राष्ट्रीय
यूपी की मुस्लिम बहुल सहारनपुर सीट से अब तक सबसे ज्यादा छह बार कांग्रेस पार्टी चुनाव जीत चुकी है लेकिन 1984 के बाद से उसने जीत का स्वाद नहीं चखा है.
डॉयचे वैले पर समीरात्मज मिश्र की रिपोर्ट-
लकड़ी की नक्काशी के लिए मशहूर सहारनपुर लोकसभा सीट उत्तर प्रदेश की राजनीति में काफी अहमियत रखती है. कभी कांग्रेस का गढ़ रही इस सीट से 1984 के बाद से अब तक कांग्रेस का कोई उम्मीदवार चुनाव नहीं जीत सका. 2024 के लोकसभा चुनाव में सपा-कांग्रेस गठबंधन से कांग्रेस उम्मीदवार इमरान मसूद चुनाव लड़ रहे हैं जिनकी लड़ाई बहुजन समाज पार्टी के माजिद अली और भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार राघव लखनपाल से है.
इसी सहारनपुर में एक कस्बा और विधानसभा क्षेत्र देवबंद भी है जहां विश्व प्रसिद्ध मदरसा दारूल उलूम है. दारुल उलूम वैसे तो इस्लामिक शिक्षण संस्थान के लिए जाना जाता है लेकिन राजनीति और राजनीतिक लोगों का भी यहां से पुराना नाता रहा है. कभी कई राजनीतिक दलों के दिग्गज नेता दारुल उलूम देवबंद में आकर राजनीतिक जमीन तलाशते थे और कई बार बड़े नेताओं ने चुनाव से पहले उलेमाओं की मदद मांगी लेकिन अब स्थिति यह हो गई है कि दारुल उलूम में नेताओं का प्रवेश निषेध कर दिया गया है.
राजनीति से परहेज
दारुल उलूम से जुड़े अशरफ उस्मानी बताते हैं कि चूंकि यह एक धार्मिक और शैक्षणिक संस्था है इसलिए इसका राजनीति से कोई लेना-देना नहीं है. उनके मुताबिक, संस्था के जिम्मेदार लोगों ने इसी वजह से नेताओं का प्रवेश बंद कर रखा है. हालांकि कुछ लोगों के मुताबिक, ऐसा इसलिए है कि कुछ लोग यहां के उलेमाओं के साथ तस्वीरों का गलत इस्तेमाल करने लगे थे इसीलिए नेताओं का आना बंद करना पड़ा.
दारुल उलूम मदरसे से पढ़ाई कर चुके देवबंद कस्बे के रहने वाले मोहम्मद यासीन बताते हैं, "हुआ यह कि 2009 में एक पार्टी के कोई बड़े नेता यहां आए और उन्होंने उस समय के प्रमुख मौलाना के साथ तस्वीर खिंचाई. उस तस्वीर का इस्तेमाल उन्होंने यह कहते हुए चुनाव में किया कि उन्हें देवबंद और वहां के मौलाना का आशीर्वाद हासिल है. मतलब, कुछ इस तरह कि जैसे दारुल उलूम चुनाव में उनका समर्थन कर रहा है. बस उसके बाद ही नेताओं के आने पर प्रतिबंध लगा दिया गया और हर चुनाव से पहले एक बयान भी जारी किया जाता है कि यहां राजनीति के लिए कोई जगह नहीं.”
हालांकि उससे पहले यहां राजनीति के कई दिग्गज पहुंचते रहे हैं. 1980 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी देवबंद के शताब्दी समारोह में पहुंची थीं. 2006 में राहुल गांधी आए थे, 2009 में मुलायम सिंह यादव, 2011 में अखिलेश यादव और 2019 में आरएसएस के घटक दल मुस्लिम राष्ट्रीय मंच के राष्ट्रीय संयोजक इंद्रेश कुमार भी आ चुके हैं. इनके अलावा मौलाना अबुल कलाम आजाद, फारुख अब्दुल्ला के पिता शेख अब्दुल्ला और उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत भी यहां का दौरा कर चुके हैं.
