आजकल
अभी एक किसी केन्द्रीय मंत्री के एम्स में भर्ती होने को लेकर सोशल मीडिया पर बहुत कुछ लिखा जा रहा है जो कि भाभीजी-पापड़ से कोरोना ठीक करने एक किसी दावे की वजह से पिछले कुछ हफ्तों से लगातार खबरों में थे। हाल के बरसों में किसी केन्द्रीय मंत्री का जितना मखौल इस बयान की वजह से उड़ाया गया था, वैसा शायद कम ही लोगों के साथ हुआ होगा। लेकिन अब जब यह केन्द्रीय मंत्री खुद कोरोनाग्रस्त हुए, तो ये जाकर एम्स में भर्ती हुए। दूसरी तरफ कुछ जगहों पर यह खबर भी आई है कि गृहमंत्री अमित शाह कोरोनाग्रस्त होकर दिल्ली के एक सबसे महंगे निजी अस्पताल में भर्ती हुए थे, और उन्हें देखने के लिए एम्स से डॉक्टर भेजे गए थे। शशि थरूर जैसे कांग्रेस सांसद ने सोशल मीडिया पर यह भी लिखा था कि अमित शाह को निजी अस्पताल के बजाय सरकारी एम्स में भर्ती होना था, लेकिन आनन-फानन शशि थरूर के जवाब में सोशल मीडिया पर यह खबर लोगों ने चिपकाई कि सोनिया गांधी दिल्ली के एक बड़े नामी निजी अस्पताल में उसी वक्त भर्ती हुई हैं, और वे एम्स क्यों नहीं गईं?
आज यहां पर इस मुद्दे पर लिखते हुए किसी एक नेता या किसी एक पार्टी को निशाना बनाना मकसद नहीं है। हिन्दुस्तान में जब जिस नेता को इलाज की जरूरत पड़ती है, वे देश के सबसे महंगे अस्पतालों में तो जाते ही हैं, विदेश भी जाते हैं। अटल बिहारी वाजपेयी को अमरीका में इलाज की जरूरत थी, तो उस वक्त के प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने उन्हें संयुक्त राष्ट्र जा रहे भारतीय संसदीय प्रतिनिधिमंडल का मुखिया बनाकर भेजा था ताकि उनका इलाज भी हो जाए। इस बात का जिक्र खुद वाजपेयी ने बड़ी उदारता के साथ सार्वजनिक रूप से एक से अधिक बार किया था। इसलिए अपने इलाज के लिए जिसे जहां जाना हो, वह उनकी अपनी मर्जी की बात है, और उनके परिवार के लोकतांत्रिक अधिकार की बात भी है।
लेकिन यहां कुछ बुनियादी सवाल खड़े होते हैं जिनको हम किसी एक नेता या पार्टी की मिसाल के बिना उठाना चाहते हैं। जब ऐसे नेता संसद या सरकार के खर्च पर इलाज करवाते हैं, तो वहां पर संसद और सरकार की यह भी जिम्मेदारी बनती है कि आधी आबादी गरीबी की रेखा के नीचे वाले इस देश की जनता का पैसा किस हद तक इसके निर्वाचित नेताओं पर खर्च हो, अफसरों और जजों पर खर्च हो। इन सभी तबकों में निजी संपन्नता वाले लोग भी रहते हैं, और बहुत से लोग ऐसे भी रहते हैं जिनके परिवारों के पास अपनी कमाई भी रहती है। कई जज ऐसे रहते हैं जिन्होंने वकालत करते हुए करोड़ों रूपए कमाए हों, और अब जज की हैसियत से वे मुफ्त सरकारी इलाज के हकदार हों। ऐसा ही कई केन्द्रीय मंत्रियों के साथ हो सकता है, सांसदों और विधायकों के साथ हो सकता है।
लेकिन कुछ अरसा पहले उत्तरप्रदेश हाईकोर्ट के एक फैसले को इस सिलसिले में देखना जरूरी है जिसमें कहा गया था कि राज्य के अफसर और मंत्री अपने बच्चों को सिर्फ सरकारी स्कूल में पढ़ाएं। हम उस बात से सैद्धांतिक रूप से सहमत थे, लेकिन उस वक्त भी हमने लिखा था कि यह फैसला ऊपर की अदालत में जाकर टिक नहीं पाएगा क्योंकि किसी परिवार के बच्चों पर काबू करना अदालत के दायरे से बाहर है, फिर चाहे वह परिवार किसी मंत्री का हो, या किसी अफसर का हो। बच्चे अफसर की संपत्ति नहीं होते हैं कि उन पर सरकार का ऐसा नियंत्रण रहे कि वे कहां पढ़ाई करें, और कहां इलाज करवाएं।
लेकिन जब इलाज का खर्च सरकार देती है, तब सरकार यह तय कर सकती है कि वह निजी अस्पतालों में इलाज का खर्च तब तक नहीं उठाएगी, जब तक सरकारी अस्पतालों में वह इलाज उपलब्ध ही न हो। देश की जनता का यह हक है कि वह अपने पैसों पर तनख्वाह, भत्ते, और इलाज पाने वाले अफसरों-नेताओं, जजों और सांसद-विधायकों के उस महंगे इलाज का खर्च उठाने से मना कर दे जो कि सरकारी अस्पतालों में हासिल है।
लेकिन सवाल यह है कि सत्ता में बैठे लोग, निर्वाचित जनप्रतिनिधि, और ऐसी किसी संभावित जनहित याचिका पर सुनवाई करने वाले जज ही तो ऐसी सहूलियतों के हकदार हैं, वे भला क्यों ऐसी बंदिश को बढ़ावा देंगे? जिस तरह आरक्षित तबकों के भीतर क्रीमीलेयर को आरक्षण के फायदों से बाहर करने के मुद्दे पर हिन्दुस्तान के सारे ताकतवर तबके एक साथ गिरोहबंदी कर लेते हैं, और कभी क्रीमीलेयर को लागू नहीं होने देते। ठीक उसी तरह निजी अस्पतालों में इलाज पर अगर रोक लगाई जाएगी, तो वह भी किसी ताकतवर को बर्दाश्त नहीं होगी। और हम ऐसी किसी रोक की बात नहीं कर रहे हैं कि ये लोग अपनी मोटी तनख्वाह से खर्च करके निजी इलाज न करवाएं, हम तो महज एक ऐसी रोक की बात कर रहे हैं कि सरकारी खर्च पर ऐसा इलाज न करवाया जाए जो सरकार के अच्छे अस्पतालों में हासिल है। अगर कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका, संवैधानिक दूसरे पदों पर बैठे हुए लोग अपने ओहदों की कानूनी सहूलियतों के मुताबिक निजी अस्पतालों से ही इलाज करवाएंगे, तो उससे तो सरकारी अस्पताल और पिछड़ते चले जाएंगे।
आज हिन्दुस्तान में पिछले चार-पांच महीनों में यह अच्छी तरह देख लिया है कि कोरोना से निपटने के लिए तमाम खतरे झेलते हुए भी देश के सरकारी अस्पताल ही सबसे पहले उपलब्ध थे। नेहरू को रात-दिन उन तमाम बातों के लिए कोसा जाता है जो उन्होंने नहीं की हैं, और जो उन्होंने किया है, उन एम्स के लिए नेहरू के नाम की चर्चा भी नहीं होती। आज हिन्दुस्तान में कोरोना से लड़ाई में देश के तमाम एम्स सबसे आगे रहे, और बात महज कोरोना की नहीं है, पिछली आधी सदी में, जबसे एम्स बने हैं तबसे वे अपने इलाकों में लोगों की इलाज के लिए पहली पसंद रहते हैं, और वे निजी अस्पतालों के मुकाबले बेहतर माने जाते हैं। कोरोना के महामारी बनने के वक्त को देश के सारे निजी अस्पताल कन्नी काटने लगे थे, वे कोरोना के मरीजों को देखना ही नहीं चाहते थे, देश में दर्जनों मौतें हो गई क्योंकि निजी अस्पतालों ने कोरोना का खतरा मानकर दूसरी बीमारियों की मरीजों को भी भर्ती करने से मना कर दिया था।
ऐसे में हिन्दुस्तान को अपने आक्रामक निजीकरण के बीच सरकार की अस्पतालों की अहमियत को अनदेखा नहीं करना चाहिए। सत्ता की ताकत वाले हिन्दुस्तान के तमाम लोग बड़े निजी अस्पतालों में इलाज कराकर उसका बोझ गरीब जनता की जेब पर डाल सकते हैं, लेकिन गरीब जनता के लिए बड़े इलाज की जगह आज भी एम्स या ऐसे दूसरे बड़े सरकारी अस्पताल हैं।
अमित शाह हों, सोनिया गांधी हों, या कोई दूसरे जज हों, इन सबके लिए निजी इलाज पर सरकारी खर्च खत्म कर दिया जाना चाहिए। न मंत्री, न अफसर, न जज, न राष्ट्रपति, न राज्यपाल या मुख्यमंत्री, न सांसद, न विधायक, और न ही दूसरे संवैधानिक ओहदों पर बैठे लोग, इनमें से किसी को भी निजी अस्पताल के खर्च का हक नहीं रहना चाहिए। इन सबकी तनख्वाह भी इतनी रहती है कि वे हेल्थ बीमा खरीदकर, या सीधा भुगतान करके देश की गरीब जनता पर बोझ बनने से बच सकते हैं। केन्द्र सरकार को अगर निजीकरण करना है, तो वह इन्हीं तमाम ताकतवर ओहदों पर बैठे लोगों के बंगलों को खत्म करके उन्हें किराए की पात्रता देकर कर सकती है। आज एक-एक ओहदे वाले पर सरकार का मकान का खर्च ही करोड़ों रूपए साल का होता है, और बड़े बंगले तो दिल्ली में सैकड़ों करोड़ के एक-एक हैं। यह पूरा सिलसिला खत्म होना चाहिए, हर ओहदे के साथ एक भाड़े का पैमाना जुड़ा रहे, और फिर लोग उससे मकान खरीदें, या किराए से लेकर रहें, इसे वे जानें।
जिस बात से आज यहां लिखना शुरू किया गया, वह जाहिर तौर पर नाजायज और गैरजिम्मेदार बातों से उपजी है। कुछ लोग देश के लोगों को पापड़ से ठीक कर रहे हैं, कुछ लोग एक फर्जी आयुर्वेदिक कंपनी की दवाओं से ठीक कर रहे हैं, कुछ लोग दीया जलाकर, कुछ लोग थाली-चम्मच बजाकर कोरोना मरीजों को ठीक कर रहे हैं। गैरजिम्मेदारी का यह सिलसिला भी खत्म होना चाहिए क्योंकि अब यह साफ हो गया है कि जब रामदेव के दाएं हाथ बालकृष्ण को भी इलाज की जरूरत पड़ती है, तो ये भागे-भागे एलोपैथिक अस्पताल ही जाते हैं, किसी गौशाला जाकर गोमूत्र नहीं पीते। ये तमाम बातें सीधे-सीधे महामारी-कानून के तहत जुर्म भी हैं कि वे लोगों में अंधविश्वास पैदा कर रही हैं, और उनकी सेहत को खतरे में डाल रही हैं। केन्द्र सरकार की यह जिम्मेदारी बनती है कि उसके ओहदों पर बैठे लोग अगर ऐसी पाखंडी बातों को फैला रहे हैं, तो इसे खुद होकर इसे रोकना था। लेकिन आज का हिन्दुस्तान वैसा रह नहीं गया है, इसी वजह से सोशल मीडिया पर पापड़ का मखौल बनाकर ही उस केन्द्रीय मंत्री के साथ हिसाब चुकता हो पाया है। हम उस बारे में यहां अधिक लिखना नहीं चाहते, इसलिए हम सीधे एम्स पर आए, और देश के विशेषाधिकार दर्जा प्राप्त लोगों के महंगे सरकारी खर्चों पर आए। हमें उम्मीद तो धेले भर की भी नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट में कोई जनहित याचिका लेकर जाने पर कोई जज इसे गरीबों के नजरिए से देख भी पाएंगे, लेकिन लोगों को कोशिश छोडऩी नहीं चाहिए क्योंकि गरीबों का पैसा बड़े लोगों पर निजी अस्पतालों में क्यों खर्च हो?
