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बिहार चुनावः मधुबनी पेंटिंग के कलाकार अब वोट क्यों नहीं देना चाहते
05-Nov-2020 6:28 PM
बिहार चुनावः मधुबनी पेंटिंग के कलाकार अब वोट क्यों नहीं देना चाहते

जितवारपुर गांव में मधुबनी पेंटिंग कलाकार सपना देवी

पटना , 5 नवंबर | बिहार का जब भी नाम लिया जाता है, तो इसके साथ मिथिलांचल की लोक कला मधुबनी पेंटिंग का ज़िक्र ज़रूर आता है.

मधुबनी पेंटिंग की ख़ूबसूरती को कौन नहीं जानता, लेकिन इसे बनाने वाले कलाकारों की क्या हालत है, ये शायद ही कोई जानता हो.

सपना देवी जब अपनी पीली साड़ी के कोर से आँसू पोछते हुए रूँधे गले से ये कहती हैं कि उनके पास ज़हर भी खाने के पैसे नहीं हैं, तो ये मधुबनी पेंटिंग बनाने वाले तमाम कलाकारों की हालत बयाँ कर देती है.

बिहार के मधुबनी ज़िले का जितवारपुर गाँव मधुबनी पेंटिंग का गढ़ माना जाता है, यहीं से इस पेंटिंग की शुरुआत हुई थी.

इस कला को पीढ़ी दर पीढ़ी लोगों ने सीखा और यहाँ लगभग 80 फ़ीसद की आबादी की रोज़ी-रोटी का इकलौता ज़रिया मधुबनी पेंटिंग है.

इस गाँव की रहने वाली हैं सपना देवी पासवान. सपना से हमारी मुलाक़ात गाँव की पगडंडी पर हुई.

सपना के हाथों में सूखी लकड़ियाँ थीं, जिन्हें लेकर वह तेज़ी से अपने घर की ओर बढ़ रही थीं. हमें देखते ही वह बोलती हैं कि कौन-सा उज्ज्वला और कौन-सा मकान चलिए, देखिए हम कहाँ रहते हैं.

सपना देवी के पास मिट्टी और फूस से बना घर है. प्रधानमंत्री आवास योजना और उज्ज्वला योजना अभी सपना देवी के घर नहीं पहुँच सकी है.

वे कहती हैं, "हम पेंटिंग बनाते हैं, काम एकदम बंद है, हम भूखों मर रहे हैं, हम लोगों के पास पूँजी नहीं है. बेटा को पढ़ाती थी, लेकिन अब पैसा भी नहीं है कि फ़ीस भरकर पढ़ा सकें. जवान बेटी है, वो भी कलाकार है. लेकिन हमारे पास इतने भी पैसे नहीं हैं कि बेटी का ब्याह कर सकें. हम सरकार साहेब से मदद माँगते हैं, हमको अपनी लड़की की शादी करनी है, लड़के को पढ़ाना है."

"पहले अगर कोई विदेशी आ जाए तो हमें कुछ पैसे मिल जाते थे, लेकिन अगर कोई यहीं का आदमी पेंटिंग ख़रीदता है, तो 500-700 रुपये ही देता है. लेकिन अब तो वो भी नहीं मिल रहा है. एक पेंटिंग बनाने में 6-7 दिन लग ही जाते हैं, लेकिन बदले में हमें कुछ नहीं मिलता."

जितवारपुर गांव में मधुबनी पेंटिंग कलाकार राजीव झा

'कोई हमारी नहीं सुनता'

मधुबनी पेंटिंग बनाने वाले कलाकारों का कहना है कि बीते चार साल से सरकार की ओर से क्राफ़्ट मेले का आयोजन लगातार घटता जा रहा है.

वर्ष 2017 में कपड़ा मंत्रालय की ओर से जितवारपुर को कला ग्राम बनाने का एलान किया गया था, लेकिन इस गाँव में अब तक ऐसा कोई काम नहीं किया गया है, जिससे ये बिहार के बाक़ी गाँव से अलग नज़र आता हो.

