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तालिबान के क़ब्ज़े वाले काबुल से कैसे बाहर निकली भारतीय महिला? मिनट दर मिनट की कहानी
24-Aug-2021 12:34 PM
तालिबान के क़ब्ज़े वाले काबुल से कैसे बाहर निकली भारतीय महिला? मिनट दर मिनट की कहानी

-नेहा शर्मा

अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के कब्ज़े के बाद से भारत लगातार लोगों को वहां से निकाल रहा है. भारतीय वायुसेना के विमान अफ़ग़ानिस्तान में फंसे लोगों को निकाल रहे हैं.

अफ़ग़ानिस्तान में फंसी और वहां से वापस लौटने की राह देख रही एक भारतीय महिला ने हमसे अपने अनुभव साझा किये.

लतीफ़ा (बदला हुआ नाम) ने काबुल से दिल्ली आने के लिए 19 अगस्त की फ़्लाइट बुक की थी. उन्होंने एयर इंडिया की फ़्लाइट से अपने लिए बुकिंग करवायी थी. लेकिन उन्हें क्या पता था कि अफ़ग़ानिस्तान में सत्ता परिवर्तन इतनी तेज़ी से होगा.

तालिबान ने देखते ही देखते महज़ कुछ दिनों में काबुल समेत पूरे अफ़ग़ानिस्तान को अपने कब्ज़े में ले लिया.

उनके कब्ज़ा करते ही सभी कमर्शियल फ़्लाइट्स रद्द कर दी गईं और इसी के साथ एयर इंडिया की वो फ़्लाइट भी कैंसिल हो गई जिससे लतीफ़ा को भारत लौटना था.

अफ़ग़ानिस्तान से लौटे लोग
21 अगस्त की शाम को जब मैंने उनसे बात की तो लतीफ़ा काबुल एयरपोर्ट के बाहर एक मिनी बस के अंदर लगभग 20 घंटे से बिना कुछ खाए-पिए, शौच गए बैठी हुई थीं.

वो लगातार कोशिश में थीं कि कैसे भी करके भारतीय वायु सेना के विमान में सवार हो जाएं.

लतीफ़ा एक भारतीय हैं और उनकी शादी एक अफ़ग़ान से हुई है. वह अक्सर अफ़ग़ानिस्तान आया करती थीं.

भारत और अफ़ग़ानिस्तान दोनों ही जगहों पर उनका परिवार है, जिससे मिलने के लिए वो दोनों ही देशों की यात्राएं करती थीं.

15 अगस्त
15 अगस्त की सुबह लतीफ़ा को पता चला कि अफ़ग़ानिस्तान में रातों-रात ज़्यादातर दूतावास बंद हो गए और दूतावास के कर्मचारी जैसे भी संभव हो सके वहां से निकल रहे हैं.

लतीफ़ा के पति चाहते थे कि वह जल्द से जल्द अफ़ग़ानिस्तान से बाहर चली जाएं. इसके पीछे वजह ये थी कि लतीफ़ा एक भारतीय हैं और भारतीय होने के नाते उनकी जान को अधिक ख़तरा था.

लतीफ़ा ने अपना पासपोर्ट और नीला बुर्का लिया और अपने पति के साथ जो भी फ़्लाइट मिल सके उसके बारे में पूछताछ करने, पति और ससुराल वालों के लिए वीज़ा लेने के लिए भारतीय दूतावास गईं.

लतीफ़ा ने बताया,"जब हम भारतीय दूतावास पहुंचे तो ये हमारा सौभाग्य था कि दूतावास अभी बंद नहीं हुआ था. लेकिन तालिबान के कब्ज़े से उपजे हालात का तनाव हवा में साफ़ महसूस किया जा सकता था. वे सभी दस्तावेजों को नष्ट कर रहे थे और कार्रवाइयों से जुड़े पन्नों को जला रहे थे.''

''कर्मचारियों ने हमें बताया कि वे शाम तक काम करेंगे. मैं अपने परिवार के बाकी सदस्यों के लिए वीज़ा लेने पहुंची थी. उन्होंने मुझे शाम तक परिवार के सदस्यों के पासपोर्ट और दूसरे ज़रूर दस्तावेज़ लेकर आने को कहा. उसके बाद मैं घर आ गई."

भारतीय दूतावास से लौटते समय उन्होंने चारों तरफ़ मची अफ़रा-तफ़री को देखा और लोगों की लाचारी को महसूस किया.

उन्होंने बताया, "लोग तालिबन के डर से इधर-उधर भाग रहे थे. मेरे पति ने मेरा हाथ पकड़ रखा था और हम तेज़ क़दमों से अपने घर को जा रहे थे. ऐसा लग रहा था कि पूरा काबुल शहर सड़कों पर उतर आया हो और एयरपोर्ट की ओर भागा जा रहा हो. यह सबकुछ बेहद डरावना था.''

''जब मैं अपने घर पहुंची तो मेरी बिल्डिंग का सिक्योरिटी स्टाफ़ बदल चुका था. जो स्टाफ़ पहले हुआ करता था उनकी यूनिफ़ॉर्म होती थी लेकिन अब जो खड़े थे उन्होंने कुर्ता-पायजामा पहन रखा था. मेरी बिल्डिंग तालिबान के घेरे में थी."

