राष्ट्रीय
आधुनिक समाज में जब पहली बार किसी महिला ने अपने अधिकारों के लिए घर से बाहर क़दम रखा होगा तब शायद ही किसी ने उम्मीद की होगी कि महिलाएं एक दिन बड़ी संख्या में सड़कों पर उतरेंगी. लेकिन, वो समय आया और महिलाएं ना सिर्फ़ अपने समुदाय के बल्कि सभी के अधिकारों के लिए सड़क की लड़ाई लड़ रही हैं.
चाहे शाहीन बाग़ की दादियाँ हों या पुलिस से भिड़ती कॉलेज की लड़कियाँ या फिर कृषि बिलों के ख़िलाफ़ गाँव-गाँव से राष्ट्रीय राजधानी का सफ़र तय करने वालीं महिलाएं.
औरतें अब चुपचाप सब कुछ होते नहीं देखतीं, वो बदलाव का हिस्सा बनती हैं. वो कभी शांत प्रदर्शनकारी होती हैं तो कभी सरकारों से लोहा लेतीं, पुलिस की लाठियों का मुक़ाबला करतीं मज़बूत महिलाएं होती हैं.
महिलाओं की ये ताक़त अब मीडिया और सोशल मीडिया भी पहचान रहा है. वो बाहर आ रही हैं, खुलकर बात कर रही हैं और कोई उन्हें नज़रअंदाज़ नहीं कर पा रहा है.
नागरिकता क़ानून और कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ हो रहे विरोध प्रदर्शनों में महिलाओं ने बढ़चढ़कर हिस्सा लिया.
इन मुद्दों पर विरोध होना चाहिए या नहीं, इस पर अलग-अलग राय हो सकती है लेकिन इन विरोध प्रदर्शनों को महिलाओं से ताक़त मिली, इससे इनकार नहीं किया जा सकता.
लेकिन, विरोध प्रदर्शनों के अलावा इस ताक़त का संचार कहाँ तक हुआ है? महिलाओं की ये दृढ़ता और साहस क्या समाज में आए किसी परिवर्तन का संकेत है और ये परिवर्तन कितनी दूर जा सकता है?
स्त्रियों की एक शिक्षित पीढ़ी
विरोध प्रदर्शनों में महिलाओं की बढ़ती भागीदारी को लेकर वरिष्ठ पत्रकार गीता श्री कहती हैं, “महिलाएं अपने आसपास के समाज को लेकर ज़्यादा जागरूक और मुखर हुई हैं और अब उन्हें लगने लगा है कि उनका दायरा सिर्फ़ घर तक नहीं है, उनका संसार बढ़ा है. अब वो सचेतन विवेकशील स्त्री है जो समूचे समाज के बारे में अपनी राय रखती है.”
गीता श्री कहती हैं कि स्त्रियों की एक पूरी पीढ़ी शिक्षित होकर तैयार हो गई है और उस पीढ़ी को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता. वो इन बदलावों के साथ पैदा हुई है, जो चुपचाप सबकुछ नहीं मान लेती. इन शिक्षित महिलाओं की संगति में पुरानी पीढ़ी भी बदल रही है.
वहीं, इसे लेकर अखिल भारतीय प्रगतिशील महिला एसोसिएशन की सचिव कविता कृष्णन का कहना है कि महिलाओं की विरोध प्रदर्शनों में हमेशा भागीदारी रही है लेकिन इस दौर में वो ज़्यादा दिखने लगी हैं. अब उन्हें मीडिया और सोशल मीडिया ज़्यादा महत्व देता है और उनका नेतृत्व भी ज़्यादा स्पष्ट दिखाई पड़ता है.
वो कहती हैं, “औरतें आज एक मुश्किल दौर में लड़ रही हैं. उन्हें धमकियां मिलती हैं, गिरफ़्तारी का डर भी होता है लेकिन फिर भी वो बहुत बहादुरी से आगे आ रही हैं.”
निर्भया मामले से लेकर किसान मार्च तक
महिलाओं में ये सजगता और साहस पहले भी कई मौक़ों पर दिखा है. दिसंबर 2012 में निर्भया मामले के बाद इंडिया गेट पर अपने हौसले और दृढ़ता से महिलाओं ने सरकार को यौन हिंसा के ख़िलाफ़ सख़्त क़ानून बनाने के लिए बाध्य किया.
