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RRR: कुमारम भीम और अल्लुरी सीतारामा राजू की कहानी क्या है, क्या वो पक्के दोस्त थे?
27-Mar-2022 5:43 PM
RRR: कुमारम भीम और अल्लुरी सीतारामा राजू की कहानी क्या है, क्या वो पक्के दोस्त थे?

इमेज स्रोत,PEN STUDIO

बल्ला सतीश, शुभम प्रवीण कुमार और शंकर वादिसेट्टी

फ़िल्म RRR में अल्लुरी सीतारामा राजू और कुमारम भीम का किरदार अभिनेता राम चरण और एनटी रामा राव जूनियर ने निभाई है.

अब जबकि एसएस राजमौली की फ़िल्म RRR सिनेमाघरों में दिखाई जा रही है, तो सब जगह कुमारम भीम और अल्लुरी सीतारामा राजू की चर्चा है.

दर्शकों को फ़िल्म के इन दोनों प्रमुख किरदारों यानी, 'मनयम के नायक' और आंध्र प्रदेश के रहने वाले अल्लुरी सीतारामा राजू और तेलंगाना के कुमारम भीम के बारे में जानने में दिलचस्पी है.

इस जगहों के आदिवासी इन दोनों को ईश्वर के समान मानते हैं. कहा जाता है कि अल्लुरी ने मनयम इलाक़े के आदिवासियों को एकजुट किया, जिससे अंग्रेज़ों के बीच ख़ौफ़ पसर गया था. वहीं, कुमारम भीम ने गोंड आदिवासियों के अधिकारियों के लिए निज़ाम से मुक़ाबला किया था.

आरआरआर फ़िल्म में निर्देशक राजमौली ने दोनों को पक्के दोस्त के तौर पर दिखाया है. राजमौली ने इन दोनों ऐतिहासिक किरदारों की मदद से अपनी फ़िल्म के अन्य किरदारों का कद बढ़ाने की कोशिश की है.

लेकिन ये दोनों नेता कौन हैं? इनका क्या इतिहास रहा है? हमने इतिहास के पन्नों पर अपनी छाप छोड़ने वाले इन दोनों किरदारों की सच्ची कहानी का पता लगाने की कोशिश की है.

कुमारम भीम, 22 अक्टूबर 1902 को संकेपल्ली गांव के एक गोंड आदिवासी परिवार में पैदा हुए थे. उनके पिता का नाम कुमारम चिमना था.

18वीं और 19वीं सदी में आदिवासियों को नई तरह की मुसीबत का सामना करना पड़ रहा था. जंगलों के संरक्षण के क़ानून के नाम पर आदिवासियों की ज़मीनें और खेत उनसे छीने जा रहे थे.

उस वक़्त हैदराबाद रियासत में निज़ाम की हुकूमत कुछ इस तरह थी कि एक तरफ़ तो निज़ाम के रज़ाकार जनता का शोषण करते थे, और दूसरी तरफ़ लोगों को अंग्रेज़ों के दमन का भी शिकार होना पड़ता था.

ऐसी मुश्किलों का सामना करने वाले गोंड आदिवासियों में कुमारम भीम का परिवार भी शामिल था. जब भीम 15 बरस के थे, तो संकेपल्ली गांव में वन अधिकारियों और कारोबारियों की वजह से उनके परिवार को बहुत परेशानियां उठानी पड़ीं.

अल्लम राजैया और साहू ने अपनी क़िताब 'कोमुरम भीम' में लिखा है कि, "जब भीम के पिता गुज़र गए तो उनका परिवार शूद्रपुर चला गया और वहां उन्होंने खेती शुरू की. फ़सल तैयार हो गई, तो सादिक़ नाम के एक व्यक्ति ने उस ज़मीन पर अपना दावा किया जिस पर भीम का परिवार खेती कर रहा था. उसने दावा किया कि उसके पास ज़मीन के काग़ज़ात हैं. तब भीम ने सादिक़ के सिर पर वार किया. उसके बाद वहां हंगामा मच गया और भीम भागकर असम चले गए. वो वहां के चाय बाग़ान में मज़दूरी करने लगे. वहीं पर भीम ने पढ़ना-लिखना सीखा और राजनीति और बग़ावत के बारे में पढ़ा."