लतीफ़ा और उनके पति ने घर से पासपोर्ट उठाया और उसी शाम दूतावास वापस चले गए. उनकी किस्मत अच्छी थी कि उनके परिवार के बाकी सदस्यों को भी वीज़ा मिल गया.

इसके बाद शुरू हुआ भारत सरकार के विदेश मंत्रालय से उस फ़ोन कॉल का इंतज़ार, जिस पर उनका सबकुछ दांव पर लगा हुआ था. लतीफ़ा भारतीय हैं इसलिए उनका नाम प्रथमिकता सूची में था.

19 अगस्त
लतीफ़ा बताती हैं,"मुझे 19 अगस्त को भारतीय विदेश मंत्रालय से एक संदेश मिला. मुझे काबुल में एक विशेष स्थान (सुरक्षा कारणों से ख़ुलासा नहीं किया जा सकता) तक पहुंचने को कहा गया. जिन लोगों को अफ़ग़ानिस्तान से निकलना था, उन्हें उस जगह पर इकट्ठा होना था.''

''मैं अपने पूरे परिवार को पीछे छोड़कर जा रही थी. ये किसी भी तरह से आसान नहीं था. लेकिन मेरे परिवार को मेरी चिंता थी और सबसे अहम बात..हमारे पास कुछ भी सोचने के लिए समय नहीं था. हमसे कहा गया था कि हम सिर्फ़ एक छोटा हैंडबैग लेकर ही आएं. इसलिए मैंने अपना लैपटॉप, हार्ड ड्राइव, फ़ोन, एक पावर बैंक उठाया और घर से निकल गई. "

लतीफ़ा के अलावा उस सेफ़हाउस में लगभग 220 अन्य यात्री भी थे, जो बेसब्री से अफ़ग़ानिस्तान से बाहर निकलने का इंतज़ार कर रहे थे. इसमें भारतीय मुसलमान, हिंदू, सिख और कुछ अफ़ग़ान परिवार भी थे.

लतीफ़ा बताती है कि उस समय सेफ़हाउस में भी सुरक्षित महसूस नहीं हो रहा था. इसके बाद अगले दो दिन बेहद फ़िक्र और तनाव में गुज़रे.

लतीफ़ा बताती हैं, "वहां कोई व्यवस्था नहीं थी और ना ही हमें इस बारे में कोई जानकारी नहीं थी कि हमें वहां से कब निकाला जाएगा. सेफ़हाउस के अंदर हमें कोई सुरक्षा नहीं दी गई थी. बल्कि बाहर तालिबान हमारी निगरानी के लिए था ताकि कोई दूसरा उपद्रवी समूह हम पर हमला न कर सके. हम बहुत असुरक्षित महसूस कर रहे थे. डर इतना हावी था कि हम सो भी नहीं सके. "

20 अगस्त
लतीफ़ा बताती हैं कि 20 अगस्त को रात क़रीब 10 बजे अचानक से वहां से निकालने का आदेश आया. उसी रात क़रीब 10 से 11:30 बजे के बीच हम लगभग 150 यात्री सात मिनी बसों में हवाई अड्डे के लिए रवाना हुए. हर मिनी बस में 21 लोगों के बैठने के लिए सीटें थीं.

लतीफ़ा बताती हैं,"तालिबान हमें सुरक्षा दे रहा था. उनकी एक कार हमारे आगे चल रही थी और दूसरी हमारे पीछे. हम रात क़रीब साढ़े बारह बजे काबुल एयरपोर्ट पहुंचे. अफ़ग़ानिस्तान से बाहर भागने के लिए बड़ी संख्या में लोग एयरपोर्ट के बाहर इंतज़ार कर रहे थे.''

''एक तरफ तालिबान लगातार कई राउंड की फ़ायरिंग कर रहे थे तो दूसरी ओर अमेरिकी सैनिक भीड़ को नियंत्रित करने के लिए आंसू गैस के गोले दाग रहे थे. हमें उत्तरी गेट पर ले जाया गया, जिसका ज्यादातर इस्तेमाल सेना ही करती है."

भले ही तालिबान ने हमें अपनी निगरानी में हवाई अड्डे तक पहुँचाया हो लेकिन यह लतीफ़ा और बाकी यात्रियों की परीक्षा का अंत नहीं था.

अमेरिकी सैनिक काबुल हवाई अड्डे की निगरानी कर रहे हैं और उन्होंने इन यात्रियों को हवाई अड्डे के अंदर प्रवेश करने से रोक दिया.

इस कारण 20 और 21 अगस्त की रात लतीफ़ा और दूसरे यात्रियों ने बाहर खड़ी बस के अंदर बैठकर गुज़ारी. इस समय तक इन लोगों को इस बारे में कोई सूचना नहीं थी कि आख़िर उन्हें कब बाहर निकाला जाएगा.

