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आज़ादी के 75 साल: भारत की आज़ादी की आवाज़ कैसे बना था शिकागो रेडियो
15-Aug-2022 12:58 PM
आज़ादी के 75 साल: भारत की आज़ादी की आवाज़ कैसे बना था शिकागो रेडियो

-सौतिक बिस्वास

साल 1929 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के एक स्वयंसेवक को ज़िंदगी बदल देने वाला अहसास हुआ.

भारत के पूजनीय राष्ट्रीय हीरो महात्मा गांधी विशाल स्वतंत्रता समर्थक रैली में अपनी आवाज़ लोगों तक पहुंचाने के लिए संघर्ष कर रहे थे. नानिक मोटवाने उन्हें देख रहे थे.

बाद में नानिक मोटवाने ने इस बारे में लिखा कि महात्मा गांधी एक ही रैली में अपनी बात लोगों तक पहुंचाने के लिए अलग-अलग मंचों से बोल रहे थे ताकि लोग उनकी कमज़ोर आवाज़ को बड़ी तादाद में सुन सकें.

ये वो पल था जब 27 वर्षीय मोटवाने ने तय किया कि वो गांधी की आवाज़ को लोगों तक पहुंचाने का तरीक़ा निकालेंगे.

एक प्रवासी व्यापारी परिवार की दूसरी पीढ़ी के कारोबारी मोटवाने चाहते थे कि "जो सभी लोग महात्मा गांधी को देखने से ज़्यादा उन्हें सुनने में उत्सुक थे, वो उन्हें स्पष्टता से सुन सकें."

दो साल बाद कराची में जब कांग्रेस पार्टी का अधिवेशन था तब मोटवाने एक सार्वजनिक उद्घोषणा प्रणाली के साथ तैयार था. अपनी सबसे पुरानी उपलब्ध तस्वीरों में से एक में पारंपरिक गांधी टोपी पहने हुए मोटवाने महात्मा गांधी को अपने माइक्रोफ़ोन का ब्रांड नाम- शिकागो रेडियो दिखाते हुए दिख रहे हैं.

अगले दो दशकों तक शिकागो रेडियो उन लाउडस्पीकरों का पर्याय बन गया जो साम्राज्यवादी ब्रितानी शासन से भारत की आज़ादी के संघर्ष के संदेश सुनाते थे.

मोटवाने परिवार की तीसरी पीढ़ी की कमान संभाल रहे नानिक मोटवाने के बेटे किरण मोटवाने कहते हैं, "हम अपने लाउडस्पीकरों को वॉयस ऑफ़ इंडिया (भारत की आवाज़) कहते थे."

मोटवाने परिवार 1919 में मुंबई आया था. इस शहर में स्थित फर्म के लिए शिकागो रेडियो नाम हैरान करने वाला था. किरण मोटवाने बताते हैं कि उनके पिता ने शिकागो स्थित एक रेडियो निर्माता से ये नाम अनुमति के साथ उधार लिया था. ये फर्म बंद हो रही थी.

विदेशी नाम के प्रति आकर्षण की एक वजह ये भी हो सकती है कि मोटवाने ऐसे समुदाय से जुड़े थे जो व्यापार में आगे बढ़ रहा था और दुनिया भर में जिसका नेटवर्क था.

शुरुआत में नानिक मोटवाने लाउडस्पीकर, एम्पलीफ़ायर और माइक्रोफोन को अमेरिका और ब्रिटेन से आयात करते थे. एक उद्घोषणा प्रणाली के ये ज़रूरी हिस्से हैं.

बाद में पांच इंजीनियरों की उनकी टीम इनका पुर्जा-पुर्जा अलग करती और स्थानीय स्तर पर इस्तेमाल के लिए इन्हें रिवर्स इंजीनियर किया जाता.

नानिक मोटवाने के भाई भी इस काम में उनकी मदद करते थे. हालांकि मोटवाने ट्रेन और ट्रकों में अपने सिस्टम लेकर कांग्रेस की रैली स्थलों पर जाते थे. जब सड़क यात्रा कठिन होती थी तब स्वयंसेवक और पुलिस उन्हें सुरक्षा प्रदान करती थी. मोटवाने आमतौर पर बैठक या रैली से एक दिन पहले स्थल पर पहुंच जाते थे जो सामान्य तौर पर कोई धूल भरा मैदान होता था. मोटवाने वहां सिस्टम का टेस्ट करते और लाउडस्पीकरों के लिए पर्याप्त बैटरी की उपलब्धता सुनिश्चित करते. इसके बाद वो सींग जैसा दिखने वाले अपने लाउडस्पीकरों को मैदान में बल्लियों पर टांगते ताकि हर कोनो में आवाज़ साफ़-साफ़ पहुंच सके.