भीम ने असम के मज़दूरों की बग़ावत में भी शिरकत की. उन्हें असम पुलिस ने भी हिरासत में लिया था. मगर भीम, असम पुलिस को चकमा देकर भाग निकले और आसिफ़ाबाद के क़रीब कंकनघाट जा पहुंचे. वहां वो लच्छू पटेल की शागिर्दी में काम करने लगे. बाद में भीम ने सोम बाई से शादी कर ली.

जंगल के अधिकारों के लिए संघर्ष
इधर भीम के चाचाओं ने अन्य आदिवासियों के साथ मिलकर बाबेझारी के पास बारह गांवों के जंगल साफ़ किए और वहां खेती करने लगे. इसके बाद उन पर ज़ुल्म शुरू हो गए, पुलिस ने उनके गांवों को तहस-नहस कर दिया.

तब इन बारह गांवों की तरफ़ से प्रशासन से बात करने के लिए भीम को नेता चुना गया. भीम और बाक़ी आदिवासियों को रोज़-रोज़ सरकारी अधिकारियों के ज़ुल्म का शिकार होना पड़ता था. वो अपनी ही बोई हुई फ़सल नहीं काट पाते थे. उनका कहना था कि जंगलों पर उनके हक़ छीने जा रहे थे.

इन सबसे खीझकर भीम ने इन बारह गांवों के आदिवासियों को एकजुट करने का आंदोलन छेड़ दिया. सबसे अहम बात ये है कि भीम का कहना था कि जंगलों, वहां की ज़मीनों और नदियों के पानी पर आदिवासियों का हक़ होना चाहिए.

इसके लिए भीम ने, 'जल, जंगल और ज़मीन' का नारा दिया. आदिवासियों ने भीम के नेतृत्व में इन संसाधनों पर अपना हक़ हासिल करने के लिए आंदोलन शुरू कर दिया.

भीम ने नारा दिया- 'मावा नाते मावा राज', यानी 'हमारी ज़मीन पर हमारी सरकार'.

अल्लम राजैया कहते हैं, "जब निज़ाम की हुकूमत को लगा कि हालात उनके हाथ से बाहर जा रहे हैं, तो निज़ाम ने उप-ज़िलाधिकारी को आदिवासियों से बात करने के लिए भेजा. आंदोलन कर रहे बारह गांवों के आदिवासियों से वादा किया गया कि उन्हें ज़मीन पर मालिकाना हक़ के दस्तावेज़ दिए जाएंगे. उनके क़र्ज़ माफ़ कर दिए जाएंगे. हालांकि, भीम ने इन बारह गांवों आदिवासियों के स्वराज की मांग की. उप-ज़िलाधिकारी आदिवासियों की इस मांग पर सहमत नहीं हुए."

जब आदिवासियों के साथ प्रशासन की बातचीत नाकाम रही, तो आंदोलन ख़त्म करने के लिए निज़ाम ने पुलिस की एक ख़ास टुकड़ी भेजी. भीम के नेतृत्व में गोंड आदिवासी लगभग सात महीनों तक पुलिस से मुक़ाबला करते रहे. आख़िरकार, 1 सितंबर 1940 को पुलिस ने भीम की गोली मारकर उनकी हत्या कर दी.

उस दिन अश्वायुजु पूर्णिमा थी यानी अश्वायुजु महीने का आख़िरी दिन था. जिस जगह कुमारम भीम को गोली मारी गई, वो जगह आज के 'कुमारम भीम आसिफ़ाबाद ज़िले' का जोदेनघाट गांव था.

उस रोज़ निज़ाम की पुलिस के 300 से ज़्यादा लोग भारी गोलाबारूद और हथियारों के साथ गांव में दाख़िल हुए थे. पुलिस की ये कार्रवाई अचानक हुई थी, ताकि आदिवासियों को तैयार होने का मौक़ा न दिया जाए.

कुर्दू पटेल नाम के व्यक्ति की मुख़बिरी से मिली जानकारी के आधार पर पुलिस उस पहाड़ी की तरफ़ बढ़ी जिसे भीम और उसके साथियों ने अपना ठिकाना बनाया हुआ था.

पुलिस ने उन पर पीछे से हमला किया. भीम और उनके 15 साथियों को मौक़े पर ही गोली मार दी गई. जबकि बाक़ी लोगों को गिरफ़्तार कर लिया गया. उस दिन भीम के विद्रोह का अंत हो गया.

बद में भीम की मौत के ज़िम्मेदार कुर्दू पटेल को तेलंगाना के हथियारबंद किसान विद्रोहियों ने 1946 में संघर्ष के दौरान गोली मार दी.

