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रग्बी से दुनिया जीत रही हैं चाय बागान मज़दूर की बेटियां
31-Dec-2020 12:32 PM
रग्बी से दुनिया जीत रही हैं चाय बागान मज़दूर की बेटियां

photo SANJAY SHAH

-प्रभाकर मणि तिवारी

"मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि सुदूर और पिछड़े चाय बागान इलाक़े में पैदा हो कर एक खेल के सहारे मैं अपने गांव, परिवार, राज्य और देश का नाम रौशन करूंगी. यह सब एक सपने जैसा लगता है. खेल-खेल में खेले जाने वाले खेल से मेरी ही नहीं, इलाक़े की कई लड़कियों की क़िस्मत बदल रही है. इस खेल ने हमारे सपनों को पंख लगा दिए हैं."

यह कहना है रग्बी के ज़रिए पहचान बनाने वाली 20 साल की संध्या राई का. संध्या ने 13 साल की उम्र से ही खेल-खेल में ही रग्बी खेलना शुरू किया था. पश्चिम बंगाल के उत्तरी इलाक़े में सिलीगुड़ी के पास जंगल और चाय बागानों से से घिरे सरस्वतीपुर गांव की संध्या के पिता एक बागान में दैनिक मज़दूर हैं.

रग्बी के ज़रिए देश-विदेश के तमाम टूर्नामेंटों में अपना झंडा गाड़ चुकी संध्या को बीते सप्ताह द वर्ल्ड रग्बी अनस्टाप्पेबल कैंपेन के तहत एशिया का प्रतिनिधित्व करने के लिए चुना गया है.

एशिया भर से चुने गए 32 रग्बी खिलाड़ियों में शामिल तीन महिलाओं में संध्या भी है. इस अभियान का मक़सद महिलाओं में रग्बी को बढ़ावा देना है. इस अभियान में चुने जाने के बाद एक कंपनी ने संध्या को मुफ्त लैपटॉप भी दिया है.

SANDHYA RAI

अभाव से निकल कर पहुँचीं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर

पश्चिम बंगाल में दार्जिलिंग ज़िले की तराई में बसे चाय बागानों और उसमें काम करने वाले मज़दूरों की दुर्दशा और उन बागानों में कथित भुखमरी की ख़बरें अक्सर सुर्ख़ियाँ बटोरती रही हैं. लेकिन तमाम बाधाओं और अभावों को पार कर संध्या के अलावा आस-पास के गांवों की कम से कम चार लड़कियों ने रग्बी के ज़रिए वैश्विक स्तर पर अपनी पहचान बनाते हुए देश के लिए कई पदक जीते हैं.

रग्बी का खेल भारत में भले विदेशों की तर्ज़ पर उतना लोकप्रिय नहीं हो, लेकिन इसने पिछड़े माने जाने वाले चाय बागान इलाक़ों के आदिवासी समाज की लड़कियों की आंखों में नए सपने जगा दिए हैं. इनमें से कई लड़कियां रग्बी खेलने के लिए फ्रांस के अलावा दुनिया के कई देशों का भी दौरा कर चुकी हैं.

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चाय बागान की इन बच्चियों की प्रतिभा को पहचाना सरस्वतीपुर चर्च में प्रार्थना कराने के लिए आए फ़ादर जॉर्ज मैथ्यू ने.

उन्होंने कोलकाता में 'जंगल क्रोज' नामक संस्था चलाने वाले अपने दोस्त पॉल वाल्श को इन लड़कियों के बारे में बताया तो वह रग्बी को बढ़ावा देने इलाक़े में आए. वाल्श कोलकाता में ब्रिटिश हाई कमीशन में उच्चायुक्त थे. उन्होंने यहां पर कोच के रूप में रोशन खाखा को नियुक्त किया.

वर्ष 2013 में पहली बार इलाक़े के लड़कियों ने चाय बागान के ही एक मैदान में रग्बी खेलना शुरू किया. उसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा. इनमें से संध्या राई, सुमन उरांव, स्वप्ना उरांव और चंदा उरांव अब स्कालरशिप की सहायता से कोलकाता में आगे की पढ़ाई भी कर रही हैं.

संध्या बताती है, "मैं फ़िलहाल स्पोर्ट्स मैनेजमेंट में अंडरग्रेजुएशन कर रही हूं. यह मेरा आख़िरी साल है. इसके बाद दो साल पोस्ट ग्रेजुएशन करूंगी. उसके बाद रग्बी खेलते हुए स्पोर्ट्स मैनेजर या खेल के क्षेत्र में ही कोई बढ़िया नौकरी करना चाहती हूं. ताकि कच्ची प्रतिभाओं को निखार सकूं."

