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PUBG मामलाः मां को मार डालने वाले बेटे ने पुलिस को क्या बताया- ग्राउंड रिपोर्ट
10-Jun-2022 2:06 PM
PUBG मामलाः मां को मार डालने वाले बेटे ने पुलिस को क्या बताया- ग्राउंड रिपोर्ट

-नीतू सिंह

  • लखनऊ में 17 साल के लड़के ने 4 जून की रात मां की गोली मारकर हत्या की
  • तीन दिन तक छोटी बहन के साथ घर में शव के साथ ही रहा
  • 7 जून को ख़ुद बेटे ने सेना में तैनात पिता को फ़ोन पर बताया
  • लड़के को मोबाइल फ़ोन पर गेम खेलने और चैटिंग की थी आदत

पश्चिम बंगाल के आसनसोल में सेना में जूनियर कमीशन्ड ऑफिसर के पद पर तैनात नवीन कुमार सिंह अभी एक महीने पहले ही दो मई को छुट्टी से वापस ड्यूटी पर पहुंचे थे. उन्हें अंदेशा भी नहीं था कि इतनी जल्दी घर वापसी पत्नी की मौत की खबर से करनी होगी.

लखनऊ के पीजीआई क्षेत्र के पंचमखेड़ा स्थित यमुनापुरम कॉलोनी में इनकी पत्नी अपने बेटे और बेटी के साथ रहती थीं. इनके 17 वर्षीय बेटे ने चार जून की रात में करीब दो-तीन बजे पिता की लाइसेंसी पिस्तौल से अपनी मां की गोली मारकर हत्या कर दी.

इस घटना के बारे में ख़ुद बेटे ने 7 जून की पिता को फ़ोन कर जानकारी दी. घटना के तीन दिनों तक अभियुक्त अपनी 10 वर्षीय बहन के साथ उसी घर में रहा. जब शव की बदबू बर्दाश्त से बाहर हुई तब उसने अपने पिता को सूचना दी.

एडीसीपी पूर्वी कासिम आब्दी बीबीसी को फ़ोन पर बताते हैं, "बच्चे को बाल सुधार गृह भेज दिया गया है. अभी लीगल प्रासेस चल रहा है."

पुलिस के मुताबिक़ बच्चे के पिता का कहना है कि इसे गेम खेलना और लड़कियों से चैट करने की बहुत आदत थी. मम्मी उसे यह सब करने से मना करती थीं. मोबाइल के इस्तेमाल पर पाबंदी उसे पसंद नहीं थी.

वहीं बच्चे ने पुलिस को बताया कि 'मुझे हर बात के लिए ब्लेम किया जाता था मेरी ग़लती हो या न हो. मैं खेलने भी जाता था तो भी माँ शक करती थी'.

कासिम आब्दी कहते हैं, "बच्चा पहले भी घर से कई बार भाग चुका था. उसका स्वभाव बाकी बच्चों से थोड़ा तो अलग है. घटना के बाद से अभी बच्चे का व्यवहार एकदम सामान्य है उसे लगता है उसने जो किया है वो एकदम सही किया है. मेरे सामने का यह अबतक पहला ऐसा केस है पर कोविड के समय मोबाइल एडिक्शन के मामले हमारे सामने बहुत आये हैं."

इस केस में केजीएमयू के पूर्व मनोचिकित्सक डॉ कृष्ण दत्त बीबीसी को बताते हैं, "कुछ बच्चों का स्वभाव ऐसा होता है जिन्हें अपनी भावनाओं पर नियंत्रण नहीं होता है इसे पुअर इम्पल्स कंट्रोल कहते हैं. ऐसे बच्चे बहुत कुछ साज़िश बनाकर कोई कदम नहीं उठाते बल्कि आवेश में आकर ऐसा करते हैं. कई बार ये छोटे भाई-बहनों को भी नुकसान पहुंचाते हैं."