इस बार अपने हालात और सरकार से तंग इन कलाकारों ने चुनाव का बहिष्कार करने का एलान किया है. इस गाँव के ही एक नौजवान कलाकार राजीव झा की हमसे मुलाक़ात हुई.

राजीव ने हैदराबाद से पढ़ाई की है, लेकिन अपनी पढ़ाई-लिखाई से इतर वे कलाकार हैं, जिन्होंने अपने माता-पिता से मधुबनी पेंटिंग सीखी.

राजीव कहते हैं, "साल 2017 में जितवारपुर को कलाग्राम बनाने का एलान किया गया, सरकारी चिट्ठी भी जारी की गई. कहा गया था कि इस गाँव में अस्पताल बनेगा, लाइब्रेरी बनेगी, टूरिस्ट प्लेस बनाया जाएगा ताकि लोग सीधे आकर हमारा काम ख़रीदेंगे, लेकिन तीन साल से कुछ नहीं हो रहा है. विभाग की तरफ़ से 843 लाख का बजट दिया गया है, लेकिन कोई काम हमारे गाँव के लिए हुआ है क्या?"

राजीव बताते हैं, "यहाँ टेक्सटाइल विभाग के लोग भी आए, लेकिन कुछ नहीं हुआ. हमने प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखी, स्मृति इरानी जी को चिट्ठी लिखी, सांसद जी को चिट्ठी लिखी, कहीं से कोई जवाब नहीं मिला. वैसे भी नेताओं को हमारी पड़ी नहीं है, तो हमारे पास अपनी बात रखने का एकमात्र तरीक़ा यही बचा है कि चुनाव का बहिष्कार करें. जब प्रतिनिधि को हमारी बात ही नहीं सुनना है, तो वोट करके क्या मिलेगा."

जुलाई महीने में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मन की बात में मधुबनी पेंटिंग वाले मास्क की ख़ूबियाँ गिनाईं थीं.

इसे सुनकर कलाकारों को लगा की माँग बढ़ेगी, लिहाज़ा राजीव, सपना देवी जैसे कई गाँव के कलाकारों ने जमा पूँजी से मास्क के कपड़े ख़रीदे और मास्क बनाए, लेकिन अब वो मास्क कपड़ों के गट्ठर की तरह घर के कोने में पड़े हैं.

लाखों लोगों वाली हस्तकला के लिए कोई बाज़ार नहीं

भारत में हस्तकला की बिक्री कैसे होगी, इसका कोई सुनिश्चित माध्यम नहीं है. एक अनुमान के मुताबिक़ भारत में 130 लाख लोग हैं, जो क्राफ़्ट के काम से जुड़े हुए हैं.

'द हिंदू' की साल 2013 में आई एक रिपोर्ट कहती है कि दुनिया भर में 400 बिलियन डॉलर के हैंडीक्राफ़्ट बाज़ार में भारत की हिस्सेदारी दो प्रतिशत है. ग्रामीण भारत में कृषि के बाद दूसरे नंबर पर ऐसी हाथ की कलाकारी ही लोगों के पेट पालने का सबसे बड़ा साधन है.

लेकिन, इस आबादी को अपना सामान बाज़ार तक कैसे पहुँचाना है और किस बाज़ार तक पहुँचाना है, इसका कोई तय मानक हैं ही नहीं. देश की राजधानी में स्थित दिल्ली हाट को छोड़ दें, तो इन कलाकृतियों का कोई तय बाज़ार नहीं है.

लेकिन, दिल्ली हाट में भी स्टॉल लगाना आसान नहीं है.

राजीव बताते हैं, "दिल्ली हाट में 15 दिन का स्टॉल लगाने के लिए 12-13 हज़ार रुपए का किराया भरना होता है. हम जो बड़ी कमाई लगा कर पेंटिंग बना रहे हैं, उसके बाद किराए भर का पैसा कैसे लाएँगे."