नानिक मोटवाने के मुताबिक एक मैदान में फैले एक दर्ज़न लाउडस्पीकर दसियों हज़ार लोगों तक आवाज़ पहुंचाने के लिए काफ़ी होते थे. इसके कई साल बाद उन्होंने एक लाउडस्पीकर के ऊपर दूसरा लाउडस्पीकर लगाना शुरू कर दिया ताकि आवाज़ और साफ़ हो और दूर तक जाए. कांग्रेस की किसी भी बैठक या रैली तक पहुंचने के लिए उनके पास देशभर में सौ से अधिक लाउडस्पीकर सिस्टम तैयार थे.

किरण मोटवाने कहते हैं, "वो भारत में पब्लिक एड्रेस सिस्टम के अगुआ थे और कांग्रेस पार्टी उनकी एकमात्र ग्राहक थी."

आज़ादी के संघर्ष के उन सालों में भारत की आज़ादी के कई हीरो के सबसे यादगार और उत्तेजक भाषण शिकागो रेडियो के लाउडस्पीकरों के ज़रिए ही लोगों तक पहुंचे. भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू इस ब्रांड के बड़े समर्थक और प्रशंसक थे. कांग्रेस की एक बैठक के बाद नेहरू ने मोटवाने को लिखा, "आपके लाउडस्पीकरों ने सबसे शानदार काम किया और आपकी व्यवस्था की हर किसी ने तारीफ़ की."

मोटवाने सरकारी रेडियो प्रसारकों के साम्राज्यवादी प्रोपागेंडा का जवाब देने के लिए चलाए जा रहे एक गुप्त रेडियो के संचालन में भी मदद करते थे. ये रेडियो स्टेशन महात्मा गांधी और आज़ादी के संघर्ष के दूसरे नेताओं के संदेश प्रसारित करता था.

1942 में इस स्टेशन ने प्रसारण शुरू किया था और इसके ढाई महीने बाद जिन पांच लोगों को गिरफ़्तार किया गया था उनमें से मोटवाने भी एक थे. महात्मा गांधी ने साल 1942 में ही अंग्रेज़ों भारत छोड़ो का नारा दिया था और सभी भारतीयों से आज़ादी के लिए अहिंसक संघर्ष करने का आह्वान किया था. इसे ही भारत छोड़ो आंदोलन के नाम से जाना गया.

इस रेडियो स्टेशन पर किताब लिखने वाली उषा ठक्कर के मुताबिक, "कांग्रेस रेडियो स्टेशन केस भारत की आज़ादी के संघर्ष का अहम अध्याय है." अदालत में चले इस मामले को यही नाम दिया गया था.

नानिक मोटवाने को स्टेशन के लिए साज़ो-सामान और तकनीकी सहायता देने के आरोप में गिरफ़्तार किया गया था. दिलचस्प बात ये है कि शिकागो रेडियो आज़ादी के आंदोलन के क़रीब होते हुए भी ब्रितानी पुलिस की निगरानी में नहीं था.

ब्रितानी पुलिस अधिकारी अक्सर अपने वायरलेस सिस्टम के लिए उपकरण ख़रीदने मोटवाने के यहां जाते थे और उनके हिसाब-किताब में भी कोई गड़बड़ नहीं होती थी.

मोटवाने ने पुलिस को बताया कि वो कांग्रेस के सदस्य नहीं हैं. उनके ख़िलाफ़ कोई सबूत नहीं मिला और उन्हें रिहा कर दिया गया. किरण मोटवाने बताते हैं, "वो एक महीने तक जेल में रहे जहां उन्हें यातनाएं दी गईं थीं. ये सच है कि वो भूमिगत चल रहे रेडियो स्टेशन की मदद किया करते थे."

नानिक मोटवाने एक समर्पित राष्ट्रवादी होते हुए भी एक चतुर कारोबारी थी क्योंकि यही उनकी विरासत का पता था. वो पूरी शिद्दत से अख़बारों को पत्र लिखते और नेताओं की उन तस्वीरों की कॉपिया मांगते जो शिकागो माइक्रोफ़ोन में उनके बोलते हुए खींची गईं होती थीं. वो इन तस्वीरों और रैलियों से जुड़ी न्यूज़ की क्लिप को संजोकर रखा करते थे.

