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बिहार में कोचिंग के चंगुल से छात्रों को निकालेगा कौन?
02-Nov-2020 4:50 PM
बिहार में कोचिंग के चंगुल से छात्रों को निकालेगा कौन?

-सर्वप्रिया सांगवान

ऐसा ही एक कोचिंग हब मोतिहारी के चांदमारी में देखने को मिला जहां हर दूसरा घर एक कोचिंग संस्थान लगता है. लॉकडाउन की वजह से स्कूल बंद हैं लेकिन कोचिंग चल रही हैं.

वहीं, इस गांव के सरकारी माध्यमिक स्कूल में 1 से 8 कक्षा के लिए सिर्फ़ तीन कमरे हैं और इन्हीं कमरों में सब कक्षाएं ली जाती हैं.
एक स्थानीय व्यक्ति ने स्कूल दिखाते हुए कहा कि यहां दाख़िला लेने वाले 50 फ़ीसद से ज़्यादा बच्चे स्कूल छोड़ देते हैं. अगर मां-बाप ग़रीब हैं तो पढ़ाई छूट जाएगी, वरना किसी प्राइवेट स्कूल या कोचिंग में एडमिशन दिला देते हैं.

बिहार सरकार ने अब हर पंचायत के एक माध्यमिक विद्यालय को बारहवीं तक किए जाने का फ़ैसला किया है. नीतीश कुमार ऐसे 3300 स्कूलों का उद्घाटन अगस्त महीने में कर चुके हैं. ये स्कूल भी उन्हीं स्कूलों में से एक है जिसे 12वीं तक किया गया है जबकि ये स्कूल अभी आठवीं तक पढ़ाने के लिए भी पर्याप्त नहीं.
शिक्षा के मामले में देखा जाए तो बिहार में लोग कहते हैं कुछ भी पर्याप्त नहीं और इसलिए नीति आयोग ने भी शिक्षा के मामले में बिहार को 20 राज्यों में से 19वां स्थान दिया है.
जो नीतीश कुमार अपने पहले कार्यकाल में शिक्षा सुधारों को लेकर भरोसा पैदा कर रहे थे, आख़िर क्यों उनके तीसरे कार्यकाल के अंत तक शिक्षा व्यवस्था के और बिगड़ने का आरोप लगने लगा?

कब से नहीं बदली बिहार की तस्वीर
बिहार की शिक्षा व्यवस्था पर जब भी बात होती है तो एक तस्वीर दिमाग़ में उभर कर आती है. तस्वीर जिसमें एक बोर्ड परीक्षा के दौरान स्कूल के कमरे की अलग-अलग खिड़कियों पर लोग चढ़कर नक़ल करवा रहे हैं. ये तस्वीर वैशाली के महनार में एक स्कूल की है जिसे इंडियन एक्सप्रेस के लिए प्रशांत रावी ने खींचा था.
इसी तस्वीर का दूसरा सच ये भी था कि इस स्कूल में 1700 बच्चे पढ़ते थे जिनके लिए पाँच कमरे दिए गए थे और सिर्फ़ दो शिक्षक.
ये तस्वीर थी 2015 की. अब बात करते हैं 2020 की.

किशनगंज के टेढ़ागाछ प्रखंड का मॉडल प्लस टू हाई स्कूल. ये स्कूल बना 1962 में. पहले ये आठवीं तक था. 2013 में इसे बारहवीं तक किया गया.
प्रखंड का ये एकमात्र हाई स्कूल है जबकि इस प्रखंड में तक़रीबन दो लाख लोग रहते हैं.

इसी स्कूल से पढ़े रब्बानी स्कूल दिखाते हुए बताते हैं, "मैं दसवीं क्लास तक यहीं पढ़ा हूं, अब पोस्ट ग्रेजुएशन कर रहा हूं, लेकिन तबसे लेकर अब तक इस स्कूल में कोई बदलाव नहीं आया. इस स्कूल में दो हज़ार छात्र पढ़ते हैं लेकिन सिर्फ़ 15 शिक्षक हैं."