मधुबनी में ऐसी कलाओं के लिए काम करने वाली एनजीओ ग्रामोत्थान परिषद के सचिव अनिल कुमार झा कहते हैं, "नई सरकार का कला के प्रति जो रुख़ है, उससे हालात बदतर होते जा रहे हैं. पहले देश भर में सालाना 100 से 150 कला प्रदर्शनियाँ लगती थीं, लेकिन अब बीते चार साल से ये संख्या 3-4 पर आ चुकी है. वहीं, अब सूरजकुंड मेला और प्रगति मैदान में जो मेला लगता है, उसी में ही बिक्री होती है."

गाँव के ही एक कलाकार ने हमें बताया कि ग्राम मेले के लिए सरकार की तरफ़ से एक दिन के 100 रुपए मिलते हैं, लेकिन इतने में तो दो वक़्त का ख़ाना भी नहीं मिलता

राष्ट्रीय सम्मान पा कर भी बिना इलाज मौत

वर्ष 1977 में जितवारपुर में काल एसोसिएशन का गठन हुआ, जिसका मक़सद मिथिलांचल में मधुबनी पेंटिंग बनाने वाले कलाकारों की मदद करना था.

1969 में बिहार सरकार ने पहली बार सीता देवी को सम्मान दिया. जिसके बाद 1981 में उन्हें पद्म श्री से सम्मानित किया गया. सीता देवी को 1984 में बिहार रत्न सम्मान भी मिला.

इसके अलावा जगदंबा देवी को 1975 में और बउआ देवी को 2017 में पद्म श्री मिला.

सीता देवी ने दीवारों पर बनने वाली मधुबनी पेंटिंग को पेपर और कैनवास तक पहुँचाया था.

अकेले जितवारपुर गाँव से 14 कलाकारों को हस्तशिल्प का राष्ट्रीय अवॉर्ड मिला है.

ऐसे ही राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित उत्तम पासवान को अपने आख़िरी दिनों में इलाज तक नहीं मिल सका.

लॉकडाउन के दौरान उन्हें लिवर कैंसर हुआ, महंगा इलाज और पैसों की कमी के कारण 13 अक्तूबर को उनकी मौत हो गई. जब हम उनके घर पहुँचे, तो उनके छोटे से घर की हर दीवार पर गोदना मधुबनी पेंटिंग उकेरी हुई थी.

घर के बाहर एक तख़्त लगाया गया था, जिस पर कुछ लोग बैठे थे.

अंदर मातम के माहौल में एक लड़की खड़ी मिली, जो हमसे बात करने की स्थिति में थी.

उन्होंने अपना परिचय देते हुए बताया कि वह उत्तम पासवान जी की बेटी पूनम पासवान हैं. अपनी रोती माँ के आँसू पोंछती, माँ के साथ खड़ी पूनम अब इस घर का सहारा हैं.

मधुबनी कलाकार उत्तम पासवान की बेटी पूनम पासवान

पूनम को शिकायत है कि उनके पिता ने कलाकार होना चुना. जिन नेताओं ने पूनम के पिता को देश का गौरव बताया था, उन्हीं नेताओं ने पैसों की मदद माँगने पर भी पिता का इलाज नहीं कराया.

वह कहती हैं, "लॉकडाउन के दौरान ही पापा को पेट में फोड़ा हो गया. चेकअप कराए, तो डॉक्टर ने कहा कि लिवर कैंसर है. जितना इलाज करा सकते थे कराया, जब पैसे नहीं बचे तो प्रधानमंत्री मोदी जी, राम विलास पासवान जी, टेक्सटाइल मंत्रालय को चिट्ठी लिखकर मदद माँगी, लेकिन कोई जवाब तक मिला, मेरे पापा जब तक जिए, दर्द में रहे."