कल कुछ ऐसा हुआ कि अजगर के बदन में हलचल देखने मिली। यह हैरानी की बात भी थी क्योंकि इसकी इस वक्त उम्मीद नहीं थी, लेकिन खुशी की बात भी थी कि इससे अजगर के जिंदा रहने का सुबूत भी मिला था।
कांग्रेस पार्टी में कल कई नेताओं ने यूपीए सरकार के कामकाज को लेकर कुछ सवाल उठाए, और कुछ दूसरे लोगों ने उसका जवाब दिया। खबरों की मानें तो यह नौजवान नेताओं और बुजुर्ग तजुर्बेकार लोगों के बीच दो अलग-अलग तबके बन जाने जैसी बयानबाजी थी। कांग्रेस के उम्र के पैमाने पर जवानी के आंकड़े कुछ अलग रहते हैं। इसके मुताबिक जो अपेक्षाकृत जवान लोग हैं उन लोगों ने कुछ बुजुर्ग लोगों के बयान पर कहा कि मनमोहन सिंह की सरकार को किसी नाकामयाबी के लिए जिम्मेदार ठहराना एक बहुत ही गैरजिम्मेदारी का काम है। पूर्व केन्द्रीय मंत्री और कांग्रेस प्रवक्ता रहे मनीष तिवारी ने ट्विटर पर लिखा- भाजपा 2004 से 2014 तक दस साल सत्ता से बाहर रही लेकिन उसके लोगों ने उस समय की हालत के लिए कभी अटल बिहारी वाजपेयी या उनकी सरकार को जिम्मेदार नहीं ठहराया।
एक और नौजवान नेता मिलिंद देवड़ा ने ट्वीट किया क्या कभी उन्होंने (मनमोहन सिंह ने) कल्पना भी की होगी कि उनकी ही पार्टी के कुछ लोग उनकी सालों की सेवा को खारिज कर देंगे, और उनकी विरासत को नुकसान पहुंचाने की कोशिश करेंगे, वह भी उनकी मौजूदगी में। एक तीसरे अपेक्षाकृत नौजवान पूर्व केन्द्रीय मंत्री, और वर्तमान सांसद शशि थरूर ने मनीष तिवारी और मिलिंद देवड़ा की बात को सही करार देते हुए लिखा- यूपीए के क्रांतिकारी दस सालों को दुर्भावनापूर्ण बहस के साथ कलंकित कर दिया गया। हमारी हार से सीखने को बहुत सारी बातें हैं, और कांग्रेस के पुनरुद्धार के लिए बहुत मेहनत करनी होगी, लेकिन हमारे वैचारिक शत्रुओं के मनमाफिक चलकर ऐसा नहीं हो सकता।
दरअसल पार्टी के एक दूसरे युवा नेता ने कांग्रेस के राज्यसभा सदस्यों की हाल में हुई एक बैठक में यूपीए के कामकाज पर सवाल उठाया था, और उन्होंने कपिल सिब्बल और पी.चिदंबरम से इतनी पुरानी पार्टी के कमजोर होने पर आत्मचिंतन को कहा था।
अब सोई हुई कांग्रेस जो कि राजस्थान के तमाम ढोल-नगाड़ों के बाद भी करवट बदल-बदलकर सोई हुई है, वह मनमोहन सरकार के कामकाज पर उठाए गए सवाल को लेकर जाग गई है। हम कांगे्रस के इन अलग-अलग तबकों की कही बातों में फर्क को लेकर अधिक विश्लेषण करना नहीं चाहते क्योंकि मुद्दा यह है कि एक पार्टी के भीतर कोई बहस चल रही है। मुर्दे की देह में हलचल एक अच्छी बात है, और वह किसी दवा की वजह से हो रही है, किस बात का लक्षण है, यह कम महत्वपूर्ण बात है।
कांग्रेस पार्टी के पास खोने के लिए अब करीब-करीब कुछ भी नहीं बचा है। भारतीय संसदीय राजनीति और भारतीय चुनावी राजनीति में वह हाशिए पर आ चुकी है, और ऐसा लगता है कि देश की सत्ता के लायक किसी गठबंधन का मुखिया बनना भी उसके लिए अभी दूर की कौड़ी है। ऐसे में लोकसभा के पिछले चुनाव में खुद अपनी जुबान में उसने जिसे शिकस्त मान लिया, उस शिकस्त की वजहें तलाशने के लिए आज तक एक भी बैठक नहीं हुई। चुनाव के बाद की तकरीबन सारी ही बैठकें राहुल के अध्यक्ष पद से हटने, उनकी मां सोनिया के कामचलाऊ अध्यक्ष बनने, और फिर से राहुल से अध्यक्ष बनने की अपील करने में खत्म हो गई। यह पार्टी इतनी कम सीटों पर क्यों बनी रह गई इस पर भी चर्चा नहीं हुई, और न ही पार्टी में इतना हौसला बच गया कि वह कह सके कि वह पिछली बार के चुनाव के मुकाबले कुछ भी खोने वाली नहीं रही, एक-दो सीटें बढ़ाने वाली ही रही। पार्टी हौसला खो चुकी थी, पार्टी का अध्यक्ष अपनी खुद की नजरों में सब कुछ खो चुका था, लेकिन पार्टी के भीतर अध्यक्ष का परिवार कुछ भी नहीं खो रहा था। ऐसे में किसी ने तात्कालिक सन्यास की राह पर चले राहुल की अगुवाई में लड़े गए चुनाव के विश्लेषण की बात नहीं सोची, और चुनाव के 9 महीने बाद भी पार्टी अब तक यह नहीं सोच पाई है कि मोदी के मुकाबले उसका यह हश्र क्यों हुआ, जबकि इसके कुछ महीने पहले के विधानसभा चुनावों में उसने ठोस कामयाबी पाई थी।
अभी हम कांग्रेस की इन दो पीढिय़ों के बीच चल रही बहस के मुद्दों को अहमियत नहीं दे रहे, लेकिन बहस को अहमियत दे रहे हैं। मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री रहते हुए यह कहा था कि इतिहास जब उनके कामकाज का जिक्र करेगा तो वह उनके साथ कुछ उदार रहेगा। यह एक सज्जन आदमी की जुबान थी, जो कि भारत की आज की राजनीति की आम हो गई बदजुबानी से बिल्कुल अलग थी। फिर भी दस बरस सरकार चलाने वाले नेता को, उसके मंत्रियों को, उसके अध्यादेश को फाडक़र फेंकने वाले कांग्रेस के एक महज-सांसद को चुनावी नतीजों पर आत्ममंथन तो करना ही चाहिए। स्कूली बच्चे भी जब सालाना नतीजे लेकर बाहर निकलते हैं, तो हर पर्चे में हासिल नंबर देख-देखकर सोचते हैं कि किस पर्चे में क्या गलती रह गई होगी? घर लौटकर पर्चा निकालकर देखते हैं कि उसमें किस सवाल का क्या जवाब लिखा था, किस गणित का क्या हल किया था, और उसमें से कौन सा गलत हुआ होगा? इतने आत्ममंथन के बिना, इतने आत्मविश्लेषण के बिना तो आम स्कूली बच्चे भी नहीं रहते। इसलिए मनमोहन सिंह, उनकी मुखिया रहीं सोनिया गांधी, और पार्टी में अनोखी ताकत से लैस राहुल गांधी को यूपीए के दस बरसों का विश्लेषण क्यों नहीं करना चाहिए? और यह विश्लेषण पार्टी के लोग क्यों बुरा मान रहे हैं, क्यों इसे वैचारिक दुश्मनों के हाथों में खेलना मान रहे हैं?
