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ट्रंप के लिए सोशल मीडिया की पाबंदी की कारगर काट खोजना मुश्किल
13-Jan-2021 2:41 PM
ट्रंप के लिए सोशल मीडिया की पाबंदी की कारगर काट खोजना मुश्किल

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ज़ुबैर अहमद

पिछले सप्ताह अमेरिकी संसद में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के समर्थकों द्वारा ग़ैर क़ानूनी और जबरन प्रवेश के बाद ट्विटर, फ़ेसबुक और इंस्टाग्राम जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ने राष्ट्रपति ट्रंप पर हमेशा के लिए प्रतिबंध लगा दिया है. इनके साथ इनके 70,000 समर्थकों के एकाउंट्स भी निलंबित कर दिए गए हैं.

राष्ट्रपति ट्रंप बार-बार बिना सबूत के डेमोक्रेटिक उम्मीदवार जो बाइडन की 3 नवंबर की चुनावी जीत की वैधता को चुनौती देते रहे हैं. पिछले बुधवार को उनके एक भाषण के बाद उनके समर्थक अमेरिकी संसद की इमारत में घुस आए. उस समय वहां सीनेट और हाउस में अधिवेशन जारी था जिसमें जो बाइडन की जीत की पुष्टि होनी थी, जो महज़ एक औपचारिकता थी. लेकिन इस भीड़ द्वारा हिंसा के कारण सदस्यों को इमारत से निकाल कर सुरक्षित जगह पर पहुँचाना पड़ा.

इस हिंसा में पांच लोगों की मृत्यु हो गयी. सियासी नेताओं ने ट्रंप के भड़काऊ भाषण को इस हिंसा का ज़िम्मेदार ठहराया. लेकिन टेक्सास में अपने ताज़ा बयान में राष्ट्रपति ने बुधवार को भड़काऊ भाषण देने के इलज़ाम को ग़लत बताते हुए कहा कि उनका 'बयान मुनासिब था.'

राष्ट्रपति ट्रंप के ख़िलाफ़ लगे प्रतिबंध पर क़ानूनी विशेषज्ञ इस बहस में जुटे हैं कि क्या ये क़दम ग़ैर क़ानूनी है? स्वयं राष्ट्रपति के बेटे डोनाल्ड ट्रंप जूनियर ने ट्विटर पर लगी पाबंदी के बाद कहा, "फ्री-स्पीच अब अमेरिका में मौजूद नहीं है."

लेकिन दूसरी तरफ़ उनके समर्थक इस बात के लिए उत्साहित हैं कि उनका अपना एक अलग सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म हो जिसमें वो आज़ादी से अपने विचार शेयर कर सकें. ख़ुद राष्ट्रपति ने कहा है कि वो एक नया सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म शुरू करने का इरादा रखते हैं.

लेकिन एक नया सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म बनाना कितना आसान है? या फिर क्या ट्विटर, फ़ेसबुक और इंस्टाग्राम जैसे प्लेटफॉर्म का कोई विकल्प है, जिसकी पहुँच इन्हीं प्लेटफॉर्म जैसी हो और वो दुनिया भर में इन्हीं की तरह लोकप्रिय हों?

नया प्लेटफॉर्म बनाना कितना आसान?
ये सवाल हर उस व्यक्ति के दिमाग़ में होगा जो अपने विचार के प्रचार के लिए इन फ्री सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म का रोज़ इस्तेमाल करते हैं लेकिन उन्हें डर लगा रहता है कि उनके विचारों के कारण कहीं उनपर पाबंदी न लग जाए.

न्यूयॉर्क में भारतीय मूल के योगेश शर्मा सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म बनाने के क्षेत्र में काम करते हैं और अमेरिका में डिमांड में हैं.

इससे पहले कि वो हमारे सवाल का जवाब देते, वो कहते हैं "ज़रा सोचिये अगर फ़ेसबुक और ट्विटर न हो तो बीजेपी भक्त और ट्रोल कहाँ जायेंगे?".

उनके मुताबिक़ वो नया प्लेटफॉर्म खोलने की कोशिश करेंगे, क्योंकि उनके अनुसार ये बहुत मुश्किल काम नहीं है.

सैद्धांतिक रूप से अगर आपके पास पर्याप्त पूँजी हो, टेक्नोलॉजी हो और फॉलोवर्स हों तो एक नया सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म बनाना आसान होना चाहिए.

योगेश शर्मा कहते हैं, "देखिये, अपना सोशल प्लेटफॉर्म बनाना मुश्किल नहीं है. संभावित रूप से एक साथ 70 मिलियन समर्थक (ट्रंप के) एक नए प्लेटफॉर्म से जुड़ सकते हैं. इस बड़े नंबर को हलके में नहीं लेना चाहिए. इसलिए ऑडियंस या स्वीकृति का कोई मुद्दा नहीं है."

