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-सलमान रावी
तेज़ गर्मी अपनी जगह है लेकिन इस बार मध्य प्रदेश में राजगढ़ की लोकसभा सीट पर चुनाव ने राजनीतिक तापमान ज़रूर बढ़ा दिया है. लगभग एक दशक के बाद इस सीट पर इतनी गहमा-गहमी देखी जा रही है और लोग इस बार के चुनाव में काफ़ी दिलचस्पी ले रहे हैं.
इसका कारण साफ़ है. इस सीट पर दो बार भारतीय जनता पार्टी के रोडमल नागर ने आसान जीत दर्ज की है.
पिछली बार वो 4 लाख से भी ज़्यादा वोटों से जीते थे. ऐसे अनुमान लगाए जा रहे थे कि इस बार भी लड़ाई एकतरफा ही होगी.
ये तब तक था जब तक कांग्रेस ने इस सीट पर पूर्व मुख्यमंत्री और मध्य प्रदेश में अपने सबसे कद्दावर नेता दिग्विजय सिंह के नाम की घोषणा नहीं की थी.
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दिग्विजय सिंह के इस सीट पर चुनावी समर में उतरने के बाद परिदृश्य ही बदल गया है. अब रोडमल नागर भी चुनाव प्रचार में ही नज़र आ रहे हैं और चिलचिलाती धूप में सुदूर ग्रामीण अंचलों का दौरा कर रहे हैं.
32 साल बाद हुई है दिग्विजय सिंह की वापसी
इस सीट पर दिग्विजय सिंह की वापसी 32 साल के बाद हुई है. लेकिन इसका मतलब ये नहीं निकाला जा सकता है कि उनकी स्थिति मज़बूत है.
इसी लोकसभा क्षेत्र के सुदूर इलाक़े में चुनावी सभा या यूं कहिए कि नुक्कड़ सभा चल रही है. मंच सजा हुआ है जिस पर ‘पुराने कांग्रेसी’ मौजूद हैं. ये आवन गांव है. दिग्विजय सिंह के साथ उनके पुत्र और विधायक जयवर्धन और उनके छोटे भाई लक्ष्मण सिंह मौजूद हैं.
भाषणों के दौर के बाद वहां मौजूद बुज़ुर्गों और आसपास के गांवों से आए लोगों को संबोधित करने के लिए दिग्विजय सिंह की बारी आई.
उन्होंने राजगढ़ से अपने पुराने रिश्ते की लोगों को याद दिलाई. फिर ख़ुद के बारे में ‘फैली अफ़वाहों’ पर सफाई दी. फिर उन्होंने कांग्रेस पार्टी के घोषणा पत्र की चर्चा की जिसे वो कांग्रेस का ‘गारंटी कार्ड’ बता रहे थे.
इसी बीच उन्होंने लोगों से कहा, "जिस किसी को कांग्रेस के गारंटी कार्ड के बारे में जानकारी नहीं है वो अपना हाथ उठाएं.”
वहीं पर मौजूद उनके छोटे भाई लक्ष्मण सिंह ने भी अपना हाथ उठा दिया. दिग्विजय सिंह हक्के-बक्के रह गए. फिर उन्होंने ‘कांग्रेस का गारंटी कार्ड’ मंगवाया और अपने भाई को उसे पढ़ने के लिए कहा.
उन्होंने चुटकी लेते हुए कहा, “अगर हमारे भाई कोई गारंटी मालूम नहीं है तो फिर हमारी नेतागिरी कैसे चलेगी.” इस पर नुक्कड़ सभा में ठहाका गूंज उठा.
कांग्रेस की पारंपरिक सीट रही है राजगढ़
लक्ष्मण सिंह इस सीट से सांसद रह चुके हैं. मगर उन्होंने ये सीट भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार रहते हुए जीती थी. इस बार के विधानसभा चुनाव में उन्हें हार का सामना करना पड़ा था.
इस सीट को कांग्रेस की पारंपरिक सीट माना जाता था क्योंकि साल 1952 से कांग्रेस ने इस पर 9 बार जीत दर्ज की थी. भारतीय जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी ने इस सीट पर 6 बार जीत दर्ज की है. दो बार इस सीट को जनता पार्टी के उम्मीदवारों ने जीता था जबकि एक बार ऐसा हुआ कि एक निर्दलीय ने भी इस सीट को जीतकर सबको चौंका दिया था.
