अंतरराष्ट्रीय
-शुमाएला जाफ़री
अभी कुछ हफ़्ते पहले की ही बात है, जब संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत और पाकिस्तान के विदेश मंत्रियों के बीच तीख़ी ज़ुबानी जंग हुई थी.
पाकिस्तान ने भारत के सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनने के प्रस्ताव में अड़ंगा लगा दिया था. लेकिन, पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ़ ने अमन का हाथ बढ़ाया और प्रधानमंत्री मोदी को 'गंभीर और ईमानदार' बातचीत करने का न्यौता दे डाला.
हालांकि, शहबाज़ शरीफ़ के बयान के कुछ घंटों के भीतर ही पाकिस्तान इससे पलट भी गया.
शहबाज़ शरीफ़ के दफ़्तर की तरफ़ की तरफ़ से सफ़ाई देते हुए कहा गया कि भारत से बातचीत तभी हो सकती है, जब भारत कश्मीर से धारा 370 हटाने के अपने 'अवैध फ़ैसले' को पलटे और वहां दोबारा पुराने प्रावधान लागू करे.
शहबाज़ शरीफ़ ने कहा क्या था?
संयुक्त अरब अमीरात स्थित न्यूज़ चैनल अल-अरबिया को दिए गए एक इंटरव्यू में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री ने कहा था, "भारत के नेतृत्व और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को मेरा संदेश यही है कि आइए बातचीत की मेज़ पर बैठें और कश्मीर जैसे ज्वलंत मुद्दों को हल करने के लिए गंभीर और ईमानदार बातचीत करें."
शहबाज़ शरीफ़ ने कहा कि, "कश्मीर में रोज़ाना मानव अधिकारों का भयंकर उल्लंघन हो रहा है. हिंसा हो रही है और भारत ने अपने संविधान के अनुच्छेद 370 को ख़त्म करके कश्मीरियों को दी गई नाममात्र की स्वायत्तता भी छीन ली है."
शहबाज़ शरीफ़ ने कहा कि 'पाकिस्तान ने भारत से तीन जंगें लड़कर अपने सबक़' सीख लिए हैं.
उन्होंने कहा, "अब ये हमारे ऊपर निर्भर है कि हम शांति से रहें और तरक़्क़ी करें या आपस में लड़ते रहें और अपने वक़्त और संसाधन को बर्बाद करते रहें. हमने भारत से तीन जंगें लड़ीं और इससे अवाम के लिए मुश्किलें, ग़रीबी और बेरोज़गारी ही बढ़ी है. हमने अपने सबक़ सीख लिए हैं और हम अब शांति से रहना चाहते हैं. शर्त बस ये है कि हम अपने असल मसले हल करने में क़ामयाब हो जाएं."
अपने इंटरव्यू में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री ने ये इशारा भी किया कि भारत और पाकिस्तान को साथ लाने में संयुक्त अरब अमीरात का नेतृत्व भी अहम भूमिका अदा कर सकता है.
शहबाज़ शरीफ़ ने कहा, "मैंने मोहम्मद बिन ज़ायद से गुज़ारिश की है कि वो पाकिस्तान के बिरादर हैं, संयुक्त अरब अमीरात हमारे लिए भाई जैसा मुल्क है. उनके भारत से भी अच्छे ताल्लुक़ात हैं. इसलिए वो दोनों देशों को बातचीत की मेज़ पर ला सकते हैं, और मैं क़सम खाकर कहता हूं कि हम भारतीय नेतृत्व के साथ पूरी ईमानदारी और मक़सद से बातचीत करेंगे."
जैसे ही इस इंटरव्यू का प्रसारण हुआ, पाकिस्तान में हंगामा बरपा हो गया.
इमरान ख़ान की पार्टी, तहरीक-ए-इंसाफ ने शहबाज़ शरीफ़ के बयान की आलोचना की और कहा कि शहबाज़ शरीफ़ तो पाकिस्तान के रवायती रुख़ से पलट गए हैं. जबकि पाकिस्तान ने हमेशा यही कहा है कि भारत से बातचीत तभी मुमकिन है, जब भारत अपने नियंत्रण वाले कश्मीर में 5 अगस्त 2019 को उठाए गए क़दम वापस ले.
इस सियासी नुक़सान को कम से कमतर रखने के लिए पाकिस्तान के प्रधानमंत्री कार्यालय ने तुरंत क़दम उठाया और ट्वीट किया कि प्रधानमंत्री लगातार ये कहते आए हैं कि भारत और पाकिस्तान को अपने आपसी मसले और ख़ास तौर से कश्मीर का मसला बातचीत और शांतिपूर्ण तरीक़ों से हल करना चाहिए.
