राष्ट्रीय
SHURAIH NIYAZI/BBC
शुरैह नियाज़ी
मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) से ताल्लुक़ रखने वाली एक संस्था की ज़मीन का मामला विवादों में आ गया है.
इस ज़मीन के टुकड़े को लेकर शनिवार को वक्फ़ ट्राइब्यूनल में सुनवाई हुई, जिसमें सभी पक्षों ने अपनी बात रखी.
इसके बाद सुनवाई की अगली तारीख़ 27 जनवरी की तय की गई है, जब ट्राइब्यूनल अपना फ़ैसला देगी.
विवाद की वजह 2.88 एकड़ ज़मीन है जिसमें क़ब्रिस्तान होने का दावा भी किया जाता रहा है.
इस ज़मीन की ख़ास बात यह है कि इस पर आरएसएस से जुड़े ट्रस्ट को अधिकार दिलवाने के लिये पुराने शहर के तीन थाना क्षेत्रों में 17 जनवरी को कर्फ़्यू लगाया गया था. अभी भी यहाँ पुलिसबल को तैनात कर आम लोगों की आवाजाही रोकी गई है.
संघ से जुड़ा राजदेव जनसेवा ट्रस्ट इस विवादित ज़मीन पर चारदीवारी बनवा रहा है. यहाँ पर संघ एक छात्रावास भी बनाना चाहता है. इस जगह पर तीन पुरानी क़ब्रें भी हैं.
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वक्फ़ की संपत्तियों की निगरानी करने वाली संस्था औकाफ़ यहां पर क़ब्रिस्तान होने का दावा करती रही है.
वहीं इस जगह पर मिली क़ब्र को संघ ने कवर करा दिया है और कहा है कि उतनी जगह पर निर्माण नहीं किया जाएगा.
भोपाल के कलेक्टर अवनीश लवानिया ने 16 जनवरी को एक आदेश जारी कर तीन थाना क्षेत्रों में कर्फ़्यू और उससे लगे आठ थाना क्षेत्रों में धारा-144 लगा दी थी.
नतीजन, शहर का लगभग आधा हिस्सा, जिसे 'पुराना भोपाल' भी कहा जा सकता है, पूरी तरह से बंद नज़र आ रहा था. इन इलाकों में लोगों के आने-जाने पर भी पाबंदी लगा दी गई थी.
भोपाल के डीआईजी इरशाद वली ने कहा, "ये सारे क़दम ऐहतियात के तौर शहर में किसी भी तरह से क़ानून व्यवस्था को ख़राब होने से बचाने के लिये लगाए गए थे."
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मगर एक ख़ास संस्था को ज़मीन का हक़ दिलाने के तरीके को लेकर भी एक वर्ग को आपत्ति है.
मुस्लिम विकास परिषद के प्रदेश अध्यक्ष मोहम्मद माहिर ने बीबीसी से कहा, "ये सब बताता है कि किस तरह से सरकार एक संस्था के पक्ष में खड़ी होती है और पूरे शहर में ख़ौफ़ का माहौल पैदा कर देती है.''
उन्होंने कहा, "अभी जो मध्य प्रदेश में चल रहा है वो बताता है कि किसी तरह बहुसंख्यकों के हित में काम किया जा रहा है और एक वर्ग विशेष को राजनीतिक कारणों से नज़रअंदाज़ किया जा रहा है."
प्रशासन का दावा है कि साल 2001 में भी ऐसी स्थिति पैदा हुई थी, जब इस ज़मीन को लेकर दोनों पक्ष आमने-सामने आ गये थे.
इस पूरे मामले को लेकर मोहम्मद सुलेमान ने वक़्फ ट्राइब्यूनल का रुख़ किया और वहाँ हो रहे निर्माण को रोकने और आदेश पर स्टे लगाने की माँग की.
वक़्फ ट्रिब्यूनल ने शनिवार को इस मसले पर सभी पक्षों की बातें सुनीं.