दिग्विजय सिंह ने इस सीट को 1994 में छोड़ा था. इसके बाद बतौर कभी कांग्रेसी और कभी बीजेपी उम्मीदवार के तौर पर दिग्विजय के भाई लक्ष्मण सिंह ने इस सीट को जीता था.
साल 2009 में बीजेपी उम्मीदवार लक्ष्मण सिंह को कांग्रेस के नारायण सिंह अम्बाले ने हरा दिया था. फिर साल 2014 से इस सीट से बीजेपी के रोडमल नागर ही जीतते आए हैं.
राजगढ़ की लोकसभा सीट पर इस बार तेज़ हवा तो चल रही है. मगर हवा किस तरफ़ है? ये पता लगा पाना मुश्किल है. राजनीतिक गहमा-गहमी तो बढ़ी हुई है. रोडमल नागर और दिग्विजय सिंह के सामने चुनौतियों का पहाड़ है. इस पहाड़ को दोनों ही उम्मीदवार ज़ोरदार जनसंपर्क से नापना चाहते हैं.
जहां लंबे समय के बाद इस सीट पर लौटना अपने आप में दिग्विजय सिंह के लिए चुनौती बनी हुई है तो नागर को मतदाताओं की नाराज़गी से जूझना पड़ रहा है.
राजगढ़ ज़िला मुख्यालय में रहने वाले वरिष्ठ पत्रकार गोपाल विजयवर्गीय ने दिग्विजय सिंह के राजनीतिक जीवन को क़रीब से देखा है. वो भी लगभग दिग्विजय सिंह के ही उम्र के हैं. वो मानते हैं कि लंबे समय से अपनी राजनीतिक कर्मभूमि से दूर रहकर अचानक इतने दशकों के बाद वापस लौटना दिग्विजय सिंह के लिए कम चुनौती भरा नहीं होगा.
वो कहते हैं, “आज वो इतने सालों के बाद चुनाव लड़ रहे है. उन्होंने नगरपालिका परिषद का चुनाव लड़ने से अपनी शुरुआत की थी. फिर वो राजनीति में बेहद सक्रिय हो गए थे. उनको इसका फ़ायदा भी मिलता रहा. लेकिन उनके लिए समस्या यही है कि उस समय जो लोग थे, आज उनमें से कुछ वृद्ध हो गए हैं या फिर कुछ भगवान को प्यारे हो गए हैं."
"नई युवा पीढ़ी ने ना तो उनका सांसद वाला कार्यकाल ही देखा है और ना ही मुख्यमंत्री वाला. इस वजह से वो दिग्विजय सिंह से कैसे जुड़ पायेंगे? ये कांग्रेस के लिए थोड़ी दिक्कत पैदा कर रहा है.”
बीजेपी नेता ‘सनातन विरोधी’ होने का लगाते रहे हैं आरोप
इसके अलावा दिग्विजय सिंह को अपनी छवि को लेकर लोगों में पैदा हुई भावना का भी सामना करना पड़ रहा है.
भारतीय जनता पार्टी के नेता उन पर ‘सनातन विरोधी’ होने का आरोप लगाते रहे हैं. इसी छवि की वजह से साल 2019 में जब उन्होंने भोपाल की संसदीय सीट से भारतीय जनता पार्टी की साध्वी प्रज्ञा के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ा था तो उन्हें भारी हार का सामना करना पड़ा था.
दिग्विजय सिंह के लिए भारतीय जनता पार्टी द्वारा लगाए गए आरोपों का सामना करना भी एक बड़ी चुनौती है. वो गांव-गांव घूमकर सफ़ाई दे रहे हैं.
एक सभा में उन्होंने इस सवालों का जवाब देते हुए कहा, “भारतीय जनता पार्टी मुझ पर आरोप लगाती रहती है कि मैं मुस्लिम परस्त हूं. सनातन विरोधी हूं. लेकिन मैं बताना चाहता हूं कि मैं एक हिंदू हूं. एक अच्छा हिन्दू हूं और उनसे तो बहुत अच्छा हिंदू हूं.”
तपती दोपहर में जब वो बीनागंज के इलाके में अपना जनसंपर्क अभियान चला रहे थे तो बीबीसी की टीम भी उनके साथ थी. यहां के तेली गांव इलाक़े में हमें उनसे बात करने का मौका मिला.
