राष्ट्रीय
मेघालय भारत का अकेला ऐसा राज्य है जहां सिर्फ सड़क मार्ग से पहुंचा जा सकता है. वर्ष 2014 में पहली बार यह राज्य रेलवे के नक्शे पर आया. स्थानीय लोगों और संगठनों का विरोध दो नई रेलवे परियोजनाओं के मार्ग की बाधा बन गया है.
डॉयचे वैले पर प्रभाकर मणि तिवारी की रिपोर्ट-
मेघालय के इन संगठनों का कहना है कि राज्य में इनर लाइन परमिट (आईएलपी) लागू किए बिना यहां किसी भी रेल परियोजना को लागू नहीं होने दिया जाएगा. दिलचस्प यह है कि राज्य सरकार भी आईएलपी की मांग कर रही है. करीब चार साल पहले विधानसभा में इस आशय का एक प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित कर केंद्र सरकार को भेजा गया, लेकिन वह प्रस्ताव भी आगे नहीं बढ़ सका है. राज्य सरकार कई बार इस मामले को केंद्र के समक्ष उठा चुकी है.
आईएलपी क्या है?
आईएलपी लागू होने के बाद देश के दूसरे राज्यों के नागरिकों और किसी भी बाहरी व्यक्ति को संबंधित राज्य में जाने के लिए पहले एक अनुमति लेनी होती है. इस कानून के तहत स्थानीय लोगों के लिए जमीन और नौकरी में आरक्षण समेत कई अन्य विशेष प्रावधान किए जाते हैं. फिलहाल अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम और नागालैंड में आईएलपी लागू है.
आखिर मेघालय में आईएलपी की मांग क्यों उठ रही है? मुख्यमंत्री कोनराड एस. संगमा बताते हैं, "इनर लाइन परमिट आदिवासी पहचान और संस्कृति की रक्षा का एक उपाय है. राज्य के लोग बहुत पहले से इसकी मांग कर रहे हैं. इलाके के कई राज्यों में पहले से ही आईएलपी लागू है. स्थानीय आदिवासी समूहों को लगता है कि आईएलपी आदिवासी पहचान और संस्कृति को संरक्षित करने का सबसे प्रभावी उपाय है."
समाजशास्त्रियों का कहना है कि हाल के वर्षों में और खासकर कोविड के बाद बाहरी राज्यों से लोगों के यहां आकर बसने का सिलसिला तेज हुआ है. इससे आदिवासी संगठनों को अपने वजूद और संस्कृति पर खतरा महसूस हो रहा है. राजधानी शिलांग के एक कॉलेज में समाज विज्ञान के प्रोफेसर रहे डी.के. मावलांग बताते हैं, "आईएलपी की मांग यहां दशकों पुरानी है. हाल के वर्षों में बाहरी लोगों के यहां बसने का सिलसिला तेज हुआ है. मोटे अनुमान के मुताबिक दो हजार से ज्यादा लोग यहां कामकाज और कारोबार के सिलसिले में आकर बस गए हैं. अब स्थानीय आदिवासी संगठनों को डर है कि यहां रेलवे लाइन आने के बाद ऐसे लोगों का आना और बढ़ेगा. इसलिए वे इस परियोजना का विरोध कर रहे हैं."
करीब तीन दशक तक मेघालय में काम करने वाले वरिष्ठ पत्रकार अजित कुमार डेका बताते हैं, "स्थानीय आदिवासी समूह अपने वजूद और संस्कृति को लेकर हमेशा आशंकित रहते हैं. उनको लगता है कि रेलवे परियोजना के कारण यहां लोग आसानी से और कम खर्च में पहुंचने लगेंगे. इसलिए वे इसे आईएलपी से जोड़ रहे हैं ताकि ट्रेन से आने वाले यहां बस नहीं सकें."
रेल परियोजनाएं
केंद्र ने मेघालय के लिए दो रेलवे परियोजनाओं को मंजूरी दी है. इनमें 108 किमी लंबी बर्नीहाट-शिलांग लाइन के अलावा 22 किमी लंबी टेतेलिया-बर्नीहाट लाइन शामिल है. टेतेलिया-बर्नीहाट परियोजना के तहत पड़ोसी असम में 75 प्रतिशत काम पूरा हो गया है. लेकिन मुख्यमंत्री कोनराड संगमा ने साफ कर दिया है कि संबंधित पक्षों की सहमति के बिना सरकार, राज्य में इस परियोजना को हरी झंडी नहीं दिखाएगी.
बर्नीहाट-शिलांग परियोजना के तहत 100 रेलवे पुल और 31 सुरंग बनाए जाएंगे. इस रूट पर 10 स्टेशन होंगे. फिलहाल असम के दूधनोई से राज्य के मेंदीपथार तक 19.75 किमी लंबी लाइन ही मेघालय की अकेली रेलवे परियोजना है. इस लाइन का 9.49 किलोमीटर लंबा हिस्सा मेघालय में है और बाकी असम में. टेतेलिया-बर्नीहाट परियोजना को 2007 में मंजूरी मिली थी और बर्नीहाट-शिलांग परियोजना को 2010 में. हालांकि खासी छात्र संघ के हिंसक आंदोलन के कारण मई 2017 से इन पर काम बंद है.
रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव ने बीते साल संसद में एक लिखित सवाल के जवाब में बताया था कि बर्नीहाट-शिलांग रेलवे परियोजना खासी छात्र संघ (केएसयू) के विरोध के कारण कानून और व्यवस्था की समस्या का सामना कर रही है. इसके कारण जमीन के अधिग्रहण और अंतिम लोकेशन सर्वेक्षण का काम आगे नहीं बढ़ सका है.
पूर्वोत्तर सीमांत रेलवे के एक अधिकारी नाम नहीं छापने की शर्त पर बताते हैं कि अब तक मेघालय की दोनों रेल परियोजनाओं के लिए 425 करोड़ रुपए आवंटित किए जा चुके हैं. स्थानीय संगठनों के विरोध के कारण राज्य में उन पर काम शुरू नहीं हो सका है. राज्य सरकार भी अपने राजनीतिक हितों के कारण स्थानीय संगठनों की मांग को ही तरजीह दे रही है.
'नो आईएलपी नो रेल'
मेघालाय के खासी हिल्स इलाके में रेलवे परियोजना का विरोध कोई नया नहीं है. खासी छात्र संघ (केएसयू) वर्ष 1983 से ही असम से राज्य को जोड़ने वाली किसी भी रेल परियोजना का विरोध करता रहा है. उसकी दलील रही है कि इससे राज्य में अवैध रूप से आकर बसने वालों की भरमार हो जाएगी. नागरिकता कानून के पारित होने के बाद राज्य के लोगों की आशंका और उसकी वजह से रेलवे परियोजनाओं का विरोध तेज हो गया है. नागरिकता कानून में पड़ोसी देशों के हिंदुओं को नागरिकता देने का प्रावधान है. स्थानीय संगठनों को डर है कि इस कानून की आड़ में मेघालय में भी भारी तादाद में लोग आकर बसने लगेंगे.
रेलवे परियोजनाओं का विरोध और इसके लिए आईएलपी का शर्त रखने की मांग सबसे पहले केएसयू और हनीट्रैप यूथ काउंसिल (एचवाईसी) नाम के दो संगठनों ने उठाई थी. बाद में खासी हिल्स के अलावा गारो हिल्स के भी कई अन्य आदिवासी और गैर-सरकारी संगठन रेलवे के विरोध की इस मुहिम में शामिल हो गए.
केएसयू के प्रमुख लोम्बोक स्टारवेल मामगर का कहना है, "मेघालय में बाहरी लोगों की बेरोकटोक आवाजाही को रोकने के लिए अब तक मजबूत और प्रभावी तंत्र नहीं है. रेल परियोजनाएं पूरी होने पर ऐसे लोगों के आने का सिलसिला तेजी से बढ़ेगा इसलिए सरकार को रेलवे परियोजनाओं पर जोर देने की बजाय पहले आईएलपी लागू करना चाहिए. आईएलपी के बिना हम किसी भी हालत में रेल परियोजना की अनुमति नहीं देंगे."
एचवाईसी के महासचिव रायकूपर सिनरेम भी यही बात कहते हैं. उनका कहना था, "हमने अपना रुख पहले ही साफ कर दिया कि नो आईएलपी नो रेलवे. बाहरी लोगों की भीड़ से स्थानीय लोगों को बचाने के लिए ठोस तंत्र नहीं होने तक खासी और जयंतिया हिल्स में किसी भी रेल परियोजना को शुरू करने की अनुमति नहीं दी जाएगी. हम रेलवे के खिलाफ नहीं हैं, लेकिन राज्य के आदिवासियों का संरक्षण हमारे लिए सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है."
मेघालय के उपमुख्यमंत्री प्रेस्टोन टाइनसांग बताते हैं, "सत्तारूढ़ मेघालय डेमोक्रेटिक अलायंस (एमडीयू) केंद्र से यहां आईएलपी शीघ्र लागू करना अनुरोध करता रहा है. इसके लागू होने पर यहां रेलवे परियोजना का रास्ता साफ हो जाएगा. कोई भी आदिवासी समूह या संगठन रेलवे परियोजना के खिलाफ नहीं है. लेकिन उनकी शर्त यह है कि पहले आईएलपी लागू करना होगा."
रेलवे के अधिकारियों का कहना है कि जमीन अधिग्रहण में होने वाली देरी के कारण मेघालय की दोनों रेलवे परियोजनाओं की अनुमानित लागत लगातार बढ़ रही है. टेतेलिया-बर्नीहाट परियोजना के तहत असम सीमा के भीतर तो काम काफी हद तक पूरा हो गया है. लेकिन मेघालय में अब तक जमीन के सर्वेक्षण और अधिग्रहण का काम भी नहीं शुरू हो सका है. (dw.com)