस्सों में एक-चौथाई वोट मिले हों. अगर ऐसा नहीं होता है, तो 21 दिनों के भीतर सबसे ज्यादा वोट पाने वाले दो उम्मीदवारों के बीच रन-ऑफ होगा.

मतदान से पहले सुरक्षा से जुड़ी चिंता
तमाम व्यवस्थाओं के बावजूद सुरक्षा से जुड़ी चिंताएं बनी हुई हैं. पिछले हफ्ते, अधिकारियों ने सुरक्षा चिंताओं का हवाला देते हुए सभी विश्वविद्यालयों को राष्ट्रपति चुनाव से लगभग तीन सप्ताह पहले बंद करने का निर्देश दिया था.

राष्ट्रीय विश्वविद्यालय आयोग ने कहा कि ऐसा कर्मचारियों, छात्रों और संस्थानों की संपत्ति की सुरक्षा को लेकर किया गया है. 22 फरवरी से 14 मार्च तक देश के 200 से अधिक विश्वविद्यालयों को बंद करने का निर्णय "संबंधित सुरक्षा एजेंसियों के साथ व्यापक परामर्श” के बाद लिया गया.

नाइजीरिया का उत्तर-पश्चिम और दक्षिण-पूर्व इलाका विभिन्न सशस्त्र समूहों से जूझ रहा है. वहीं, उत्तर-पूर्व में एक दशक से चली आ रही चरमपंथी हिंसा से सुरक्षा बल जूझ रहे हैं. हाल के वर्षों में हथियारबंद समूहों ने अशांत उत्तरी क्षेत्र के विश्वविद्यालयों को निशाना बनाया है, जिसमें सैकड़ों छात्रों का अपहरण कर लिया गया और बाद में उन्हें मुक्त किया गया. कभी-कभी इस रिहाई के एवज में फिरौती भी वसूली की गई.

विश्वविद्यालय आयोग के सार्वजनिक मामलों के निदेशक हारुना लवाल अजो ने समाचार एजेंसी एपी को बताया कि विश्वविद्यालय बंद होने से छात्रों की सुरक्षा सुनिश्चित होगी. साथ ही, वहां काम करने वाले लोगों को मतदान करने के लिए अपने मूल स्थान लौटने का मौका भी मिलेगा.

नाइजीरिया के कानून के तहत पंजीकृत मतदाता सिर्फ उसी जगह पर मतदान कर सकते हैं जहां उन्होंने पंजीकरण कराया है. देश के कुल मतदाताओं में 28 फीसदी छात्र हैं. ऐसे में विश्वविद्यालय बंद होने से मतदाता के तौर पर पंजीकृत छात्रों को भी मतदान करने का मौका मिलेगा. साथ ही, मतदान प्रतिशत बढ़ने की भी उम्मीद है. (dw.com)

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