इसी इलक़े में रहने वाले नफ़ीस आलम ने बताया कि वे कोचिंग में ही पढ़ते हैं जिसकी फ़ीस 500 रूपए महीना है.
"टेढ़ागाछ प्रखंड में 40-50 कोचिंग क्लास चलती हैं. यहां बिना कोचिंग कोई पास कर ही नहीं सकता."

कोचिंग क्लास में पढ़ते बच्चे

पूरे टेढ़ागाछ ब्लॉक में सिर्फ़ एक स्कूल है जो बारहवीं तक है. पूरे किशनगंज में ही कुल पाँच सरकारी स्कूल हैं जहां 12वीं की पढ़ाई की जा सकती है.
इसी स्कूल के सामने एक महिला छात्रावास की इमारत चार-पाँच साल पहले ही बनकर तैयार हो चुकी है लेकिन कई सालों से इसका उद्घाटन ही नहीं हो पाया और इसलिए ये अब तक ख़ाली पड़ी है.
किशनगंज के ही बेलवा गांव से गुज़रते हुए एक स्कूल की बिल्डिंग के बाहर कई साइकलें खड़ी दिखीं. लॉकडाउन के बाद स्कूल तो पूरी तरह खोले नहीं गए हैं. लेकिन इस सरकारी स्कूल में दो कोचिंग क्लास चल रही थी.

किशनगंज के बेलवा का सरकारी स्कूल जहां कोचिंग क्लास चलती हैं.

एक क्लास में संस्कृत की कोचिंग दे रहे थे महेश कुमार. दूसरी क्लास में उर्दू की कोचिंग दे रहे थे ज़ाहिद आलम. ये दोनों युवा अपनी पढ़ाई के लिए भी कोचिंग जाते हैं.
ये एक सरकारी स्कूल था जहां कोई पक्का फ़र्श नहीं था और छत मानो कभी भी टूट कर गिर सकती है. लेकिन इन्हीं दो शिक्षकों से पता चला कि लॉकडाउन से पहले ये स्कूल चल रहा था.

इस स्कूल में शौचालय के नाम पर सिर्फ़ एक जगह है जहां कूड़ा-करकट पड़ा है. इतनी बड़ी ज़मीन पर ये सरकारी स्कूल साल 1980 से चल रहा है. 40 सालों से इस स्कूल में मूलभूत सुविधा तक मुहैया नहीं करवाई जा सकी हैं.

संजय कुमार पब्लिक एजुकेशन सिस्टम को दुरूस्त करने के लिए जन शिक्षा अभियान चलाते हैं. वे ख़ुद भी बिहार के सरकारी स्कूल से पढ़े हैं.
संजय कुमार बताते हैं, "जब बिहार के सरकारी स्कूल में पढ़ता था, तब भी शौचालय नहीं थे, आज भी नहीं है. उस वक़्त लाइब्रेरी नहीं होती थी, आज भी नही है. प्लेग्राउंड की स्थिति देखिए. साइंस की पढ़ाई के लिए प्रयोगशालाएं नहीं हैं. जहां मैंने पढ़ाई की है वहां चार साल से आज की तारीख़ में 11वीं-12वीं के लिए सिर्फ़ म्यूज़िक के टीचर हैं. दूसरे हाई स्कूलों में 11-12 के लिए सिर्फ़ संस्कृत के टीचर हैं. बच्चों ने सरकारी योजनाओं के लाभ के लिए स्कूलों में नाम तो लिखवा लिया है लेकिन वे कोचिंग जाकर पढ़ रहे हैं."