वो चुनावी मुद्दों की बात करने लगे और कहा, “मोदी जी कभी भी एक रास्ते से अलग नहीं हटे. वो विकास की बात करते ज़रूर हैं. मगर मतदान के आखिरी दिनों में वो उन्हीं मुद्दों पर आ जाते हैं जिस पर वो अभी तक आते रहे हैं. आम लोग तो ऊब चुके हैं इन सब बातों से. ध्रुवीकरण की बातों से. लोग अब समझ रहे हैं कि मुद्दों की लड़ाई होनी चाहिए जो नहीं हो रही है. मोदी जी जनसरोकार के मुद्दे छोड़कर एक ग़लत रास्ते पर लोगों को ले जाने का प्रयास कर रहे हैं.”
'मतदाता खामोश हैं'
बीबीसी से बातचीत में वो कहते हैं कि मतदाता ख़ामोश है. वो खुलकर अपनी बात नहीं कह रहा है लेकिन वो ये तो महसूस कर रहा है कि महंगाई बढ़ती जा रही है और कोई सुनने वाला नहीं है.
वो कहते हैं, “किसान और मज़दूर परेशान है और वो इन सब बातों को समझ रहे हैं. जिस प्रकार से प्रशासन का और शासन का दुरुपयोग किया जा रहा है, उससे लोगों में एक डर का माहौल है.
दिग्विजय सिंह के लिए उनके करीबी कांग्रेस के नेताओं ने मोर्चा संभाल रखा है. उनके सामने सबसे बड़ा काम है कि किस भी तरह दिग्विजय सिंह की ‘सनातन विरोधी’ छवि को दूर किया जाए.
रशीद जमील राजगढ़ के वरिष्ठ कांग्रेस नेता हैं और दिग्विजय सिंह से लंबे समय से जुड़े रहे हैं. वो उनके चुनाव प्रभारी भी हैं.
‘सनातन विरोधी’ होने के आरोपों पर वो कहते हैं, “आप राजा साहब के किले पर जाइए. सनातनी हिंदू हैं राजा साहब. वो सनातनी हिंदू तो हैं मगर उनमें कट्टरता नहीं है. वो शबरी के झूठे बेर खाने वाले मर्यादा पुरुषोत्तम राम के प्यार और मोहब्बत वाले हिंदू हैं. राजा साहब उसी हिंदुत्व के अनुयायी हैं.. वो जय सिया राम वाले हिंदू हैं न कि जय जय श्री राम वाले..”
इमेज कैप्शन,बीजेपी प्रत्याशी रोडमल नागर
इस तपिश और गर्म हवाओं के थपेड़ों ने राजगढ़ में पसीने छुड़ा दिए हैं. मौजूदा सांसद रोडमल नागर को ज़्यादा पसीने इसलिए छूट रहे हैं क्योंकि उन्हें उम्मीद ही नहीं थी कि इस बार कांग्रेस उनके ख़िलाफ़ इतने कद्दावर नेता को उतारेगी.
पिछले दो चुनावों में उन्होंने आसान जीत हासिल की थी. इस बार चुनौतियां कड़ी हैं. इसी वजह से नागर को प्रधानमंत्री मोदी की छवि की ही आस है जिससे वो अपना बेड़ा पार करना चाहते हैं.
चाचौरा विधानसभा में अपने प्रचार के दौरान वो प्रधानमंत्री के ‘विकास के मॉडल’ की बात करते हैं और राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा की बात करते हैं. वो लोगों को बताते हैं कि साल 2047 तक भारत विश्वगुरु बन जाएगा. वो लोगों से कहते हुए नज़र आये कि वो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के तीसरे कार्यकाल के लिए उनको वोट दें.
जब बीबीसी ने उनसे पूछा कि अपने नाम पर और अपने काम पर वो क्यों वोट नहीं मांग रहे हैं तो उनका कहना था, “भारतीय जनता पार्टी में व्यक्ति गौण होता है. संगठन ही महत्वपूर्ण और सर्वश्रेष्ठ है. संगठन में सब कार्यकर्ता ही होते हैं. मैं भी कार्यकर्ता हूं. सारे कार्यकर्ताओं का उत्साह अपने चरम पर है जो मोदी जी के तीसरे कार्यकाल के लिए ज़ोर लगा रहे हैं."
"आदरणीय प्रधानमंत्री जी के जो काम हैं, उन पर जनता ने विश्वास किया है. हर गांव में, हर क्षेत्र में लोगों ने इसका अनुभव किया है. इसलिए पूरा क्षेत्र और पूरे मतदाता मोदीमय हैं. ये क्षेत्र ... राष्ट्रवाद... राष्ट्रवाद ... राष्ट्रवाद.... इसके प्रति चलता है... और इसलिए व्यक्तिवाद का कोई मतलब नहीं है....”
