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कज़ाखस्तान: क्या सिर्फ़ महंगाई है विरोध प्रदर्शन की वजह
07-Jan-2022 9:22 AM
कज़ाखस्तान: क्या सिर्फ़ महंगाई है विरोध प्रदर्शन की वजह

 

कज़ाखस्तान में गैस की क़ीमतें बढ़ाने के ख़िलाफ़ भारी प्रदर्शन हो रहे हैं. पिछले कुछ दिनों से जारी ये विरोध प्रदर्शन इतने तीखे हो गए कि राष्ट्रपति कासिम जोमार्त तोकायेव ने सरकार बर्ख़ास्त कर दी और गैस की क़ीमतों को जल्दी ही क़ाबू करने का एलान कर दिया.

गुरुवार को एलान किया गया कि ईंधन की कीमत तय सीमा से ज़्यादा बढ़ाने पर पाबंदी छह महीने तक जारी रहेगी. पाबंदी हटाए जाने के बाद एलपीजी की कीमत दोगुनी हो गई थी.

राष्ट्रपति ने पहले ही कीमतें कम करने के एलान कर दिया था लेकिन लोगों का गुस्सा थमा नहीं और वे सड़कों पर डटे रहे.

इस बीच, प्रदर्शन के हिंसक मोड़ ले लेने पर हैरानी जाहिर की गई.

कज़ाखस्तान में हो क्या रहा है?
कज़ाखस्तान पूर्व सोवियत संघ का हिस्सा रहा है. ये देश तेल और गैस के भंडार से भरा हुआ है. लेकिन पिछले दिनों सरकार ने एलपीजी की क़ीमतों पर लगी सीमा हटा दी. कज़ाखस्तान में लोग एलपीजी का कार के ईंधन के तौर पर इस्तेमाल करते हैं. क़ीमतें बढ़ने के साथ ही महंगाई भी बढ़ गई और इससे लोग भड़क गए.

गैस महंगी होने से भड़के लोगों का प्रदर्शन सोमवार को देश के एक इलाक़े में शुरू हुआ. लेकिन मंगलवार तक लगभग हर शहर में विरोध की यह आग फैल गई.

लोगों के इस प्रदर्शन ने जल्द ही हिंसक रूप ले लिया और पुलिस को आंसू गैस के गोले दागने पड़े. कज़ाखस्तान के प्रमुख शहर और पूर्व राजधानी अल्माटी में सड़क पर आए हजारों प्रदर्शनकारियों और पुलिस के बीच झड़प हुई. इसमें दोनों तरफ़ के कई लोग घायल हुए.

बुधवार तक कज़ाखस्तान के कई हिस्सों में इमरजेंसी लगा दी गई. फिर भी हज़ारों की तादाद में प्रदर्शनकारी सड़कों पर उतर आए. देश के कई इलाक़ों में इंटरनेट पर पाबंदी लगाने की ख़बरें मिलीं.

इसके बाद राष्ट्रपति कासिम तोकायेव ने सरकार को बर्ख़ास्त कर दिया. उन्होंने सरकार पर ढिलाई का आरोप लगाया और कहा उसके चलते ही देश में प्रदर्शन हो रहे हैं. उन्होंने गैस की क़ीमतें घटाने का वादा किया. लेकिन लोगों का ग़ुस्सा शांत नहीं हुआ. विरोध कर रहे लोगों ने अल्माटी के मेयर के दफ़्तर में घुसकर उसमें आग लगा दी.

साल 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद कज़ाखस्तान स्वतंत्र हो गया. इसके बाद कई सालों तक यहां नूरसुल्तान नज़रबायेव का शासन रहा. वे 1984 में ही प्रधानमंत्री बन गए थे. उस वक्त कज़ाखस्तान, सोवियत संघ का ही हिस्सा था.

बाद में वे निर्विरोध राष्ट्रपति चुन लिए गए. उन्हें करिश्माई नेता माना जाता था. पूरे देश और इसकी नई राजधानी में उनकी कई मूर्तियां खड़ी हो गई थीं.

आख़िरकार 2019 में एक अभूतपूर्व विरोध प्रदर्शन के बाद उन्हें गद्दी छोड़नी पड़ी. लेकिन उसके तुरंत बाद हुए एक चुनाव में उनकी पसंद के नेता तोकायेव राष्ट्रपति चुन लिए गए. माना गया कि चुनाव में धांधली हुई थी. अंतरराष्ट्रीय पर्यवेक्षकों ने उस चुनाव की आलोचना की.