लेकिन क्या इसके पीछे शिक्षकों की उदासीनता है या उनकी कमी होना या दोनों ही?
हर स्तर पर शिक्षकों की कमी

इसी साल सितंबर में लोकसभा में शिक्षा मंत्री रमेश पोखरियाल ने अपने एक जवाब में बताया कि बिहार में तक़रीबन 40 फ़ीसद शिक्षकों के पद ख़ाली पड़े हैं यानी बिहार में पौने तीन लाख शिक्षकों की कमी है.
नियुक्ति के लिए परीक्षाएं भी हुई हैं लेकिन किसी परीक्षा का परिणाम नहीं आया और किसी का परिणाम आने के बावजूद नियुक्ति नहीं हुई.
जैसे 2017 में बिहार शिक्षा विभाग ने शिक्षक पात्रता परीक्षा यानी टीईटी करवाया. 94 हज़ार लोगों ने परीक्षा दी लेकिन अभी तक नियुक्तियां नहीं हो सकी हैं.
जनवरी 2020 में माध्यमिक शिक्षा पात्रता परीक्षा यानी एसटीईटी के लिए परीक्षा हुई. लेकिन इस परीक्षा का अभी परिणाम ही नहीं आया है.

जब लालू प्रसाद यादव बिहार के मुख्यमंत्री थे तो उस वक़्त 12वीं के नंबरों के आधार पर शिक्षामित्रों की बहाली की गई.
उसके बाद नीतीश सरकार ने 2006 में नियोजित (अस्थायी) शिक्षकों की भर्ती 12वीं और ग्रेजुएशन के आधार पर की. उसके बाद 2009 में भी नियोजित शिक्षक भर्ती किए गए.

बिहार शिक्षा आंदोलन संयोजन समिति के लिए काम करने वाले नवेंदु प्रियदर्शी बताते हैं, "2006 और 2009 में जब बहाली हुई तो न्यूनतम योग्यता के लिए परीक्षा तक नहीं हुई. बहुत से लोग ऐसे बहाल हुए जो सिर्फ़ बीए पास थे. उससे पहले 1990 से लेकर 2005 के बीच में जो परीक्षाओं का हाल रहा, वो देश भर में चर्चा का विषय बना. नक़ल से लोग फ़र्स्ट डिवीज़न ला रहे थे. फिर इन्हीं डिग्रियों के आधार पर नीतीश कुमार ने शिक्षक बहाल किए."
नवेंदु बताते हैं कि जब साल 2014 में शिक्षक भर्ती के लिए परीक्षा ली गई तब फ़िज़िक्स के सात शिक्षक ही पास हो सके. इसलिए फ़िज़िक्स के अध्यापकों की रिक्तियां नहीं भरी जा सकीं.

"कई विद्यालय हैं जहां साइंस की पढ़ाई तो होती है लेकिन गणित और फ़िज़िक्स के शिक्षक ही नहीं है."
15 साल से सिस्टम में हैं अप्रशिक्षित लोग

इन अप्रशिक्षित शिक्षकों की भर्तियों के लिए ट्रेनिंग करना भी अनिवार्य किया गया.
लेकिन इतने बड़े स्तर पर भर्तियां हुई थीं कि लंबे वक़्त तक ट्रेनिंग नहीं मिल सकी.
शिक्षाविद् अभय कुमार कहते हैं, "सुप्रीम कोर्ट ने मार्च 2019 में अल्टीमेटम दिया था कि सभी शिक्षकों की ट्रेनिंग सुनिश्चित कीजिए. तो आप सोचिए 2005 में जो भर्तियां हुई हैं उनमें से 2020 तक भी सभी की ट्रेनिंग नहीं हुई है. ये सोचने वाली बात है कि अगर 15 साल तक कोई शिक्षक बिना ट्रेनिंग सिस्टम में रहेगा तो क्या होगा."
शिक्षकों को ट्रेनिंग करवाने की बात तो लगातार की जाती रही लेकिन इन ट्रेनिंग कॉलेजों की हालत ऐसी है कि उनकी मान्यता रद्द हो रही है.
हाल ही में बिहार के सहरसा ज़िले में एकमात्र सरकारी टीचर्स ट्रेनिंग कॉलेज की मान्यता रद्द कर दी गई है.