वे कहते हैं, "आजकल इस तरह की घटनाओं की मुख्य वजह एकल परिवार हो गए हैं. पहले संयुक्त परिवार में बच्चे सबसे बात करते थे और परिवार के सदस्यों के साथ ही विभिन्न गतिविधियों में व्यस्त रहते थे लेकिन अब इनकी दुनिया मोबाइल और टीवी हो गयी है. एकल परिवार में अगर माता-पिता दोनों नौकरी करते हैं तो बच्चे बहुत अकेले पड़ जाते हैं. ऐसे बच्चों को अपनी बात ज़ाहिर करने का मौका ही नहीं मिलता है. इस स्थिति में बच्चे को मोबाइल की लत हो जाती है. ऐसे बच्चों का नतीजा आपके सामने हैं."

मोबाइल एडिक्शन का असर
आशा ज्योति केंद्र 181 की प्रशासक अर्चना सिंह बताती हैं, "हमारे यहाँ जितने भी मामले आते हैं उनमें से 40 फ़ीसद मोबाइल एडिक्शन से ही संबंधित होते हैं. कोविड के दौरान गेम के ज़रिए बहुत क्राइम हुए हैं. संयुक्त परिवारों का ख़त्म होना मोबाइल का ज़्यादा इस्तेमाल एक बड़ा कारण है. ऑनलाइन गेम के ज़रिये कोविड में बहुत सारी लड़कियाँ साइबर क्राइम की शिकार हुई हैं."

एडीसीपी पूर्वी कासिम आब्दी का कहना है, "इस कोविड में लोगों की सोशल लाइफ़ काफी हद तक ख़त्म हो गयी. लोग घरों में ज़्यादा कैद रहे. फैमिली और रिश्तेदारों का भी आवागमन काफी कम हुआ. जिस वजह से बच्चे मोबाइल का इस्तेमाल पहले से ज़्यादा करने लगे. इस केस में बच्चे के फ़ोन का डेटा और टॉक वैल्यू माँ ने रिचार्ज नहीं कराया था. अभी ये माँ के ही फ़ोन का ज़्यादा इस्तेमाल करता था. घटना के बाद भी ये माँ के मोबाइल से गेम खेलता रहा. बच्चे की दादी की शिकायत पर जुवेनाइल जस्टिस के तहत 302 की धारा लगाई गयी."

कभी दिन के 8 से 10 घंटे रोज़ाना मोबाइल पर पबजी खेलने वाले 20 वर्षीय करन बीबीसी को बताते हैं, "अगर इस गेम की लत एक बार लग गई तो छुड़ाना बहुत मुश्किल होता है. मैं दो साल पहले तक 8 से 10 घंटे रोज़ पबजी खेलता था. खेल के दौरान अगर घर में कोई खाना खाने को कहे या किसी काम को करने के लिए बोला जाए तो बहुत गुस्सा हो जाता था. ऐसा लगता था क्या कुछ न कर दूँ क्योंकि खेलते हुए इस गेम से क्विट करना बहुत मुश्किल होता है."

वे कहते हैं, "अब मैं दिन में डेढ़ दो घंटे ही पब्जी खेलता हूँ. ऑनलाइन गेम के घंटे कम करने में मुझे क़रीब दो साल का समय लगा. अब मैं पहले से गुस्सा भी बहुत कम होता हूं. मेरे दर्जनों दोस्त ऐसे हैं जो अब भी दिन के आठ से 10 घंटे फ़ोन पर गेम खेलते हैं. ऐसे बच्चे बहुत चिड़चिड़े, ज़िद्दी और गुस्सैल होते हैं."

बुधवार की शाम के क़रीब छह बजे पोस्टमॉर्टम हाउस के बाहर 40 वर्षीय मृतका साधना सिंह के शव के पास उनकी 10 वर्षीय बेटी अपने पिता की गोद में लिपटी सिसकियाँ ले रही थी. यह बच्ची अपनी माँ के शव के साथ तीन दिन तक अपने घर यमुनापुरम कॉलोनी में थी. जब शव से बदबू आने लगी तब मंगलवार रात 17 वर्षीय अभियुक्त बेटे ने पिता को माँ के मरने की ख़बर दी.

लाल रंग की टीशर्ट और सफ़ेद रंग का हाफ़ पैंट पहने पोस्टमॉर्टम हाउस के बाहर नवीन कुमार सिंह की आँखों में पत्नी का शव देख रह-रहकर आंसू आ रहे थे. वे अपनी बच्ची के सिर को हाथ से सहलाकर उसे दिलासा दे रहे थे. यहाँ अभियुक्त के चाचा-चाची, बाबा-दादी और चंदौली से आए ननिहाल पक्ष के कुछ लोग मौजूद थे. देर शाम शव का अंतिम संस्कार बैकुंठ धाम में कर दिया गया.