एंटी-इनकंबेंसी का सामना कर रहे हैं नागर
रोडमल नागर भी अपने ख़िलाफ़ इस बार ‘एंटी इनकम्बेंसी’ यानी विरोध की लहर का सामना कर रहे हैं.
उन पर आरोप है कि वो चुनाव जीतने के बाद लोगों से कटे ही रहे. इसलिए अब उनकी पार्टी के कार्यकर्ताओं और नेताओं को जनता के बीच सफाई देनी पड़ रही है
गोपाल पटवा मधुसूदनगढ़ में पार्षद हैं और भारतीय जनता पार्टी के सक्रिय नेता भी हैं.
सवाल पूछे जाने पर वो कहते हैं, “एक सांसद को तीन से चार महीने दिल्ली में रहना पड़ता है. फिर प्रदेश की राजधानी भोपाल में भी बैठकें होती रहती हैं. ज़िला स्तर पर भी बैठकें होती हैं. राजगढ़ में 2232 मतदान केंद्र हैं और लगभग 6 हज़ार गांव हैं. आप बताइए कि क्या एक सांसद का 6 हज़ार गांव के प्रत्येक व्यक्ति से मिल पाना संभव है?”
क्या कह रहे हैं राजगढ़ के लोग?
राजगढ़ का आम मतदाता अपने पत्ते नहीं खोल रहा है. वो ख़ामोश है. लोग कुछ खुलकर बोलना नहीं चाहते हैं. कैमरे के सामने तो बिलकुल ही नहीं. जो बोल सकते थे उन्होंने अपनी बात कहने की कोशिश की. कुछ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरे को देखकर वोट देना चाहते हैं तो कुछ अपने लोकसभा क्षेत्र में बदलाव देखना चाहते हैं.
प्रिंस अग्रवाल कहते हैं कि वो पारंपरिक रूप से भारतीय जनता पार्टी का ही समर्थन करते आ रहे हैं. लेकिन स्थानीय उम्मीदवार को लेकर उनकी अब अलग राय बन रही है.
उनका कहना था, “वोट भावना पर पड़ते हैं. हम हमेशा से ही वोट भाजपा के लिए करते आ रहे हैं. लेकिन इस बार मानसिकता लोगों की भी कुछ और बता रही है. क्योंकि लोगों की कोई सुनवाई नहीं है और इलाका पिछड़ा ही रह गया है.”
राजगढ़ के ही रहने वाले गंगा प्रसाद किसी पार्टी के समर्थक नहीं हैं. उनका कहना है कि बीजेपी की राज्य में चलाई जा रही योजनाओं का लाभ सबको मिल रहा है. चाहे वो महिलाओं के लिए चलाई जा रही लाडली बहना योजना हो या फिर विवाह वाली योजना.
हमारी मुलाक़ात सड़क के किनारे रेहड़ी लगाने वाले अशोक कुमार से तब हुई जब मधुसूदनगढ़ में मुख्यमंत्री मोहन यादव की चुनावी सभा चल रही थी. सभास्थल के ठीक बाहर नगर परिषद के कार्यालय के पास उनकी रेहड़ी लगती है.
उनकी अपनी शिकायतें हैं. वो कहते हैं, “नगर निगम वाले अलग परेशान करते हैं. पुलिसवाले अलग परेशान करते हैं. अब ऐसे सरकार चलेगी क्या मोदी जी की? मोदी जी कहते हैं कि धंधा करो. वो तो कुछ दे नहीं रहे हैं हमें, हम तो ख़ुद मजदूरी कर के सात आठ लोगों का पेट भरते हैं. अब ये स्थिति में आप देख लो कि कौन जीतना चाहिए. आम आदमी परेशान है...”
राजगढ़ सीट पर इस बार चुनाव के नतीजे क्या होंगे? हार-जीत के फैसले अपनी जगह होंगे. इसको लेकर कोई निश्चित रूप से कुछ नहीं कह सकता. केवल अटकलें ही चल रहीं हैं.
लेकिन इतना तो ज़मीन पर देखने को मिल रहा है कि कई सालों के बाद इस सीट पर चुनावी जंग बेहद रोचक बन गयी है. (bbc.com/hindi)