नीतीश कुमार ने सत्ता में आते ही कॉमन स्कूल सिस्टम कमीशन का गठन किया और इस आयोग ने 2007 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी.
इस आयोग के बहुत से सुझाव 2020 तक भी लागू नहीं हो पाए हैं और उनमें शिक्षकों से संबंधित सुझाव लागू करना अभी दूर की कौड़ी है.

इस आयोग के सुझावों में कहा गया था कि सभी अस्थायी शिक्षकों को स्थायी और प्रशिक्षित शिक्षकों से बदला जाए. शिक्षकों के पदों को तय वक़्त में भरना और किसी भी समय 10 फ़ीसद से ज़्यादा शिक्षकों के पोस्ट ख़ाली नहीं होने चाहिए. शिक्षकों को रिसर्च के लिए बढ़ावा देना चाहिए. सभी शिक्षकों की बेसिक तनख़्वाह इतनी होनी चाहिए कि वे एक गरिमापूर्ण ज़िंदगी जी सकें. महंगाई के साथ उनकी तनख़्वाह भी बढ़ सके.

लेकिन 2009 से ही नियोजित शिक्षक अपने वेतन को लेकर सरकार से लड़ रहे हैं. उनका कहना है कि उन्हें स्थायी शिक्षकों के समान ही वेतन दिया जाए.
ये मामला पटना हाईकोर्ट भी पहुँचा और कोर्ट ने शिक्षकों के हक़ में फ़ैसला दिया. लेकिन बिहार सरकार सुप्रीम कोर्ट पहुँच गई और बताया कि क्यों समान वेतन नहीं दिया जा सकता है.

सरकार ने बताया कि शिक्षकों की तनख़्वाह का बजट हर साल 8924 करोड़ रूपए का है. अगर इन नियोजित शिक्षकों की तनख़्वाह राज्य के स्थायी शिक्षकों जितनी कर दी जाएगी तो सरकार का बजट 18,854 करोड़ हो जाएगा. सरकार ने कहा कि इसके अलावा रिक्त पदों को भरने के लिए भी बजट की ज़रूरत है.
सुप्रीम कोर्ट ने फ़ैसला बिहार सरकार के हक़ में दिया. अगर पटना हाईकोर्ट का फ़ैसला लागू होता तो नियोजित शिक्षकों का वेतन कम से कम 27 हज़ार रूपए हो जाता. यानी शिक्षक आज की तारीख़ में इससे भी कम वेतन पा रहे हैं.

राष्ट्रीय जनता दल ने चुनाव में वादा किया है कि अगर पार्टी सत्ता में आती है तो शिक्षकों को समान काम के लिए समान वेतन दिया जाएगा. लेकिन बजट को लेकर जो नीतीश सरकार ने कोर्ट में कहा, उसके मद्देनज़र किस तरह इन वादों को कोई भी पार्टी पूरा कर पाएगी?

विधानसभा चुनावों से ठीक पहले बिहार सरकार ने नियोजित शिक्षकों की बेसिक तनख़्वाह 15 फ़ीसद बढ़ाने की घोषणा की जो 2006 से नियुक्त हैं. सरकार इनके पीएफ़ में भी योगदान देगी लेकिन ये 1 अप्रैल 2021 से लागू होगा.
एक स्कूल ऐसा भी...

सरकारी शिक्षकों की योग्यता और स्कूलों की बदहाली पर उठ रहे सवालों के बीच कुछ अच्छे उदाहरण भी हैं.
एक ऐसा स्कूल जहां सीसीटीवी कैमरे लगे हैं, हर बच्चे के लिए वर्दी अनिवार्य है, शिक्षकों के लिए स्कूल का आई-कार्ड पहनना ज़रूरी है, प्रधानाचार्य के दफ़्तर में सभी शिक्षकों की लिस्ट लगी है, एक डिब्बे में साबुन बैंक बनाया गया है और एक डिब्बे में लड़कियों के लिए पैड बैंक. कुल मिलाकर स्कूल को अच्छी तरह मेंटेन किया गया है.