हमारा तो यह मानना है कि हिन्दुस्तानी धार्मिक रीति-रिवाजों के मुताबिक अंतिम संस्कार के बाद के 13 दिनों के पूरे हो जाने पर जिस तरह एक पगड़ी रस्म होती है, और परिवार के अगले मुखिया के सिर पर वह पगड़ी समारोहपूर्वक धरी जाती है, वैसा ही राजनीतिक दल में क्यों नहीं होना चाहिए? मनमोहन सिंह को खुद को ही पार्टी के सामने यह प्रस्ताव रखना था कि हार का विश्लेषण किया जाए। जरूरी नहीं है कि कांग्रेस इस विश्लेषण के आखिर में यह पाती कि वह मनमोहन सरकार की गलतियों और गलत कामों की वजह से अधिक सीटें नहीं पा सकी। हो सकता है कि कांग्रेस का तर्कसंगत विश्लेषण यह भी सामने रखता कि उसके बेहतर नतीजे न आने के पीछे देश की हवा का बदतर कर दिया जाना रहा, और कांग्रेस पार्टी देश की जहरीली हवा में अधिक लंबी दौड़ नहीं लगा पाई, क्योंकि उसके फेंफड़े नफरत की हवा के आदी नहीं थे। एक आत्ममंथन और विश्लेषण से कतराना तो जरा भी ठीक नहीं है। क्या होगा, अधिक से अधिक कुछ लोग मनमोहन सिंह पर तोहमत ही डाल देंगे। लेकिन इतिहास लेखन कभी भी बहुत दरियादिल नहीं हो सकता। पार्टी के भीतर के बड़े लोगों को अगर लग रहा है कि मनमोहन सरकार के मंत्री कांग्रेस की एक बदहाली के लिए जिम्मेदार थे और हैं, तो इस सोच से इतना डरने की क्या जरूरत है? ऐसी बात तो देश की जनता का एक बड़ा हिस्सा भी सोचता है, पार्टी के भीतर कम से कम जनता के एक हिस्से की सोच तो कोई सामने रख रहे हैं।
कांग्रेस पार्टी मध्यप्रदेश और राजस्थान में साजिशों से हुई शिकस्त से मजबूत होकर उभर सकती है। कोई भी पार्टी ऐसी चुनौतियों के बीच अपनी ताकत को बढ़ाती है, और कांग्रेस के सामने यह एक मौका है। बजाय इसके कि कांग्रेस ज्योतिरादित्य सिंधिया और सचिन पायलट जैसे नेताओं को खोए, कांग्रेस को अपने घर के भीतर जमकर खुली बातचीत करने का हौसला दिखाना चाहिए। हम इस बात को एकदम ही मासूम नहीं मानते कि सार्वजनिक मंच पर कांग्रेस नेता एक-दूसरे पर टूट पड़े हैं। इसके पीछे कोई सोची-समझी रणनीति भी हो सकती है, लेकिन उससे भी हमारी इस सोच पर कोई फर्क नहीं पड़ता कि पार्टी को बनते कोशिश बंद कमरे में, और बंद कमरे में मुमकिन न हो सके तो सार्वजनिक रूप से आत्ममंथन के लिए तैयार रहना चाहिए। जो विचार-विमर्श और बहस की जरूरत के मौके पर चुप रह जाए, उसे मुर्दा ही मान लेना बेहतर होगा। इसलिए आज अगर कांग्रेस के भीतर कड़वी, कुछ लोगों को अवांछित और गैरजरूरी लगती, और तात्कालिक नुकसान की बातें खटक भी रही हों, तो यह याद रखना चाहिए कि पौराणिक कथाओं के समुद्र मंथन की तरह अगर इससे कुछ जहर भी निकलेगा, तो इससे कुछ अमृत भी निकलेगा। और जहर से आज की कांग्रेस का कुछ नुकसान नहीं हो सकता, आत्ममंथन के अमृत से उसका फायदा जरूर हो सकता है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
बहुत से तबकों में एक-दूसरे के लिए कुछ उसी किस्म की हिकारत होती है जैसी एक खूबसूरत लडक़ी के दो आशिकों के बीच एक-दूसरे के लिए रहती ही रहती है। प्रिंट मीडिया में पूरी जिंदगी गुजारने वाले इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को नीची नजरों से देखते हैं कि यह भी कोई पत्रकारिता है? इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लोग इस गुरूर में ही गुब्बारा रहते हैं कि बड़े से बड़े नेता उन्हें देखते ही कपड़े ठीक करने लगते हैं, और मुंह से मास्क उतारकर तलाशने लगते हैं कि माईक कहां है, और कैमरा कहां है। टीवी स्टूडियो में कल के छोकरे बड़े-बड़े नेताओं को उनके पहले नाम से बुलाते देखे जाते हैं, और बुजुर्ग नेता भी मानो इस पर खुश ही रहते हैं कि वे जवान हो गए हैं। अब ऐसे में इलेक्ट्रॉनिक मीडियाके लोगों को भी यह हकीकत तो मालूम रहती है कि असली जर्नलिज्म क्या है, और वे क्या कर रहे हैं, इसलिए बाहर तो दिखावा चाहे जो भी हो, मन के भीतर तो वे भी प्रिंट मीडिया के पुराने अखबारनवीस को रकीब ही मानकर चलते हैं। अब इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भी कोई दो पीढ़ी पुरानी तकनीक हो गई है, और नया डिजिटल मीडिया इलेक्ट्रॉनिक के लिए एक और रकीब बन गया है।
रकीबों की इस कतार का नजारा तब और दिलचस्प हो जाता है जब इन सबके मुकाबले सोशल मीडिया पर लगातार लिखने और बोलने वाले लोग छा जाते हैं। एक वक्त कोई साहित्यकार अपनी किताब छपने की राह तकते बूढ़े होने लगते थे, अब अपना ब्लॉग बनाकर वे दसियों हजार लोगों को अपना लिखा पढ़वा पा रहे हैं। हिन्दी के साहित्य का हाल तकरीबन पूरी जिंदगी यह रहा कि प्रकाशक साढ़े पांच सौ किताबें छापकर उसमें से पारिश्रमिक के रूप में पचास किताबें देकर हाथ झाड़ लेता था, और वे पांच सौ किताबें कई बरस तक धीरे-धीरे बिकती रहती थीं। लेखक खुद इन पचास किताबों को आसपास बांटकर, समीक्षकों को देकर कुछ और शोहरत पा लेता था, लेकिन वह हिन्दी के 99 फीसदी लेखकों का कुल हासिल रहता था। आज जो लोग ज्वलंत और समकालीन मुद्दों पर लिखते हैं, उनको कुछ घंटों के भीतर ही साढ़े पांच सौ से अधिक लोग पढ़ लेते हैं, कई दर्जन लोग उनको दुबारा पोस्ट कर देते हैं, और वहां पर कई हजार लोग और पढ़ लेते हैं।
सोशल मीडिया ने देश के कुछ सबसे अच्छे ऐसे पत्रकार सामने ला दिए हैं जिनका पेशा कुछ और है, जो न कभी पेशेवर-पत्रकार रहे, न रहेंगे, लेकिन जो बहुत ही स्थापित और नामी-गिरामी अखबारी-स्तंभकार, और डिजिटल-ब्लॉगर के मुकाबले बेहतर लिख रहे हैं, अधिक जरूरी लिख रहे हैं, अधिक आजादी से लिख रहे हैं, और शायद अधिक अराजकता से भी। नतीजा यह हुआ है कि अखबारों से लेकर टीवी के स्टूडियो के कथावाचक सरीखे एंकरों तक, और पेशेवर डिजिटल-पत्रकारों तक पर एक अनकहा दबाव रहता है कि गैरपत्रकार लोग सोशल मीडिया जैसे जनमंच पर उनसे बेहतर तो नहीं लिख रहे हैं? और सच तो यह है कि बेहतर लिख ही रहे हैं। लोग आज जब एक मामूली सा सर्च इंटरनेट पर करते हैं, तो उसमें एक ही विषय पर जितने लोगों का लिखा हुआ एक पल में सामने आ जाता है, उससे तुलना बड़ी आसान भी हो जाती है।
बड़ी शोहरत वाले स्तंभकारों के साथ यह दिक्कत भी हमेशा से रहते आई है कि उनके विचार और उनके तर्क प्रिडिक्टेबल रहते हैं जिनके बारे में पढऩे से पहले ही पूरा अंदाज लग जाता है। लेकिन सोशल मीडिया पर नया लिखने वाले लोग, स्तंभकारों की तरह कॉलम वाले अखबारों की पसंद-नापसंद, रीति-नीति की फिक्र करने पर मजबूर नहीं रहते, वे एक आजाद कलम रहते हैं, वे किसी भी कैद से परे रहते हैं। फिर यह भी है कि कल तक प्रिंट के जो दिग्गज अपने खुद के अखबार में, या उन अखबारों में जहां वे स्तंभकार रहते थे, वहां पाठकों की प्रतिक्रिया पर उनका काबू रहता था। बहुत अधिक कड़ी और कड़वी आलोचना शायद ही किसी अखबार में पाठकों के पत्र कॉलम में जगह पाती थी। लेकिन अब इंटरनेट पर, इंटरनेट पर तो लोग पल भर में आपकी धज्जियां उड़ाकर रख देते हैं, और आपका अगला-पिछला सब कुछ नंगा करके रख देते हैं। लिखने के पीछे अगर कोई बदनीयत रहती है, तो लोग कई बार तो उसके सुबूतों सहित नामी-गिरामी लोगों का भांडाफोड़ कर देते हैं कि यह चापलूसी, यह ठकुरसुहाती किसलिए की गई है।
इसलिए आज मीडिया के अपने पारदर्शी हो जाने से, और सोशल मीडिया के आ जाने से साहित्यकारों से लेकर पत्रकारों तक पर एक इतना बड़ा लोकतांत्रिक दबाव पड़ा है जिसकी कोई कल्पना दो दशक पहले तक किसी ने की नहीं थी। सोशल मीडिया में आकर लोकतंत्र को जवाबदेह बनाने का एक बड़ा काम किया है, और लोकतंत्र का स्वघोषित चौथा पाया होने का दावा करने वाले प्रेस और मीडिया को भी। अब मीडिया के किसी झूठ को उजागर करने के लिए लोगों को उसी मीडिया के एक सबसे तिरस्कृत कोने के आखिर में जगह पाने का संघर्ष नहीं करना पड़ता। अब लोग खुद लिखकर पोस्ट कर सकते हैं, हजार रूपए में अपनी वेबसाईट बना सकते हैं, और झूठ को झूठ, सच का भी जीना हराम कर सकते हैं।
टेक्नालॉजी की लाई हुई इस क्रांति ने लोकतंत्र को चाहे अराजक ही क्यों न बना दिया हो, उसने लोकतंत्र को जिंदा भी कर दिया है। एक शहर के दो-तीन अखबार गिरोहबंदी करके किसी बड़े विज्ञापनदाता के बड़े से बड़े जुर्म को अनदेखा करने का आसान सा काम कर लेते थे, लेकिन अब किसी बात को उस तरह दबा पाना नामुमकिन हो गया है। अगर मीडिया का बड़ा हिस्सा उसे दबा भी देता है, तो फेसबुक या ट्विटर जैसे सोशल मीडिया पर आम लोग, जिन्हें स्थापित मीडिया दो कौड़ी का कहते आया है, वे लोग भी बड़े इश्तहारों की तस्वीर, और बड़े जुर्म पर चुप्पी को जोडक़र पोस्ट करने लगते हैं, और इसका कोई कानूनी असर चाहे न हो, तथाकथित बड़े मीडिया का तौलिया पल भर में चौराहे पर उतर जाता है।
सोशल मीडिया ने स्थापित और मेनस्ट्रीम कहे जाने वाले मुख्य धारा के मीडिया की सत्ता और राजनीति के साथ गिरोहबंदी भी कमजोर कर दी है। अब जब सत्ता और राजनीति को यह लगता है कि कुछ अखबारों और कुछ चैनलों को मैनेज कर लेने से ही बात नहीं बनेगी, और रायता तो सोशल मीडिया पर बिखर ही जाएगा, तो फिर मूलधारा के संगठित मीडिया का वजन भी घट गया, और लोकतंत्र को एक सांस लेने की मोहलत मिल गई।
