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दिल बेचारा : सुशांत राजपूत की आखिरी फिल्म कैसी है?
25-Jul-2020 2:17 PM
दिल बेचारा : सुशांत राजपूत की आखिरी फिल्म कैसी है?

अजय ब्रह्मात्मज
फिल्म समीक्षक
मुंबई, 25 जुलाई।
मुमकिन है शहरी दर्शकों में से कुछ ने जॉन ग्रीन का उपन्यास ‘द फॉल्ट इन अवर स्टार्स’ पढ़ा हो और उस पर बनी हॉलीवुड की फिल्म भी देख ली हो।
फिर भी उन्हें इस फिल्म में नवीनता मिलेगी। शशांक खेतान और सुप्रतिम सेनगुप्ता ने उन्हें एक नए परिवेश में नए किरदारों के साथ पेश किया है। मूल उपन्यास और अंग्रेजी फिल्म का हिंदी में भारतीय एडाप्टेशन हिंदी फिल्मों की उन कहानियों/प्रेमकहानियों के परिचित दायरे में आ गया है, जहां आसन्न मृत्यु के बीच प्रमुख किरदारों का हर्ष-विषाद, प्रेम-तनाव, चिंता-आशंका और जीवन जी लेने की आकांक्षा रहती है। वर्तमान को भरपूर जीने का सन्देश रहता है।

मुकेश छाबड़ा निर्देशित ‘दिल बेचारा’ झारखंड के जमशेदपुर की किजी बासु और इम्मैनुएल राजकुमार जूनियर उर्फ मैनी की प्रेम कहानी है।

छोटे शहर की बड़ी कहानी
जमशेदपुर देश का अनोखा शहर है, जहां मुख्य रूप से देश के विभिन्न राज्यों से आए अलग-अलग धर्म, जाति और संप्रदाय के लोग बसे हैं। यह उद्योगपति टाटा का बसाया शहर है, जहां झारखण्ड राज्य की स्थानीयता अब दिखने लगी है। मिजाज से यह आज भी कॉस्मापॉलिटन छोटा शहर है।

जमशेदपुर के किजी (बंगाली), मैनी (ईसाई), जेपी (बिहारी), डॉ. झा और स्थानीय लहजे में बोलते अन्य सहयोगी किरदार वास्तविक लगते हैं। वे आरोपित और गढ़े हुए कृत्रिम चरित्र प्रतीत नहीं होते।

‘दिल बेचारा’ की नवीनता कथ्य से अधिक नैरेटिव में है। जांबिया में पैदा हुई बंगाली मां-पिता की बेटी किजी थायराइड कैंसर से पीडि़त है। ऑक्सीजन का छोटा सिलेंडर (पुष्पेंद्र) साथ लेकर चलती है। अपनी निश्चित मौत से परिचित किजी की किसी सामान्य युवती की तरह सोचने, जीने और प्रेम करने की तमन्ना खत्म हो चुकी है।

रोज-रोज की मेडिकल जांच और नसीहतों की वजह से मां-बाप के खास खयाल के बावजूद वह बंधी, उदास और बुझी-बुझी सी रहती है। दूसरी तरफ मैनी है। पता चलता है कि वह भी बोन कैंसर से ग्रस्त है, लेकिन वह बेफिक्र निराले अंदाज में जीता है। वह रजनीकांत का सुपर फैन है।

एक था राजा - एक थी रानी
दोनों की फिल्मी मुलाकात के बाद कहानी आगे बढ़ती है। ‘दिल बेचारा’ नानी की सुनाई पारंपरिक कहानी ‘एक था राजा, एक थी रानी। दोनों मर गए खत्म कहानी’ से अलग हो जाती है।

फिल्म में मैनी का एक संवाद है, ‘जन्म कब लेना है, मरना कब है, हम डिसाइड नहीं कर सकते, पर जीना कैसे हैं, वह हम डिसाइड कर सकते हैं।’ मैनी का यह जीवन दर्शन और जीवन शैली ‘आनंद’ जैसी कई फिल्मों की याद दिला जाता है, जहां मौत से जूझते किरदार अपनी जिंदादिली और जिजीविषा से जीवन का सन्देश दे जाते हैं।
‘दिल बेचारा’ देखते समय बरबस मैनी का किरदार निभाते सुशांत सिंह राजपूत की ऑफ स्क्रीन छवि उभरती है। उनसे हुई मुलाकातें याद आ जाती हैं। हाल ही में हुई उनकी असमय और अस्वाभाविक मौत का सच कौंधने लगता है। मैनी और सुशांत सिंह राजपूत किरदार और कलाकार की सोच, जिंदगी और मौत गड्डमड्ड होने लगती है।