ये कोई प्राइवेट स्कूल नहीं, बल्कि बिहार के सुपौल ज़िले का एक माध्यमिक विद्यालय है.
यहां प्रधानाचार्य राजेश कुमार तो मौजूद नहीं थे लेकिन उनके पीछे वहां मौजूद सभी शिक्षक उनकी तारीफ़ करते हैं.
साइंस टीचर पूनम कुमारी यहां 2005 से पढ़ा रही हैं और वे कहती हैं कि इस स्कूल में जो भी अच्छा बदलाव है वो दो साल पहले प्रधानाचार्य के आने के बाद हुआ है.

पूनम कुमारी ने अपना एडमिशन रजिस्टर भी दिखाया और कहा कि जुलाई से अक्तूबर के बीच स्कूल के शिक्षकों ने क्षेत्र में जाकर 245 नए छात्रों का एडमिशन किया है और अब प्राइवेट स्कूलों से भी कुछ बच्चे यहां दाख़िला ले रहे हैं.

स्कूल तो लॉकडाउन की वजह से बंद था लेकिन शिक्षक काफ़ी प्रोत्साहित नज़र आ रहे थे. शिक्षकों की 'निष्ठा' ट्रेनिंग हो रही है, स्कूल में बच्चों के एडमिशन करने की मुहिम चलाई जा रही है.

एक ख़ास बात ये भी कि इस स्कूल में शौचालय भी नए प्रधानाचार्य के आने के बाद ही बन पाया है.
2005 से काम कर रहीं इन महिला शिक्षकों से जब पूछा कि वे उससे पहले कैसे मैनेज कर पा रही थीं तो उन्होंने कहा कि बस घर की ओर भागते थे.
मगर इन सबके बीच अब भी बच्चे दरी पर बैठ कर पढ़ते हैं. 800 की क्षमता वाले स्कूल में प्रधानाचार्य को मिलाकर केवल 12 शिक्षक हैं.
ये शिक्षक बताते हैं कि अभिभावक अंग्रेज़ी मीडियम की वजह से अपने बच्चों को प्राइवेट में भेजना पसंद करते हैं और इसलिए सरकार को कुछ स्कूलों को अंग्रेज़ी मीडियम में तब्दील कर देना चाहिए.

हालांकि इन चुनावों में बीजेपी उच्च शिक्षा को भी हिंदी माध्यम में किए जाने का वादा कर रही है.
माध्यमिक विद्यालय बलुआ बाज़ार के प्रधानाचार्य का दफ्तर

नीतीश सरकार ने स्कूलों के लिए कुछ योजनाएं शुरू की हैं जैसे 75 फ़ीसद हाज़िरी पूरी करने वाले छात्र/छात्रा को स्कॉलरशिप मिलती है. पहली से चौथी कक्षा वाले को 600 रुपए, पाँचवी-छठी कक्षा वाले को 1200 रूपए और सातवीं-आठवीं के लिए 1800 रूपए.
इसके अलावा वर्दी और स्टेशनरी के लिए भी खाते में पैसा दिया जाता है.
समग्र विकास योजना के तहत मेंटेनेंस और विकास के लिए हर साल 75000 रूपए भी स्कूलों को दिया जाता है.
जिन छात्र-छात्राओं की हाज़िरी नवीं कक्षा में 75 फ़ीसद रही हो, उन्हें दसवीं में साइकिल दी जाती है. लड़कियों के लिए सेनेटरी नैपकिन के लिए भी हर महीने 150 रुपए दिए जाते हैं.

पटना विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर रही डेज़ी नारायण कहती हैं कि नीतीश कुमार के पहले कार्यकाल में लगा कि नीतीश शिक्षा के लिए काम करना चाहते हैं, कई योजनाएं भी लेकर आए हैं. लेकिन अगर क्लास में पढ़ाई ना हो रही हो तो ये योजनाएं बेकार हो जाती हैं.