इस तर्क को आगे ले जाने की कोशिश में वो कहते हैं, "प्रचारकों, मुल्लाओं और ढोंगी बाबाओं के लिए मंच हमेशा उपलब्ध होता है या नया प्लेटफॉर्म बनाया जा सकता है".

योगेश आगे कहते हैं, "हाल ही में फ्लोरिडा के एक प्रसिद्ध हेयरड्रेसर ने एक नया प्लेटफॉर्म बनाने के लिए मुझसे संपर्क किया. एक सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म बनाने के लिए आपको एक अच्छा बुनियादी ढाँचा, नवीनतम टेक्नोलॉजी और ढेर सारी पूँजी की आवश्यकता है. संक्षेप में, मैं इस तरह के प्लेटफॉर्म का निर्माण कर सकता हूं और दर्शक भी हासिल कर सकता हूँ चाहे वो अमेरिका हो या कहीं और."

सैद्धांतिक रूप से नया प्लेटफॉर्म बनाना आसान तो है लेकिन वास्तविकता ये है कि स्थापित सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म से कोई नया प्लेटफॉर्म मुक़ाबला नहीं कर सकता.

अमेरिका में मैसाचुसेट्स इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी के प्रोफेसर डंकन फर्गुसन अपने एक लेख में लिखते हैं, "ज़मीनी हकीक़त ये है कि स्थापित सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म और अमेज़न जैसी कंपनियों के दायरे में रह कर कुछ नया काम करना असंभव है. आप की नई कंपनी जैसे ही अच्छा करने लगेगी वो आपको खरीद लेंगे. ये वो शार्क हैं जो छोटी मछलियों को देखते ही निगल लेते हैं."

ज़रा इस ज़मीनी हक़ीक़त पर ग़ौर कीजिए - हर महीने फ़ेसबुक के 2.3 अरब यूज़र हैं, यूट्यूब के 1.9 अरब यूज़र, व्हाट्सऐप के 1.5 अरब यूज़र, मैसेंजर के 1.3 अरब यूज़र और इंस्टाग्राम के 1 अरब यूज़र.

इनके सामने किसी नए प्लेटफॉर्म का टिकना लगभग असंभव है. ये सारे बड़े सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म अमेरिका के सिलिकन वैली में स्थित हैं, यहीं इनका जन्म हुआ और यहीं ये पनप रहे हैं. इनकी पहुँच और इनके फॉलोअर्स दुनिया भर में हैं.

इनके बीच एक चीनी प्लेटफॉर्म वीचैट ही टिक पाया है जिसके हर महीने यूज़र 1 अरब से अधिक हैं. ट्विटर 12 वें पायदान पर है जिसकी पहुँच हर महीने 33 करोड़ से थोड़ा ज़्यादा है.

पार्लर का गठन, लेकिन उदय से पहले पतन?
कंज़र्वेटिव लोगों (रुढ़िवादियों) के बीच लोकप्रिय सोशल मीडिया नेटवर्क पार्लर (Parler) इस बात का जीता जागता सबूत है कि सिलिकन वैली के सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के सामने टिकना कितना कठिन है.

इस प्लेटफॉर्म को अब एपल, गूगल और अमेज़न ने प्रतिबंधित लगा दिया है, इन कंपनियों का इल्ज़ाम है कि पार्लर ने ऐसी पोस्टों को जगह दी है जो हिंसा को स्पष्ट रूप से प्रोत्साहित करती हैं और उकसाती हैं.

इन कंपनियों का इलज़ाम है कि पार्लर ने ऐसी पोस्टों को जगह दी है जो हिंसा को स्पष्ट रूप से प्रोत्साहित करती हैं और उकसाती हैं.

पार्लर को 2018 में लॉन्च किया गया था और कंपनी के अनुसार इसके 3 मिलियन एक्टिव यूज़र हैं, जिनमें भारी संख्या उन लोगों की है जो राष्ट्रपति ट्रंप के समर्थक हैं. कुछ रिपोर्ट में कहा गया है कि इसके फॉलोवर्स की संख्या 16 मिलियन है. राष्ट्रपति ट्रंप के परिवार के कुछ सदस्य भी इसके मेंबर हैं.

कनाडा के शहर वेंकुअर से भारतीय मूल के सौरभ वर्मा ने फ़ोन पर बताया कि अमेरिका के 'टेक एको सिस्टम' में एक ऐसे नए प्लेटफॉर्म का लॉन्च होना मुश्किल है जिसके फॉलोवर्स दक्षिण पंक्ति या ट्रंप समर्थक हों."

