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भारत में बेडरूम और म्यांमार में रसोई है इस गांव के घरों की
24-Sep-2022 1:26 PM
भारत में बेडरूम और म्यांमार में रसोई है इस गांव के घरों की

भारत और म्यामांर के बॉर्डर पर एक ऐसा गांव है जो सीमा रेखा पर बसा है. गांव के निवासी दोनों देशों को नागरिक हैं. कभी इस गांव में जाने से बाहरी लोग कतराते थे.

  डॉयचे वैले पर प्रभाकर मणि तिवारी की रिपोर्ट

पूर्वोत्तर भारत में कई इलाके ऐसे हैं जिनकी खासियतों के बारे में देश के बाकी हिस्सों को लोगों को ज्यादा जानकारी नहीं है. कई इलाके बाहरी दुनिया से अब तक अछूते हैं. म्यांमार से लगी नागालैंड सीमा पर बसा लोंगवा गांव भी विविधता में एकता की ऐसी ही अनूठी मिसाल है. वैसे तो पश्चिम बंगाल में बांग्लादेश से लगी सीमा पर भी कुछ घर ऐसे हैं जो दोनों देशों की सीमा में हैं. लेकिन जो बात नागालैंड के मोन जिले के इस गांव में वह भारत में कहीं और नहीं है. यह गांव भारत-म्यांमार की सीमा रेखा पर बसा है.

यहां कोन्याक नागा जनजाति के करीब पांच सौ परिवार रहते हैं. इस गांव की अनूठी खासियतों और इलाके के प्राकृतिक सौंदर्य को देखने के लिए अब धीरे-धीरे पर्यटक भी आने लगे हैं. पहले देश के बाकी हिस्सों के लोग इस अंदरूनी इलाके तक जाने से डरते थे.

भारत  का आखिरी गांव
म्यांमार सीमा पर बसे लोंगवा को भारत का आखिरी गांव कहा जाता है. पूर्वोत्तर के बाकी इलाकों की तरह मोन जिला भी प्राकृतिक खूबसूरती की बेहतरीन मिसाल है. असम में सोनारी होकर पहले मोन और वहां से 42 किमी की दूरी तय कर लोंगवा पहुंचा जा सकता है. ऊपरी असम के जोरहाट से इस गांव की दूरी करीब 175 किमी है. पहली निगाह में पर्वतीय इलाके में बसा यह गांव देश के किसी भी आम गांव जैसा लगता है. लेकिन जो बात इसे खास बनाती है वह है इसका ठीक सीमा रेखा पर बसा होना.

गांव का एक हिस्सा भारत में है और दूसरा म्यांमार में. गांव के लोगों को दोहरी नागरिकता हासिल है और स्थानीय लोग बिना किसी वीजा-पासपोर्ट या कागजात के बेरोकटोक सीमा पार आवाजाही कर सकते हैं. गांव के मुखिया या राजा को अंघ कहा जाता है.

यह बात बहुत कम लोगों को पता होगी कि इस राज्य में लोकतांत्रिक सरकार के साथ ही ग्रामीण इलाकों में विभिन्न कबीलों का राज चलता है. उनको राजा कहा जाता है. एक राजा आसपास के करीब सौ गांवों पर राज करता है. इलाके में उसकी बात पत्थर की लकीर होती है. लोग एक बार सरकार की बात तो टाल सकते हैं, अपने राजा की नहीं. लोंगवा के राजा की 60 पत्नियां हैं. सबसे दिलचस्प बात यह है कि सीमा रेखा राजा के घर के बीचों बीच होकर गुजरती है. यानी राजा के घर का एक हिस्सा भारत में है और दूसरा म्यांमार में. राजा के घर की तरह ही कई और लोगों के घर में भी सोने का कमरा भारत में तो रसोई म्यांमार में है.

कोन्याक नागा जनजाति
इस गांव में कोन्याक नागा जनजाति के लोग रहते हैं. उनको देश की अंतिम हेडहंटर जनजाति के रूप में जाना जाता है. इस जनजाति के लोग पहले लड़ाई की स्थिति में दूसरी जनजाति के लोगों का सिर काटकर अपने पास इनाम के तौर पर रख लेते थे. इसके पीछे यह मान्यता थी कि इंसान की खोपड़ी में उसकी आत्मा की शक्ति होती है जिसका सीधा संबंध समृद्धि और प्रजनन क्षमता से है. 1960 के दशक में ईसाई धर्म का प्रचार-प्रसार बढ़ने के बाद धीरे-धीरे यह प्रथा बंद हो गई.

इसके अलावा पीतल की बनी खोपड़ी के हार भी स्थानीय लोगों में काफी लोकप्रिय हैं. इस जनजाति के लोगों के चेहरों और पूरे शरीर पर पारंपरिक रूप से टैटू के निशान होते हैं. यह लोग अपनी उत्कृष्ट लकड़ी की नक्काशी, लोहार और हस्तशिल्प के लिए भी मशहूर हैं. सबसे दिलचस्प बात यह है कि गांव के लोग भारतीय सेना के साथ-साथ म्यांमार की सेना में भी भर्ती होते हैं. खुद गांव के राजा का बेटे भी म्यांमार की सेना में है.

बदलने लगी तस्वीर
इस गांव और आसपास के इलाके प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर है. इलाके की खबूसूरती और इस अनूठे गांव की खासियत देखने के लिए अब पर्यटकों की आवक भी बढ़ने लगी है. कोलकाता से जोरहाट होकर इस गांव का दौरा करने वाले एक पर्यटक मुकेश कुमार जायसवाल बताते हैं, "पहले तो बहुत डर लगता था वहां जाने में. कई लोगों से सुना था कि कोन्याक नागा जनजाति के लोग बाहरी लोगो का सिर काट लेते हैं. लेकिन नागालैंड में तैनात अपने एक परिचित से जब इसकी जानकारी मिली तो मैंने वहां जाने का कार्यक्रम बनाया.”

जायसवाल बताते हैं कि वह इलाका बेहद खूबसूरत है. खासकर आप एक घर के भीतर घूमते हुए ही दो देशों की सैर कर सकते हैं. वह भी बिना किसी कागजात के. यह कल्पना से परे है. लोंगवा पहुंच कर लगता है कि आप किसी दूसरी दुनिया में पहुंच गए हैं.

एक समाजशास्त्र प्रोफेसर सुमन भट्टाचार्य बताते हैं, "पहले खासकर नागालैंड के कबीलों के बारे में ऐसी-ऐसी खतरनाक बातें प्रचलित थीं कि आम लोग मोन तो दूर दीमापुर या कोहिमा जैसे शहरों में जाने की भी हिम्मत नहीं जुटा पाते थे. लेकिन धीरे-धीरे यह तस्वीर बदल रही है. साल दर साल पर्यटकों की बढ़ती तादाद ही इसका सबसे बड़ा सबूत है.” (dw.com)

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