सहरसा के आरएम कॉलेज में छात्रों की भीड़ लगी थी. कोई दाख़िले के लिए आया था तो कोई अगले दिन होने वाली परीक्षा के लिए एडमिट कार्ड लेने.
अलका मिश्रा ने बारहवीं में 73 फ़ीसदी नंबर हासिल किए हैं. वह अपनी मां के साथ मधेपुरा के सिंगारपुर गांव में रहती हैं और वहां से 3-4 घंटे दूर पड़ने वाले इस कॉलेज में दाख़िला लेने आई हैं.
सहरसा ज़िले का ये आरएम कॉलेज भूपेंद्र नारायण मंडल विश्वविद्यालय (बीएन मंडल) से जुड़ा है. वो विश्वविद्यालय जिसके लिए कहा जाता है कि यहां डिग्री एक-दो साल देरी से ही मिलती है.

लेकिन इसके बावजूद अलका यहां बीसीए कोर्स में क्यों दाख़िला लेने आई हैं?

वह बताती हैं, "मेरे पास ऑप्शन नहीं है. डिग्री लेट भी मिलती है तो भी यहीं लेना पड़ेगा एडमिशन. प्राइवेट में पढ़ने के लिए पैसे नहीं हैं."
अलका को इसी कॉलेज में रोज़ 3-4 घंटे का सफ़र करके आना होगा या उनके पास विकल्प है कि वह आस-पास कहीं किराए पर घर लेकर अपनी पढ़ाई पूरी करें.
इसी कॉलेज में बीसीए में पढ़ने वाले छात्र ने बताया कि जून में उनका आख़िरी सत्र ख़त्म हो जाना चाहिए था लेकिन आज वह अपने पाँचवे सत्र की परीक्षा के लिए एडमिट कार्ड लेने आए हैं. लॉक़डाउन से पहले भी उनका सत्र पीछे ही चल रहा था.

वहीं, जब हम बीएन मंडल यूनिवर्सिटी के मुख्य कैंपस पहुँचे तो छात्र कहने लगे कि जबसे ये विश्वविद्यालय बना है तबसे ये भ्रष्टाचार से ही घिरा है.
एक छात्र नीरज कहते हैं, "यहां छात्रों को सही वक़्त पर परिणाम ही नहीं मिलता है. ये पच्चीसवें वाइस चांसलर आ चुके हैं लेकिन आज तक विश्वविद्यालय में अकादमिक कैलेंडर लागू नहीं हो सका है."

एक छात्र सारंग ने बताया कि 2013 के बाद 2019 में यहां पीएचडी के लिए प्रवेश परीक्षा हो सकी है.

कॉलेज के जनसंपर्क अधिकारी सुधांशु शेखर ने बताया, "यहां वर्कफ़ोर्स की बहुत कमी है. प्रोफ़ेसर, लेक्चरर के अलावा बाक़ी ग़ैर-शिक्षक स्टाफ़ की भी कमी है. प्रशासनिक समस्याएं अभी काफ़ी हैं. पेपर चेक करने में ग़लतियां हो जाती हैं और रिज़ल्ट कैंसिल करना पड़ता है."

विश्वविद्यालय के कैंपस में ही एक स्टाफ़ ने नाम ना छापने की शर्त पर बताया कि 'साइंस विषय के सरकारी शिक्षकों की अपनी प्राइवेट कोचिंग चलती है. छात्र क्लास में नहीं आते बल्कि कोचिंग में जाते हैं. दूसरी ओर राज्य सरकार फ़ंड भी नहीं देती है. रिज़ल्ट लेट भी शिक्षकों की ग़लती की वजह से होता है क्योंकि ज्यादातर शिक्षक तो कॉपी जाँचने के लिए ही अयोग्य हैं.'

