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अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की नई सरकार पर अब ईरान ने ऐसा क्यों कहा?
12-Sep-2021 4:23 PM
अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की नई सरकार पर अब ईरान ने ऐसा क्यों कहा?

-दिलनवाज़ पाशा

तालिबान की नई सरकार के गठन के बाद ईरान के नए विदेश मंत्री हुसैन आमिर अब्दुल्लाह ने तालिबान के नए विदेश मंत्री आमिर ख़ान मुतक़्क़ी को फ़ोन करने के बजाए अफ़ग़ानिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति हामिद करज़ई को फ़ोन किया और अपनी चिंताएं ज़ाहिर की हैं.

इसके अलावा ईरान के पूर्व विदेश मंत्री जव्वाद ज़रीफ़ का ये ट्वीट तालिबान और ईरान के बीच बढ़ते तनाव का स्पष्ट संकेत है.

उन्होंने लिखा है, "अफ़ग़ानिस्तान में ख़ौफ़नाक कूटनीतिक भूल को फिर से दोहराया जा रहा है. कोई भी चाहे वो देसी हो या विदेशी, अफ़ग़ानिस्तान के बहादुर लोगों पर ताक़त के दम पर राज नहीं कर सका है. तीन सुपरपॉवर की यहां दुर्दशा हुई है. कोई और भी जो ताक़त के दम पर सत्ता क़ायम करना चाहेगा, उसका भी यही अंजाम होगा. ये समय बात करने और सभी को शामिल करने का है, इससे पहले कि परिस्थितियां फिर बदल जाएं."

जब अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान से पूरी तरह वापस जाने का फ़ैसला लिया था तो तालिबान और ईरान के बीच नज़दीकियां बढ़नें लगीं थी.

ईरान अफ़ग़ानिस्तान को लेकर सक्रिय हुआ और तालिबान के साथ अपनी पुरानी कड़वाहटों को भुलाकर संबंध सुधारने लगा. ईरान ने तालिबान के प्रतिनिधिमंडल को भी तेहरान बुलाया और बातचीत की.

लेकिन अब जब पूरा अफ़ग़ानिस्तान तालिबान के क़ब्ज़े में हैं, नई तालिबान सरकार का गठन हो गया है और विरोध की प्रतीक पंजशीर घाटी पर भी तालिबान के नियंत्रण का दावा किया जा रहा है, तब ऐसा लग रहा जैसे ईरान-तालिबान के बीच चला 'हनीमून' अब ख़त्म हो गया और दोनों एक बार फिर आमने-सामने आ सकते हैं.

ईरान और तालिबान ने अपने मतभेद समाप्त कर क़रीब आने में एक लंबा फ़ासला तय किया था लेकिन पिछले कुछ दिनों के घटनाक्रम से लग रहा है कि ईरान तालिबान से बहुत ख़ुश नहीं है.

तालिबान की नई कैबिनेट से नाराज़ है ईरान
तालिबान पूरी दुनिया को ये भरोसा देते रहे थे कि वो एक समावेशी सरकार का गठन करेंगे. लेकिन तालिबान की नई कैबिनेट में तालिबान के ही कट्टरवादी नेताओं को जगह दी गई है.

33 मंत्रियों में से सिर्फ़ तीन ही मंत्री अल्पसंख्यक समूहों से हैं. इनमें दो ताजिक मूल के हैं और एक उज़्बेक मूल के. सरकार में न तो सबसे बड़े नस्लीय समूहों में शामिल शिया हज़ारा समुदाय से कोई मंत्री हैं और न ही कोई महिला मंत्री ही शामिल हैं.

ईरान के सर्वोच्च नेता आयतुल्लाह अली ख़ामनेई के सचिव अली शमख़ानी ने एक ट्वीट में कहा कि "अफ़ग़ानिस्तान की पहली प्राथमिकता शांति और स्थिरता" होनी चाहिए.