दारुल उलूम का असर
दारुल उलूम देवबंद की स्थापना 30 मई 1866 को हुई थी. इसकी स्थापना हाजी सैयद मोहम्मद आबिद हुसैन, फजलुर्रहमान उस्मानी और मौलाना कासिम नानौतवी द्वारा की गई थी. मौजूदा समय में यहां देश-विदेश के करीब साढ़े चार हजार छात्र इस्लामी तालीम हासिल करते हैं. मुस्लिम समाज दारुल उलूम के साथ किस कदर भावनात्मक तौर पर जुड़ा है, उसे इसी बात से समझा जा सकता है कि दारुल उलूम जब कोई फतवा जारी करता है तो उसे आमतौर पर हर मुस्लिम मानता है.
साल 2011 के बाद से दारुल उलूम ने राजनीतिक गतिविधियों की अनुमति देना भले ही बंद कर दिया हो लेकिन यहां से जुड़े जमीयत उलेमा-ए-हिंद का राजनीति से गहरा नाता रहा है. जमीयत के महासचिव मौलाना महमूद मदनी के पिता मौलाना असद मदनी कांग्रेस पार्टी से तीन बार राज्यसभा सांसद रहे जबकि मौलाना महमूद मदनी भी समाजवादी पार्टी से एक बार राज्यसभा पहुंच चुके हैं.
सहारनपुर लोकसभा सीट
सहारनपुर लोकसभा सीट की बात करें तो यहां करीब 18 लाख मतदाता हैं. फिलहाल यहां 10 उम्मीदवार मैदान में हैं लेकिन मुख्य मुकाबला बीजेपी, कांग्रेस और बीएसपी के बीच ही है. गंगा-यमुना के बीच बसे यूपी के इस शहर की सीमाएं हरियाणा, उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश से लगती हैं. साल 2019 के पिछले लोकसभा चुनाव की बात करें तो यहां से बीएसपी उम्मीदवार हाजी फजुर्लरहमान ने जीत दर्ज की थी. उन्होंने बीजेपी उम्मीदवार राघव लखनपाल को बीस हजार वोटों से हराया था.
सहारनपुर लोकसभा के तहत पांच विधानसभा क्षेत्र आते हैं. साल 2022 में हुए विधानसभा चुनावों में तीन सीटों पर बीजेपी और दो सीटों पर समाजवादी पार्टी ने जीत हासिल की थी. बीजेपी ने सहारनपुर नगर, देवबंद और रामपुर विधानसभा सीटें जीती थीं जबकि सहारनपुर देहात और बेहट विधानसभा सीटें समाजवादी पार्टी के खाते में गई थीं. लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी और कांग्रेस पार्टी का गठबंधन है इसलिए कांग्रेस उम्मीदवार की स्थिति मजबूत मानी जा रही है.
सहारनपुर लोकसभा सीट के इतिहास की बात करें तो 1952 से लेकर 1971 तक यहां कांग्रेस का ही दबदबा रहा है. इस सीट से दो बार अजित प्रसाद और दो बार सुंदरलाल सांसद चुने गए. 1977 में भारतीय लोकदल के उम्मीदवार रशीद मसूद ने इस सिलसिले को तोड़ा और 1980 में भी उन्होंने जीत दर्ज की लेकिन 1984 में कांग्रेस ने फिर वापसी की और जीत दर्ज की. लेकिन उसके बाद यहां सपा, बीएसपी और बीजेपी सभी पार्टियों के उम्मीदवार जीतते रहे, पर कांग्रेस का खाता नहीं खुल सका.