महाराष्ट्र में मार्च 2018 में नासिक से मुंबई तक किसानों ने एक लंबी रैली निकाली. इसमें महिला किसानों ने भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया. उनके छिले हुए नंगे पैरों की तस्वीरें आज भी इंटरनेट पर मिल जाती हैं.
इसके बाद नवंबर 2018 में क़र्ज़ माफ़ी की माँग को लेकर देश के अलग-अलग हिस्सों से किसान महिलाएं विरोध प्रदर्शन के लिए दिल्ली पहुँची थीं.
महिलाओं की इस ताक़त में उम्र की कोई सीमा नहीं है. युवा, उम्रदराज़ और बुज़ुर्ग, हर उम्र की महिला के हौसले बुलंद नज़र आते हैं.
सबरीमाला मंदिर हो या हाजी अली दरगाह, यहां महिलाओं के प्रवेश को लेकर कई महिलाएं हिंसक प्रदर्शनकारियों के सामने अपनी जान जोख़िम में डालकर भी मंदिर पहुँचीं.
युवा लड़कियों की भागीदारी
23 साल की सामाजिक कार्यकर्ता नेहा भारती कई विरोध प्रदर्शनों में शामिल होती रही हैं. वो बताती हैं कि वो अन्ना आंदोलन से लेकर अब तक के कई प्रदर्शनों में अपने दोस्तों के साथ जाती रही हैं.
पढ़ाई और करियर पर फ़ोकस करने वाली नौजवान लड़कियों के इनमें हिस्सा लेने को लेकर नेहा कहती हैं, “पढ़ाई और करियर अपनी जगह है लेकिन जब आप किसी मुद्दे से बड़ी संख्या में लोगों को प्रभावित होता देखते हैं, तो आप चुप नहीं रह सकते. हमें लगता है कि हमें उसका हिस्सा होना चाहिए. वहीं, बुज़ुर्ग महिलाएं जो दिन रात विरोध प्रदर्शनों में डटी रही हैं वो हमारी प्रेरणा बनती हैं.”
वो कहती हैं, “हमारे लिए सब कुछ आसान भी नहीं होता. जैसे, कुछ लड़कियों के परिवार के लोग विरोध प्रदर्शनों के नाम पर डर जाते हैं. इस कारण एक लड़की को कई दिनों तक घर पर ही रहना पड़ा था. लेकिन, इससे बड़ी समस्या होती है, हमें मिलने वाली धमकियां. मुझे कई बार बलात्कार और अपहरण की धमकी मिल चुकी है. हालाँकि, इसके बाद भी हम रुके नहीं हैं.”
वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी भी कहती हैं, “विरोध प्रदर्शनों में आती कॉलेज और विश्वविद्यालयों की लड़कियाँ आज इस तरह आक्रामक हैं, जैसी पहले बहुत कम देखी गईं थीं. इन नौजवान लड़कियों में बहुत ऊर्जा है और वो ही बदलाव की बयार बहा सकती हैं. उनमें अकांक्षाएँ हैं और उन्हें लगता है कि वो कुछ भी कर सकती हैं.”
वो कहती हैं कि महिलाओं ने स्वतंत्रता आंदोलन में भी हिस्सा लिया था. उनके बिना अंग्रेज़ों को बाहर करना नामुमकिन माना गया. लेकिन, आज़ादी के बाद उन्हें राजनीतिक और सामाजिक तौर पर वो नहीं मिला जिसकी वो हक़दार थीं. लेकिन वो उनके तैयार होने का समय था.
वो पर्दे में थीं, शिक्षा और अन्य अधिकारों के लिए संघर्ष कर रही थीं. लेकिन, 80 के दशक में महिला आरक्षण की माँग उठी, भले ही उसका कुछ हो नहीं पाया और अब तो हम एक अलग ही माहौल देख रहे हैं.
औरतों के इस प्रदर्शन से क्या बदलेगा?
जानकार ये भी मानते हैं कि महिलाओं का इस तरह सड़क पर उतरना सिर्फ़ विरोध प्रदर्शनों तक सीमित नहीं है. इसके दूरगामी परिणाम हैं. इससे न सिर्फ़ उनमें अंदरूनी ताक़त बढ़ी है बल्कि वो दूसरी स्त्रियों को भी ताक़त और हौसला दे रही हैं.
