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‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : कल वोट डालने से पहले वोटर को सोचना चाहिए..
06-May-2024 4:08 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय :   कल वोट डालने से पहले वोटर को सोचना चाहिए..

छत्तीसगढ़ की बाकी लोकसभा सीटों के साथ देश में सौ से जरा कम, 95 सीटों पर 7 मई को वोट डलने जा रहे हैं। इनमें 12 राज्यों और केन्द्र प्रशासित प्रदेशों की सीटें हैं। ये राज्य इतने बिखरे हुए हैं कि इनमें किसी एक पार्टी या गठबंधन का बोलबाला नहीं दिख रहा है लेकिन खेमों में बंटा हुआ मीडिया, और सोशल मीडिया इसके पहले के दो दौर के मतदान का अपने-अपने हिसाब से विश्लेषण करते हुए, अपने पसंदीदा लोगों की जीत की मुनादी कर रहा है। दुनिया के 60 देशों में इस बरस चुनाव हो रहे हैं, और दुनिया के आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस विशेषज्ञ यह मान चुके हैं कि इस बार चुनावों को प्रभावित करने की कोशिशों में एआई के इस्तेमाल को रोक पाने का वक्त अब जा चुका है, और अब दुनिया की यह ताकत नहीं है कि चुनावों को इस प्रभाव से बचा सके। 60 देशों का मतलब दुनिया के चुनाव-आधारित देशों में से करीब एक तिहाई देश होता है, और अगर इनमें घरेलू पार्टियां, या विदेशी सरकार-कारोबार एआई की ताकत से वोटरों को प्रभावित करते हैं, तो जाहिर है कि चुनकर आने वाले लोकतंत्र बड़ी ताकतों की मर्जी के रहेंगे, और शायद बड़ी ताकतों के पांव दबाएंगे। 

भारत में भाजपा को छोड़ बाकी राजनीतिक दल चुनाव प्रचार के अपने परंपरागत तरीकों से निकल ही नहीं पा रहे हैं। भाजपा अकेली ऐसी पार्टी है जिसने अंतरराष्ट्रीय बाजार में मौजूद हर किस्म के औजार और हथियार का इस्तेमाल अपने चुनाव प्रचार में किया है, और लोकतंत्र इसकी इजाजत भी देता है। भाजपा की अगुवाई वाले एनडीए, और देश की बाकी राजनीतिक पार्टियों के बीच दूसरे तमाम मुद्दों को लेकर गैरबराबरी के हालात हो सकते हैं, शायद हैं भी, लेकिन कल्पनाशीलता और उसके आधार पर चुनावी तैयारी करने से तो भारत की सत्तारूढ़ पार्टी दूसरी पार्टियों को रोक नहीं सकती है। इस मामले में भी भारत का विपक्ष बुरी तरह पिछड़ा हुआ है। लेकिन इसके साथ-साथ देश की चुनाव आयोग सरीखी संवैधानिक संस्थाओं से लेकर देश की जांच एजेंसियों तक का जैसा अभूतपूर्व और असाधारण इस्तेमाल आज की मोदी सरकार कर रही है, वह भी अब तक सुप्रीम कोर्ट की नजरों के सामने लोकतांत्रिक-संवैधानिक सीमाओं और संभावनाओं के लचीलेपन का ऐतिहासिक इस्तेमाल है। अब सवाल यह भी उठता है कि अगर ऐसे इस्तेमाल के खिलाफ देश का विपक्ष और बाकी लोकतांत्रिक ताकतें सुप्रीम कोर्ट पहुंचकर गुहार नहीं लगा रही हैं, तो सुप्रीम कोर्ट अकेले तो विपक्ष की भूमिका निभा भी नहीं सकता। सुप्रीम कोर्ट ने मोदी सरकार को नापसंद आने वाले बहुत से फैसले पिछले कई महीनों में दिए हैं, इसलिए यह मानने की कोई वजह नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट चुनाव आयोग जैसी सत्ता-प्रतिबद्ध संस्था बन चुका है। अदालत के कई फैसले मोदी सरकार के लिए खासी दिक्कतें खड़ी कर चुके हैं, लेकिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी दुनिया की बुरी से बुरी विपरीत परिस्थिति से भी उबर जाने की अपनी क्षमता का सुबूत गुजरात के वक्त से देते आए हैं, और आज वह जारी भी है। ऐसे में देश में हाल के हफ्तों तक बिखरे, कमजोर, और असंगठित विपक्ष को लेकर अगर जनता में उत्साह कुछ कम दिखा है, तो यह भी सत्तारूढ़ पार्टी की कामयाबी रही है। 