सोशल मीडिया अपने अराजक और गैरकानूनी तेवरों की वजह से इतना बदनाम हो गया है कि उससे कुछ अच्छा भी होता है, यह मानने से भी बहुत से लोग इंकार कर देंगे। लेकिन हकीकत यह है कि मुम्बई में दाऊद भी रहता था, और भाभा एटॉमिक रिसर्च सेंटर के वैज्ञानिक भी कामयाबी हासिल करते थे। कुछ वैसा ही हाल सोशल मीडिया का भी है। इस पर बुरे लोग भी हैं जो कि रात-दिन नफरत फैलाकर, हिंसा फैलाकर लोकतंत्र को खत्म करने में लगे हुए हैं, और दूसरी तरफ भले लोग भी हैं जिनके दबाव में सरकारों को बिकते हुए पल भर को झिझक तो होती ही है, और आगे-पीछे जाकर उनका भांडा भी फूटता है। चिडिय़ा के चहकने की तरह नाम और तस्वीर वाले ट्विटर का मिजाज उस कौंए की तरह है जो चीख-चीखकर कुछ उजागर करने के लिए जाना जाता है। जिस फेसबुक के बिना आज दुनिया के मुखर लोगों का काम चलता नहीं है, वह फेसबुक लोगों के फेस पर पहने गए नकाब और मुखौटे उतार देने की सबसे बड़ी जगह बन गई है। यह सिलसिला साबित करता है कि अपनी सारी अराजकता के बावजूद सोशल मीडिया ने जो दो सबसे बड़े काम किए हैं, उनमें से एक तो यह कि मेनस्ट्रीम मीडिया में खरीदी गई चुप्पी का असर खत्म कर दिया है, दूसरा यह किया है कि तमाम तथाकथित मेनस्ट्रीम मीडिया पर एक अनकहा दबाव पैदा कर दिया है कि उसकी चुप्पी का भांडाफोड़ एक अकेला चना भी कर सकता है।
सच कहें तो 21वीं सदी में सबसे बड़ा लोकतांत्रिक काम स्थापित मीडिया का एकाधिकार टूटना, और सोशल मीडिया का इतनी बड़ी जगह पा जाना हुआ है। आज हिन्दुस्तान जैसे देश में भी आबादी का एक बड़ा हिस्सा ऐसा होते जा रहा है जिसकी पहली सूचना का जरिया स्थापित मीडिया न होकर सोशल मीडिया हो गया है, और जिसके विचारों को प्रभावित करने का काम स्थापित मीडिया से कहीं आगे बढक़र सोशल मीडिया कर रहा है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के संसदीय चुनाव क्षेत्र बनारस से एक खबर आई कि वहां एक हिन्दू उग्रवादी संगठन ने नेपाल के एक नागरिक को पकडक़र जबर्दस्ती उसका मुंडन करवाया, और उससे जयश्रीराम के नारे लगवाए। इस संगठन के लोगों ने उससे नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली के खिलाफ भी नारे लगवाए जिन्होंने पिछले दिनों यह कहा था कि राम नेपाली थे।
चूंकि यह खबर इन दिनों हवा में तैर रहे एक बड़े विवाद से जुड़ी हुई थी, तमाम मीडिया पर छा गई, और उसके साथ मूंडे गए सिर पर राम का नाम भी लिखा हुआ था, इसलिए इसका धार्मिक उन्माद के लिए भी खासा महत्व हो गया था। इसका वीडियो भी तैरते रहा। आज के वक्त के इलेक्ट्रॉनिक और डिजिटल मीडिया में कोई खबर अपने तथ्यों से अगर महत्व के दस नंबर पाती है, तो उसकी तस्वीर होने से वह घटना महत्व के चालीस नंबर और पा जाती है। फिर अगर वीडियो भी है, तो सोने पे सुहागा, महत्व के पचास नंबर और मिल जाते हैं, और वह सौ टका खरा टीआरपी-वेबसाईट हिट सामान बन जाती है।
अब बनारस पुलिस ने जांच के बाद बताया है कि जिसका सिर मूंडकर वीडियो बनाया गया वह कोई नेपाली नहीं था बल्कि बनारस का ही था, मां-बाप दोनों सरकारी नौकरी करते थे, और वह अभी भी मां की जगह नौकरी पाए भाई के सरकारी क्वार्टर में रहता है। उससे तीन हिन्दुओं ने जाकर संपर्क किया था, और कहा था कि एक कार्यक्रम में घाट पर चलकर सिर मुंडवाना है जिसके लिए हजार रूपए मिलेंगे। सिर मुंडाकर नारे लगवाए, वीडियो बनवाया, और दोनों देशों के बीच एक गैरजरूरी तनाव खड़ा करवाकर लोग चले गए। बाकी का काम आपाधापी में रचे गए मीडिया ने कर दिया। विश्व हिन्दू सेना के संस्थापक अरूण पाठक सहित जिन लोगों पर जुर्म कायम हुआ है उनमें राजेश और जयगणेश नाम के लोग भी हैं।
पुलिस ने अब तक इस सिलसिले में छह लोगों को गिरफ्तार तो कर लिया है, लेकिन ऐसी तथाकथित राष्ट्रवादी सोच को तो पूरे देश में पनपने दिया जा रहा है जिसकी वजह से देश के भीतर लोगों में खाई खुद रही है। यह समझने की जरूरत है कि भारत में नेपाली नागरिक बिना किसी वीजा के आते-जाते रहे हैं, और यहां सरकारी नौकरी भी पाते रहे हैं। ऐसा ही हाल नेपाल में भी हिन्दुस्तानियों का रहा है। लेकिन जब इन दोनों देशों के बीच एक तनातनी चल रही है तो खुद शोहरत पाने के लिए ऐसी नफरती साजिश रचकर ऐसी हरकत करना क्या देश के साथ गद्दारी नहीं है? देश के साथ गद्दारी और भला क्या होती है कि इस देश में आए हुए नेपालियों के खिलाफ नफरत फैलाई जाई, हिंसा फैलाई जाए, इसके लिए एक राह दिखाई जाए। पड़ोस के एक देश से रिश्ते खराब किए जाएं, और बाकी पूरी दुनिया में भी हिन्दुस्तान का नाम बदनाम किया जाए कि यहां दूसरे देश के लोगों से कैसा सुलूक किया जाता है।
आज जब हिन्दुस्तान में बात-बात पर लोगों को गद्दार होने का सर्टिफिकेट दिया जा रहा है, जब हिन्दू धर्म, और कुछ राजनीतिक संगठनों से जुड़े हुए लोगों के तमाम किस्म के जुर्म, हत्या और बलात्कार कर, दंगा-फसाद तक पर देने के लिए क्लीनचिट छपवाकर ग_ा रखा गया है, और दूसरी तरफ इनसे परे के, असहमत, लेकिन सचमुच के भले और देशभक्त लोगों को देने के लिए गद्दार की पर्ची छपवाकर रखी गई है, तब अगर ऐसी साजिश का हौसला लोगों का हो रहा है, तो वह देशद्रोह से कम कुछ नहीं है। देशद्रोह की परिभाषा में यह भी आता है कि किसी मित्र देश के साथ संबंध खराब करने की कोशिश।
यह भी याद रखना चाहिए कि जब हिन्दुस्तान में ईसाईयों को जिंदा जलाया जाता है, तो दुनिया के ईसाईबहुल देशों में बसे हुए भारतवंशियों को इस देसी नफरत के दाम चुकाने पड़ते हैं। अमरीका और इंग्लैंड जैसे विकसित देशों में भी भारतवंशियों को निशाना बनाया जाता है, और ऐसी चर्चित हिंसा से परे मामूली भेदभाव की तो अनगिनत बातें उन्हें झेलनी पड़ती हैं। जब हिन्दुस्तान में मुस्लिमों पर हमले होते हैं, तो खाड़ी के देशों में और दूसरे मुस्लिम देशों में काम कर रहे हिन्दुस्तानियों को उसका दाम चुकाना पड़ता है। अभी बनारस में जिस हिन्दुस्तानी को नेपाली बताकर उसका सिर मुंडाकर नेपाल से तनाव खड़ा करने की कोशिश की गई, उसके जवाब में अगर नेपाल में कई हिन्दुस्तानियों को सिर काट दिए जाते, तो क्या बहुत बड़ी हैरानी और शिकायत की बात होती? तो यह सब क्या देश के साथ गद्दारी नहीं है? दूसरे देशों में बसे हिन्दुस्तानियों के साथ गद्दारी नहीं है?
अगर ऐसी आक्रामक-हिंदुत्ववादी हरकतों और हिंसा की जगह किसी दूसरे धर्म के लोगों ने ऐसा किया होता तो अब तक हिन्दुस्तानी सोशल मीडिया पर कई लाख पेशेवर लोग टूट पड़े होते, और ऐसा करने वाले की मां-बहन के बलात्कार की धमकियां आगे बढ़ाते रहते। अब सवाल यह है कि क्या महान इतिहास वाले, और शर्मनाक वर्तमान वाले इस देश में बहुमत या बहुसंख्यक समाज की जनसंख्या ही लोकतंत्र और इंसानियत के पैमाने तय करेगी? यह बहुत भयानक नौबत है कि किसी मुजरिम के भले साबित होने के लिए, और किसी भले के मुजरिम साबित करने के लिए उनका धर्म काफी माना जाए। हिन्दुस्तान को आखिर कितने पैमानों पर टुकड़े-टुकड़े किया जाएगा? जिस कन्हैया कुमार ने हिन्दुस्तान के खिलाफ नारे नहीं लगाए, उस पर टुकड़े-टुकड़े गिरोह का सरगना होने की तोहमतें आज भी लगाई जाती हैं, और आज भी उन तमाम वीडियो को इस्तेमाल किया जाता है जिन्हें दिल्ली की बड़ी अदालत फर्जी और गढ़ा हुआ कह चुकी है।
जिन लोगों को यह लगता है कि बनारस में एक सिर मूंड देने से देश पर कोई खतरा नहीं है, उन्हें दुनिया के दूसरे देशों में बसे हुए हिन्दुस्तानियों से पूछना चाहिए कि ऐसी हरकतों से वहां उन्हें कितनी तकलीफ उठानी पड़ती है, कितना नुकसान उठाना पड़ता है, और उन पर खतरा कितना बढ़ जाता है।
इन दिनों हिन्दुस्तान में ऐसा लगता है कि जुर्म की परिभाषा बदल गई है। कुछ धर्मों के लोगों के खिलाफ किया गया जुर्म जुर्म नहीं रह गया, कुछ धर्मों के लोगों द्वारा किया गया जुर्म जुर्म नहीं रह गया। यह सिलसिला बढ़ते-बढ़ते अब यहां तक पहुंच गया है कि इस देश के भीतर के उत्तर-पूर्वी राज्यों से निकलकर देश के महानगरों में जाकर कामयाबी से नौकरी करने वाले, बेहतर और अधिक काबिलीयत वाले नौजवानों को कई जगहों पर पकडक़र पीटा जा रहा है, उन्हें चीनी या चिंकी कहा जा रहा है, राजधानी दिल्ली में उन पर थूका जा रहा है, और बेंगलुरू जैसे आधुनिक शहर में भी उन्हें भारी भेदभाव झेलना पड़ रहा है, शहर छोडक़र जाना पड़ रहा है।
दरअसल जो लोग यह सोचते हैं कि मुस्लिमों और ईसाईयों से नफरत का सिलसिला उनके साथ ही खत्म हो जाएगा, उन्हें याद रखना चाहिए कि जिस तरह जंगली जानवर के एक बार इंसानखोर हो जाने पर उसे इंसानों से ही पेट भरने वाला मान लिया जाता है, ठीक वैसे ही नफरत पर जीने वाले लोग जब निशाना लगाने के लिए दूसरे धर्मों के लोग नहीं रहेंगे, वे अपने धर्म के दूसरी जातियों के लोगों पर निशाना लगाएंगे, जैसा कि उत्तर भारत में कई जगह जातियों की हिंसा में देखने में आता है। हिंसा का मिजाज बनाया जा सकता है, उसे सुधारना बहुत ही मुश्किल रहता है। आज देश में जिस तरह से विज्ञानसम्मत सोच को गद्दारी माना जा रहा है, संविधान और इंसाफ को अवांछित संतान करार दिया जा रहा है, जिस तरह कानून हाथों में लेकर सडक़ों पर भीड़ पैरों से कुचलकर सजा दे रही है, जिसके चलते लोगों का हौसला इतना बढ़ रहा है कि वे एक हिन्दुस्तानी को हजार रूपए देकर नेपाल से तनाव खड़ा करने की हरकत कर रहे हैं। पुलिस तो कुछ मामूली दफाओं के तहत उन पर कार्रवाई करेगी, लेकिन हिन्दुस्तान के एक पड़ोसी मित्र देश के साथ रिश्ते बिगाडऩे के लिए भी उन पर कोई दफा लगेगी?