पूनम बताती हैं, "मैंने इंटर की पढ़ाई की है. ख़ुद भी पेंटिंग बनाती हूँ, लेकिन जो देखा उसके बाद मैं कलाकार नहीं बनना चाहती. नेशनल अवॉर्ड जीतने से क्या होगा? जब ज़िंदगी इतनी ज़लालत और मजबूरियों से भरी हो. क्यों हमारी पीढ़ी को मेरे पापा के रास्ते पर चलना चाहिए, इससे बेहतर मैं मज़दूरी करूँ, ईंट ढोऊँ. मुझे अपनी पढ़ाई तो दूर, अपने छोटे भाई-बहनों की पढ़ाई कैसे होगी ये भी समझ नहीं आता. मैं कितनी मजबूर हूँ, बता नहीं सकती. अपने पापा के मरने का मातम भी ठीक से नहीं मना सकी, क्योंकि मुझे उनके अंतिम संस्कार का इंतजाम करना था. मेरे पापा रोते हुए गए इस दुनिया से, अगर कोई मदद करता तो वो बच जाते."

अपने शब्द पूरे करते ही पूनम की भावनाओं का बाँध टूट पड़ता है. वह ज़ोर-ज़ोर से रोने लगती हैं.

साल 2012 में राष्ट्रीय पुस्कार विजेता चानो देवी का भी कैंसर से ही निधन हुआ था और उन्हें भी ऐसे ही इलाज नहीं मिल सका था.

पूनम पासवान कहती हैं, "मेरे पापा नेशनल अवॉर्ड पाए, मेरी माँ राज्य स्तर पर अवॉर्ड पाई हैं, लेकिन इन अवॉर्ड का क्या मतलब, लोग हँसते हैं हम पर."

राज्य सरकार की ओर से जिन लोगों को सम्मानित किया गया है, उन्हें 3000 रुपए की पेंशन दी जाती है.

राज्य सम्मान पाने वालीं 59 साल की उर्मिला देवी कहती हैं, "बच्चे हैं, परिवार का ख़र्चा है, 3000 रुपए में खाना खाएगा इंसान या अपनी कला बचा पाएगा. अब तो शिकायत करने का भी मन नहीं करता, कुछ नहीं बदलेगा. हमारे सामने जो लोग सम्मान पा कर भी ऐसी मौत मरें हैं, उन्हें देखकर हम सच्चाई समझ चुके हैं."

सरकार की योजनाओं का क्या?

भारत सरकार की प्रधानमंत्री मुद्रा योजना के तहत लोन लेकर कारोबार को शुरू किया जा सकता है और छोटे कारोबारों को 50 हज़ार का लोन मिल सकता है.

अनिल झा कहते हैं, "50,000 रुपए की राशि तो कलाकार के साथ मज़ाक़ है. अगर मान लीजिए 3000 रुपए की साड़ी ख़रीदी जाए और 200 रुपए प्रतिदिन के हिसाब से भी पेंटिंग की मज़दूरी मानी जाए, तो 5000 रुपए तो एक साड़ी तैयार करने में लग जाएँगे. ऐसे में 50 हज़ार में 10 साड़ी तैयार होंगी तो क्या आर्टिस्ट 10 साड़ी लेकर एक्ज़िबिशन में जाएगा. कम से कम ये रक़म 2.5 से 3 लाख होनी ही चाहिए."

वहीं, राजीव झा जो ख़ुद एक कलाकार हैं, बताते हैं कि आप बैंक में जाकर ख़ुद देख लीजिए बैंक वाले साफ़ कह देते हैं कि अभी लोन नहीं मिल रहा है.

ऐसी ही एक स्कीम है 'जीविका' जिसे राष्ट्रीय लाइवलीहुड मिशन और राज्य के लाइवलीहुड मिशन मिलकर चलाते हैं. इसके तहत हर इलाक़े में प्रोडक्शन सेंटर बनाए जाते हैं.

इन सेंटरों में 30-40 महिलाओं के ग्रुप बनाए जाते हैं, जिन्हें कुछ रक़म लोन के ज़रिए दी जाती है. ये महिलाएँ पेंटिंग बनाती हैं और बेचती हैं, इसके बाद जो पैसे मिलते हैं, उनका 40 फ़ीसद हिस्सा कलाकारों को सेंटरों को देना होता है.