पीएमओ ने ये सफ़ाई भी दी कि उन्होंने बार-बार ये कहा है कि भारत से बातचीत तभी हो सकती है, जब वो कश्मीर घाटी का विशेष दर्जा दोबारा बहाल करे.
बातचीत के प्रस्ताव से पीछे क्यों हटा पाकिस्तान?
पाकिस्तान में भारतीय मामलों के जानकार डॉक्टर अरशद अली का मानना है कि नेताओं की पहल महत्वपूर्ण ज़रूर है, मगर ये तब तक असरदार नहीं हो सकती, जब तक इस पहल को सभी भागीदारों का समर्थन हासिल न हो.
अरशद कहते हैं, "ये बात तो केवल विदेश मंत्रालय बता सकता है कि जब प्रधानमंत्री ने अल-अरबिया को दिए इंटरव्यू में भारत से बातचीत की पेशकश की, तो क्या उन्होंने विदेश मंत्रालय को भरोसे में ले लिया था."
हालांकि, हक़ीक़त यही है कि 2019 के बाद से भारत से बातचीत को लेकर पाकिस्तान का आधिकारिक रुख़ एक जैसा ही रहा है कि किसी भी तरह के संवाद के लिए भारत को कश्मीर में मोदी सरकार द्वारा उठाए गए क़दम वापस लेने होंगे.
इसके अलावा अरशद अली ये भी मानते हैं कि भारत ने पाकिस्तान को लेकर बेहद सख़्त रुख़ अपनाया हुआ है. उसकी तरफ़ से बातचीत की न तो कोई ख़्वाहिश जताई गई है और न ही गंभीर बातचीत के लिए किसी क़िस्म का लचीला रुख़ अपनाने का इशारा किया गया है.
वो कहते हैं, "इसका मतलब ये है कि शहबाज़ शरीफ़ का ये बयान एक दोस्ताना इशारे से ज़्यादा कुछ भी नहीं था. अगर दोनों देशों के बीच वाक़ई किसी भी तरह की गंभीर बातचीत की सहमति बनती है, तो उसके लिए पहले ज़मीनी स्तर पर तैयारी करनी होगी और नेताओं की मुलाक़ात से पहले उसकी रूपरेखा तय करनी होगी. कोई एक देश इस मामले में इकतरफ़ा फ़ैसला नहीं ले सकता."
विश्लेषक घीना मेहर के मुताबिक़, पाकिस्तान के लिए न तो बातचीत की ये पेशकश करने का सही मौक़ा था और न ही उसका सही मंच था.
घीना मेहर का मानना है, "हो सकता है कि शहबाज़ शरीफ़ ने ये दांव बढ़ती घरेलू आर्थिक चुनौतियों और सियासी संकट से अवाम का ध्यान बंटाने के लिए चला हो. या फिर शहबाज़ शरीफ़ का मक़सद ये भी हो सकता है कि वो अपने मुल्क के कट्टर दुश्मन की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाकर ख़ुद को विश्व मंच पर एक कद्दावर नेता के तौर पर पेश कर सकें."
"ये प्रस्ताव सुनने में तो नेकनीयत लग रहा था. लेकिन, ये भी ज़ाहिर है कि बातचीत की पेशकश के लिए जो अल्फ़ाज़ चुने गए, उनके बारे में गंभीरता से नहीं सोचा गया. यही वजह है कि बाद में प्रधानमंत्री कार्यालय को ट्वीट करके इस पर सफ़ाई देनी पड़ी."
कूटनीति बनाम घरेलू सियासत
राजनीति वैज्ञानिक डॉक्टर हसन अस्करी रिज़वी भी घीना मेहर की बात से सहमत हैं.
उनका मानना है कि आज जब भारत और पाकिस्तान दोनों ने एक दूसरे को लेकर कड़ा रुख़ अपनाया हुआ है, तो कोई ये उम्मीद कैसे लगा सकता है कि इस तरह की अधकचरी पेशकश का कोई अच्छा नतीजा निकलेगा.
हसन अस्करी रिज़वी का आकलन है कि इस वक़्त भारत में पाकिस्तान के साथ किसी उपयोगी बातचीत को लेकर कोई दिलचस्पी नहीं है.