कांग्रेस ने एक बड़ा हैरान करने वाला काम किया है जो कि उसकी परंपरा, उसके मिजाज से बिल्कुल अलग है। आमतौर पर यह पार्टी उन कंधों पर सवार होकर चलती है जो कंधे खुद लाठी थामे हुए हाथों पर टिके रहते हैं। ऐतिहासिक हो चुके बुजुर्गों पर सवारी की शौकीन कांग्रेस ने गुजरात में हार्दिक पटेल को अपना कार्यकारी अध्यक्ष बनाया। क्या कांग्रेस में हाल के कई बरसों में इससे अधिक चौंकाने वाला कोई अकेला फैसला या कोई अकेला मनोनयन हुआ है?
हार्दिक पटेल के बारे में अधिकतर लोगों को अच्छी तरह याद होगा कि कई बरस पहले यह नौजवान गुजरात में पाटीदार आरक्षण आंदोलन का अगुवा होकर उभरा, और उसके खिलाफ केन्द्र और गुजरात की भाजपा सरकारों ने राजद्रोह जैसे भी मुकदमे दर्ज किए। लेकिन कुछ समय पहले हार्दिक पटेल कांग्रेस में शामिल हुआ जो कि गुजरात में किनारे बैठी इस पार्टी के लिए एक बड़ा हासिल था। अब 26 बरस के इस नौजवान को कांग्रेस ने गुजरात का अपना कार्यकारी अध्यक्ष नियुक्त किया है। गुजरात कांग्रेस के सारे ही बड़े नेता हार्दिक की उम्र से अधिक लंबा तजुर्बा रखने वाले हैं, और यह तय है कि बीती रात के इस फैसले पर वहां के नेता यही कह रह होंगे कि जब वे कांग्रेस में नेता बन चुके थे, तब तक यह नौजवान तो पैदा ही नहीं हुआ था। हार्दिक पटेल 2012 से पाटीदार समाज में एक सक्रिय कार्यकर्ता रहा, और आगे चलकर वह पाटीदार आरक्षण का सबसे बड़ा चेहरा बना। 2017 के गुजरात विधानसभा चुनाव के समय वह कांग्रेस पार्टी में शामिल हुआ, और इसे बड़े हल्के और बड़े वजनदार आरोपों में राजद्रोह के मुकदमे झेलने पड़े हैं जो अभी चल रहे हैं। 26 बरस की उम्र में वह एक सेक्स टेप कांड की तोहमत भी झेल चुका है, और अपनी बहन की शादी में करोड़ों रूपए खर्च करके ही वह विवाद और चर्चा में रहा है।
गुजरात, जो कि नरेन्द्र मोदी और अमित शाह का अपना प्रदेश है, और जहां 15-20 बरस से भाजपा का राज लगातार चल रहा है, वहां कांग्रेस ने यह एक बड़ा दांव लगाया है। इसके पीछे कौन सा तर्क है यह तो अभी नहीं मालूम है, लेकिन हाल के बरसों के गुजरात कांग्रेस के दलबदलू सांसदों-विधायकों को देखना जरूरी है जिन्होंने राज्यसभा चुनाव के वक्त पार्टी को बुरी तरह दगा दी, और उसे खोखला करके छोड़ दिया। ऐसे प्रदेश में कांग्रेस ने हाल ही में राजनीति में आए, हाल ही में कांग्रेस में आए, और कुल 26-27 बरस के हार्दिक पटेल को एक किस्म से पार्टी की कमान और लगाम क्या सोचकर दी है, उसका खुलासा आज के आज हो नहीं पाया है। इस फैसले की कांग्रेस के इतिहास में कोई मिसाल नहीं मिलती। इस पार्टी में आमतौर पर कार्यकारी अध्यक्ष हमेशा ही नहीं बनते, और मोदी-शाह के गृहप्रदेश में यह फैसला खासा बड़ा है, खासा अटपटा है, और थोड़ा सा अविश्वसनीय किस्म का भी है।
कांग्रेस पार्टी को जिंदा रहने के लिए भी नए खून की जरूरत है। छत्तीसगढ़ में भी कांग्रेस पार्टी के प्रदेश स्तर के जितने नेता खबरों में रहते थे, उनमें सबसे नौजवान भूपेश बघेल को प्रदेश अध्यक्ष भी बनाया गया, और उनकी अगुवाई में विधानसभा चुनाव जीतने पर उन्हें हाईकमान के चाहे-अनचाहे मुख्यमंत्री भी बनाया गया। एक किस्म से भूपेश पहले चुनाव में भाजपा से जीते, और फिर राहुल गांधी के घर के भीतर हुए मुकाबले में वे अपने से खासे बड़े तीन नेताओं से जीते और मुख्यमंत्री बने। फिर भी हार्दिक पटेल की जितनी उम्र है, उतने बरस से तो भूपेश बघेल विधायक रहते आए हैं। भूपेश 1993 में पहली बार पाटन से चुनाव जीते, उसी बरस गुजरात के पाटीदार परिवार में हार्दिक का जन्म हुआ। इसलिए हार्दिक पटेल की पार्टी के भीतर यह ताजपोशी बहुत हैरान करने वाली है। इसके पीछे पहली नजर में जो तर्क दिखता है वह यही है मोदी और शाह के मुकाबले गुजरात में किसी भी पार्टी का कोई और चेहरा जो कि कामयाब हुआ हो, वह हार्दिक का ही रहा है।
कांग्रेस हाईकमान के राजनीतिक सचिव का जिम्मा लंबे समय तक गुजरात के ही एक नेता अहमद पटेल ने सम्हाला है, इसलिए हाईकमान को गुजरात अच्छी समझ हासिल रही है, आज भी है। अब यह आने वाला वक्त बताएगा कि इस फैसले के क्या नतीजे निकलते हैं, और क्या पूरे देश में कांग्रेस एक पूरी पीढ़ी को किनारे करके राहुल की अपनी पीढ़ी तक लीडरशिप को ला सकेगी?
हार्दिक पटेल का यह फैसला अपने किस्म का एक अकेला फैसला है, इसलिए अभी इसके बहुत अधिक मतलब निकालना अटकलबाजी किस्म का काम होगा, लेकिन यह दिलचस्प प्रयोग है, और कांग्रेस को मिट जाने से बचाने वाला एक टीका (वैक्सीन) बनाया गया दिखता है, जो कि बिना ह्यूमन ट्रायल के ही बाजार में उतार दिया गया है। एक राज्य के भीतर तक ही लीडरशिप की संभावनाओं वाले इस नौजवान नेता को कांग्रेस संगठन के दिल्ली में कोई खतरा नहीं है, शायद इस भरोसे के साथ ही उसे गुजरात में ऐसी जिम्मेदारी दी गई है। आगे-आगे देखें होता है क्या।
-सुनील कुमार
हिन्दुस्तान में लॉकडाऊन के चलते शराब भी बंद कर दी गई थी, और नशे के अधिक आदी लोगों में से कुछ लोगों ने शायद इसी वजह से केरल जैसे राज्य में खुदकुशी कर ली थी, और कुछ दूसरे राज्यों में दारू की जगह कोई दूसरी चीज पीकर कुछ लोग मर गए थे। लेकिन ये तमाम बातें गरीबों के साथ हुईं, पैसे वालों के लिए तो सारे ही वक्त हर जगह ठीक उसी तरह शराब हासिल रहती है जिस तरह शराबबंदी वाले गुजरात में पूरे ही वक्त हर ब्रांड की दारू घर पहुंच मिल जाती है। कुल मिलाकर दारू अधिक बिकने वाला एक नशा रहा जिसकी बिक्री शुरू होना, बंद होना एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा रहता है, और सत्तारूढ़ पार्टी के लिए एक नंबर और दो नंबर की सबसे बड़ी कमाई भी रहती है। यह कमाई किसी एक प्रदेश की संस्कृति तक सीमित नहीं है, यह देश के तकरीबन हर प्रदेश में एक सरीखी है।
ऐसे में नशे की कई दूसरी किस्में हैं जिन पर सरकार का कोई काबू नहीं रहता, रह सकता भी नहीं। अभी अमरीका के एक राज्य में सरकारी अफसरों की जानकारी में कोरोना-पार्टियां चल रही हैं। इनमें किसी एक कोरोना मरीज की मौजूदगी में बहुत से लोग पार्टी में शामिल होते हैं, इसके लिए वे एक तय भुगतान करते हैं। पार्टी के बाद इनमें से जो पहले कोरोनाग्रस्त होते हैं, उन्हें जमा रकम में से एक बड़ा ईनाम मिलता है। क्योंकि बीमारी की दहशत से लोग डिप्रेशन में हैं, इसलिए वे इससे उबरने के तरह-तरह के रास्ते ढूंढ रहे हैं, और लोगों के लिए यह एक बड़ा उत्तेजक नशा है कि वे बीमारी को चुनौती दे रहे हैं, उसे न्यौता दे रहे हैं, और उत्तेजना के साथ इंतजार कर रहे हैं कि कब वे पॉजिटिव होकर ईनाम जीतते हैं।
आज भी दुनिया के कई देशों में गांजे का नशा फिर से कानूनी बनाया गया है क्योंकि सरकारों का यह मानना है कि गांजे का नशा कम नुकसानदेह होता है, और उसमें कुछ चिकित्सकीय गुण भी होते हैं। इलाज के लिए भी, और नशे के लिए भी गांजा पीने के कैफे अमरीका जैसे कई देशों में बढ़ रहे हैं, और लोग इस सस्ते और कम नुकसानदेह नशे को मिले कानूनी दर्जे का इस्तेमाल कर रहे हैं। भारत में गांजा गैरकानूनी है, और छत्तीसगढ़ जैसा राज्य इससे गुजरते हुए गांजे की गाडिय़ों को रोज ही पकड़ रहा है। शराब के नशे में लोग रोज लापरवाही से कोरोना का खतरा झेल रहे हैं, अंधाधुंध खर्च भी कर रहे हैं, लेकिन गांजा हिन्दुस्तान में गैरकानूनी है। कम से कम हिन्दू धर्म के बहुत से गंजेड़ी साधुओं को छोडक़र बाकी के लिए तो गैरकानूनी है ही, साधुओं की चिलम का गांजा मानो कानून से ऊपर है।
