सुदीप ठाकुर
-सुदीप ठाकुर
कंगना बहन यह सिर्फ आपकी मुश्किल नहीं है। गांधी को लोग देर से समझते हैं। दरअसल हड्डी के ढांचे जैसी काया में नजर आने वाला यह शख्स जितना बाहर से सहज और सरल दिखता है, भीतर से उतना ही कठोर है। उन्हें समझने में अंग्रेजोंं को भी वक्त लगा था।
जिन्ना वगैरह के तो बस की बात ही नहीं थी गांधी को समझना। खुद सावरकर भी कहां ठीक से समझ पाए थे गांधी को।
जिन्ना और सावरकर ने गांधी को ठीक से नहीं समझा तो उसकी वजहें साफ थीं। उसके पीछे उनकी अपनी वैचारिक सोच और दीर्घकालीन राजनीति थी।
आप सोचिए यदि गांधी सहज सरल और आम इन्सान होते तो 15 अगस्त, 1947 को दिल्ली को छोडक़र वह उस दिन देश की राजधानी से डेढ़ हजार किलोमीटर दूर कलकत्ता में नहीं होते, जहां हिंदू-मुस्लिम दंगे भडक़े हुए थे।
सच तो यह है कि पूरे देश ने गांधी को कहां ठीक से समझा है। फिर भी, यह साफ रहे कि गांधी ईश्वर नहीं थे, हाड़ मांस के व्यक्ति थे। उन्होंने खुद को महात्मा या राष्ट्रपिता नहीं कहा था। हां, वह एक राजनीतिक व्यक्ति थे और उनकी राजनीति अंतिम व्यक्ति की राजनीति थी। उनकी राजनीति की परिभाषा अलग थी। इसमें जाति या धर्म या वर्ग या क्षेत्र का भेद नहीं था। बेशक, उनमें कई खामियां थीं। तो बताइए किस व्यक्ति में खामियां नहीं होतीं।
लेकिन इस देश को लेकर उनकी दृष्टि एकदम स्पष्ट थी। इसे समझने में भी कई लोगों ने भूल की। मुझे पता नहीं कि आप जेपी या जयप्रकाश नारायण को कितना जानती हैं, मगर गांधी को समझने में उनसे भी चूक हुई थी। यह मैं नहीं कह रहा हं, खुद जेपी ने इसके बारे में लिखा है।
आपकी जानकारी के लिए 1942 में जब गांधी ने भारत छोड़ो आंदोलन का नेतृत्व किया था, जेपी उसके नायक थे। लेकिन स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जेपी नेहरू की सरकार में शामिल नहीं हुए। जबकि नेहरू से उनके बहुत अच्छे रिश्ते थे। वह सरकार में शामिल क्यों नहीं हुए? क्योंकि उन्हें लगता था कि 15 अगस्त, 1947 को जो आजादी मिली वह अधूरी थी। लेकिन उसे उन्होंने ‘झूठी आजादी’ या ‘भीख में मिली आजादी’ नहीं कहा था। वह ऐसा कह भी नहीं सकते थे, क्योंकि खुद उन्होंने आजादी की लड़ाई लड़ी थी और जेल भी गए थे। और हां, जेल से रिहाई के लिए उन्होंने माफी भी नहीं मांगी थी।
मगर गांंधी को लेकर उनके मन में कुछ सवाल थे। इसकी वजह यह थी कि वह गांधी को उनके जीते जी ठीक से नहीं समझ सके थे। जेपी को इसका एहसास गांधी की मौत के नौ साल बाद हुआ था।
जेपी ने 1957 में जब दलगत और सत्ता की राजनीति से अलग होने का फैसला किया तब उन्हें यह एहसास हुआ था। उसी दौरान उन्होंने अपने समाजवादी साथियों के नाम एक खुला पत्र जारी करते हुए लिखा था, ‘क्या राजनीति का कोई विकल्प है?....हां विकल्प है। गांधी ने हमें यह विकल्प दिया था। लेकिन मैं स्वीकार करता हूं कि तब मुझे यह स्पष्ट रूप से समझ में नहीं आया था। गांधी जी ने हमें स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान सशस्त्र संघर्ष के विकल्प के रूप में अहिंसा का रास्ता दिखाया था।’
जैसा कि मैंने शुरुआत में लिखा कि जिन्ना और सावरकर की अपनी दीर्घकालीन राजनीति थी। गांधी के लिए राजनीति का कुछ और अर्थ था। जैसा कि जेपी ने इसे बाद में समझा और लिखा, ‘भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन एक शानदार जनांदोलन था। यह ‘राजनीति’ (राज्य की राजनीति) नहीं थी, बल्कि लोकनीति (लोगों की राजनीति) थी।’
जाहिर है, गांधी के लिए स्वतंत्रता का दायरा व्यापक था और वह उसे लोकनीति का हिस्सा मानते थे। जो लोग आजादी को झूठा कहते हैं, वह सिर्फ गांधी को ठीक से नहीं समझते, बल्कि इस देश के लोगों को भी, जिनसे ये देश बना है।