जब वो पुलिस और प्रशासन को चुनौती देकर हिम्मत से खड़ी होती हैं तो वो साहस उनके व्यक्तित्व का हिस्सा बन जाता है. उन्हें टीवी पर देख रहीं बच्चियाँ और महिलाएँ स्त्री की एक अलग ही छवि देख पाती हैं.
गीता श्री कहती हैं, “अब आप आसानी से महिलाओं पर पाबंदियाँ और बंदिशें नहीं लगा सकते. आने वाले समय में और आक्रामक लड़कियां तैयार हो रही हैं जिनकी हर मुद्दे पर अपनी राय, समझ है और अपना चुनाव है. विरोध प्रदर्शनों में स्त्रियों की भागीदारी और बढ़ेगी और वो नेतृत्व में आएंगी.”
वो कहती हैं, “पहले स्त्रियों को लेकर समाज बहुत बड़े सपने नहीं देखता था. लेकिन, अब उन्हें लेकर समाज, परिवार और स्त्रियों के सपने बदले हैं. लड़कियों की महत्वाकांक्षाएँ बढ़ी हैं और माता-पिता भी बेटी को आगे बढ़ते देखना चाहते हैं. इसे लोगों ने स्वीकार कर लिया है भले ही उसके पीछे जागरूकता कारण हो या आर्थिक ज़रूरत. यही सोच अब और मज़बूत होती जाएगी.”
वहीं, कविता कृष्णन कहती हैं कि महिलाओं को आंदोलनों में निकलते देखे जाने के राजनीतिक और सामाजिक प्रभाव ज़रूर हैं.
वो कहती हैं, ''बिना संघर्ष के तो आप पितृसत्ता को ख़त्म नहीं कर सकते. जब हम लड़ते हुए महिलाओं को देखते हैं तो एक ताक़त मिलती है और ज़्यादा लड़ने की इच्छा होती है. साथ ही महिलाओं के लिए नेतृत्व का रास्ता भी खुलता है. ''
महिलाओं का इस्तेमाल?
महिलाओं के विरोध प्रदर्शनों में शामिल होने को लेकर कई बार कहा जाता है कि उन्हें जानबूझकर विरोध का चेहरा बनाया गया है. क्योंकि पुलिस महिलाओं पर कठोर कार्रवाई से बचती है और मीडिया भी उन पर विशेष ध्यान देती है.
कविता कृष्णन इस बात से साफ़ तौर पर इनकार करती हैं.
वो कहती हैं, “इससे उन लोगों की सोच का पता चलता है कि वो महिलाओं को कितना फ़ालतू समझते हैं. महिलाओं पर कहाँ पुलिस की कार्रवाई कम होती है. यहां महिलाएं भी उतनी ही लाठियाँ खाती हैं और गिरफ़्तारी झेलती हैं. उन महिलाओं से बात करें तो आपको पता चलेगा कि वो मुद्दे को समझती हैं या नहीं. वो क्या किसी के बहकावे में कई-कई दिनों तक आंदोलन में डटी रहेंगी? ये उनकी अपनी समझ और प्रेरणा है.”
वहीं, गीता श्री कहती हैं कि पहले ऐसा हुआ है. राजनीतिक दलों ने ऐसा कई बार किया है. लेकिन, ये भी नहीं है कि उन स्त्रियों को मालूम नहीं होता कि वो क्यों आई हैं. अगर वो मुद्दे से सहमत नहीं होंगी तो लाठी खाने क्यों आएंगी? ये इस्तेमाल की बात नहीं है. पुरुष भी ये बात समझते हैं कि स्त्रियों को बिना शामिल किए कोई आंदोलन सफल नहीं हो सकता.
वो मानती हैं कि ये सकारात्मक भी है. भले ही वो किसी भी वजह से बाहर निकली हों लेकिन जब निकली हैं तो उनकी शक्ति का पता भी चल रहा है. स्त्रियों को भी अपनी शक्ति का पता चल रहा है कि वो क्या कर सकती हैं. वो सिर्फ़ चूल्हा नहीं फूँक सकतीं बल्कि सरकार की नींद भी फूँककर उड़ा सकती हैं. (bbc)