वो कहते हैं, "इस वक़्त भारत अपनी कट्टर दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी देश की नई छवि गढ़ने में जुटा है. जब राष्ट्रवाद उफ़ान पर हो, तो एक ऐसे देश के साथ बातचीत अलोकप्रिय कदम हो सकती है, जिसे सत्ताधारी पार्टी दुश्मन के तौर पर पेश करती रही है. ऐसा कोई भी कदम प्रधानमंत्री मोदी और बीजेपी के लिए सियासी तौर पर नुक़सानदेह हो सकता है. इसी तरह, पाकिस्तान में भी कूटनीतिक मसलों पर सियासी खींचतान होती आई है."
इस पेशकश पर शहबाज़ शरीफ़ के सबसे बड़े सियासी दुश्मन इमरान ख़ान की पार्टी ने जैसी प्रतिक्रिया दी, उससे डॉक्टर अस्करी का तर्क वाज़िब लगता है.
पाकिस्तान तहरीक़-ए-इंसाफ़ की वरिष्ठ नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री शीरीन मज़ारी अपने ट्वीट में प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ़ पर तीखा हमला बोला.
मज़ारी ने लिखा कि, "एक आयातित प्रधानमंत्री के तौर पर जो मसखरा बैठा है, उसे ऐसे मसलों पर अपनी ज़ुबान बंद रखनी चाहिए, जिनकी उसे समझ नहीं है क्योंकि इससे बस पाकिस्तान को नुक़सान ही होता है. वो ये कहते हुए भारत से बातचीत की भीख मांग रहा है कि पाकिस्तान ने 'अपना सबक़ सीख लिया है'. प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठे शख़्स का ऐसा बयान बेहद वाहियात है."
पाकिस्तान का यू टर्न?
डॉक्टर हसन अस्करी की राय में शहबाज़ शरीफ़ की सरकार इतनी कमज़ोर है कि नीयत नेक होने के बावजूद उसकी सियासी हैसियत ऐसी नहीं है कि वो ऐसी गंभीर पेशकश कर सके.
वो कहते हैं, "हमारे सियासतदान कूटनीति को भी घरेलू राजनीति की तरह देखते हैं; अंतरराष्ट्रीय मामलों पर बोलते वक़्त उन्हें ज़्यादा सावधानी और चतुराई से काम लेना चाहिए. हमे नेताओं को ख़याल रखना चाहिए कि ऐसे बयानों के नतीजे गंभीर होते हैं."
डॉक्टर अस्करी ये मानते हैं कि इस वक़्त जो माहौल पूरे दक्षिणी एशिया का है, उसमें भारत और पाकिस्तान के संबंध सामान्य बनाने की दिशा में कोई ख़ास क़ामयाबी नहीं मिल सकती है. दोनों ही देशों में ये रिश्ते एक तरह से घरेलू सियासत की क़ैद में हैं.
अस्करी का मानना है, "पाकिस्तान को लेकर कट्टर नीति अपनाने से प्रधानमंत्री मोदी को ख़ूब चुनावी फ़ायदा हुआ है, और आज जब वो अगले आम चुनाव की तैयारी कर रहे हैं, तो वो अपनी चुनावी फ़ायदा देने वाली नीति में भला क्यों बदलाव करेंगे?"
विश्लेषकों का ये भी मानना है कि शहबाज़ शरीफ़ ने भारत से बातचीत की पेशकश करने से पहले मुल्क के अन्य भागीदारों, जैसे कि विपक्षी दलों, सुरक्षा तंत्र और संसद को भरोसे में नहीं लिया था. ये पाकिस्तान की रवायती नीति से यू-टर्न लेने जैसा था. यही वजह है कि पाकिस्तान में शरीफ़ की पेशकश को हाथों-हाथ नहीं लिया गया.
भारत और पाकिस्तान दोनों ही परमाणु शक्ति संपन्न देश हैं. दोनों देशों के संबंध 2019 में उस वक्त से बेहद ख़राब चल रहे हैं, जब भारत ने कश्मीर के पुलवामा में सुरक्षाबलों पर हुए आतंकी हमलों के बाद, पाकिस्तान के भीतर हवाई हमले किए थे.
बाद में मोदी की अगुवाई वाली भारत सरकार ने जब कश्मीर में संविधान के अनुच्छेद 370 को ख़त्म किया और उसकी स्थिति को बदला तो तनाव और बढ़ गया.
देश की आज़ादी और बंटवारे के बाद से भारत और पाकिस्तान ने तीन बड़ी जंगें लड़ी हैं. इसके अलावा दोनों देशों के बीच छोटी-मोटी कई झड़पें भी हुई हैं. इंटरव्यू में शहबाज़ शरीफ़ ने इन्हीं जंगों के हवाले से कहा था कि उनके देश ने अपने सबक़ सीख लिए हैं.