कांग्रेस उम्मीदवार इमरान मसूद इससे पहले 2014 में भी कांग्रेस के टिकट पर यहां से लोकसभा चुनाव लड़ चुके हैं और उस वक्त भी उनका मुकाबला बीजेपी के राघव लखनपाल से ही था. लेकिन राघव लखनपाल ने उन्हें करीब 68 हजार वोटों से हरा दिया था. 2019 में बीएसपी के हाजी फजलुर्रहमान ने राघव लखनपाल को करीब बीस हजार वोटों से हराया था लेकिन बीएसपी ने इस बार फजलुर्रहमान की बजाय माजिद अली को उम्मीदवार बनाया है.
कांशीराम यहीं से हारे थे
इस सीट के सामाजिक समीकरणों की बात करें तो यहां करीब एक तिहाई वोटर मुस्लिम समुदाय से आते हैं जबकि करीब 15 फीसद मतदाता दलित हैं. सवर्ण मतदाताओं की संख्या भी करीब इतनी ही है. बाकी पिछड़ी जातियां हैं जिनमें गुर्जर, सैनी इत्यादि हैं.
सहारनपुर लोकसभा सीट से बीएसपी के संस्थापक कांशीराम भी चुनाव हार चुके हैं. साल 1998 के लोकसभा चुनाव में वह तीसरे स्थान पर थे. बीजेपी उम्मीदवार नकली सिंह ने यहां से जीत दर्ज की थी और दूसरे नंबर पर कांग्रेस उम्मीदवार रशीद मसूद थे. रशीद मसूद का इस सीट पर राजनीतिक प्रभाव करीब चार दशक तक रहा. 1977 से लेकर 2004 के बीच वह सहारनपुर से लोकसभा सांसद और तीन बार राज्यसभा सांसद रहे. लेकिन साल 2013 में मेडिकल एडमिशन घोटाले में चार साल की सजा होने के बाद उनकी सदस्यता चली गई थी. किसी अपराध में दोष सिद्ध होने के बाद सदस्यता गंवाने वाले वह पहले सांसद थे. कांग्रेस उम्मीदवार इमरान मसूद रशीद मसूद के ही भतीजे हैं.
स्थानीय पत्रकार दिनेश सिंह कहते हैं, "छह लाख से भी ज्यादा मुस्लिम मतदाताओं समेत इमरान मसूद की अन्य मतदाता वर्ग में भी अच्छी पकड़ के चलते उन्हें मजबूत उम्मीदवार के तौर पर देखा जा रहा है. समाजवादी पार्टी का भी साथ है. लेकिन मुकाबले में पूर्व सांसद राघव लखनपाल भी कहीं से कमजोर नहीं हैं. बीएसपी ने भी चूंकि मुस्लिम उम्मीदवार उतारा है इसलिए उसका नुकसान भी इमरान मसूद को हो सकता है. पर बीजेपी के खिलाफ क्षत्रियों की नाराजगी ने बीजेपी उम्मीदवार की स्थिति जरूर कुछ कमजोर की है.”
सहारनपुर जिले के ननौता कस्बे में तीन दिन पहले क्षत्रिय महाकुंभ का आयोजन हुआ था जिसमें कई राज्यों के लोग पहुंचे थे. सम्मेलन में बीजेपी को हराने के लिए एकजुट होने का आह्वान किया गया. क्षत्रिय समाज के लोग कई बातों से बीजेपी से नाराज हैं और अब खुलकर विरोध में उतर आए हैं. विरोध की मुख्य वजह कुछ क्षत्रिय उम्मीदवारों का टिकट कटना और केंद्रीय मंत्री पुरुषोत्तम रुपाला का क्षत्रियों के खिलाफ दिया एक बयान बताया जा रहा है.
रुपाला ने एक कार्यक्रम में कहा था कि "राजपूत राजाओं ने अंग्रेजों के साथ रोटियां तोड़ीं और अपनी बेटियों की शादी उनसे की. लेकिन हमारे दलित समुदाय ने न तो किसी ने अपना धर्म बदला और न ही अंग्रेजों के साथ दोस्ताना संबंध स्थापित किए. जबकि उन पर सबसे अधिक अत्याचार हुआ.” (dw.com)