शमख़ानी ने कहा, "अफ़ग़ानिस्तान में समावेशी सरकार की ज़रूरत को नज़रअंदाज़ किया जाना, विदेशी दखल, सैन्य ताक़त का इस्तेमाल और नस्लीय समूहों और सामाजिक समूहों की माँगों को पूरा करने के लिए बातचीत न करना, अफ़ग़ान लोगों के दोस्तों की प्रमुख चिंताएं हैं."

वहीं ईरान के नए विदेश मंत्री हुसैन आमिर अब्दुल्लाह ने भी कहा है कि ईरान अफ़ग़ानिस्तान में विभिन्न समूहों के बीच बातचीत और समझौतों का समर्थन करता है.

अफ़ग़ानिस्तान के छह पड़ोसी देशों के विदेश मंत्रियों ने गुरुवार को एक वर्चुअल बैठक भी की जिसमें अफ़ग़ानिस्तान की स्थिति पर चर्चा की गई.

एक ट्वीट में आमिर अब्दुल्लाह ने बताया, "अफ़ग़ानिस्तान के छह पड़ोसी देशों के विदेश मंत्रियों की वर्चुअल एक बैठक हुई. इसमें अफ़ग़ानिस्तान में सभी विविध अफ़ग़ान लोगों की इच्छाओं का प्रतिनिधित्व करने वाले समावेशी सरकार के ज़रिए देश में सुरक्षा, स्थिरता और विकास पर ज़ोर दिया गया. हिंसा की जगह बातचीत होनी चाहिए. विदेशी दख़ल को ख़ारिज किया जाना चाहिए. हम अफ़ग़ानिस्तान के लोगों के बीच बातचीत और समझौतों का समर्थन करते हैं.''

दो दशक पहले जब अफ़ग़ानिस्तान से तालिबान को हटाने के बाद नई सरकार के गठन के लिए अप्रैल 2004 में बर्लिन में सम्मेलन हुआ था तब ईरान ने पश्चिमी देशों का सहयोग किया था और अफ़ग़ानिस्तान की सरकार के गठन में सक्रिय भूमिका निभाई थी.

अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार और अमेरिका की डेलावेयर यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर मुक़्तदर ख़ान कहते हैं, "ये उम्मीद की जा रही थी कि इस बार भी तालिबान सरकार के गठन में ईरान बड़ी भूमिका निभा सकता है और तालिबान एक उदार सरकार का गठन कर सकता है. लेकिन ऐसा हुआ नहीं है."

वहीं ईरान और तालिबान पर नज़र रखने वाले ऑब्ज़र्वर रिसर्च फ़ाउंडेशन के शोधकर्ता कबीर तनेजा कहते हैं, "ईरान और अफ़ग़ानिस्तान के बीच अभी मतभेद बढ़े हुए नज़र आ रहे हैं. जैसे ही तालिबान ने अपनी नई कैबिनेट की घोषणा की, ईरान के नए विदेश मंत्री ने हामिद करज़ई को फ़ोन करके अपनी चिंताएं ज़ाहिर की. ईरान इस नई सरकार से बिलकुल भी ख़ुश नहीं है."

कबीर तनेजा कहते हैं, "सदर इब्राहीम, दाउद इस्लाइल जैसे ईरान के क़रीबी तालिबान नेताओं को कैबिनेट में कुछ नहीं मिला है. ईरान को ये लग रहा होगा कि वो जिन तालिबान नेताओं के साथ मिलकर वो काम कर रहा था उन्हें नज़रअंदाज़ किया गया है. तालिबान ने पहले शिया मौलवी महदी को शैडो गवर्नर बनाया था. तालिबान ने नरमी के कई संकेत भी दिए थे लेकिन अब ईरान को लग रहा है कि तालिबान से जैसी उम्मीद थी वैसा उसे हासिल नहीं हो रहा है."

तनेजा कहते हैं, "तालिबान से ईरान की नाराज़गी को इसी से समझा जा सकता है कि ईरान के विदेश मंत्री ने हामिद करज़ई को फ़ोन किया, तालिबान के नए विदेश मंत्री को नहीं किया."

पंजशीर पर तालिबान के आक्रमण से नाराज़ है ईरान
ईरान ख़ास तौर पर पंजशीर पर तालिबान के आक्रमण से नाराज़ है. पंजशीर में अधिकतर ताजिक नस्ल के लोग रहते हैं जो मूलतः हैं तो सुन्नी लेकिन ईरान धार्मिक तौर पर उन्हें अपने अधिक क़रीब मानता है.