हाईस्कूल में फ़ेल हो गया था बच्चा
पोस्टमॉर्टम हाउस के बाहर खड़े अभियुक्त के मामा संत सिंह ने बताया, "अभी पिछले महीने ही जीजा (नवीन सिंह) दो मई को छुट्टी से वापस गये थे. ये बच्चा (आरोपी) छुट्टियों में अक्सर ननिहाल आता था. क्रिकेट खेलने का बहुत शौकीन है. पर कभी-कभी ज्यादा पैनिक हो जाता है. जो काम कर रहा हो अगर उसे मना करो तो गुस्सा ज्यादा करता है. पर अब ये लक्षण तो ज्यादातर बच्चों में होते हैं इसलिए कभी ऐसा लगा नहीं कि उसे डॉक्टर को दिखाया जाए. अब पता नहीं कैसे उसने इतना बड़ा कदम उठा लिया?"

संत सिंह आगे कहते हैं, "फोन पर गेम खेलने का लती था. पिछली बार हाईस्कूल में फेल हो गया था इस बात को लेकर भी वो थोड़ा परेशान था. जबसे उसके नंबर कम आए थे दीदी (मृतका) थोड़ा पढ़ने के लिए बोलती थीं और फोन चलाने से मना करती थीं. कई बार उससे फोन छीना भी गया. तभी शायद गुस्से में आकर उसने यह कदम उठाया."

आरोपी की दादी मिर्जा देवी ने पोते के खिलाफ पीजीआई थाने में अपनी बहू की हत्या का केस दर्ज कराया है. पुलिस ने दादी की तहरीर पर नाबालिग पर हत्या का केस दर्ज कर उसे बाल संरक्षण गृह मोहान रोड भिजवा दिया है. मिर्जा देवी अपने छोटे बेटे के साथ इंदिरापुरम चरणभट्ठा में रहती हैं. वो पोस्टमार्टम हाउस के बाहर रोते हुए कह रही थीं, "हमारा तो सब कुछ बर्बाद हो गया. अब जो करेगी वो पुलिस ही करेगी." घटना के बाद परिवारजन बहुत बात करने की स्थिति में नहीं थे.

डॉ कृष्ण दत्त का कहना है, "मोबाइल में एक क्लिक पर बहुत कुछ खुल जाता है. बच्चे गेम के अलावा अलग-अलग साइट पर जाते हैं जहाँ वो एक समय बाद काल्पनिक दुनिया में जीने लगते हैं. पांच साल से 12 साल की उम्र बच्चों की देखरेख के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं. इस उम्र में उन्हें सुनने और समझने की बहुत ज़रूरत है."

चंदौली ज़िले की रहने वालीं मृतका साधना सिंह अपने दो भाइयों की इकलौती बहन थीं. इन्होंने स्नातक तक पढ़ाई की थी. अब ये एक हाउसवाइफ़ थीं. पिछले पांच छह सालों से बच्चों के साथ यमुनापुरम कॉलोनी में रह रही थीं. इनकी शादी 2002 में हुई थी. अभियुक्त बेटे का जन्म अक्टूबर 2005 में हुआ था.

बुधवार को दोपहर क़रीब ढाई बजे से शाम साढ़े चार बजे तक हमने यमुनापुरम कॉलोनी में आरोपी के घर के आसपास कई लोगों से बात करने की कोशिश की पर ज़्यादातर लोगों ने बात करने से मना किया.

नवीन सिंह का तीन मंज़िला घर मोहल्ले में कॉर्नर पर है. मीडिया की कुछ एक गाड़ियों के अलावा पूरी गली में सन्नाटा पसरा था. नवीन सिंह के घर के आसपास कुछ छोटे-छोटे बच्चे घूम रहे थे.

घर का मामला होने की वजह से घरवाले, रिश्तेदार और पड़ोसी सब इस मामले में बात करने से कतराते नजर आए. सबने चुप्पी साध रखी थी.