फिल्म के संवादों में आगत की अनुगूँज सुनाई पड़ती है। फिल्म देखते हुए राजपूत की मौत से पैदा हुआ वैक्यूम गूँजने लगता है। एक संभावनाशील अभिनेता के ना होने का एहसास विचलित कर देता है। बमुश्किल अभी एक महीना गुजरा है।

ताजगी से भरी फिल्म
‘दिल बेचारा’ में एक ताजगी है। निर्देशक मुकेश छाबड़ा और उनके लेखकों ने किरदारों को अतिरिक्त भावुकता नहीं दी है। कलाकार भी अतिनाटकीयता और मेलोड्रामा से दूर है।

किजी, मैनी, जेपी और किजी के मां-पिता सहज और पडोसी आत्मीय चरित्र हैं। फिल्म का अधिकांश हिस्सा किजी के परिवार के आसपास ही है। मैनी के परिवार की झलक मात्र मिलती है। लेखकों ने उन्हें क्यों दरकिनार कर दिया है? बतौर दर्शक हम किजी की फिक करने लगते हैं। उसकी आकांक्षाओं को पूरी होता देखना चाहते हैं। मैनी के साथ हम भी चाहते हैं कि वह पेरिस जाए और अपने प्रिय संगीतज्ञ अभिमन्यु वीर(सैफ अली खान) से मिल सके। उनसे पूछ सके कि उन्होंने उसका फेवरिट गीत अधूरा क्यों छोड़ दिया? रोमांटिक शहर पेरिस के दृश्य किजी और मैनी के रोमांस में मुक्कमल करते हैं। हम सुखद अंत की ओर बढ़ रहे होते हैं कि कहानी दुखद मोड़ ले लेती है।

संजना सांघी और सुशांत सिंह राजपूत ने अपने किरदारों किजी और मैनी को पूरी संजीदगी और स्वाभाविकता से पर्दे पर उतारा है। संजना सांघी में किजी की झिझक,उम्र और मासूमियत है। सुशांत अपनी अदाकारी से मैनी को जीवंत करते हैं।

सुशांत के अभिनय की रेंज
हमें सुशांत सिंह राजपूत की रेंज दिखती है। ‘काय पो छे’, ‘शुद्ध देसी रोमांस’, ‘ब्योमकेश बख्शी’, ‘केदारनाथ’, ‘सोनचिडिय़ा’ और ‘छिछोरे’ के बाद ‘दिल बेचारा’ में वह अभिनय के नए-नए आयामों और गहनता को ज़ाहिर करते हैं।

लेकिन अचानक यह प्रतिभा... किजी के मां-पिता के रूप में शाश्वत चटर्जी और स्वस्तिका बनर्जी का चुनाव जबरदस्त है।

दोनों नेचुरल और अपने किरदारों के लिए उपयुक्त हैं। जेपी (साहिल वैद) ने कैंसरग्रस्त जिगरी दोस्त के रूप में मैनी का पूरा साथ दिया है। डॉ. झा (सुनीत टंडन) कैंसर डॉक्टर के रूप में जंचे हैं।

फिल्म के एक दृश्य में कैंसर के दर्द को सुशांत सिंह राजपूत ने बगैर संवादों के चेहरे के हाव-भाव से प्रभावी और वास्तविक बना दिया है। कैंसर के बेइंतहा दर्द से गुजर चुके और परिचित व्यक्ति इसे समझ सकते हैं।

‘दिल बेचारा’ में कैंसर की बीमारी और कैंसर को लेखक और निर्देशक ने मरीज की पीड़ा और परिवार की हमदर्दी और फिक्र के साथ पेश किया है।

‘दिल बेचारा में गीत-संगीत और नृत्य उल्लेखनीय है। फिल्म के शीर्षक गीत में पारंगत डांसर सुशांत सिंह राजपूत की चपलता, संतुलन और भावमुद्रा को फराह खान ने बहुत खूबसूरती से कैमरामैन सेतु की मदद से एक टेक में कैद किया है। सेतु ने पेरिस की सुन्दर झलक दी है। यह फिल्म की खासियत है। ए आर रहमान के संगीत में फिल्म के अनुरूप ध्वनियाँ और स्वर लहरियां हैं। वे एक अन्तराल के बाद हिंदी फिल्मों में लौटे हैं।

पहली फिल्म के लिहाज से कुछ कमियों के बावजूद मुकेश छाबड़ा आशान्वित करते हैं। (bbc.com/hindi)

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