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भारत में चीतों को फिर बसाने की प्रकिया में क्या गड़बड़ हुई
20-Jul-2023 1:06 PM
भारत में चीतों को फिर बसाने की प्रकिया में क्या गड़बड़ हुई

अफ्रीका से भारत लाए चीतों में से कईं की मौत ने इस पूरे प्रोजेक्ट पर सवाल उठाया है. चीतों की मौत प्राकृति कारणों से हुई या फिर उनकी देखरेख में लापरवाही की वजह से यह साफ नहीं है.

  डॉयचे वैले पर मुरली कृष्णन की रिपोर्ट- 

बीते शुक्रवार मध्य प्रदेश के कूनो नेशनल पार्क में सूरज नाम के नर अफ्रीकी चीते की मौत हो गई. पार्क के अधिकारियों को सूरज मरने के कुछ घंटे पहले मिला. वह शरीर से कमजोर था, उसके गले पर संक्रमण और कीड़े पड़े थे. मक्खियां उसके चारों ओर भिनभिना रही थीं. चार महीनों के भीतर मरने वाले चीतों में सूरज का नंबर आठवा है.

महज तीन दिन पहले, चार साल के एक और नर चीते तेजस की भी मौत हुई और उसके गले पर भी चोट के निशान थे. भारत में देसी चीते 70 साल पहले विलुप्त हो चुके हैं लेकिन सरकार अपने बहुचर्चित प्रोजेक्ट चीता के जरिए मध्य प्रदेश में दोबारा चीतों को बसाने की मुहिम चला रही है. इसके लिए अफ्रीका से चीते लाए गए थे. एक के बाद एक हुई मौतों से खड़े हुए सवालों के बीच मध्यप्रदेश के चीफ वाइल्डलाइफ वॉर्डन जे एस चौहान को पद से हटा दिया गया. चौहान कूनो नैशनल पार्क की बुनियाद रखने वाले वन सेवा अधिकारियों में हें. 

पिछले सितंबर में नामीबिया से लाए गए चीतों का स्वागत करने खुद भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने 72वें जन्मदिन पर कूनो पहुंचे. जानकारों ने चेतावनी दी कि इस पार्क में चीतों को बसाने के लिए शायद पर्याप्त जगह नहीं है हालांकि परियोजना चलती रही. फरवरी महीने में दक्षिण अफ्रीका से 12 और चीते लाए गए. मार्च में साशा नाम की एक मादा चीता किडनी की बीमारी के चलते मर गई. इसके कुछ ही दिन बाद खुशियों की लहर आई जब नामीबिया से आई एक अन्य मादा चीता ने पार्क में चार चीतों को जन्म दिया.

ये खुशिया चंद लम्हों की थीं क्योंकि चार में से तीन बच्चों की मौत हो गई. अधिकारियों का कहना था कि वो तेजी गर्मी के चलते बच नहीं सके. तब से अब तक कईं और मौतें हुई हैं जिसकी वजह से प्रोजेक्ट चीता चलाने वाले अधिकारी सकते में हैं. अब इस योजना पर फिर से विचार होने की बात कही जा रही है.

कूनो में ही रहेंगे चीते
अधिकारियों ने यह कह कर इन मौतों को दबाने की कोशिशें की कि यह प्राकृतिक कारणों से हुईं. पर्यावरण और वन मंत्री भूपेंद्र यादव ने कहा कि "चीते कूनो में ही रहेंगे और परियोजना सफल होगी. एक समाचार एजेंसी को दिए इंटरव्यू में यादव ने कहा, हम विशेषज्ञों के संपर्क में हैं, हमारी टीम वहां जाएगी. चीते कूनो में ही रहेंगे, उन्हें कहीं और नहीं भेजा जाएगा."

इस बीच ये बातें उठी कि शायद चीतों के गले में डाले गए रेडियो टैग की वजह से संक्रमण हुआ हो. मंत्रालय ने इन्हें अफवाहें बताते हुए कहा कि इतने बड़े प्रोजेक्ट में ऊंच-नीच होना तो स्वाभाविक है. इस बारे में मंत्रालय ने कहा,"चीतों की मौत पर मीडिया में जो खबरे आ रही हैं, जिनमें रेडियो टैग समेत मौत के दूसरे कारणों की अटकलें लगाई जा रही हैं, उसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है." 

गुपचुप परियोजना
इन दलीलों पर विशेषज्ञों को संदेह है. उनका मानना है कि यह परियोजना हवाई है और कमजोर वैज्ञानिक सबूतों पर आधारित है. चिंता यह है कि बचे हुए चीते भी ज्यादा  वक्त तक जिंदा नहीं रह सकेंगे. मेटस्ट्रिंग फाउंडेशन के सीईओ और वन्य जीव विशेषज्ञ रवि चेलम ने डीडब्ल्यू से कहा, हमें दिमाग में यह बात रखनी चाहिए कि आठ में से सात चीतों की मौत प्रबंधन टीम के नियंत्रण में हुई है. मेरे लिए यह खराब प्लानिंग और कम तैयारी का संकेत है."