तोकायेव के राष्ट्रपति बनने के बावजूद सत्ता पर नज़रबायेव की पकड़ बनी हुई है. विश्लेषकों का मानना है कि मौजूदा विरोध प्रदर्शन दरअसल उन्हीं के ख़िलाफ़ है.

नजरबायेव को इस्तीफ़ा दिए तीन साल हो गए हैं, लेकिन देश में बहुत कम बदलाव हुए हैं. सुधारों की धीमी गति से कज़ाखस्तान के लोग ख़फ़ा हैं. देश में लोगों का जीवन स्तर गिरता जा रहा है और नागरिक आज़ादी घटती जा रही है.

रॉयल इंस्टीट्यूट ऑफ़ इंटरनेशनल अफ़ेयर्स (चैटहैम हाउस) की केट मेलिनसन ने बीबीसी रशियन से कहा, "नजरबायेव का कज़ाखस्तान के लोगों के साथ एक तरह का सामाजिक समझौता था. लोग उनके शासन के प्रति वफ़ादार थे, क्योंकि उनके अपने आर्थिक हालात सुधरते नजर आ रहे थे."

लेकिन वो कहती हैं कि साल 2015 से हालात बिगड़ने लगे और पिछले दो साल से ये बद से बदतरीन होते चले गए. इस बीच, कोविड के दौरान देश में महंगाई आसमान पर पहुंच गई.

कज़ाखस्तान में ज़्यादातर चुनाव सत्ताधारी पार्टी ही जीतती रही है. उसके पक्ष में सौ फ़ीसदी तक मतदान हुए हैं. देश में कोई असरदार विपक्ष भी नहीं है. लोग बढ़ती महंगाई से परेशान हैं. ऐसे में हाल में बढ़ी गैस की क़ीमतों ने आग में घी का काम किया और लोग बुरी तरह से भड़क गए.

कज़ाखस्तान में तरल गैस का इस्तेमाल सार्वजनिक परिवहन और निजी ट्रांसपोर्ट में होता है. इसकी क़ीमतों पर लगी सीमा हटने से महंगाई ने और ज़ोर पकड़ लिया और लोग विरोध में सड़कों पर उतर गए.

लोगों के सवाल
राष्ट्रपति की ओर से की गई सरकार की बर्ख़ास्तगी और गैस की क़ीमतें कम करने के लिए उठाए जा रहे क़दमों के बावजूद प्रदर्शनकारियों का विरोध थमा नहीं है. सड़कों पर उतरे लोग वापस जाने को तैयार नहीं हैं.

लोगों ने 2019 से सबक सीखा है. वे नज़रबायेव का इस्तीफ़ा चाहते हैं. उन्हें लगता है कि सिर्फ़ सरकार बदल देने से बात नहीं बन जाती. देश में हर जगह लोग पूछ रहे हैं कि आख़िर सत्ता में बैठे लोगों ने पिछले 30 साल में हमारे लिए​ किया क्या है?

दक्षिण-पश्चिम कज़ाख़स्तान के मंगिस्ताऊ प्रांत का झानाओजेन शहर फ़िलहाल चल रहे आंदोलन के प्रमुख केंद्रों में से एक है. 2011 के आंदोलन का भी यह शहर एक अहम केंद्र था. उस दौरान यहां पुलिस के साथ भिड़ंत में 14 लोग मारे गए थे.

पहली ये कि सरकार में सही तरीके से बदलाव हो. दूसरी मांग है कि स्थानीय गवर्नरों का सीधा चुनाव हो. (इस वक़्त उन्हें राष्ट्रपति नियुक्त करते हैं). तीसरी मांग है कि 1993 के संविधान की वापसी हो, जिसमें राष्ट्रपति का कार्यकाल और उनके अधिकार सीमित थे.

प्रदर्शनकारियों की चौथी मांग है कि नागरिकों ख़िलाफ़ दर्ज मुक़दमे ख़त्म हों और पांचवीं मांग है कि ऐसे लोगों को शासन में लाया जाए, जिनका फ़िलहाल सत्ता में बैठे नेताओं से कोई संबंध न हो.

देश में चल रहे इन विरोध प्रदर्शनों का कोई सर्वमान्य नेता नहीं है. विश्लेषकों का कहना है कि देश में दशकों से असहमतियों को दबाया जाता रहा है. यहां चुनावी लोकतंत्र लगभग नदारद है.