प्रोफ़ेसर मुक़्तदर ख़ान कहते हैं, "एक अर्ली हनीमून के बाद ईरान और तालिबान के संबंध बेहतर नहीं बल्कि ख़राब हो रहे हैं. इसकी एक बड़ी वजह ये है कि तालिबान ने पंजशीर घाटी पर क़ब्ज़ा कर लिया है. ईरान तालिबान के इस आक्रामक रवैये से नाख़ुश है."

समूचे अफ़ग़ानिस्तान के तालिबान के नियंत्रण में आने के बाद भी काबुल से क़रीब 125 किलोमीटर उत्तर में स्थित पंजशीर घाटी ने तालिबान के शासन को स्वीकार नहीं किया था और अपदस्थ उपराष्ट्रपति अमरुल्लाह सालेह और दिवंगत मुजाहिदीन कमांडर अहमद शाह मसूद के बेटे अहमद मसूद ने पंजशीर में तालिबान के ख़िलाफ़ विद्रोह कर दिया था.

इसी सप्ताह तालिबान ने ताक़त के दम पर पंजशीर पर क़ब्ज़ा करने का दावा किया. पंजशीर पर नज़र रख रहे कई विश्लेषकों का मानना है कि पाकिस्तान ने पंजशीर अभियान में तालिबान की मदद की.

पाकिस्तान के प्रभाव से नाराज़ है ईरान?
तालिबान की नई सरकार के गठन से पहले ही आईएसआई के प्रमुख लेफ़्टिनेंट जनरल फ़ैज़ हामिद ने काबुल में डेरा डाल लिया था. तालिबान पर पाकिस्तान का प्रभाव भी स्पष्ट नज़र आता है.

प्रोफ़ेसर मुक़्तदर ख़ान कहते हैं, "एक और बात जो साफ़ नज़र आ रही है वो ये है कि अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान के क़ब्ज़े में पाकिस्तान की अहम भूमिका रही है. पाकिस्तानी आईएसआई और पाकिस्तानी सेना की भूमिका भी साफ़ नज़र आ रही है. एक तरह से अफ़ग़ानिस्तान का प्रॉक्सी कंट्रोल पाकिस्तान को हासिल हो गया है, इसे लेकर ईरान नाख़ुश है."

दूसरी तरफ शिया बहुल ईरान और सुन्नी बहुल सऊदी अरब के बीच कूटनीतिक तनाव और प्रतिस्पर्धा भी जगज़ाहिर है. पाकिस्तान सऊदी अरब के अधिक क़रीब है. ऐसे में ईरान को ये भी लग रहा है कि अफ़ग़ानिस्तान के पाकिस्तान के प्रभाव में आने से अप्रत्यक्ष तौर पर सऊदी अरब का प्रभाव भी वहां बढ़ेगा.

प्रोफ़ेसर मुक़्तदर ख़ान कहते हैं, "ईरान और सऊदी अरब के बीच जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शिया-सुन्नी तनाव चल रहा है उसमें ईरान अब पाकिस्तान को सऊदी के अहम सहयोगी के रूप में देख रहा है. ईरान पाकिस्तान को दुश्मन भले ना समझे लेकिन एक चुनौती तो समझता ही है."

ईरानी नेताओं के तीखे बोल
हाल ही में ईरान के पूर्व राष्ट्रपति महमूद अहमदीनेजाद ने तालिबान पर तीखा हमला किया. एक बयान में उन्होंने कहा, "एक ऐसे समूह का समर्थन किया जा रहा है जिसे पड़ोसियों ने पैदा किया, प्रशिक्षित किया और तैयार किया. अब इस समूह ने एक देश पर क़ब्ज़ा कर लिया है. दुनिया या तो इसे देख रही है या इसका समर्थन कर रही है. ये दुनिया के मुंह पर कालिख की तरह है."