वो कहते हैं, "देखिये बुनियादी तौर पर सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म सियासी नहीं आर्थिक फायदे के लिए वजूद में आयी हैं. इनका ख़ास मक़सद पैसे कमाना है. लेकिन पिछले कुछ सालों में विभाजित करने वाली शख्सियतों और तत्वों के कारण ये प्लेटफॉर्म वैचारिक युद्ध का अखाड़ा बन गए हैं. ये सियासी हो गए हैं. सिलिकन वैली में पनपे प्लेटफॉर्म को शुरू करने वाले लोग युवा पीढ़ी के हैं और वो अक्सर लिबरल विचारधारा के होते हैं. यही कारण है कि वो दक्षिणपंथी तत्वों के ख़िलाफ़ होते हैं. ऐसे में दक्षिण पंथी वाले पार्लर जैसे प्लेटफॉर्म को वो केवल सह सकते हैं मगर इसे आगे नहीं बढ़ने देंगे."

शायद इसीलिए पार्लर Parler को ऐपल, गूगल और अमेज़न ने प्रतिबंधित कर दिया है. अमेज़न के क़दम से पार्लर को सबसे अधिक झटका लगा है क्योंकि वह अमेज़न का क्लाउड सर्वर पर चलता था. अब पार्लर ने अमेज़न के ख़िलाफ़ मुक़दमा कर दिया है.

पार्लर का इलज़ाम है कि अमेज़न को चाहिए था कि पाबंदी लगाने से पहले वो कॉन्ट्रैक्ट के मुताबिक़ एक महीने का नोटिस जारी करे. लेकिन पाबंदी अचानक लगाई गई. पार्लर के अनुसार ऐमेज़ॉन का फैसला इसके लिए इसे "मौत का झटका" देने जैसा है.

इन दिनों पार्लर की वेबसाइट डाउन है और इस ऐप को गूगल के प्लेस्टोर या एप्पल के ऐप स्टोर से डाउनलोड भी नहीं किया जा सकता.

लेकिन सौरभ वर्मा के अनुसार पार्लर या कोई भी नया प्लेटफॉर्म अगर चाहे तो चीन या रूस के एको सिस्टम में रह कर लॉन्च कर सकता है. "सिलिकन वैली में अगर आपको लोग टिकने नहीं देना चाहते हैं तो आप चीन और रूस जा कर एक नया प्लेटफॉर्म शुरू कर सकते हैं. मगर इसमें सिक्योरिटी और डाटा की सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं है और अगर सर्वर आपका चीन में है तो पश्चिमी देश के फॉलोवर आप से जुड़ना नहीं चाहेंगे."

मौजूदा प्लेटफॉर्म में कोई विकल्प है?
अब सवाल ये है कि राष्ट्रपति ट्रंप अपने समर्थकों तक पैग़ाम पहुंचाने के लिए किस प्लेटफॉर्म का सहारा लें? रोज़ दो-तीन ट्वीट करने वाला आदमी अब क्या करे?

बड़े सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के बाद अब ट्विच, रेडिट और टिक टॉक जैसे प्लेटफॉर्म ने भी राष्ट्रपति पर शिकंजा कसा है और उनके अकाउंट को निलंबित कर दिया है. अब वो कहाँ जायेंगे?

एक संभावना है कि ट्रंप गैब (Gab) से जुड़ सकते हैं. ये ट्विटर की तरह एक सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म है जो अमेरिका में दक्षिणपंथियों के बीच काफ़ी लोकप्रिय है. अमरीकी संसद में हिंसा के बाद से इसका दावा है कि इसने छह लाख नए यूज़र बनाए हैं.

रॉयटर्स समाचार एजेंसी के अनुसार राष्ट्रपति ट्रंप अपने कार्यकाल के आख़िरी कुछ दिन संचार के अधिक परंपरागत तरीकों, मेनस्ट्रीम ट्रेडिशनल मीडिया या छोटे दक्षिणपंथी ऑनलाइन चैनलों का सहारा लेने पर मजबूर हो सकते हैं.

राष्ट्रपति ट्रंप के समर्थक फेसबुक-स्टाइल के प्लेटफॉर्म मीवी (MeWe) से भी तेज़ी से जुड़ रहे हैं लेकिन ये अब भी काफ़ी छोटा प्लेटफॉर्म है जिसे अमेरिका से बाहर शायद ही कोई जानता हो.

योगेश शर्मा के विचार में राष्ट्रपति ट्रंप जिस प्लेटफॉर्म को साइन अप करेंगे उस प्लेटफॉर्म के फॉलोवर्स की संख्या बढ़ेगी, अगर उनके सात करोड़ से अधिक समर्थक किसी प्लेटफॉर्म से जुड़ जाएँ तो एक विज्ञापनदाता के लिए अच्छी खबर होगी लेकिन किसी भी ऐसे प्लेटफॉर्म को पहले सिलिकन वैली की बड़ी कंपनियों के शिकंजे से निकलना पड़ेगा और कनाडा में सौरभ वर्मा के अनुसार ये सब से कठिन काम होगा. (bbc.com)

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