हर देश और समाज को यह बात समझनी चाहिए कि अगर लोकतांत्रिक व्यवस्था के भीतर नशे पर पूरी रोक मुमकिन नहीं है, तो फिर कौन सा नशा किस तरह छूट का हकदार हो। नरेन्द्र मोदी जैसे कड़े मुख्यमंत्री के रहते हुए गुजरात में शराब जितनी आसानी से हासिल थी, वह अपने आपमें एक मिसाल है कि नशे पर पूरी रोक मुमकिन नहीं है। किसी तानाशाही में शायद थोड़ी अधिक कड़ाई हो भी सकती है क्योंकि वहां नशे के कारोबारियों को चौराहे पर फांसी दी जा सकती है, या उनके हाथ काटे जा सकते हैं, उनकी आंखें फोड़ी जा सकती हैं, लेकिन लोकतंत्र में सजा की एक सीमा है, और इसीलिए नशे का कारोबार पूरी तरह खत्म नहीं हो रहा है।
लेकिन अमरीका जैसे समाज में जिस तरह से कोरोना-पार्टियां चल रही है, कुछ उसी किस्म से ब्रिटेन में लोग कोरोना मौतों के बीच भी बड़े पैमाने पर पार्टियां कर रहे हैं, समंदर के किनारे उनकी भीड़ दिख रही है, और दूसरी जगह भी वे बेफिक्र नाच-गा रहे हैं। अब किसी भी देश का सरकारी अमला, या वहां की पुलिस इस हिसाब से तो बनाए नहीं गए हैं कि सारी की सारी आबादी पर कोई नियम-कानून एकदम से डालना पड़ेगा। अगर हर नागरिक से कड़े नियमों पर अमल करवाना है, तो उसके लिए कई गुना अधिक पुलिस लगेगी, जो कि मुमकिन नहीं है। इसलिए कोरोना से भिडऩे का नशा हो, या गांजे का नशा हो, या शराब हो, और लापरवाही की उत्तेजना हो, दुनिया में हर किस्म की अराजकता को रोक पाना मुमकिन नहीं है। अमरीका में तो नागरिकों का एक बड़ा तबका ऐसा है जो कि गिरती लाशों के बीच भी मास्क पहनने से मना करता है, और उसका मानना है कि सांसों को ढांकना ईश्वर की व्यवस्था के खिलाफ भी है, और अमरीकी संविधान के खिलाफ भी है। वहां बड़ी संख्या में लोग बिना मास्क रह रहे हैं क्योंकि वे अपने संवैधानिक अधिकारों को लेकर अपने को अधिक जागरूक मानते हैं, और अपने ईश्वर की बनाई हुई व्यवस्था का सम्मान करना, कोरोना प्रतिबंधों से अधिक महत्वपूर्ण और जरूरी मानते हैं। यह समझने की जरूरत है कि आजादी के हक का ऐसा नशा, या ईश्वर की व्यवस्था पर डॉक्टरी राय से भी ऊपर भरोसे का नशा लोगों को कहां ले जाकर छोड़ेगा? यह भी समझने की जरूरत है कि कोरोना किस्म के संक्रामक खतरे एचआईवी-एड्स किस्म के खतरे नहीं हैं जो कि बिना सेक्स या बिना डॉक्टरी लापरवाही के किसी सामान को छूने से भी हो सकते हैं। लेकिन आज कई लोग सत्ता की ताकत के नशे में मास्क से हिकारत कर रहे हैं। भारत में ही उत्तरप्रदेश में काम करने वाली यूनिसेफ की एक अधिकारी ने उस प्रदेश के आईएएस अफसरों के बारे में लिखा है कि वे कैसे मास्क पहनने को अपनी हेठी समझते हैं।
आज यह बात साफ है कि जो अधिक ताकतवर हैं, जो अधिक पैसे वाले हैं, वे ही लोग कहीं पार्टियां करके, तो कहीं दुस्साहस दिखाकर कोरोना का खतरा मोल ले रहे हैं, और बाकी दुनिया के लिए भी यह खतरा बढ़ा रहे हैं। भारत में हमने देखा हुआ है कि कोरोना प्लेन पर सवार विदेशों से लौटे लोगों के पासपोर्ट के साथ आया, और यहां राशन कार्ड वाले गरीबों तक पहुंच गया। आज हर किस्म की लापरवाही में वही पासपोर्ट-तबका, राशनकार्ड-तबके को खतरे में डाल रहा है। ताकत का नशा कई किस्म से दूसरों को खतरे में डालता है, और उसके कई नए नमूने लॉकडाऊन और कोरोना की वजह से सामने आए हैं।
-सुनील कुमार
हिन्दुस्तानी फौज में ऊपर के चार सबसे बड़े अफसरों में से एक ओहदा होता है मेजर जनरल का। अभी एक रिटायर्ड मेजर जनरल ब्रजेश कुमार ने एक वीडियो पोस्ट किया जिसमें अमरीका के बनाए हुए अपाचे फौजी हेलीकॉप्टर पानी की सतह के करीब उड़ रहे हैं। ब्रजेश कुमार ने लिखा कि लद्दाख में भारतीय फौज के लिए हमलावर हेलीकॉप्टर उड़ रहे हैं। उन्होंने इस वीडियो के साथ अपनी खुशी और फौज की तारीफ भी पोस्ट की।
दिक्कत यह है कि आज सोशल मीडिया और इंटरनेट की मेहरबानी से लोग तुरंत ही किसी तस्वीर या वीडियो की अग्निपरीक्षा ले लेते हैं। कुछ ही देर में लोगों ने पोस्ट करना शुरू किया कि ये हेलीकॉप्टर अमरीका में हूवर बांध के जलाशय के ऊपर उड़ रहे हैं, भारत को अमरीका से मिले अपाचे हेलीकॉप्टरों का रंग अलग है। एक दूसरे ने मेजर जनरल को याद दिलाया कि लद्दाख की यह झील अब किसी भी सेना की पहुंच से परे रखी गई है। फिर किसी ने लिखा कि यह अमरीका के एरिजोना की हवासू झील है। एक रिटायर्ड ब्रिगेडियर ने ध्यान दिलाया कि इस वीडियो के बारहवें सेकंड में एक विदेशी महिला की आवाज है। इतनी जानकारियां सामने आ जाने के बाद भी मेजर जनरल ब्रजेश कुमार अपनी बात पर अड़े रहे, उन्होंने जानकारी के लिए धन्यवाद तो दिया लेकिन लिखा कि यह वीडियो भारतीय फौज के लिए फीलगुडफैक्टर है। इस पर लोगों ने कहा कि नकली खबर से बना हुआ ऐसा फैक्टर किसी काम का नहीं रहता। कुछ और लोगों ने लिखा कि नकली वीडियो से सिर्फ बेवकूफ खुश हो सकते हैं।
चीन के साथ चल रही मौजूदा तनातनी के बीच लोगों को अपनी देशभक्ति की नुमाइश के लिए कई किस्म के रास्ते निकालने पड़ रहे हैं। बहुत से लोग घर के टूटे-फूटे चीनी खिलौनों को सड़कों पर जलाकर प्लास्टिक का जहरीला धुआं पैदा करके चीन को नुकसान पहुंचा रहे हैं। वे तमाम लोग जिनका कभी चीनी कच्चेमाल से वास्ता नहीं पड़ा, जिनकी रोजी-मजदूरी या जिनका कारोबार चीनी पुर्जों से नहीं जुड़ा है, जिन्होंने अपनी मेहनत की कमाई से चीन के सामान बुलाकर बिक्री के लिए गोदामों में नहीं रखे हैं, वे सारे लोग आज देशभक्ति साबित करने के बड़े आसान तरीके पर चल रहे हैं, और चीनी सामानों के बहिष्कार का फतवा दे रहे हैं।
लेकिन हिन्दुस्तानी फौज में मेजर जनरल होकर रिटायर हुए इंसान को इतनी गंभीरता और इतनी ईमानदारी की उम्मीद की जाती है कि वे नकली वीडियो पोस्ट करके असली गौरव पैदा करने की जालसाजी न करें। लेकिन रिटायर्ड फौजियों का हाल टीवी चैनलों पर दिखता ही है जब वे समाचार बुलेटिनों के बीच विशेषज्ञ-जानकार की तरह पेश किए जाते हैं, और पहले पाकिस्तान के खिलाफ, और अब चीन के खिलाफ आग उगलते हुए स्टूडियो के कैमरों तक थूक उड़ाते हैं। इनकी उत्तेजना देखें तो लगता है कि जो-जो जंग लडऩे का इन्हें मौका नहीं मिला, उन सबको इस बुलेटिन के चलते-चलते लड़ लेंगे।
एक नकली वीडियो से जिस फौजी जनरल को लगता है कि फौज का मनोबल बढ़ेगा, उन्हें नकली के नुकसान की समझ बिल्कुल नहीं है। अगर कोई लड़ाई खालिस सच के दम पर लड़ी जा सकती है, और उसमें लड़ाई के चलते अगर झूठ स्वयंसेवक होकर भी आकर जुड़ जाए, तो सच उस लड़ाई को हार बैठता है। सच तभी तक सच है, और ताकतवर है जब तक वह खालिस है। झूठ मिला, और सच की सारी ताकत गई। इसलिए यह समझने, याद रखने, और अमल करने की जरूरत हमेशा रहती है कि सच अगर किसी लड़ाई में कमजोर भी पड़ रहा है, तो भी उसे झूठ का सहारा नहीं लेना चाहिए। इस बात के साथ-साथ यह भी समझने की जरूरत है कि जब सच को आधा बताया जाता है, और आधा छुपा लिया जाता है, जिसे कि अर्धसत्य कहते हैं, तो वह सच झूठ से भी गया-गुजरा हो जाता है। अर्धसत्य न सिर्फ महत्वहीन रहता है, बल्कि जिस मुंह से निकलता है, उसकी सारी साख को चौपट कर देता है। अमरीका से भारी-भरकम काम देकर जो अपाचे हेलीकॉप्टर भारतीय फौज के लिए खरीदे गए हैं, उनकी ताकत से जो मनोबल बढऩा था, वह एक फर्जी वीडियो से टूट भी जाता है कि हिन्दुस्तानी फौज में आत्मगौरव और आत्मविश्वास के लिए फर्जी वीडियो लगने लगे हैं।
आज सोशल मीडिया पर बहुत किस्म की वैचारिक लड़ाई लड़ी जा रही है। सैद्धांतिक बहसें चल रही हैं, और मनोवैज्ञानिक भी लड़े जा रहे हैं। अगर चर्चाओं पर भरोसा किया जाए तो भारत की एक सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी ने लाखों लोगों को सोशल मीडिया पर जनधारणा-प्रबंधन के काम में झोंक रखा है। अब लाखों लोगों का असली हिसाब, या ऐसी अफवाह की हकीकत तो वह पार्टी ही बता सकती है, लेकिन सोशल मीडिया पर किसी झूठ को, किसी हमले और किसी लांछन को फैलाने, खड़ा करने, और उससे किसी की चरित्र-हत्या करने के काम की विकरालता तो आए दिन दिखती ही है। यह साफ दिखता है कि अगर आप वैचारिक रूप से किसी से असहमत हैं, तो सोशल मीडिया पर आनन-फानन इतने अधिक लोग आप पर थूकने लगेंगे कि आपका सारा वक्त उस थूक से छुटकारा पाने में ही लग जाएगा, और वैसे गीले हाथों से आप की-बोर्ड पर आगे कुछ काम कर नहीं सकेंगे।
