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राजभवन और कुलपति
एक राजकीय विश्वविद्यालय के कुलपति से राजभवन परेशान हैं। वो इसलिए कि कुलपति,दक्षिण अफ्रीकी देश फिजी गये थे। जहां कोई हिंदी सम्मेलन आयोजित था। लौटे साल बीत गया लेकिन कुलपति, कुलाधिपति को यह नहीं बता रहे कि उनकी अनुमति लिए बिना विदेश यात्रा क्यों और कैसे कर आए। राजभवन से कई चि_ियां भेजी गई, जवाब देने । लेकिन बैरंग लौट रहीं या लेटर बॉक्स में पड़ी हुई है। अब अफसरों को कौन बताए कि कुलपति, उस विश्वविद्यालय से आते हैं जहां से राज्यपाल, मुख्यमंत्री, मंत्री की नियुक्ति को हरी झंडी मिलती है। बताएं कि कुलपति ऐसे विपरीत समय नियुक्त हुए थे जब प्रदेश में कांग्रेस का शासन था। जब वे उस सरकार से पार पा गए तो अब सब अपना है। इसलिए वे कहां किस काम से जाते हैं नहीं बताएंगे। और फिर फिजी में हिंदी सम्मेलन था। हिंदू, हिंदी और हिंदुस्तान के लिए सारे नियम बनाए जाते हैं।
संबलपुर का छेनापुड़ा
छत्तीसगढ़ भाजपा के नेता और कार्यकर्ता बड़ी संख्या में ओडि़शा और झारखंड में चुनाव प्रचार कर रहे हैं। इनमें सांसद, विधायक भी शामिल हैं। कुछ तो पूरी सक्रियता से काम कर रहे तो कुछ लॉग बुक भरने गए हैं। ओडिशा गए ऐसे ही नेताओं की शिकायत थी कि उनके रूकने ठहरने की व्यवस्था ठीक नहीं है। उन्होंने भाई साहब से व्यवस्था को लेकर शिकायत की, तो उन्हें बुरी तरह फटकार सहनी पड़ी। भाई साहब ने उन्हें लौट आने का विकल्प भी बता दिया ।इनमें रायपुर जिले के एक बड़े नेता चालाक निकले। यद्यपि उनकी लॉजिंग-बोर्डिंग का इंतजाम संबलपुर के रिसार्ट में किया गया था लेकिन वो इससे संतुष्ट नहीं थे। दो दिन उन्होंने वहां खूब प्रचार किया, बैठकें की और फोटो-वीडियो जारी करवाया, फिर स्थानीय नेताओं से वहां का प्रसिद्ध पकवान छेना-पुड़ा पैक करवा कर रायपुर लौट आए। चर्चा है कि प्रदेश संगठन, नेताजी के बिना बताए लौट आने से खफा है।
एक, दूसरे का काम न करने की ठानी
प्रशासन के दो अधिकारियों में शीत संघर्ष की चर्चा नवा और पुराना रायपुर में भी है । दोनो ही सचिव स्तर के हैं। बस पास आउट बैच का अंतर है। इस नाते एक जूनियर एक सीनियर है। शीत संघर्ष भी सरकारी काम काज को लेकर शुरू होकर मनभेद तक जा पहुंचा । एक ने मातहतों से कह दिया कि उसका कोई काम नहीं करना है । दूसरे ने अपने मातहतों से कहा कि उनके यहां से कोई भी स्वीकृति का प्रस्ताव आए तो क्वेरी पे क्वेरी करते जाओ। यह संघर्ष शुरू हुआ था किसी प्रस्ताव में त्रुटि सुधार को लेकर। जूनियर, इसे लटकाए हुए थे। अपने स्तर का काम होने के बाद भी जूनियर ने महामहिम से अनुमति के नाम पर रोक रखा था। जैसे तैसे हुआ लेकिन उसके बाद यह अघोषित निर्देश जारी कर दिए गए ।
होर्डिंग के लिए कोई पॉलिसी ही नहीं...