उन्होंने बताया, "दो-तीन दिन यहीं मिट्टी (शव) रखी रही तभी पंखा चलाकर छोड़ दिया है ताकि बदबू ख़त्म हो जाए. हम तो घर के सामने रहते हैं हमें तो तब पता चला जब यहाँ भीड़ देखी. अब आजकल के बच्चे मोबाइल के आगे किसी की सुनते कहाँ हैं?"

इनके बगल में बैठी एक और महिला ने कहा, "माँ-बाप नौकरी पर चले जाते हैं बच्चों पर कोई ध्यान ही कहाँ देता है? बच्चे इतने ज़िद्दी हो गये हैं कि वो बिना मोबाइल देखे खाना ही नहीं खाते अब. शुरुआत में बच्चों को चुप कराने के लिए माँ-बाप उनके हाथ में फ़ोन पकड़ा देते हैं बाद में उसे मना करते हैं तबतक बहुत देर हो चुकी होती है. अब इसी केस में देख लीजिए, माँ ने तो भलाई के लिए कहा था कि वो फ़ोन न चलाए पर किसे पता था कि इतना मना करने से वो गोली से मार डालेगा."

राज्य बाल अधिकार संरक्षण आयोग की सदस्य डॉक्टर सुचिता चतुर्वेदी के मुताबिक़ इस तरह की घटना दो ढाई साल बाद हुई है, इससे पहले ठीक ऐसी ही घटना हुई थी जिसमें सात-आठ साल की बच्ची ने मिलता-जुलता क़दम उठाया था

डॉ. सुचिता चतुर्वेदी बीबीसी को बताती हैं, "बच्चों के मनोविज्ञान को पढ़ने की आवश्यकता है. जब बच्चा अपने आपको अकेला महसूस करता है तभी वह इन सब आर्टीफिशियल चीज़ों के पीछे भागता है. बच्चा अकेले क्यों रहना चाहता है इस पर पेरेंट्स को गम्भीरता से ध्यान देने की ज़रूरत है. अभी एकल परिवार की परम्परा सी बन गई है. लोग पैसा कमाने के चक्कर में बच्चों पर बहुत ध्यान नहीं दे पा रहे हैं."

आयोग की तरफ़ कोविड में एक पत्र जारी किया गया था कि बच्चों के मोबाइल इस्तेमाल पर निगरानी रखी जाए.

डॉ. सुचिता ने कहा कि इस घटना के बाद आयोग जल्द ही एक पत्र जारी करेगा जिसमें यह कहा जाएगा कि बच्चों के इस्तेमाल का फ़ोन ही अलग होना चाहिए. उसमें केवल बच्चों की ज़रूरत के अनुसार ही एप्स हों. बच्चों के पढ़ने के लिए अच्छा साहित्य अपलोड हो. अब एक मशीनी युग आ गया है तो अगर इसपर ध्यान नहीं दिया तो ऐसी कई घटनाएं होती रहेंगी. अब संयुक्त परिवार ख़त्म हो गए हैं, कहानियां कहने वाले लोग ही नहीं बचे हैं.

ग़ाज़ियाबाद में रहने वाले 19 वर्षीय आकाश का कहना है, "पबजी खेल 10-12 साल की उम्र के बच्चों से 17-18 साल के बच्चे ज़्यादा खेलते हैं. मैं भी ये गेम खेलता हूँ. इस गेम की खामी यही है कि अगर गेम खेलते वक़्त कोई रोकता है मुझे गुस्सा आता है."

यूपी जुवेनाइल जस्टिस के असेसमेंट पैनल की सदस्य और मनोवैज्ञानिक डॉक्टर नेहा आनंद कहती हैं, "पिछले दो हफ़्तों में मैंने 20-25 बच्चों की काउंसलिंग की, जिनकी उम्र 11 से 17 साल के बीच की थी. इनमें किसी न किसी तरह का एडिक्शन था चाहें वो मोबाइल का हो या कैफ़े जाने का या फिर गाड़ी चलाने का. अगर कोई बच्चा किसी बच्चे को कोई चीज़ लिए हुए देखता है तो वह उसे लेने की इच्छा रखता है और ज़िद करता है कि हमें भी चाहिए."