लोगों को याद होगा कि बहुत बरस पहले सड़कों पर ठगने और लूटने के लिए एक लोकप्रिय तरीका यह था कि किसी के कपड़ों पर पखाना उछाल दिया जाए, और उसका पूरा ध्यान उसे साफ करने में लग जाए, और उसके साथ का सामान लूट लिया जाए। ऐसा हर कुछ दिनों में होता था, अखबारों में छपता था, फिर भी फेंके गए पखाने को देखते ही असर ऐसा होता था कि लोगों का सौ फीसदी ध्यान उसे धोने-पोंछने में लग जाता था। आज सोशल मीडिया पर ट्रोल कहे जाने वाले ऐसे भाड़े के राजनीतिक कार्यकर्ताओं या मजदूरों का काम यही रहता है कि रात-दिन असहमत लोगों पर पखाना फेंका जाए, ताकि वे अगली असहमति जाहिर करने के बजाय गालियों और धमकियों की टट्टी में ही उलझे रहें। असहमति की राजनीतिक या धार्मिक सोच रखने वाले लोगों का जीना हराम करके उन्हें सोशल मीडिया पर मुर्दा बना देने की साजिश और नीयत बहुत मामलों में साफ-साफ दिखती है। यह समझ आता है कि किसी की बीवी, बहन, बेटी, या मां के साथ बलात्कार करने की धमकी देकर उसके दिल-दिमाग का सुख-चैन को खत्म किया ही जा सकता है।
ऐसे माहौल में सच कहना खासा खतरनाक है, और खासकर तब जबकि वह सच हिन्दुस्तान में कहा जाए, और वह अमरीका के काले लोगों के अधिकारों की हिमायत करने के बजाय हिन्दुस्तान के दलित-अल्पसंख्यकों के हक की बात करे। दूर निशाना लगाना ठीक है, महफूज है, लेकिन अपने आसपास निशाना लगाना खतरनाक है क्योंकि भाड़े के लोग आप पर टूट पड़ेंगे। यह भी है कि टूट पडऩे वाले तमाम लोग भाड़े के नहीं होंगे, कई लोग ऐसे भी होंगे जिनकी नफरत और हिंसा पर अपार आस्था होगी, और जो अमन-मोहब्बत की बातों को बर्दाश्त नहीं कर पाते होंगे। ऐसे लोग सौ फीसदी भाड़े के हत्यारे होंगे, यह कहना और समझना कुछ ज्यादती होगी, लेकिन ऐसे लोग ही हमलावर-ट्रोल आर्मी के सैनिक होंगे, भुगतान पाने वाले सैनिक होंगे, ऐसा जरूर लगता है।
हिन्दुस्तान में तनाव के वक्त तरह-तरह की झूठी कहानियों को किसी बात को साबित करने के लिए गढ़ा जाता है। देश के सम्मान को बढ़ाने की कही जाने वाली कोशिशों के लिए सब कुछ जायज मान लिया जाता है, लेकिन देश की लड़ाई को भी महज सच पर टिकाए रखने की बात बहुत कम लोगों को सुहाती है जिन्हें लगता है कि मोहब्बत, जंग, और सोशल मीडिया पर समर्थन में सब कुछ जायज होता है।
सब कुछ जायज तो दुनिया में किसी भी बात में नहीं होता। जो लोग मोहब्बत में सब कुछ जायज मानते हैं, उनकी मोहब्बत खतरे में जीती है, और वह किसी भी दिन खत्म हो सकती है, क्योंकि नाजायज बातें किसी को लंबे समय तक जिंदा नहीं रहने देतीं, न हिटलर को, न इमरजेंसी को, और न ही सतीप्रथा को। ऐसे में देश के आत्मगौरव को बढ़ाने के लिए, या अपनी फौज का मनोबल बढ़ाने के लिए सच को छुपाने या झूठ को सिर चढ़ाने की कोशिशें नुकसान ही करती हैं, कोई नफा नहीं करतीं। जिन लोगों को फौज से आम सवाल करना भी देश से गद्दारी लगती है, वे न सिर्फ फौज का, बल्कि देश का भी बड़ा नुकसान करते हैं। और ऐसा नुकसान करने में रिटायर्ड फौजियों की बड़ी हिस्सेदारी है, खासकर उनकी, जिनकी जिंदगी में अब सबसे बड़ी कामयाबी टीवी के कैमरों के सामने बने रहना रह गई है।
-सुनील कुमार
- सुनील कुमार
हिन्दुस्तान में जगह-जगह आए दिन ऐसी पुलिस रिपोर्ट होती है कि किसी युवती या महिला ने किसी युवक या आदमी पर बलात्कार का जुर्म लगाया, और रिपोर्ट में यह रहता है कि उसने शादी का वायदा करके देह संबंध बनाए, और बाद में शादी से मुकर गया। मौजूदा कानून और बड़ी अदालतों के ढेर सारे फैसलों की रौशनी में ऐसे मामले तुरंत बलात्कार कानून के तहत दर्ज हो जाते हैं। पुलिस की सीमा मौजूदा कानून रहती है, और कानून बारीक नुक्ताचीनी के लिए बड़ी अदालतों के सामने खड़ा भी होता है, और बड़ी अदालतें कभी-कभार कानून की कुछ बातों को गलत भी मानती हैं, और वैसे में यह संसद के सामने रहता है कि वह अदालती फैसलों को देखते हुए कानून में कोई फेरबदल करे, या सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लागू हो जाने दे।
आज इस मुद्दे पर लिखते हुए यह बात साफ है कि सुप्रीम कोर्ट और देश के कई हाईकोर्ट ने ऐसे मामलों में ऐसे साफ फैसले दिए हैं कि ऐसी शिकायतें बलात्कार गिनी जाएंगी। फैसले अपनी जगह ठीक हैं, लेकिन फैसलों से परे यह समझने की जरूरत है कि असल जिंदगी में ऐसे मामलों की बुनियाद क्या है। यह लिखते हुए इस बात का पूरा अंदाज है कि इसे महिलाविरोधी कहा जा सकता है, ऐसे में इसे बलात्कारी आदमी के लिए एक हमदर्दी भी कहा जा सकता है, लेकिन असल जिंदगी की हकीकत को देखते हुए इस पर चर्चा जरूरी भी है।
जिंदगी के प्रेमसंबंधों या स्त्री-पुरूष की दोस्ती को अगर देखें, और खासकर बालिग लोगों की दोस्ती देखें, तो उनमें से बहुत सी दोस्तियां देहसंबंधों तक पहुंच जाती हैं। उनमें से बहुत के साथ ऐसी अंतहीन उम्मीदें जुड़ी रहती होंगी कि यह सिलसिला शादी तक पहुंच जाएगा, दूसरी तरफ ऐसी भी उम्मीदें हो सकती हैं जो कि किसी वायदे के बाद पैदा हुई होंगी, और शादी का वायदा पूरा न होने पर उस वायदाखिलाफी की वजह से पहले के सहमति के देहसंबंध अब बलात्कार की परिभाषा के तहत लाए गए हों। हम कानून की बारीकियों में नहीं जा रहे, क्योंकि उन्हीं पर तो बड़ी अदालतों के बड़े फैसले रहे होंगे, लेकिन अपनी खुद की देखी हुई जिंदगियों का तजुर्बा यह है कि शादी की नीयत, और शादी के वायदे सचमुच के होने के बावजूद बहुत सी नौबतें ऐसी आ जाती हैं कि शादी नहीं हो पाती। यह वायदा लड़के की तरफ से भी टूट सकता है, और लड़की की तरफ से भी। बहुत से मामलों में समाज और परिवार का इतना दबाव हो जाता है कि चाह कर भी ईमानदार प्रेमीजोड़े शादी नहीं कर पाते। ऐसी ही नौबतें तो रहती हैं जिनके चलते प्रेमीजोड़े एक साथ खुदकुशी कर लेते हैं कि साथ जी न सके तो न सही, कम से कम साथ मर तो लें।
अब जिनकी साथ मरने जैसी ईमानदार नीयत रहती है, उनके बीच के देहसंबंध कई वजहों से शादी में तब्दील नहीं हो पाते। ऐसे में बरसों की सहमति के देहसंबंध वायादाखिलाफी की वजह से बलात्कार करार दिए जाएं, यह बात कुछ गले नहीं उतरती। फिर एक बात यह भी है कि हिन्दुस्तान का बलात्कार कानून लैंगिक समानता पर आधारित नहीं है। यह महिला के पक्ष में, और पुरूष के खिलाफ असंतुलित तरीके से झुका हुआ है, और सामाजिक हकीकत को देखें तो ऐसा रहना भी चाहिए। एक पुरूष ही शारीरिक और मानसिक रूप से, सामाजिक और आर्थिक रूप से एक महिला का शोषण करने की हालत में अधिक रहता है। लेकिन एक ऐसी स्थिति की कल्पना करें जब संपन्नता की ताकत रखने वाली कोई लड़की किसी विपन्न लड़के के साथ मोहब्बत करती हो, और दोनों के बीच देहसंबंध भी हों, और बरसों के ऐसे संबंध के बाद किसी वजह से वह लड़की शादी से इंकार कर दे, तो क्या बरसों के ऐसे देहसंबंधों को एक संपन्न द्वारा एक विपन्न का देहशोषण करना करार दिया जाएगा? भारत के मौजूदा कानून के तहत ऐसा नहीं हो सकता, और यहां पर कानून थोड़ा सा बेइंसाफ भी लगता है।
आज चारों तरफ ऐसे दसियों हजार लोग जेलों में बंद हैं जिनके खिलाफ बरसों के सहमति-संबंधों के बाद बलात्कार की शिकायत दर्ज कराई गई है। अब इनके तो फैसले मौजूदा कानून के आधार पर हो ही जाएंगे, और फैसले तक वे बहुत मुश्किल से मिली, बहुत महंगी पड़ी जमानत पर शर्मिंदगी के साथ जीते रहेंगे, लेकिन कानून से परे, क्या यह सचमुच इंसाफ है?
