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‘बंदिश बैंडिट्स’ इंडियन वेब सीरिज के पारंपरिक घराने की फिल्म नहीं लगती...
19-Aug-2020 1:57 PM
‘बंदिश बैंडिट्स’ इंडियन वेब सीरिज के पारंपरिक घराने की फिल्म नहीं लगती...

-रोहित देवेन्द्र शांडिल्य

अपने कपड़े-लत्ते, बातचीत और तहजीब से यह आउट साइडर लगती है। इतनी आउट साइडर कि ‘सेक्रेड गेम्स’ और ‘मिर्जापुर’ जैसी वेब सीरिज इसे अपने बगल बैठने तक ना दें।

बहुत अरसे बाद ओटीटी प्लेटफॉर्म पर कोई ऐसी फिल्म आई है जो साहस दिखाती है। साहस इस बात का कि क्या इस फोरम पर कोई ऐसा सिनेमा रचा जा सकता है जो सस्पेंस थ्रिलर या डार्क क्राइम से इतर किसी और विषय पर हो? क्या इस तरह के सिनेमा की गुजांइश बचती है जहां पर बोला जाने वाला हर पांचवा शब्द गाली ना हो? साहस इस बात का कि किरदारों की बातचीत में स्त्री-पुरुष के प्राइवेट पार्ट के नाम लिए बगैर भी ‘देशी’ रहा जा सकता है। इस लीक को तोडऩे का भी कि बिना अश्लील और गंवार हुए भी छोटे शहर की जिंदगी और उसके कथित ‘देशीपन’ को दिखाया जा सकता है। और सबसे बड़ा रिस्क इस बात का कि जब सेक्स और हवस को गिल्ट फ्री होकर दिखाने की छूट हो तो वह इतनी बड़ी छूट छोड़ी जा सकती है क्या?

बंदिश बैंडिट्स विषय के स्तर पर एक अलग फिल्म है। यह एक संगीत घराने की फिल्म है। संगीत घराने के उत्तराधिकार की कसमाकस के बीच कुछ यहां कुछ उपकथाएं भी हैं। उपकथाएं इस बात की हैं कि पॉप और क्लासिकल म्यूजिक के बीच कौन बेहतर कौन है? कुछ किस्से मोहब्बत के और कुछ जायज-नाजायज रिश्तों के भी है। पर फिल्म की जो ताकत है वह किरदारों को गढऩे और संगीत को जमाने में खर्च की गई है। यह पहली वेब सीरिज है जिसके म्यूजिक के वजन के आगे फिल्म का वजन पसंगा है।

फिल्म का विषय ही संगीत है। ज्यादातर मौकों पर यहां एक को दूसरे पर श्रेष्ठ साबित करने के लिए संगीत में श्रेष्ठ साबित करना होता है। इस सिलसिले में फिल्म के पास बहुत खूबसूरत किस्म के गीत आ गए हैं। कुछ गाने क्लासिकल म्यूजिक से जुड़े हुए हैं, वह अद्भुत तरीके से गाए और फिल्माए गए हैं। अपने म्यूजिक की वजह से यह वेब सीरिज हिंदी सिनेमा के उस दशक की याद दिलाती है जहां पर यह बात ज्यादा महत्वपूर्ण होती थी कि फिल्म का म्यूजिक कौन दे रहा है बजाय इस बात के कि फिल्म को निर्देशित कौन कर रहा है।

इस वेब सीरिज से म्यूजिक को छीन लेंगे तो यह एक औसत फिल्म बनकर कहीं अटक सी जाएगी। म्यूजिक के बाद जो चीज सबसे ज्यादा यहां प्रभावित करती है वह किरदारों पर किया गया काम है। दस ऐपीसोड की इस सीरिज में नसीरूद्दीन शाह के पास सब मिलाकर दस मिनट के भी डायलॉग नहीं रहें होंगे। लेकिन इस किरदार में ऐसी प्राण प्रतिष्ठा फूंकी गई कि हम नसीर द्वारा निभाए गए पंडित जी के किरदार की नस-नस वाकिफ हो जाते हैं। वह हमें हर सीन में मौजूद दिखते हैं, फिर वह चाहे फ्रेम में हों या नहीं।

फिल्म के लीड कैरेक्टर को रितिक भौमिक नाम के नए लडक़े ने निभाया है। उसकी ऐक्टिंग ठीक है, पर वो किरदार इतना महत्वपूर्ण है कि रितिक कई बार अपनी सीमाओं के आगे बेबस दिखते हैं। उनके चेहरे के मुंहासे भी हर बार उनका साथ नहीं देते। रितिक के इर्द-गिर्द नसीर, अतुल कुलकर्णी, शीबा चढढा, राजेश तैलंग, अमित मिस्त्री, कुणाल राय कपूर जैसे मजबूत कलाकारों की मौजूदगी भी रितिक को कमजोर दिखाने के लिए काफी होती है। रितिक की तरह फिल्म के बहुत सारे फुटेज त्रिधा चौधरी नाम की नई लडक़ी के पास आते हैं। पूरी फिल्म में ऐसा लगा कि वह त्रिधा, एबीसीडी वाली श्रद्वा कपूर बनना चाहती हैं।

इस फिल्म के म्यूजिक के लिए शंकर एहसान लॉय के पिछले सारे पाप माफ किए जा सकते हैं। संगीत गढऩे के साथ उन्होंने यहां गाया भी खूब अच्छा है। पंडित अजय चक्रवर्ती जैसी शास्त्रीय गायकों के साथ यहां अपेक्षाकृत नए सिंगर फरीद हसन और मोहम्मद अमन कमाल करते हैं। फिल्म के क्लाइमेक्स में इन दोनों ने जिस जुगलबंदी को गाया है यकीन मानिए आप कई बार उलट-पलट के वही सीन देखते जाते हैं।

एक निर्देशक के रुप में आनंद तिवारी लंबी छलांग लगाते हैं। संगीत की दुनिया के दांवपेच समझाने के साथ-साथ उन्होंने छोटी-छोटी बातों का भी भरपूर ख्याल रखा। जिस तरह की कॉमिक टाइमिंग वह अपने अभिनय में रखते हैं समय की वही पकड़ आनंद के निर्देशन में भी दिखती है। वह एक सक्षम और बड़े निर्देशक बनकर उभरे हैं।

यह सीरिज आपको देखनी चाहिए। ना देख सकें तो गाने तो देख-सुन ही लें...

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