आख़िर रग्बी खेलने का ख्याल कैसे आया?


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संध्या बताती है, "वह बचपन से बिरजू राय को रग्बी खेलते देख कर बड़ी हुई थी. लेकिन गांव में इस खेल की कोई सुविधा नहीं थी और लोगों को इसकी कोई जानकारी भी नहीं थी. लेकिन कोलकाता से स्थानीय चर्च में आने वाले फ़ादर मैथ्यू ने हमारे सपनों को राह दिखाई. उन्होंने स्थानीय लड़कियों में इस खेल को बढ़ावा देने के लिए कोलकाता के एक संगठन जंगल क्रोज के ज़रिए सरस्वतीपुर में खेलो रग्बी का प्रशिक्षण कार्यक्रम शुरू किया."

"शुरुआत में स्थानीय लोगों ने लड़कियो के शार्ट्स पहन कर खेलने पर आपत्ति जताई. तब घरवाले सवाल करते थे कि अगर पैर टूट गए तो क्या होगा या फिर तुमसे शादी कौन करेगा? लेकिन धीरे-धीरे उनकी आशंकाएं निर्मूल साबित हुईं."

हालांकि संध्या को दूसरी लड़कियों की तरह घरवालों की ओर से किसी समस्या का सामना नहीं करना पड़ा. वह बताती हैं, "मैंने माता-पिता से पूछा तो उनका जवाब था, जाओ खेलो."

प्रतिभा की कमी नहीं

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रग्बी से पहले चाय बागान इलाक़े में जीवन कैसा था?

संध्या कहती है, "मज़दूरों की दुनिया चाय बागानों और आस-पास लगने वाले साप्ताहिक बाज़ारों तक ही सीमित है. लोग अपने दायरे से बाहर निकलना ही नहीं चाहते. लोगों के पास बाहर जाने के लिए पैसे भी नहीं होते. अब हमारी कामयाबी के बाद सरस्वतीपुर की सभी लड़कियां रग्बी खेलना चाहती हैं. लेकिन कुछ लोग अब भी यह कहते हुए इसमें रोड़े अटकाते हैं कि यह लड़कियों का खेल नहीं है. गावं के लड़के भी अब रग्बी खेलते हैं."

संध्या बताती है कि चाय बागान इलाक़ों में प्रतिभा की कोई कमी नहीं है. ज़रूरत है उनको तराशने और सही मौक़े मुहैया कराने की. मैं अपनी ओर से भरसक सबकी सहायता का प्रयास करती हूं. अभी तो मैं ख़ुद इस खेल के गुर सीख रही हूं. रग्बी ने मुझे इस गांव से निकाल पढ़ने के लिए कोलकाता पहुँचाया है.

लेकिन संध्या का अब तक का सफ़र आसान नहीं रहा है.

लोगों के सवाल

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वह बताती है, "एक बार क्लब के मैच के लिए ओडीशा जाने से पहले गांव वालों का कहना था कि यह लोग वहां ले जाकर तुम सबको बेच देंगे. लेकिन ज़िला और राज्य-स्तरीय प्रतियोगिताओं में लगातार खेलने के बाद लोगों की ज़ुबान पर लगाम लगी. वैसे कई लोग अब भी इसकी आलोचना करते हैं."

संध्या के मुताबिक़ एक बार जब वह अपनी टीम के साथ नागपुर से ट्राफ़ी जीत कर लौटी तो गांव वालों का कहना था कि यह सब कहां से ख़रीदा है? लेकिन अब उन लोगों की सोच बदल रही है और कल तक हमारी आलोचना करने वाले ही अब हमारी उपलब्धियों पर गर्व करते हैं.

आगे क्या योजना है? इस सवाल पर वह कहती है, "रग्बी की खिलाड़ी के तौर पर पूरी दुनिया में नाम कमाना, देश के लिए तमाम टूर्नामेंट जीतना और ग्रामीण इलाक़ों में रग्बी खेलने वाली लड़कियों को बढ़ावा देना. अगर मैं दो-चार लड़कियों को भी प्रोत्साहित कर सकूं तो यह मेरा सौभाग्य होगा. मैं चाहती हूं कि इस इलाक़े की लड़कियां खेल के साथ पढ़ाई पर भी ध्यान दें. अब अनस्पाटेबल में शामिल होकर मैं आसानी से यह काम कर सकती हूं."

संध्या के मुताबिक़, ख़ासकर रग्बी को बढ़ावा देने के लिए इस खेल के बारे में समाज का नज़रिया बदलना भी ज़रूरी है. (bbc.com)

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