सेंट पीटर्सबर्ग यूरोपियन यूनिवर्सिटी के राजनीति विज्ञानी ग्रिगोरी गोलोसोव ने बीबीसी रशियन से कहा कि लोग अपनी आवाज़ उठाने सड़कों पर उतरे हैं.

"तानाशाही सरकारों के दौरान जब सत्ता अलोकप्रिय आर्थिक फ़ैसले लेती है, तो स्वाभाविक प्रतिक्रिया के तौर पर जनता सड़कों पर उतरकर ही अपनी नाराज़गी जताती है."

आगे क्या हो सकता है?
कज़ाखस्तान में अशांति बढ़ती ही जा रही है. प्रदर्शनकारी वापस जाने को तैयार नहीं हैं, लेकिन पुलिस कड़ाई करने से बच रही है. ऐसा लगता है कि सत्ता में बैठे लोग प्रदर्शनकारियों को सख़्ती से कुचलने के बजाय मामले को शांति से सुलझाने की कोशिश में लगे हैं.

गोलोसोव कहते हैं, "ऐसा लगता है कि तोकायेव अपना दबदबा और मज़बूत करना चाहते हैं, लेकिन साथ ही वह उदार भी बने रहना चाहते हैं. वे एक साथ ये दोनों काम कैसे कर पाएंगे!''

हालांकि मास्को कार्नेगी सेंटर से जुड़े विशेषज्ञ एलेक्जेंडर बाउनोव का नज़रिया अलग है. उनकी राय में कज़ाखस्तान एक ऐसा देश है, जो पारंपरिक तौर पर पश्चिमी देशों का सहयोगी नहीं रहा. ऐसे में पश्चिमी देश कज़ाखस्तान की अशांति की व्याख्या तानाशाही सरकार के ख़िलाफ़ लोकतांत्रिक विद्रोह के तौर पर करेंगे.

बाउनोव का कहना है कि पश्चिमी देशों के लिए कज़ाखस्तान के प्रदर्शनकारियों की अनदेखी मुश्किल होगी. वे इनका समर्थन करेंगे और कज़ाखस्तान की सत्ता में बैठे नेता भी पश्चिम के इस संभावित रुख़ का जवाब देंगे. अगर इस प्रदर्शन को लेकर पश्चिमी देशों और कज़ाखस्तान के बीच टकराव हुआ, तो निश्चित तौर पर यह देश आगे जाकर रूस के और क़रीब हो जाएगा.

कैंब्रिज यूनिवर्सिटी की रिसर्च फ़ेलो डायना कुदायबर्गनोवा के मुताबिक़, ऐसे संकेत हैं कि कज़ाखस्तान के आला अधिकारी इस समस्या को शांति से सुलझाने की कोशिश करेंगे. एक तरीक़ा तो यही है कि राष्ट्रपति कुछ प्रदर्शनकारियों को बातचीत के लिए बुलाएं. लोगों को लगना चाहिए कि उनकी आवाज़ सुनी जा रही है.

कज़ाखस्तान गैस, तेल और कुछ खनिजों का प्रमुख निर्यातक है. लिहाज़ा उसे इसका भी ध्यान रखना होगा कि देश की अर्थव्यवस्था में निवेशकों का भरोसा बना रहे. इसके लिए राजनीतिक स्थिरता बहुत ज़रूरी है.

इसके साथ एक और अहम बात यह है कि देश में काफ़ी लोग पूर्व राष्ट्रपति नजरबयेव के साये में रहते हुए उकता चुके हैं. वे असल बदलाव के लिए लड़ने को तैयार दिखते हैं. लेकिन इतना तय है कि अगर कज़ाखस्तान में उथलपुथल का दौर और तेज़ हुआ तो पूरा मध्य एशिया इससे प्रभावित होगा.

शायद इसीलिए रूसी विदेश मंत्रालय ने एक बयान जारी कर उम्मीद जताई है कि कज़ाखस्तान में बातचीत से मसला सुलझा लिया जाएगा और हालात पटरी पर आ जाएंगे. हालांकि उसने कहा है कि यह कज़ाखस्तान का अंदरुनी मामला है. लेकिन रूसी मीडिया के एक हिस्से में कहा जा रहा है कि पश्चिम ताकतों ने इन प्रदर्शनकारियों को भड़काया है. (bbc.com)

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