मुंबई के घाटकोपर में होर्डिंग गिरने से हुई भीषण दुर्घटना के बाद छत्तीसगढ़ के शहरों में लगे भारी-भरकम खतरनाक होर्डिंग्स की तरफ नगरीय प्रशासन के अफसरों का ध्यान गया है। रायपुर, कोरबा, भिलाई, अंबिकापुर, बिलासपुर आदि में होर्डिंग्स की स्ट्रक्चरल जांच की जा रही है। हैरानी इस बात पर हो सकती है कि जान-माल की हानि से जुड़े इस महत्वपूर्ण विषय पर राज्य सरकार की कोई एकरूपता वाली पॉलिसी ही नहीं है। नगर निगमों को जब टेंडर निकालना होता है तो देश-प्रदेश के किसी भी नगर-निगम की पॉलिसी को उठाकर उसमें थोड़ा बहुत सुधार कर निकाल देते हैं। इसमें ज्यादा जोर इस बात पर होता है कि कब-कब फीस पटानी होगी, नियमों का उल्लंघन करने पर जुर्माना कितना लगेगा। दुर्घटनाओं को लेकर सिर्फ इतनी बात कही गई है कि इसका पूरा हर्जाना होर्डिंग लगाने वाली एजेंसी को भरना होगा। रायपुर नगर निगम क्षेत्र में एक अनुमान के मुताबिक केवल घरों के छत और सडक़ किनारों पर 8 हजार से अधिक होर्डिंग्स हैं। इसके अलावा यूनिपोल जगह-जगह लगाए गए हैं। निगम को इनसे करीब 11 करोड़ रुपये की सालाना आमदनी भी है। देश के दूसरे शहरों में यूनिपोल और होर्डिंग्स सडक़ों से कम से कम दो मीटर की दूरी पर लगाये जाने का नियम है। अस्पताल, स्कूल और अन्य व्यस्त चौराहों के लिए नियम कुछ और कड़े हैं। रायपुर शहर की कुछ प्रमुख सडक़ों पर इसका उल्लंघन हो रहा है। कोरबा नगर निगम ने कुछ साल पहले निकाले गए टेंडर में अधिकतम 20 फीट चौड़ाई और 10 फीट ऊंचाई के होर्डिंग्स की अनुमति दी गई थी जिसका निचला हिस्सा जमीन से कम से कम 8 फीट ऊपर होना चाहिए। कुछ नगर निगमों ने टेंडर निकाले तो एकमुश्त 5 साल के लिए अनुमति दी गई है। इसके स्ट्रक्चर की जांच कब-कब की जाएगी, इसका उल्लेख निविदाओं में बिल्कुल नहीं है। सिर्फ यही है कि दुर्घटना के लिए एजेंसी जिम्मेदार होगी। इससे भी बड़ी चिंता इस बात पर है कि हजारों की संख्या में अवैध होर्डिंग्स लगे हैं। बहुत से नगरीय निकायों के कर्मचारियों की मिलीभगत से यह फल-फूल रहे हैं। जगह की कमी के चलते छोटे शहरों को भी होर्डिंग से पाटा जा रहा है। बस स्टैंड, साप्ताहिक बाजार में ये लगे हैं, इस ओर अभी ध्यान नहीं जा रहा है।
जब बाघ का शिकार बहादुरी थी
1976 के बाद से वन्य जीवों का शिकार करना आपराधिक कृत्य हो गया। इसके पहले बहादुरी होती थी। गैरकानूनी इसलिये करना पड़ा कि कई पेशेवर लोग इस काम को करने लगे और तस्करी एक फलता-फूलता धंधा बन गया। इससे जंगल की हिफाजत करने वाले खूंखार जानवरों की संख्या तेजी से घटने लगी। इस समय देश आयातित चीतों से उसकी वंशवृद्धि की कोशिश कर रहा है, क्योंकि भारतीय चीते पूरी तरह विलुप्त हो चुके हैं। प्रदेश का मुंगेली जिले का अचानकमार अभयारण्य किसी जमाने में आज से कई गुना अधिक घना जंगल होता था। यहां भयानक जंगली जानवरों की खासी संख्या थी। शिकारियों के लिए यह पसंदीदा जगह थी। पर इसी जंगल के बीच बसे गांवों में आदिवासियों और जंगल को आग से बचाने के लिए तैनात मैदानी बल पर ये हमला भी कर देते थे। अभयारण्य के बीच बसे बिंदावल गांव में 10 अप्रैल 1949 की एक घटना एक चबूतरे में दर्ज है, जिसे मैकू मठ के नाम से जाना जाता है। मैकू फायर वाचर था। वे उसके कुछ साथी जब यहां से गुजर रहे थे तो एक बाघिन ने उन पर हमला कर दिया। बाकी साथी तो बच निकले लेकिन बाघिन ने मैकू को दबोच लिया। मैकू ने बहादुरी दिखाई। बाघिन से छूटने की खूब कोशिश की लेकिन वह मारा गया। उस समय अफसरों और कर्मचारियों के बीच आत्मीय रिश्ते मजबूत हुआ करते थे। मैकू की मौत से दुखी और बौखलाए तत्कालीन रेंज अफसर एम डब्ल्यू के खोखर ने उसी जगह पर एक मचान बनाकर डेरा डाल लिया। तीन दिन बाद उन्होंने आदमखोर बाघिन को अपने निशाने पर ले लिया। बाघिन की वहीं मृत्यु हो गई। बाद में मैकू की बहादुरी को यादगार बनाये रखने के लिए एक चबूतरा तैयार किया गया। बिंदावल और उसके आसपास के गांवों में लोगों से मैकू के किस्से रोचक अंदाज में सुने जा सकते हैं। करीब 75 साल बाद आज भी यह चबूतरा मौजूद है। आम लोगों के लिए अचानकमार का रास्ता बंद है लेकिन जो सैलानी अनुमति लेकर जाते हैं, उनमें यह मठ जरूर रोमांच भर देता है। मठ की यह तस्वीर वाइल्ड लाइफ प्रेमी प्राण चड्ढा ने अपने सोशल मीडिया पेज पर शेयर की है।