अपने दिल-दिमाग और अपनी रीति-नीति से महिलाओं के कट्टर हिमायती होते हुए भी यह सिलसिला ठीक नहीं लगता है। इस कानून में फेरबदल की जरूरत है क्योंकि बिना बल प्रयोग के, आपसी सहमति से, दो वयस्क लोगों के बीच बने देहसंबंधों का दर्जा महज वादाखिलाफी से बलात्कार नहीं होना चाहिए। वायदे तो कई वजहों से पूरे नहीं हो पाते हैं। बहुत से लोगों के बीच ऐसे रिश्ते तय होते हैं, सगाई होती है, जो कि टूट जाती है, और शादी नहीं हो पाती। बहुत से ऐसे प्रेमसंबंध और देहसंबंध रहते हैं जो बरसों के लंबे वक्त से गुजरते हुए एक-दूसरे को बाकी जिंदगी के लायक नहीं पाते, और समझदारी के साथ अलग होना तय कर लेते हैं।
वादाखिलाफी के आधार पर बलात्कार का जुर्म तय होना लोगों के बीच एक किस्म से भरोसा खत्म करने वाला है। लोगों के बीच संबंध रहें, और जिस दिन वे स्वस्थ न रहें, उन्हें महज इसलिए ढोना पड़े कि संबंध तोडऩा बलात्कार की सजा दिलवाएगा, तो यह सिलसिला नाजायज है, और बेइंसाफी है। बीच-बीच में किसी-किसी हाईकोर्ट ने ऐसे फैसले दिए भी हैं कि इन्हें बलात्कार न गिना जाए, लेकिन कुल मिलाकर आज जो व्यवस्था लागू है, वह सुप्रीम कोर्ट के फैसलों को लेकर है, और उसके बाद किसी का बचाव नहीं है।
यह कानून इस बात को पूरी तरह अनदेखा करता है कि वादाखिलाफी तो जिंदगी के हर दायरे में हो सकती है, होती है, और यह भी जरूरी नहीं होता कि वह सोच-समझकर ही की जाए, कई बार तो अनचाहे भी किसी वायदे को अधूरा छोडऩे की नौबत आ जाती है। यह कानून ऐसी तमाम मानवीय, और सामाजिक नौबतों को अनदेखा करता है, और सिर्फ एक पक्ष के बयान को अनुपातहीन-असंतुलित वजन देते हुए उसके आधार पर दूसरे पक्ष को कुसूरवार मानकर चलता है। कानून का यह पूर्वाग्रह उसकी बुनियाद में ही रखा गया है, और भारत में महिलाओं को खास हक और हिफाजत देने के लिए रखा गया है, लेकिन उसका यह इस्तेमाल न्याय की भावना के तो सीधे-सीधे ही खिलाफ है, न्याय के शब्दों के भी यह खिलाफ है, फिर चाहे यह लिखित कानून की भाषा ही क्यों न हो।
हम अपनी इस सोच के अलावा और लोगों से भी इस मुद्दे पर, कानून के इन पहलुओं पर आपस में चर्चा करने, बहस और सलाह-मशविरा करने की सलाह दे रहे हैं, ताकि समाज के भीतर इस सोच के पक्ष में, या इसके खिलाफ एक जनमत तैयार हो सके। अलग-अलग लोगों के अलग-अलग तर्क हो सकते हैं, लेकिन मौजूदा कानून को, मौजूदा मामलों को देखते हुए इसी तरह छोड़ देना ठीक नहीं है।
-सुनील कुमार
जिंदगी के एक दायरे में खूबियां रखने वाले लोग जब किसी दूसरे दायरे को लेकर अपनी राय देते हैं, तो वह कई बार बड़ी अटपटी भी हो सकती है, बड़ी खतरनाक भी हो सकती है, लेकिन कई बार वह बड़ी अनोखी भी हो सकती है। असल जिंदगी में लोग जब अपने ही दायरे में विशेषज्ञता हासिल करते हुए एक तंग नजरिए से चीजों को देखते हैं, तो एक सुरंग के भीतर देखते हुए विकसित होने वाली सोच के शिकार हो जाते हैं। ऐसा ही एक मामला हाल में सामने आया जब चीन की एक विकराल समस्या को लेकर बाहर के एक जानकार ने एक अजीब सा हल सुझाया।
दरअसल चीन लंबे समय से अमल की जा रही एक बच्चे की सीमा को अब भुगत रहा है। अब वहां शादीशुदा जोड़े दूसरा बच्चा पैदा करने के बारे में सोचते भी नहीं हैं, और नतीजा यह हो रहा है कि चीन में कामगारों की कमी होने लगी है क्योंकि एक जोड़े के दो लोग एक जीवन में मिलकर एक ही बच्चा पैदा करते हैं। वहां की सरकार हाल के बरसों में लगातार लोगों का हौसला बढ़ा रही है कि एक से ज्यादा बच्चे होने पर वह रियायती मकान से लेकर रियायती स्कूल फीस तक क्या-क्या फायदे देगी, लेकिन कई पीढिय़ों से एक बच्चों तक सीमित परिवार में पैदा हुईं और बढ़ीं पीढिय़ां दूसरे बच्चे की तरफ जा भी नहीं रही हैं। ऐसे में चीन के शंघाई के एक विश्वविद्यालय में पढ़ा रहे एक मलेशियाई प्रोफेसर ने एक अजीब सा रास्ता सुझाया है। उसका कहना है कि चीन ने हर महिला को दो-दो पति रखने की छूट मिले, तो वहां की आबादी बढ़ सकती है। दरअसल चीन में चूंकि परिवारों पर एक ही बच्चा पैदा करने की सीमा थी, और हिन्दुस्तान की तरह वहां भी बेटों की चाह ज्यादा थी, इसलिए वहां भी मेडिकल जांच से, या किसी और तरह से लोगों ने लड़के ही लड़के अधिक पैदा किए, और लड़कियों का अनुपात आबादी में घटते चले गया। आज वहां पर इस लैंगिक असमानता की वजह से ही बच्चे कम हो रहे हैं। ऐसे में हिन्दुस्तान के कुछ हिस्सों की तरह एक से अधिक पति, या एक से अधिक भाईयों की एक पत्नी किस्म की यह सलाह इस प्रोफेसर ने एक वेबसाईट पर अपने नियमित कॉलम में दी है, और पूछा है कि क्या बहुपति प्रथा एक बेहूदी बात होगी?
प्रोफेसर ने अपने कॉलम में लिखा है- मैं बहुपति प्रथा की वकालत नहीं कर रहा हूं, मैं सिर्फ यह सुझा रहा हूं कि लैंगिक अनुपात की गड़बड़ी से निपटने के लिए हमें इस विकल्प पर भी विचार करना चाहिए।
पिछले 36 बरसों से चीन की सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी ने एक जोड़े पर एक ही बच्चा पैदा करने की छूट दी थी। इससे रियायत तभी मिलती थी जब वे ग्रामीण इलाके में रहते थे, और उनकी पहली संतान या तो एक लड़की हुई हो, या एक विकलांग लड़का हुआ हो। इस नीति के चलते चीन की आबादी तो काबू में रही लेकिन लड़कियों की भ्रूण हत्या होती रही, और आज चीन में लड़कियों के मुकाबले करीब साढ़े 3 करोड़ लड़के अधिक हैं। इसके अलावा नई सदी की पीढ़ी में युवतियां शादी बहुत देर से करने लगी हैं, और या तो बच्चे पैदा ही नहीं करतीं, या फिर सिर्फ एक बच्चा पैदा करती हैं, और इससे वहां आबादी गड्ढे में जाने के रास्ते पर हैं। चीन को लेकर यह जनसंख्या-भविष्यवाणी है कि वह 2027 में ही अपनी अधिकतम आबादी, 145 करोड़ पा लेगी, और और 2050 में आबादी का एक तिहाई हिस्सा 65 बरस से अधिक उम्र का रहेगा, यानी कामकाजी नहीं रहेगा।
इस प्रोफेसर का दिलचस्प कहें तो दिलचस्प, और बेहूदा कहें तो बेहूदा, मशविरा यह है कि अगर दो आदमी किसी एक औरत से शादी करना चाहते हैं, और वह औरत भी दोनों से शादी करना चाहती है तो समाज को इसे क्यों रोकना चाहिए? उसने गिनाया है कि पुराने वक्त में बहुपत्नी प्रथा प्रचलित थी, और आज भी इस्लाम के कुछ संप्रदायों में बहुपत्नी प्रथा चल ही रही है। उसने लिखा है कि आज चीन में लैंगिक अनुपात जिस बुरी तरह बिगड़ा हुआ है, उसमें यह जरूरी है कि बहुपति प्रथा पर विचार किया जाए।
इसके बाद की बात उसने ऐसी लिखी है जिसे लेकर उसका भयानक विरोध भी हो रहा है। लोग खूब गालियां दे रहे हैं, और उसकी बातों को अपमानजनक भी मान रहे हैं। उसने लिखा है कि एक महिला दो पतियों के साथ शारीरिक संबंध रखने में कोई दिक्कत भी महसूस नहीं करेगी क्योंकि एक-एक वेश्या एक-एक दिन में दस-दस ग्राहकों तक को संतुष्ट कर सकती है। इसके साथ-साथ दो पतियों के लिए खाना बनाने में भी कोई अतिरिक्त समय नहीं लगेगा। इसके जवाब में चीनी महिलाओं ने इंटरनेट पर लिखा कि इसे पढ़कर उन्हें उल्टी आ रही है, और वे हैरान हो रही हैं कि क्या यह सचमुच 2020 में लिखी जा रही बात है? एक ने लिखा कि यह प्रोफेसर सेक्स-गुलामी को कानूनी दर्जा दिलवाने के सिवाय कुछ नहीं सुझा रहा है।
Yew-Kwang Ng, economics professor at Fudan University in Shanghai
लेकिन यह प्रोफेसर विवादों से परहेज करते नहीं दिख रहा है, और उसने अपने अगले कॉलम में लिखा कि चीन के लैंगिक अनुपात की गड़बड़ी से जूझने के लिए चकलाघरों को कानूनी दर्जा देना चाहिए। चूंकि वहां लड़कियां कम रह गई हैं, इसलिए हर लड़के को लड़की नहीं मिल पाती है, और उसका सेक्स-सुख का अधिकार नहीं मिल पाता है।
अब हिन्दुस्तान की बात करें तो यहां भी कई प्रदेशों में जेंडर-अनुपात की भयानक हालत है। शायद हरियाणा में लड़के-लड़कियों के बीच संख्या का फर्क सबसे ही खराब है, और इसी के किसी इलाके में महाभारत काल में पांच पांडवों की एक पत्नी की कहानी भी पैदा हुई। इस प्रदेश में कुछ लोगों के बीच यह भी प्रचलित है कि सिर्फ बड़े भाई की शादी होती है, और उसकी पत्नी बाकी भाईयों की भी पत्नी सरीखी रहती है।
सेक्स अनुपात में भारत 201 देशों में 189वीं जगह पर है। एशिया के देशों में भारत 51 देशों में 43वीं जगह पर है। पिछली जनगणना, 2011, के मुताबिक भारत में हजार पुरूषों पर 943 महिलाएं हैं। जबकि दिलचस्प बात यह है कि 1901 की जनगणना में भारत में सेक्स-अनुपात इससे बेहतर था, और हजार पुरूषों पर 972 महिलाएं थीं। केरल अकेला ऐसा प्रदेश है जहां पर हजार पुरूषों पर 1084 महिलाएं हैं, और सबसे बुरी हालत हरियाणा की है जहां पर हजार पुरूषों में महज 879 महिलाएं हैं। नतीजा यह होता है कि वहां एक से अधिक भाईयों की एक पत्नी की प्रथा भी है, और दूसरे प्रदेशों को दुल्हन लाने का रिवाज भी है। इस नौबत के बावजूद वहां कन्या भ्रूण हत्या भी जारी है। केरल और पुदुचेरी जैसे दक्षिण के राज्य अधिक लड़कियों के अनुपात के साथ यह बताते हैं कि अगर भ्रूण हत्या न हो, आबादी में लड़कियां लड़कों से अधिक रहना स्वाभाविक है क्योंकि कन्या शिशु का जिंदा रहने का संघर्ष लड़के के मुकाबले अधिक होता है।
अब चीन में जो बात सुझाई गई है, और जिसके लिए पुराने वक्त की मिसाल दी गई है, वह बात तो भारत के कुछ राज्यों पर आज भी लागू हो रही है, और इसका यह पारिवारिक-सामाजिक इलाज भी निकाल लिया गया है जिसे समाज विज्ञान की परिभाषा में बहुपति प्रथा कहा जाता है। चूंकि देश के कई उत्तर भारतीय राज्यों में आज भी लड़कियों को हिकारत के साथ देखा और रखा जाता है, इसलिए यहां अनुपात जल्द बदलने की कोई वजह नहीं दिख रही है, और हो सकता है कि चीन का यह प्रोफेसर आने वाले किसी हफ्ते में अपने कॉलम में हरियाणा सहित कुछ और राज्यों की मिसालें देता हुआ दिखे, तब न कहना कि यह अपमानजनक है...!