लेकिन अचानक ही मतदान शुरू होने के बाद इस देश में इन कुछ हफ्तों में मोदी की अगुवाई में भाजपा के चुनावी एजेंडा में जो फेरबदल देखने मिल रहा है, वह लोगों को मतदाताओं के रूझान में एक फेरबदल सुझा रहा है। ऐसा है या नहीं, इसे परखने का हमारे पास कोई सर्वे नहीं है, लेकिन यह जरूर है कि पिछले कुछ हफ्तों में मोदी और उनकी पार्टी ने दस साल की अपनी कामयाबी के दावों को छोडक़र जिस तरह बहुत ही सतही और खूंखार मुद्दों को उठाया है, उससे लोगों को हैरानी हो रही है। आमतौर पर जो लोग मोदी के लिए हमदर्दी और तारीफ रखते हैं, वे भी कुछ हैरान दिख रहे हैं कि मुस्लिम से लेकर मंगलसूत्र तक जैसे गैरमुद्दों को सच से एकदम परे जाकर क्यों उठाया जा रहा है? क्या सरकार की सरकारी और निजी एजेंसियां देश में हवा के रूख के बदलने का इशारा कर रही हैं? 

मतदाताओं का रूझान और हवा का रूख, ये बातें बड़ी अमूर्त रहती हैं। इनका न चेहरा-मोहरा होता, न कद-काठी होती, ये सिर्फ कल्पना की बातें रहती हैं। इसलिए हम इनके आधार पर कल के मतदान के लिए लोगों को कुछ नहीं सुझा रहे हैं, लेकिन इतना जरूर है कि मतदाताओं को अधिक से अधिक वोट डालने के लिए जरूर कहना चाहते हैं। हमारा ख्याल है कि घर बैठने वाले वोटरों में से एक चौथाई भी अगर घंटे भर का वक्त निकालकर वोट डालने चले जाएंगे, तो नेताओं के कपड़े गीले हो जाएंगे। आज हर तरह की राजनीतिक अटकलबाजी, योजना, और चुनावी रणनीति पिछले चुनावों में वोटरों की गिनती पर आधारित रहती है। अगर वह गिनती ही दस-पन्द्रह फीसदी बदल जाएगी, तो नेताओं और पार्टियों के होश उड़ जाएंगे। लोकतंत्र में जनता को सबसे पहले तो यही करना चाहिए कि हर किसी को वोट डालने निकलना चाहिए, फिर चाहे वह वोट नोटा को ही क्यों न जाए। 

दूसरी बात यह है कि लोगों को अपने और अपनी अगली पीढ़ी के भले के लिए देश के असल मुद्दों को पहचानना सीखना चाहिए। किसी नाटक में मुखौटे लगाए हुए लोगों को देखना, उस प्रदर्शन के वक्त तक ही ठीक रहता है, उससे परे लोग अगर उन मुखौटों को ही हकीकत मान लेते हैं, तो इससे उनका नुकसान छोड़ और कुछ नहीं होता। लोगों को जिस नेता और पार्टी को वोट देना हो, उन्हें अपना फैसला जिंदगी और देश-प्रदेश के असल मुद्दों के आधार पर करना चाहिए। धर्म, जाति, अंधभक्ति, नफरत और हिकारत से लोकतांत्रिक फैसले नहीं करने चाहिए। अपने बच्चों को मकान की दीवारें चाहे कमजोर देकर जाएं, लोकतंत्र मजबूत देकर जाना चाहिए। भारत दुनिया का एक इतना बड़ा देश है कि यहां एक अच्छी या बुरी सरकार का बनना इस देश से परे, दुनिया को भी बहुत प्रभावित कर सकता है। इसलिए लोगों को पूरी धरती के प्रति अपनी जिम्मेदारी देखते हुए, देश के मुद्दों को देखते हुए, लोकतंत्र की बुनियादी समझ को ध्यान में रखते हुए वोट देना चाहिए। आज के वक्त यह कहना भी जरूरी है कि हिन्दुस्तान में चुनावों को ही लोकतंत्र मान लेना गलत है। चुनाव सिर्फ एक औजार है जो कि देश की अगली सरकार बनाने में काम आता है, लोकतंत्र तो सरकार से भी बहुत ऊपर होता है, दूसरी लोकतांत्रिक संस्थाओं से भी ऊपर होता है, वह बहुत ही व्यापक और अमूर्त होता है। ऐसे बेचेहरा लोकतंत्र को सिर्फ चुनाव की शक्ल में पहचानना सही नहीं होगा। सही तो यह होगा कि लोग चुनाव नाम के औजार का इस्तेमाल करने के पहले अपने देश के असल मुद्दों के बारे में सोचें, और उसके बाद वोट दें। जिंदगी की हकीकत, और उसके असल मुद्दों की फिक्र करने वाले तमाम लोगों को इस, और अगले कई चुनावों के लिए हमारी शुभकामनाएं।   

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 
 

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