सिर्फ़ यही नहीं, वो नेताओं के भाषओं को स्पूल टेप पर रिकॉर्ड करते और फिर उनकी कॉपी पार्टी को उपलब्ध करवाते. उन्होंने एक फोटोग्राफर को नौकरी पर रखा जो उनके साथ रैलियों में जाता था और तस्वीरें और वीडियो बनाता था. उन्होंने महात्मा गांधी, नेहरू, सरदार वल्लभ भाई पटेल और करिश्माई नेता सुभाष चंद्र बोस की रैलियों की बेशक़ीमती तस्वीरें और वीडियो फुटेज लीं.

अब इनमें से बहुत सी तस्वीरें और वीडियो मुंबई के पॉश इलाक़े में स्थित मोटवाने के निवास में इधर-उधर पड़ी हैं.

किरण मोटवाने कहते हैं, "वो बैठकों का विस्तृत रिकॉर्ड रखते थे. वो बहुत ही मेहनती थे."

मोटवाने के परिवार के मुताबिक क़रीब तीन दशकों तक उन्होंने कांग्रेस की बैठकों और रैलियों के लिए लाउडस्पीकर सिस्टम उपलब्ध करवाए. हर महीनों वो दर्जनों रैलियों में सिस्टम भेजते थे.

अपने चरम पर शिकागो रेडियो के देशभर में 200 कर्मचारी थे और ये फर्म दो शहरों में लाउडस्पीकर सिस्टम बनाती थी और उनकी सर्विस करती थी. आज़ादी के बाद ही मोटवाने ने व्यवसायिक रूप से लाउडस्पीकर की बिक्री शुरू की. उन्होंने आज़ादी के बाद 1960 के दशक तक पार्टी से लाउडस्पीकर सिस्टम का किराया नहीं लिया.

किरण मोटवाने कहते हैं, "फिर नेहरू हमें पैसा देने के लिए तैयार हो गए. वो हमारा ख़र्चा उठाते थे और हर बैठक के लिए 6 हज़ार रुपए दिया करते थे."

कई साल बाद 1963 में दिल्ली में खचाखच भरे मैदान में जब भारत की स्वर कोकिला लता मंगेशकर ने शिकागो रेडियो के माइक से शहीदों को सलामी देते हुए 'ऐं मेरे वतन के लोगों' गाया तो लोगों की आंखों में आंसू आ गए.

भारत आने वाले वैश्विक विदेशी नेता जैसे निकिता क्रशचेव, लॉयनिड ब्रेजनेव, ड्वाइट आइसनहॉवर ने भी मोटवाने के लाउडस्पीकर से ही विशाल भीड़ को संबोधित किया.

1980 में जब इंदिरा गांधी ने चुनाव जीता था तब शिकागो रेडियो ने जनपथ पर 1.8 मील के रास्ते पर 120 लाउडस्पीकर लगाए थे.

ये ब्रांड एक शहरी किंवदंती बन गया. नेहरू के शिकागो रेडियो को बढ़ावा देते हुए नकली विज्ञापन भी आए.

1970 के दशक में शिकागो रेडियो को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कार्यालय से एक बेवजह के सख़्त संदेश के साथ पत्र मिला.

किरण मोटवाने याद करते हैं, "हमसे अपने ब्रांड का नाम बदलने के लिए कहा गया था. पत्र में पूछा गया था कि हम अपने ब्रांड के लिए विदेशी नाम क्यों इस्तेमाल कर रहे हैं."

किरण कहते हैं, "हमें कोई अंदाज़ा नहीं था कि ये क्यों हुआ था. मेरे पिता ने प्रधानमंत्री कार्याल की मांग नहीं मानी और प्रधानमंत्री को जवाब लिख दिया. हम मोटवाने को एक तरफ़ रखते हैं और शिकागो रेडियो को एक तरफ़"

भारत की आज़ादी की आवाज़ को उठाने के लिए लांच होने के लगभग एक सदी बाद शिकागो रेडियो अभी भी है, हालांकि अब ये एक छोटी फर्म है जो एक परिपक्व बाज़ार में पब्लिक एड्रेस सिस्टम बेचती है.

किरण मोटवाने कहते हैं, "हम भी शोर मचा रहे हैं." ये अलग बात है कि अब ये कुछ म्यूट हो गया है. (bbc.com)

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