राजीव झा कहते हैं, "अगर महिलाओं के एक समूह को एक लाख रुपए का क़र्ज़ मिलता है, तो 40 महिलाओं में बँट कर वो रक़म कितनी रह जाएगी. इसके बाद अगर बाज़ार में कुछ पैसे मिले, तो 40 फ़ीसद सेंटरों को क्यों देना चाहिए, ऐसे तो सरकार ने बिचौलियों की जगह ख़ुद ले ली है."

वहीं अनिल झा मानते हैं कि जीविका जैसी योजनाएँ हालात को ध्यान में रख कर बनाई ही नहीं जातीं, ये बस थोप दी जाती हैं और इनका फ़ायदा किसी को ठीक से नहीं होता.

बिहार की कला और म्यूज़ियम जापान में

अनिल झा बताते हैं कि सरकार कला और कलाकार को लेकर कितनी गंभीर हैं, इसका अंदाज़ा इसी बात से लगा लीजिए कि आज सीता देवी, बउवा देवी की कोई पेंटिंग सरकार ने संभाल कर नहीं रखी है. अगर कोई नया कलाकार उनकी पेंटिंग देखकर सीखना चाहे तो हमारे पास कोई संग्राहालय ही नहीं है, जिनमें उन्हें संभाल कर रखा गया हो.

मधुबनी ज़िले में मधुबनी आर्ट से जुड़ा कोई भी संग्रहालय नहीं है. लेकिन इससे हज़ारों मील दूर जापान के टोकामशी में मिथिला म्यूज़ियम है, जहाँ 15,000 से ज़्यादा बेहतरीन मधुबनी पेंटिंग्स को संभाल कर रखा गया है.

साल 1982 में 80 पेंटिंग के साथ इस म्यूज़ियम की शुरुआत हुई थी, जिसे जापान के लोगों ने बिहार दौरे के दौरान ख़रीदा था.

लेकिन, जिस देश से ये कला वैश्विक पटल तक पहुँची, वहाँ ही इस धरोहर को बचाने वाले संग्राहालय नहीं बन सके.

बिचौलियों का खेल

मधुबनी पेंटिंग बनाने का काम मुख्यत: महिलाएँ करती हैं. ये महिलाएं मैथिली भाषा ही बोलती हैं और बड़े शहरों तक जाकर अपना काम नहीं बेच सकती हैं. ऐसे में बिचौलियों की भूमिका शुरू होती है.

ये बिचौलिए ही पेंटिंग्स को बाज़ार तक ले जाते हैं और कलाकार के लिए ऑर्डर भी लाते हैं. यहाँ तक कि टेक्सटाइल मंत्रालय भी कलाकारों से सीधे सौदा नहीं करता.

एक कलाकार कहते हैं, "पहले हर 15 दिन पर कोई ना कोई मेला लगता था, गांधी शिल्प मेला, इंडिया एक्सपो, सूरजकुंड मेला जैसे बड़े आयोजनों के अलावा छोटे-छोटे मेले भी मंत्रालय की ओर से लगाए जाते थे. लेकिन बीते दो तीन साल से सब बंद है."

पेंटिंग आर्टिस्ट रधु देवी कहती हैं, "मधुबनी पेंटिंग हम लोगों का पेशा है. हम ये शौक़ के लिए नहीं करते हैं. पहले अगर हमारे गाँव के 10 लोगों को भी मेले में जाने को मिलता था, तो वो लोग 200 लोगों की पेंटिंग ले जाकर बेचते थे, लेकिन अब तो कोई नहीं जा रहा. एजेंट लोग जाते हैं और मोटे दाम में हमारा काम बेचते हैं और हमको ही तनी-मनी रुपया मिलता है."