इस मामले पर करीब से नजर रखने वाले चेलम यह भी कहते हैं कि भारत को बेहतर गुणवत्ता वाले हैबिटैट पर ध्यान देने की जरूरत है. अधिकारियों को चाहिए कि और चीते लाने से पहले कम से कम 4000 स्क्वेयर मीटर क्षेत्र को तैयार करें. पारदर्शिता की जरूरत पर जोर देते हुए चेलम ने कहा,"यह बहुत जरूरी है कि चीता परियोजना के तहत प्लानिंग, क्रियान्वयन और निगरानी के लिए बेहतर विज्ञान का इस्तेमाल किया जाए. अब तक के अनुभव से सीख कर परियोजना को सुधारना होगा."

जाने-माने पर्यावरणविद और संरक्षक वाल्मीक थापर भी यही कहते हैं कि परियोजना बहुत ही बुरी तरह से तैयार की गई. इसमें लापरवाही भी हुई और जानवरों के बारे में समझ का भी अभाव रहा. थापर ने कहा, "दोबारा स्वदेस लाने की यह परियोजना चीतों को कैद करने की योजना बन गई है. वो भी जिंदा नहीं बच पा रहे हैं. मुझे नहीं लगता कि पूरी दुनिया के इतिहास में जंगली जानवरों से जुड़ी कोई परियोजना रही हो जो इतनी खुफिया तरीके से बनी."

क्या चीतों को कहीं और भेजना चाहिए
जानकारों की आम राय में सबसे बड़ी समस्या कूनो में जगह की कमी है. उनका कहना है कि चीतों को ज्यादा जंगली जगह की जरूरत होती है. एक अकेला चीता 100 स्क्वेयर किलोमीटर तक फैले क्षेत्र का इस्तेमाल करता है. भारत के वाइल्डलाइफ इंस्टीट्यूट के पूर्व डीन और पर्यावरण संरक्षक यादवेंद्र विक्रमसिंह झाला का मानना है कि जितनी जल्दी हो सके चीतों को भारत के दूसरे हिस्सों में भेज दिया जाना चाहिए. झाला कहते हैं,"सरकार ने अभी जिन जगहों में व्यवस्था की है, वह अस्थायी और अपर्याप्त हैं. वहां परियोजना को लंबे समय तक नहीं चलाया जा सकता."

झाला का कहना है कि इन जानवरों को दो जगहों में बांट कर रखना चाहिए था. एक जगह राजस्थान का मुकुंदरा है जहां नियंत्रित ईको सिस्टम में चीतों को मेटिंग के लिए रखा जा सकता है जबकि कुछ को कूनो में खुला छोड़ा जा सकता था. 

खराब शुक्राणुओं का कहर
भारत के पहले चीता संरक्षक, प्रादन्य गिरडकर एक और तथ्य की तरफ ध्यान दिलाते हैं कि चीतों की मृत्यु दर अफ्रीका में भी काफी ज्यादा है. उन्हें कमजोर प्रजाति माना जाता है. गिरडकर का कहना है,"जेनेटिक विविधता कम होने की वजह से चीतों के स्पर्म यानी शुक्राणुओं की गुणवत्ता कम होती है और वह वातावरण में बदलाव के हिसाब से बदल नहीं पाते. 

जेनेटिक विज्ञान के क्षेत्र में जाने-माने रिसर्चर स्टीफन ओ ब्रायन और लॉरी मार्कर का शोध दिखाता है कि नियंत्रित क्षेंत्रों में 70 फीसदी चीता शावक मर जाते हैं. इसमें गिरावट आ सकती है अगर उन्हें खुले क्षेत्र में छोड़ा जाए." चीतों के प्राकृतिक पर्यावरण का उनके जीवन से गहरा रिश्ता है. गिरडकर की राय में, "चीतों के रहने का वातावरण, उसकी गुणवत्ता, चीतों की संख्या और उनके भोजन के बीच परस्पर सामंजस्य पर वैज्ञानिक शोध व्यावहारिक होना चाहिए. इसके अलावा जरूरत इस बात की भी है कि संरक्षण के लिए जागरूकता पैदा की जाए और मानव-चीता संघर्ष को खत्म करने के लिए कार्यक्रम चलाए जाएं."

विज्ञान बनाम राजनीतिक हुंकार
भारत का चीता प्रॉजेक्ट दुनिया की सबसे महत्वाकांक्षी परियोजनाओं में से एक है. अधिकारी हर साल 5 या 10 चीते लाकर उनकी संख्या को अगले सालों में 35 तक पहुंचाना चाहते हैं. तीन दिन में दो चीतों की मौत के बाद एक विशेषज्ञ सलाहकार कमेटी ने सिफारिश की है कि सारे चीतों का पूरा मेडिकल चेक अप किया जाएगा. इसमें वो चीते भी शामिल हैं जिन्हें जंगल में खुला छोड़ दिया गया है. साथ ही इसकी पड़ताल भी की जाएगी कि रेडियो कॉलर की वजह से जानवरों में संक्रमण हुआ है या नहीं.

पूर्व पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश कहते हैं, "विशेषज्ञ दल को बहुत सावधानी से देखना चाहिए कि बार-बार क्या गलत हुआ है. उम्मीद बस यही की जा सकती है कि राजनीतिक हुंकार की जगह विज्ञान को तरजीह दी जाएगी." (dw.com)

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