प्रोफ़ेसर मुक़्तदर ख़ान कहते हैं, "अहमदीनेजाद के बयान से लग रहा है कि ईरान में एक वर्ग तालिबान को अपने लिए ख़तरा मानता है."

ईरान के नए राष्ट्रपति इब्राहीम रईसी अपने पहले विदेशी दौरे पर ताजिकिस्तान जा रहे हैं. ये स्पष्ट है कि ताजिकिस्तान में चर्चा का अहम विषय अफ़ग़ानिस्तान ही होगा.

कबीर तनेजा कहते हैं, "इब्राहीम रईसी के सामने पहली बड़ी चुनौती तालिबान है. तालिबान से निपटना अब ईरान के लिए बड़ा और अहम काम हो गया है."

ईरान शिया बहुल देश है और तालिबान सुन्नी इस्लाम को मानते हैं. तालिबान इस्लाम की अपनी कट्टर व्याख्या के लिए भी जाने जाते हैं.

बावजूद इसके ईरान, तालिबान के साथ मिलकर काम करने का इच्छुक था. प्रोफ़ेसर मुक़्तदर ख़ान कहते हैं, "ईरान और तालिबान के बीच इस्लाम को लेकर धार्मिक मतभेद हैं. ईरान अलग इस्लाम को मानता है और तालिबान अलग इस्लाम को. ये मतभेद स्पष्ट हैं."

हालांकि ऐसी उम्मीदें भी ज़ाहिर की गईं थीं कि ईरान क्षेत्रीय स्थिरता के लिए तालिबान के साथ मिलकर काम कर सकता है. हालांकि विश्लेषकों का मानना है कि ईरान और तालिबान के बीच दीर्घकालिक संबंध शायद ही बन पाएं.

प्रोफ़ेसर मुक़्तदर ख़ान कहते हैं, "पिछले साल जब अज़रबैजान और आर्मीनिया के बीच जंग हुई थी तब ईरान ने मुसलमान देश अज़रबैजान के ख़िलाफ़ ईसाई मुल्क आर्मीनिया का साथ दिया था. ऐसे में ये माना जा सकता है कि ईरान अपने क्षेत्रीय हितों के लिए धार्मिक विचारों को नज़रअंदाज़ कर सकता है. ये उम्मीद की जा सकती है कि ईरान क्षेत्रीय स्थिरता के लिए शायद तालिबान के साथ मिलकर काम करे, लेकिन ये दोस्ती दीर्घकालिक नहीं रहेगी."

भारत के लिए क्या हैं संकेत?
ईरान के भारत से क़रीबी रिश्ते रहे हैं और ये माना जाता रहा है कि भारत ईरान के ज़रिए अफ़ग़ानिस्तान में सक्रिय भूमिका निभा सकता है.

भारत ने इसी के मद्देनज़र ईरान और अफ़ग़ानिस्तान में भारी निवेश भी किया था. लेकिन अब अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की सरकार है और भारत के लिए परिस्थितियां पूरी तरह बदल चुकी हैं.

कबीर तनेजा कहते हैं, "पहले ऐसा था कि भारत और ईरान मिलकर अफ़ग़ानिस्तान में काम करने की संभावना थी. लेकिन इस संभावित सहयोग को लेकर भी झटका तब लगा जब ईरान तालिबान के अधिक क़रीब आने लगा. ईरान ने तालिबान के प्रतिनिधिमंडल को भी बुलाया. ईरान के लिए सबसे अहम ये था कि अमेरिका अफ़ग़ानिस्तान से निकले. अब जब अमेरिका अफ़ग़ानिस्तान से चला गया है तब ईरान की प्राथमिकताएं बदल रही हैं."

तनेजा कहते हैं, "हमने ये भी देखा है कि भारत भी ईरान के साथ मिलकर काम कर रहा है. विदेश मंत्री जय शंकर ईरान भी गए. भारत और ईरान के बीच अफ़ग़ानिस्तान को लेकर सहयोग और बढ़ सकता है और ये बढ़ना भी चाहिए. भविष्य में अफ़ग़ानिस्तान को लेकर भारत और ईरान का सहयोग और भी अहम हो जाएगा." (bbc.com)

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