वैसे तो ये बिचौलियों का सिस्टम बिहार में मनरेगा के तहत मज़दूरी के आबंटन सहित लगभग हर क्षेत्र में है, लेकिन कला के क्षेत्र में बिचौलियों का और भी ज़्यादा दबदबा है, क्योंकि इन कलाकारों को यही नहीं पता होता कि कहाँ जाकर अपना बाज़ार तलाशा जाए.

आरोपों पर अधिकारी का जवाब

कलाकारों के इन आरोपों से अलग बिहार के डायरेक्टर म्यूज़ियम दीपक आनंद मानते हैं कि बीते कुछ सालों में बिहार में कलाकारों को ध्यान में रखकर कई सारे क़दम उठाए गए हैं.

वे कहते हैं, ''मिथिला ललित संग्रालय सौराठ में बनाया जा रहा है, चित्रकला संस्थान का काम जारी है जो लगभग पूरा होने को हैं. लॉकडाउन में कलाकारों की मदद के लिए विभाग ने फ़ॉर्म जारी किया था, जिसके तहत 700 लोगों को 1000 रुपए की मदद दी गई.''

लाखों कलाकारों में से महज़ 700 लोगों को ही मदद क्यों? इस सवाल पर आनंद कहते हैं जितने लोगों ने फ़ॉर्म भरा, उनको मदद मिली.

वह मानते हैं कि इस साल मेले या एक्ज़िबिशन का आयोजन नहीं हो पाया है, लेकिन वो ये भी कहते हैं कि ''इससे पहले महीने-महीने भर के मेले होते हैं और इनमें 15 स्टॉल हम निशुक्ल कलाकारों को देते हैं.''

हालाँकि सभी तर्कों के साथ वह इस बात पर कलाकारों से सहमति जताते हैं कि कोई भी तय मार्केट इस तरह के हैंडीफ्राफ़्ट के लिए नहीं हैं.

कला जिसने तोड़ीं जातियों की बेड़ियाँ

कहते हैं कि मधुबनी पेंटिंग की शुरुआत सवर्ण ब्राह्मण महिलाओं से हुई. इसे घरों की दीवारों पर शादी-ब्याह और त्योहारों में बनाया जाता था. इस कला की पाँच विधाएँ हैं- भरनी, कचनी, गोदना, तांत्रिक, कोहबर.

सीता देवी 'भरनी' पेंटिंग बनाया करती थीं. भरनी पेंटिंग में चटख़ रंगों का इस्तेमाल किया जाता है और इसमें ज़्यादातर पौराणिक कथाओं को किरदारों के ज़रिए बयां किया जाता है. जैसे रामायण और महाभारत की कथाएँ. कहते हैं कि ये ब्राह्मण समाज की महिलाएँ बनाती थीं.

कचनी ऐसी विधा है, जिसमें बिना रंगों का इस्तेमाल किए बेहद बारीक लाइनों के साथ आकृतियाँ तैयार की जाती हैं, ये कला भी कायस्थ और ब्राह्मण समाज के लोग ही बनाया करते थे.

लेकिन, सीता देवी की कला को जब पहचान मिली, तो गाँव के अन्य लोग भी पेंटिंग सीखने लगे और यहीं से दलितों ने भी पेंटिंग को अपनाया. लेकिन, यहाँ दलित महिलाओं ने गोदना पेंटिंग की विधा शुरू की.

गोदना का अर्थ होता है टैटू. हरिजन महिलाओं ने बदन पर होने वाले टैटू को पेपर पर उतारा. गोदना बेहद महीन डिज़ाइन के साथ आती है, साथ ही इसके किरदार और कहानी प्रतिदिन होने वाली गतिविधियों पर आधारित रहते हैं.

लेकिन, अब ये जाति के बंधन कला के दायरे में टूट चुके हैं, अब कई दलित महिलाएँ भी कचनी और भरनी पेंटिंग बना रही हैं और कई सवर्ण महिलाएँ गोदना पेंटिंग बनाती हैं. (bbc)

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