ये ग़ौर करने वाली बात है कि ये विश्वविद्यालय और इसके कॉलेज अब तक इसलिए चल रहे हैं क्योंकि यहां पढ़ने वाले ज़्यादातर छात्र ग़रीब हैं और पिछड़े इलाक़ों से आते हैं जो प्राइवेट कॉलेजों में या दूसरे शहरों में नहीं जा सकते.

लेकिन इसके बावजूद बिहार में 18 से 23 साल के सिर्फ़ 13 फ़ीसद छात्र ही बिहार में उच्च शिक्षा लेते हैं. ये संख्या पूरे देश में सबसे कम है. बिहार के साथ लगते राज्य झारखंड में ये 19 फ़ीसद है. ये बात ख़ुद शिक्षा मंत्रालय के साल 2019 के ऑल इंडिया हायर एजुकेशन सर्वे में सामने आई.
यूजीसी की वेबसाइट पर बिहार में 19 सरकारी विश्वविद्यालय हैं. इसके अलावा सात प्राइवेट विश्वविद्यालय.
उससे बड़ी बात ये है कि इन विश्वविद्यालयों में भी विषय के अनुरूप पर्याप्त शिक्षक नहीं हैं.

पटना यूनिवर्सिटी के छात्र नीतीश कुमार भी रहे, लालू प्रसाद यादव भी और रामविलास पासवान भी. लेकिन आज की तारीख़ में पटना विश्वविद्यालय में 50 फ़ीसद शिक्षकों की कमी है.

पटना विश्वविद्यालय में इतिहास की प्रोफ़ेसर रह चुकी डेज़ी नारायण कहती हैं कि उनके रिटायर होने के बाद वहां इतिहास पढ़ाने के लिए सिर्फ़ एक ही शिक्षक हैं.

"एक ज़माना था कि नेपाल ये बच्चे यहां पढ़ने आते थे. कभी इतिहास विभाग में 24 शिक्षक हुआ करते थे. लेकिन आज पटना यूनिवर्सिटी में हर विभाग में शिक्षकों की कमी है. गेस्ट फ़ैकल्टी और एडहॉक टीचर लाकर पढ़ाई करवाई जा रही है. इस तरह तो उच्च शिक्षा नहीं चलती है."

वे कहती हैं, "बिहार के बच्चे आईएएस बनते हैं लेकिन वे बाहर जाकर तैयारी करते हैं, सरकार का क्या योगदान है उसमें. हर कोई आईएएस तो नहीं बन सकता है, तो बाक़ी लाखों छात्रों के लिए सरकार के पास क्या योजना है?"

चुनावों से पहले नीतीश सरकार ने 52 विषयों के लिए असिस्टेंट प्रोफ़ेसर की 4638 वेकेंसी निकाली हैं. पटना कॉलेज से रिटायर हुए नवल किशोर चौधरी पूछते हैं कि ये पद सालों से ख़ाली हैं.

"10-20 साल में नियुक्ति हो रही है. 1996 के बाद 2003 में हुई. उसमें भी गड़बड़ी के आरोप लगे. उसके बाद अब चुनाव से पहले नियुक्ति की बात हो रही है."
नवेंदु प्रियदर्शी कहते हैं, "बिहार में दो दशक पहले सरकारी कॉलेजों के प्रति लोगों का झुकाव था. 5-7 कॉलेज बहुत नामी थे. पटना सांइस कॉलेज, लंगट सिंह कॉलेज, भागलपुर में मारवाड़ी कॉलेज था. उन दिनों इतने छात्र पढ़ने आते थे कि खिड़कियों पर बैठते थे. आज वहां कोई पढ़ाई नहीं होती. अब बस नाम दर्ज होते हैं, परीक्षा के वक़्त छात्र परीक्षा देने आ जाते हैं."

नवेंदु बताते है कि जिस समस्तीपुर कॉलेज में कुल शिक्षक 100 से ज़्यादा थे, आज वहां 15 शिक्षक हैं और विषय पढ़ाए जा रहे हैं 24. बेगुसराय के जीडी कॉलेज में दो साल पहले 22 हज़ार छात्र नामांकित थे लेकिन सिर्फ़ सात शिक्षक थे.