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राजदेव जनसेवा ट्रस्ट में सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेता सदस्यों के तौर पर मौजूद हैं.
एक पक्ष का आरोप है कि यह ज़मीन सरकार ने दबाव में दूसरे पक्षों को उस वक़्त सौंप दी, जब पहले ही मामला वक़्फ कोर्ट और हाई कोर्ट में चल ही रहा है
हालाँकि प्रशासन के एक अधिकारी ने बताया कि भोपाल सिविल कोर्ट ने ज़मीन का फ़ैसला ट्रस्ट के पक्ष में सुनाया है और उस पर किसी भी तरह का कोई स्टे नहीं है. इसलिये ज़मीन देने में कोई दिक्क़त नही थी.
ज़मीन के रिकॉर्ड बताते है कि साल 1964-65 में यह ज़मीन फ़य्याज़ अली शाह के नाम पर थी, जिन्होंने इसे विशंभर लाल को बेच दी थी.
यहाँ पर कुछ क़ब्रें भी मौजूद थीं. सरकारी रिकॉर्ड बताते है कि वहाँ पर कॉब्रिस्तान की मौजूदगी लिखी हुई थी. लेकिन उसमें कितना क्षेत्र क़ब्र का है, ऐसा कोई रिकॉर्ड मौजूद नही है.
वहीं, ट्रस्ट के वकील बंसीलाल इसरानी ने बीबीसी को बताया, "इस मामले में साल 2001 में हुए विवाद के बाद सब डिविज़नल मैजिस्ट्रेट(एसडीएम) ने दोनों पार्टियों से कहा था कि वो मामले को सिविल कोर्ट के ज़रिए सुलझा लें और इस मद्देनज़र रिसीवर की नियुक्ति भी कर दी गई थी."
इसरानी के मुताबिक़, "इसके बाद साल 2002 में ट्रस्ट को मामले को कोर्ट में ले जाना पड़ा. साल 2003 में फ़ैसला ट्रस्ट के पक्ष में आ गया. फिर साल 2018 में मोहम्मद सुलेमान ने वक्फ़ ट्राइब्यूनल से स्टे चाहा लेकिन उन्हें कोई राहत नही मिली."
इसरानी ने बताया कि उसके बाद उन्होंने एसडीएम से रिसीवर को हटाने के लिए कहा क्योंकि फैसला उनके पक्ष में आ चुका था. उन्होंने ज़िला कलेक्टर से आग्रह किया गया कि ट्रस्ट को उस जगह को अधिकार में लेने के लिये सुरक्षा मुहैया कराई जाए.
दूसरी तरफ़ मोहम्मद सुलेमान के वकील रफ़ी ज़ुबैरी ने बीबीसी को बताया, "रिकॉर्ड बताते है कि यहाँ पर क़ब्रिस्तान था और फ़य्याज़ अली शाह उसकी देखरेख करते थे लेकिन उन्हें इस कब्रस्तान को बेचने का कोई हक़ नही था. "
ज़ुबैरी के मुताबिक़ अगर यहाँ क़ब्रिस्तान है तो वो किसी की भी मिल्कियत नही हो सकती है. ऐसे में कोई इसे बेच कैसे सकता है?
उन्होंने कहा, "यह क़ब्रिस्तान साल 1974 में वक़्फ में पंजीकृत हो गया था. उस वक़्त इन्होंने इस पर कोई आपत्ति नहीं जताई. वक़्फ की संपत्तियों पर फ़ैसले करने का अधिकार किसी भी तरह से सिविल कोर्ट को नही है."
ज़ुबैरी के मुताबिक़ यह संपत्ति ट्रस्ट को सौंपा जाना सही नही हैं, ख़ासकर ऐसे समय में, जब मामला पहले से ही हाई कोर्ट में चल रहा हो. (bbc.com/hindi)