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भारतीय परिवारों की बचत क्यों घट रही है और उन पर कर्ज़ क्यों बढ़ रहा है
27-Apr-2024 1:08 PM
भारतीय परिवारों की बचत क्यों घट रही है और उन पर कर्ज़ क्यों बढ़ रहा है

सौतिक बिस्वास

दशकों से भारत एक ऐसा देश रहा है जहां लोग कमाई का एक बड़ा हिस्सा भविष्य के लिए बचाकर रख लेते हैं.

लेकिन अब इसमें बदलाव दिखाई दे रहा है. भारतीय रिजर्व बैंक के हालिया आंकड़ों के मुताबिक़ भारत में शुद्ध घरेलू बचत 47 साल के निचले स्तर पर है.

किसी परिवार के कुल धन और निवेश में से उसका कर्ज और उधारी अगर घटा दी जाए तो उसे शुद्ध घरेलू बचत कहते हैं.

वित्तीय वर्ष 2023 में बचत घटकर सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी का 5.3 प्रतिशत हो गई है जो साल 2022 में 7.3 प्रतिशत थी. इस गिरावट को एक अर्थशास्त्री ने बहुत चिंताजनक बताया है.

इसी अवधि में घरेलू कर्ज के मामले में तेज उछाल आया है. सालाना कर्ज, जीडीपी का 5.8 प्रतिशत हो गया है, जो 1970 के बाद दूसरा उच्चतम स्तर है.

जैसे-जैसे लोग घर चलाने के लिए कर्ज ले रहे हैं, उनकी बचत कम होती जा रही है. ज्यादा उधारी के मामलों में परिवार के सामने मुश्किल यह है कि उन्हें कमाई का एक हिस्सा उस उधारी और उसके कर्ज को चुकाने में खर्च करना पड़ रहा है. ऐसी स्थिति में परिवार के पास बचत के लिए बहुत कम पैसे बचते हैं.

क्यों बढ़ रहा है कर्ज

मोतीलाल ओसवाल फाइनेंशियल सर्विसेज के साथ काम करने वाले अर्थशास्त्री निखिल गुप्ता का कहना है कि भारत के बढ़ते घरेलू कर्ज का एक बड़ा हिस्सा नॉन मॉर्गेज लोन है. इनमें से आधे से ज्यादा कर्ज कृषि और बिजनेस से जुड़े हैं.

दिलचस्प बात यह है कि 2022 में भारत नॉन मॉर्गेज लोन के मामले में ऑस्ट्रेलिया और जापान के बराबर आ गया और उसने अमेरिका और चीन सहित कई प्रमुख देशों को पीछे छोड़ दिया.

गुप्ता का कहना है कि क्रेडिट कार्ड, शादी और हेल्थ इमरजेंसी के लिए कर्ज, कुल घरेलू कर्ज का 20 प्रतिशत से कम है, लेकिन यह सबसे तेजी से बढ़ने वाला सेगमेंट था.

तो कम बचत और ज्यादा कर्ज की यह स्थिति हमें दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के बारे में क्या बताती है?

क्या बढ़ता कर्ज और खर्च भविष्य के लिए अच्छा है? या फिर यह घटती आय, महंगाई और आर्थिक तनाव जैसी चुनौतियों की चेतावनी दे रहा है?

अर्थशास्त्री गुप्ता कहते हैं, "उपभोक्ताओं को कुछ हद तक विश्वास है. ऐसे कई भारतीय हैं जिन्हें उम्मीद है कि भविष्य में वे ज्यादा पैसे कमा पाएंगे. या फिर वे भविष्य में क्या होगा इसके बारे में सोचने के बजाय वर्तमान में एक अच्छा जीवन जीना चाहते हैं."

क्या ज्यादा खर्च करने को लेकर भारतीयों की मानसिकता बदली है? गुप्ता कहते हैं, "हो सकता है लेकिन यह साफ तौर पर नहीं कहा जा सकता है कि ऐसा क्यों हो रहा है?"

मुश्किल वित्तीय स्थिति में कर्ज लेने के बारे में क्या कहा जा सकता है? लंबे समय से चली आ रही कठिन वित्तीय स्थिति व्यक्ति को लोन डिफॉल्टर बना सकती है. दूसरी तरफ अगर कर्ज देने वाला अपना काम अच्छे से कर रहे हैं तो वे वित्तीय संकट में फंसे ऐसे लोगों को कर्ज देना क्यों जारी रखेंगे, जिन्हें क्रेडिट रेटिंग भी अच्छी नहीं है?