'बिहार की शिक्षा की हालत का ज़िम्मेदार मध्यम वर्ग भी'
इसी साल जनवरी में ही ये ख़बर कई अख़बारों में छपी कि गया ज़िले का एक स्कूल सिर्फ़ एक छात्रा को पढ़ाने के लिए चलता है. इस स्कूल के दो शिक्षक सिर्फ़ उसी को पढ़ाने के लिए आते हैं. देखा जाए तो ये ख़बर ख़ुशी भी देती है और हैरानी भी, लेकिन साथ ही एक सवाल भी खड़ा करती है कि 1972 से बने इस सरकारी स्कूल में बाक़ी बच्चे क्यों पढ़ने नहीं आते.

क्या ये बिहार के सरकारी सिस्टम में लोगों के गिरते विश्वास का एक उदाहरण है?
नवेंदु कहते हैं कि जिन लोगों को अच्छी शिक्षा के लिए माँग करनी चाहिए या आंदोलन करना चाहिए, उन लोगों को लगता है कि उनके बच्चों की व्यवस्था तो प्राइवेट ने कर दी है.

प्राइवेट स्कूल में इतना सुनिश्चित हुआ कि बच्चा नामांकित है, बैठने की व्यवस्था है, हर क्लास के लिए एक शिक्षक है. स्कूल वक़्त पर खुलता है और बंद होता है. इसके अलावा वहां क्या है, वो दावे के साथ नहीं कहा जा सकता. लेकिन समस्या ये है कि सरकारी स्कूल इतना भी नहीं कर पाएं हैं.
वहीं संजय कुमार शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं में आई गिरावट का ज़िम्मेदार मध्यम वर्ग को मानते हैं.

वे कहते हैं, "अर्थव्यवस्था डिमांड और सप्लाई पर चलती है. जैसे ही कोई प्राइवेट स्कूल खुला, मध्यम वर्ग के पास थोड़ा पैसा आने लगा और उसने अपने बच्चे को प्राइवेट में भेजना शुरू कर दिया. हम लोगों के वक़्त में कलेक्टर का बच्चा भी हमारे स्कूल में पढ़ता था. लेकिन धीरे-धीरे मध्यम वर्ग ने अपने आप को सरकारी सिस्टम से निकाला और प्राइवेट में जाना शुरू किया. सरकारी से माँग नहीं की. ये चरमराती व्यवस्था और चरमराती गई. इसलिए आज भी ये प्राथमिकता नहीं है सरकारों की."
कैग की ऑडिट रिपोर्ट बताती है कि बिहार सरकार 2010-11 से लेकर 2015-16 के बीच 26,500 करोड़ का राइट टू एजुकेशन के तहत दिया बजट ख़र्च ही नहीं कर पाई.
हालांकि बिहार के शिक्षा मंत्री कृष्ण नंदन वर्मा कहते हैं कि पिछले पाँच साल में तो बिहार के शिक्षा सेक्टर में बड़ा बदलाव आया है. उन्होंने कहा कि वे शिक्षक, इंफ्रास्ट्रक्चर, साफ़-सफ़ाई पर पूरा ध्यान दे रहे हैं और शिक्षा के बेहतरी के लिए 34, 798 करोड़ भी दिया है.

संजय कुमार कहते हैं कि इस वक़्त बिहार जनसांख्यिकी आपदा से गुज़र रहा है और ये मानव निर्मित है. इस वक़्त सरकारी स्कूलों और कॉलेजों का जो हाल है उससे बिहार अकुशल वर्कफ़ोर्स ही बना रहा है.

सामाजिक आंदोलन से निकले बिहार के दो बड़े नेता लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार ने अपने स्तर पर सामाजिक न्याय की राजनीति भी की. लेकिन सवाल ये है कि क्या सामाजिक न्याय बिना शिक्षा पहुँचाए पूरा हो सकता है? (bbc.com/hindi)
 

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