वे कहती हैं, "पहले बच्चे ग्राउंडेड होते थे लेकिन अब परिवेश बहुत बदल गया है. बच्चे बहुत वायलेंट नेचर के हो गये हैं. मार-काट, गन यूज़ करना ये सब उनकी आदत में शामिल हो रहा है."

डॉ नेहा आनंद के मुताबिक "इस एज ग्रुप में जब कोई रोकटोक आती है तो बच्चे उसे मैनेज नहीं कर पाते हैं. तीन मुख्य डाइमेंशन हैं- बायो, साइको और सोशल. पहला अगर हम बायोलाजिकली समझे तो अगर किसी बच्चे की कोई इच्छा पूरी होती है तो प्लेज़र रिलीफ़ होता है. जो पैरेंट्स अपने बच्चों से ज़्यादा बातचीत नहीं कर पाते हैं तो उनका इमोशन रिलीफ़ नहीं होता है."

लड़कों में एक अपोज़िशनल डिफ़ाइन डिसऑर्डर (ओडीडी) के लक्षण आठ साल की उम्र में दिखने शुरू हो जाते हैं. जैसे अगर आप कुछ बोल रहे हैं तो बच्चा उसका विरोध कर रहा है, बच्चा किसी बात पर बहस बहुत करता है. इस तरह के बच्चे एग्रेसिव बहुत होते हैं. ये कोई सोशल नॉर्म को नहीं मानते हैं. आप जो कहेंगे ये ठीक उसका उल्टा ही करते हैं. ये बहुत कॉमन डिसऑर्डर हैं. अगर शुरुआती समय में ही इन बच्चों को मनोवैज्ञानिक के पास ले जाया जाता है तो इनके लक्षणों में सुधार हो जाता है.

डॉक्टर नेहा आनंद के अनुसार जब बच्चे 8 साल के होते हैं तब उन्हें बहुत सुपरविज़न की ज़रूरत होती है. इस उम्र में हार्मोनल चेंज होते हैं तब उनके मन में बहुत ज़्यादा उथल-पुथल चल रही होती है. इस उम्र में बच्चों के लिए एडजस्टमेंट का मामला होता है. ये इस उम्र में स्वतंत्रता चाहते हैं. अगर समय रहते बच्चों की काउंसलिंग नहीं की गई तो मुश्किलें हो सकती हैं.

बच्चों से प्रतिदिन आधे एक घंटे बात करना बहुत ज़रूरी है. कौन सी चीज़ों पर बच्चा क्या रिएक्ट कर रहा है इस पर नज़र रखें. डेढ़ से दो घंटे से ज्यादा दिन में फोन का इस्तेमाल न करने दें.

डॉक्टर नेहाता बताती हैं कि एक रिसर्च के मुताबिक बच्चे 24 घंटे में आठ घंटे एवरेज बच्चे मोबाइल का इस्तेमाल करते हैं जो कि सबसे ज़्यादा नुकसानदायक है. बच्चे इस उम्र में सबकुछ ट्राई करना चाहते हैं.

डॉ नेहा आनंद कहती हैं, "इस केस को जितना मैं समझी हूँ उस हिसाब से बच्चे को अपनी माँ को मारना नहीं था, गुस्सा निकालना था तभी उसने एकसाथ छह गोलियां चलाईं. मुझे ऐसा भी लगता है कि यह बच्चा लम्बे समय से डिप्रेस्ड और परेशान रहा है. कुंठा से ग्रसित होगा. पहचान की भी क्राइसिस थी. बच्चे के व्यवहार को समझना बहुत ज़रूरी है. अगर ज़िद कर रहा है तो किस हद तक कर रहा है. इसमें कुछ न कुछ मनोवैज्ञानिक वजह थी."

डॉ नेहा आनंद ने अपने अनुभव साझा किए, "अभी तक हमने जितनी भी काउंसलिंग की है उसमें यह निकलकर आया कि 95 फ़ीसद पेरेंट्स बच्चों को सुनते ही नहीं हैं. जिससे बच्चों को अपनी बात एक्सप्रेस करने का मौका नहीं मिलता है, जो बच्चों के लिए बेहद घातक हैं." (bbc.com)

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