नायक नहीं... वो आदिवासियों के लिए ईश्वर बन गए
हो सकता है कि बाक़ी दुनिया के लिए भीम एक क्रांतिकारी रहे हों. मगर गोंड आदिवासियों के लिए वो भगवान से कम नहीं हैं.

कुमारम भीम आसिफ़ाबाद ज़िले के गोंड आदिवासी आज भी हर साल अश्वायुजु पूर्णिमा पर उनकी याद में गीत गाते हैं.

वो उन्हें पूजते हैं. वो कहते हैं, "कुमारम के पास जादुई ताक़त थी. कोई भी पत्थर या गोली उनका बाल भी बांका नहीं कर सकती थी."

आज भी बहुत से गोंड इस बात पर यक़ीन करते हैं. सिदम अर्जू ने बीबीसी को बताया, "लोग मानते हैं कि सामान्य हालात में कोई भी गोली भीम के शरीर को भेदकर नहीं जा सकती थी. उन्हें डुबाया नहीं जा सकता था. चट्टानों से उन्हें चोट नहीं लगती थी. इसीलिए उनको मारने के लिए महिलाओं द्वारा मासिक धर्म के दौरान इस्तेमाल किए गए कपड़े को लपेटकर बंदूक इस्तेमाल करनी पड़ी थी. तभी कोई गोली उनके शरीर को भेद सकती थी."

सिदम अर्जू की इस व्याख्या से इस बात का पता चलता है कि गोंड आदिवासियों को किस क़दर भीम के भगवान होने का यक़ीन है.

अल्लुरी सीतारामा राजू
अल्लुरी सीतारामा राजू तेलुगू प्रदेश में अंग्रेज़ों के शासन के ख़िलाफ़ संघर्ष करने वाले एक स्वतंत्रता सेनानी थे. उन्होंने मनयम के आदिवासियों को एकजुट किया और अंग्रेज़ों से बग़ावत कर दी. उन्होंने कई बरस तक अंग्रेज़ों से हथियारबंद संघर्ष किया. आख़िर में अंग्रेज़ों ने उन्हें मार दिया था. महात्मा गांधी ने अपनी पत्रिका 'यंग इंडियन' में अल्लुरी सीतारामा राजू के बारे में तारीफ़ की थी.

अल्लुरी का जन्म 4 जुलाई 1897 को विशाखापत्तनम ज़िले के पांडरंगी गांव में हुआ था. उनका पुश्तैनी गांव वेस्ट गोदावरी ज़िले के मोगल्लू में था. उनके पिता का नाम वेंका रामा राजू था.

अल्लुरी के पिता एक फोटोग्राफ़र थे. उनकी मां का नाम सूर्या नारायाणम्मा था. वो निम्न मध्यम वर्गीय परिवार से ताल्लुक़ रखते थे. अल्लुरी सीतारामा राजू ने अपनी पढ़ाई गोदावरी क्षेत्र के तमाम हिस्सों जैसे कि नरसापुरम, राजा महेंद्रवर्मन, रामचंदपुरम, टूनी, काकिनाडा और अन्य जगहों पर की थी.

जब अल्लुरी छठी कक्षा में पढ़ रहे थे तब गोदावरी पुष्कारुलु का दौर था. उस समय हैजे की महामारी फैली हुई थी. 1908 में अल्लुरी के पिता की हैजे की बीमारी से मौत हो गई थी. इसके बाद अल्लुरी बहुत आगे तक पढ़ाई नहीं कर सके.

उन्होंने 1916 में उत्तर भारत का दौरा शुरू किया ताकि ध्यान लगा सकें. अपना आध्यात्मिक सफ़र पूरा करके अल्लुरी 1918 में अपने गांव लौटे. 1919 के दौरान ही उन्हें अंदाज़ा होने लगा था कि मनयम इलाक़े के आदिवासियों के साथ नाइंसाफ़ी हो रही है.

वो आदिवासियों को इंसाफ़ दिलाने की लड़ाई में कूद पड़े. अल्लुरी सीतारामा राजू ने आदिवासियों की फ़सलों पर ज़बरन क़ब्ज़े, उनसे काम कराने की मज़दूरी न देने जैसे मुद्दों पर सरकार को घेरना शुरू कर दिया. अल्लुरी ने आदिवासियों को संगठित करके आंदोलन को आगे बढ़ाया.