क्या था मक़सद?
कई जानकारों के मुताबिक़, शहबाज़ शरीफ़ ने भारत से बातचीत की पेशकश के लिए जो वक़्त चुना, वो भी बहुत अहम है.
उनका मानना है कि शहबाज़ शरीफ़ हाल ही में संयुक्त अरब अमीरात के दौरे पर गए थे और उन्होंने तभी अल-अरबिया को इंटरव्यू दिया था. हो सकता है कि उन्होंने कुछ ख़ास लोगों को प्रभावित करने के लिए ये पेशकश की हो.
संभावना इस बात की भी है कि जिस तरह दुनियाभर के नेता भारत और पाकिस्तान से आपस में बातचीत करने की गुज़ारिश करते रहे हैं.
वैसे में ये भी हो सकता है कि संयुक्त अरब अमीरात के नेताओं ने भी पाकिस्तान को यही सुझाव दिया हो और शायद शहबाज़ शरीफ़ इसी मशविरे से संतुलन बिठाने की कोशिश कर रहे थे.
हालांकि, वो ये पेशकश करने से पहले ये अंदाज़ा ठीक-ठीक नहीं लगा सके कि इस पर घरेलू मोर्चे से क्या प्रतिक्रिया आएगी. हालांकि, अगर ऐसा हुआ भी है, तो अब तक किसी आधिकारिक स्रोत से इसकी पुष्टि नहीं हुई है.
भारत का जवाब
हाल के बरसों में पाकिस्तान से रिश्तों में जमी बर्फ़ पिघलाने के किसी भी प्रस्ताव पर बेहद ठंडा रवैया अपनाया है. फिर चाहे ये क्रिकेट हो, कला हो या फिर आम जनता के बीच संपर्क. भारत, पाकिस्तान से न्यूनतम संभव संवाद की नीति पर चल रहा है.
हाल ही में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत और पाकिस्तान के विदेश मंत्रियों के बीच कूटनीतिक जंग ने दोनों देशों को एकदूसरे से और दूर कर दिया है.
पाकिस्तान के विदेश मंत्री बिलावल भुट्टो ने भारत प्रशासित कश्मीर में मानव अधिकारों के हालात पर ध्यान खींचा था. वहीं भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर ने दुनिया को याद दिलाया था कि ओसामा बिन लादेन, पाकिस्तान में ही छुपा हुआ था.
बिलावल भुट्टो ने तो भारत के प्रधानमंत्री को 'गुजरात का क़साई' तक कह डाला था और उनके इस बयान को पाकिस्तान के अवाम और मुख्यधारा के मीडिया ने जिस तरह से हाथों हाथ लिया था, वो देखना वाक़ई दिलचस्प था.
क्या रिश्तों की बर्फ़ पिघलेगी?
घीना मेहर कहती हैं कि घरेलू समर्थक बेहद अहम हैं और बड़े अफ़सोस की बात है कि आज दक्षिण एशिया में कूटनीति, कट्टर राष्ट्रवाद और लोकलुभावन सियासत की शिकार हो गई है. ऐसे माहौल में दोनों देशों के रिश्तों की बर्फ़ पिघलने की उम्मीद लगाना बेमानी है.
भारतीय मामलों के जानकार अरशद अली कहते हैं कि ऐसे माहौल में छोटे छोटे क़दम ज़्यादा उपयोगी हो सकते हैं.
वो कहते हैं कि, "भारत पाकिस्तान के बीच ट्रैक टू के संपर्क अभी भी बने हुए हैं. दोनों देश बड़े गुपचुप तरीक़े से एक दूसरे से सीमित स्तर पर संपर्क रखते हैं. जलवायु परिवर्तन और आम जनता के बीच संपर्क जैसे क्षेत्र हैं, जहां अभी भारत और पाकिस्तान मिलकर काम कर सकते हैं."
अरशद अली कहते हैं कि, "रिश्तों में तल्ख़ी के बाद भी भारत और पाकिस्तान ने ऐतिहासिक रूप से ये साबित किया है कि वो एक दूसरे से रिश्ते रख सकते हैं. दोनों देशों ने 80, 90 और 2000 के दशक में ये काम करके दिखाया भी है और वो अभी भी ऐसा कर सकते हैं. लेकिन, इसके लिए हमें सही समय का इंतज़ार करना ही होगा." (bbc.com/hindi)