गुप्ता के मुताबिक़, उधारकर्ताओं पर आधिकारिक डेटा में विवरण की कमी एक प्रमुख समस्या है. कर्ज लेने वाले किस तरह की नौकरियां करते हैं? कितने लोगों ने कितना लोन ले रखा है? (एक व्यक्ति कई तरह के लोन ले सकता है) व्यक्ति लोन लेने के बाद उस पैसे का क्या कर रहा है? कर्ज चुकाने को लेकर उसका रिकॉर्ड कैसा है?

भारत के लिए क्या चिंताजनक है?
कुछ बातें हमारे सामने हैं. मोतीलाल ओसवाल के गुप्ता और उनकी साथी अर्थशास्त्री तनीषा लढ़ा ने पाया कि पिछले दशक में कर्ज की उपलब्धता ने घरेलू कर्ज को बढ़ाने का काम किया है.

उनका कहना है कि पिछले दशक में कर्ज लेने वालों की संख्या बढ़ी है. किसी एक व्यक्ति का बड़ा लोन लेने की बजाय ज्यादा लोगों का कर्ज लेना बेहतर स्थिति है.

उन्होंने पाया कि भारतीय परिवारों की कर्ज सेवा अनुपात यानी डेट् सर्विस रेशियो करीब 12 प्रतिशत है, जो नॉर्डिक देशों के जैसी है. ये अनुपात चीन, फ्रांस, ब्रिटेन और अमेरिका जैसे देशों से ज्यादा है. इन सभी देशों में घरेलू कर्ज का स्तर ज्यादा है.

यह फर्क इसलिए है क्योंकि भारत में कर्ज की दर ज्यादा और अवधि कम है, जिसकी वजह से अपेक्षाकृत डीएसआर ज्यादा है.

सितंबर में भारत के वित्त मंत्रालय ने बचत कम होने और कर्ज बढ़ने की आशंकाओं को खारिज करते हुए कहा था लोग कोरोना के बाद कम ब्याज दरों को फायदा उठा रहे हैं और कार, शिक्षा और घर खरीदने के लिए लोन ले रहे हैं.

इसके अलावा मंत्रालय का कहना है कि ज्यादा लोग घर और कार जैसे चीजों को खरीदने के लिए कर्ज ले रहे हैं, जो किसी संकट का संकेत नहीं है बल्कि यह भविष्य में रोजगार और बढ़ती आय की संभावना से भरा हुआ है.

हालाँकि, अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के जिको दासगुप्ता और श्रीनिवास राघवेंद्र चिंता जताते हैं.

दोनों अर्थशास्त्री द हिंदू अखबार में लिखते हैं कि बचत में गिरावट ने कर्ज को चुकाने से जुड़ी चिंताओं को बढ़ाने का काम किया है.

इसके अलावा अर्थशास्त्री रथिन रॉय जैसे लोगों ने जी 20 देशों में सबसे कम प्रति व्यक्ति आय वाले देश में कर्ज लेने पर बढ़ती निर्भरता को लेकर चिंता जाहिर की है.

उन्होंने बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखा है कि सरकार बुनियादी सेवाओं और सब्सिडी के लिए उधार लेती है, जबकि परिवार सुख सुविधा से जुड़ी चीजों को खरीदने के लिए लोन ले रहे

अर्थशास्त्री गुप्ता और लढ़ा का मानना है कि एक वर्ष में उधार लेने का मौजूदा उच्च स्तर भारत की वित्तीय या व्यापक तौर पर आर्थिक स्थिरता को खतरे में नहीं डालता है लेकिन अगर ऐसा ही बना रहा तो इससे मुश्किलें पैदा हो सकती हैं.

बिजनेस कंसल्टेंट रमा बिजापुरकर ने अपनी नई किताब लिलिपुट लैंड में लिखा है कि भारत का उपभोक्ता एक ऐसे चौराहे पर खड़ा है जहां वह बेहतरीन जिंदगी जीने के सपने देख रहा है लेकिन उसके पास घटिया सार्वजनिक सुविधाएं और इंफ्रास्ट्रक्चर है और उसकी आय कम है और वो भी अस्थिर है.

दूसरे शब्दों में भारतीय उपभोक्ता इन चीजों के बीच संतुलन बनाने की कोशिश में लगा हुआ है. (bbc.com)

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