मनयम एजेंसी में तीन साल तक हथियारबंद संघर्ष
अल्लुरी बमुश्किल बीस बरस के रहे होंगे जब उन्होंने अंग्रेज़ों के ज़ुल्मों के ख़िलाफ़ बग़ावत की थी. असल में मनयम इलाक़े में अंग्रेज़ स्थानीय ज़मींदारों जैसे कि मुताधार के साथ मिलकर आदिवासियों का शोषण कर रहे थे.

इस बात से अल्लुरी सीतारामा राजू का ग़ुस्सा बहुत भड़क उठा.

स्थानीय साहूकारों और ठेकेदारों द्वारा आदिवासियों पर ढाए जा रहे ज़ुल्म और हिंसा से परेशान होकर, अल्लुरी राजू ने बग़ावत का बिगुल फूंक दिया.

अल्लुरी सीतारामा राजू के नेतृत्व में मनयम एजेंसी के बाग़ियों ने पुलिस थानों पर हमला कर हथियार लूट लिए. अल्लुरी और उनके साथइयों ने राजावोम्मांगी अद्दाततीगाला, देवीपट्टनम, चिंतापल्ली, कृष्णा देवी पेटा और अन्य थानों पर हमला किया.

सैकड़ों किलोमीटर इलाक़े में फैले इन थानों पर एक ही दिन में एक साथ आदिवासियों के हमले से पूरे इलाक़े में सनसनी फैल गई. लोगों के बीच अल्लुरी बेहद लोकप्रिय और मशहूर हो गए. कुछ लोगों को लगने लगा कि अल्लुरी के पास जादुई शक्तियां हैं.

उस वक़्त की सरकार ने आदिवासियों की बग़ावत को 'मनयम पिथूरी' का नाम दिया. ये सशस्त्र विद्रोह लगभग तीन साल तक चलता रहा. अल्लुरी सीतारामा राजू के आंदोलन का मुक़ाबला करने के लिए पहले सरकार ने मालाबार स्पेशल पुलिस की टुकड़ी को भेजा. जब ये पुलिस बल आंदोलन पर क़ाबू पाने में नाकाम रहा, तो फिर इलाक़े में असम राइफ़ल्स की एंट्री हुई. उन्होंने अल्लुरी को पकड़ लिया.

सरकारी दस्तावेज़ों में दर्ज जानकारी के अनुसार जब एक मुठभेड़ में घायल अल्लुरी सीतारामा राजू, कोयुरू के क़रीब माम्पा में एक नदी में अपने घाव धो रहे थे, तब उन्हें पकड़ लिया गया. हालांकि इस गिरफ़्तारी के बाद अल्लुरी को ज़िंदा पुलिस थाने लाया जाना चाहिए था. लेकिन इतिहासकार कहते हैं कि जब अल्लुरी ने जवानों की गिरफ़्त से भागने की कोशिश की, तो उन्हें गोली मार दी गई.

मेजर गुडाल नाम के एक अधिकारी ने अपनी रिपोर्ट में लिखा कि अल्लुरी सीतारामा राजू को 7 मई 1924 को उस वक़्त गोली मारी गई, जब वो जवानों से लड़ने लगे और जवानों के लिए जान का ख़तरा पैदा हो गया.

इसके बाद अल्लुरी का शव कृष्णा देवी पेट्टा लाया गया, जहां उनका अंतिम संस्कार किया गया. अब इस इलाक़े को अल्लुरी मेमोरियल पार्क के तौर पर विकसित किया गया है.

बहादुरी से अंग्रेज़ों का मुक़ाबला करने वाले अल्लुरी सीतारामा राजू की मौत महज़ 27 साल की उम्र में हो गई. उन्हें मनयम के क्रांतिकारी के तौर पर याद किया जाता है. साल भर सैकड़ों लोग उन्हें श्रद्धांजलि देने के लिए अल्लुरी मेमोरियल पार्क आते रहते हैं और उन्हें याद करते हैं.

अल्लुरी की मौत के बाद अंग्रेज़ सरकार ने उनके साथ बग़ावत करने वाले 17 लोगों को गिरफ़्तार किया था. उन्हें अंडमान समेत देश की की अलग-अलग जेलों में क़ैद में रखा गया. इस आंदोलन के दौरान अल्लुरी के कई साथियों ने भी अपनी जान गंवाई थी.

उनकी शहादत के साथ उनका विद्रोह भी ख़त्म हो गया. लेकिन वो जज़्बा आज भी ज़िंदा है और यहां के लोगों को हौसला देता है. (bbc.com)

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