लतीफ़ा बताती हैं, "हमारे साथ बच्चे, महिलाएं और बीमार लोग थे. हम सचमुच सड़क पर फंसे हुए थे. कुछ महिलाओं के पीरियड्स चल रहे थे लेकिन आसपास शौचालय की सुविधा नहीं थी. हम एक खुली जगह पर बैठे हुए थे जहां कोई भी हम पर हमला कर सकता था. "

21 अगस्त
लतीफ़ा और उनके साथ के दूसरे यात्रियों के लिए यह एक मुश्किल रात थी. लेकिन सुबह और डरावनी होने वाली थी.

वो बताती हैं, "सुबह क़रीब 9:30 बजे तालिबान लड़ाके हमारी बसों में आ गए और हमारे को-ऑर्डिनेटर से पूछताछ करने लगे. उन्होंने उनका फ़ोन छीन लिया और उन्हें थप्पड़ मार दिया. हमें पता नहीं चल रहा था कि आख़िर क्या हो रहा है."

उन सात बसों में सवार सभी यात्रियों को तालिबान लड़ाके अपने साथ एक अज्ञात जगह पर ले जा रहे थे.

वो कहती हैं, "हमें एक इंडस्ट्रियल इलाक़े में ले जाया गया,हम उनकी हिरासत में थे. वहां मौजूद तालिबान लड़ाके युवा थे. उनमें से कुछ तो 17-18 साल के ही मालूम पड़ रहे थे.''

''हम डरे हुए थे और लगभग हर किसी के मन में सिर्फ़ यही चल रहा थी कि सबकुछ ख़त्म हो चुका है. हम सभी के लिए वे कुछ घंटे जीवन के सबसे ख़तरनाक घंटे थे. हमें लगा कि अब हम अपने परिवार से दोबारा कभी नहीं मिल पाएंगे. कभी घर नहीं जा पाएंगे."

एक पार्क में पुरुष अलग और महिलाएं अलग बैठी हुई थीं. तालिबान लड़ाकों ने उनके पासपोर्ट छीन लिए थे और उनसे पूछताछ कर रहे थे. अफ़ग़ानों से शादी करने वाली भारतीय महिलाओं को बाकी भारतीयों से अलग कर दिया गया था.

लतीफ़ा बताती हैं, "मैंने उनसे कहा कि मैं एक भारतीय हूं और भारतीयों के साथ रहना पसंद करूंगी इस पर उन्होंने कहा कि मुझे अफ़ग़ानों के साथ रहना चाहिए. मुझे डर लग रहा था कि वे मेरे भारतीय भाइयों और बहनों के साथ क्या करने वाले हैं."

वो बताती हैं, "एक तालिबान लड़ाके ने मुझसे पूछा - आप इस देश को क्यों छोड़ना चाहती हैं? हम इसे बनाने की कोशिश कर रहे हैं. उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या मैं अफ़ग़ानिस्तान वापस आऊंगी? मैंने कहा-नहीं, हम तुमसे डरते हैं. इस पर उन्होंने हमें आश्वस्त किया कि हमें डरने की कोई ज़रूरत नहीं है.''

''उन्होंने हमें पीने के लिए पानी दिया लेकिन आंख नहीं मिलायी. बाद में उन्होंने हमें बताया कि सुरक्षा को खतरा है और वे यह सुनिश्चित कर रहे थे कि हम सुरक्षित रहें. मुझे भारतीय समूह के एक मित्र का संदेश भी मिला और उसने बताया कि तालिबान ने उन्हें खाना खिलाया और उनकी अच्छी देखभाल की."

उस दिन बाद में, स्थानीय अफ़ग़ान मीडिया से बात करते हुए तालिबान के एक प्रवक्ता ने स्पष्ट किया कि उन्होंने यात्रियों को हिरासत में लिया था क्योंकि उन्हें कुछ संदेह था और वे सभी की सुरक्षा सुनिश्चित करना चाहते थे. उन्होंने यात्रियों के अपहरण की ख़बरों को ख़ारिज कर दिया.

कुछ घंटों के बाद, लतीफ़ा को अफ़ग़ानों और अन्य भारतीय महिलाओं के साथ बस में बिठा दिया गया. अन्य भारतीय समूह भी उनके साथ शामिल हो गए. दोपहर क़रीब 2 बजे वे एकबार फिर काबुल हवाई अड्डे के उत्तरी द्वार पर खड़े थे और एकबार फिर हवाई अड्डे में प्रवेश करने का उनका इंतजार शुरू हो गया.

लतीफ़ा बताती हैं, "विदेश मंत्रालय हमें हवाई अड्डे के अंदर घुसाने की कोशिश कर रहा था लेकिन कामयाबी नहीं मिल पा रह थी. मुझे गुस्सा आ रहा था कि हमने उन्हें अपने तालिबान के हिरासत में रहने की बात बता दी थी लेकिन फिर भी कोई कार्रवाई नहीं की जा रही थी.''

''हमें जानकारी नहीं है कि दरवाजे के पीछे क्या बातचीत हो रही थी लेकिन वहां फंसे हर शख़्स की तरह मैं भी हताश और कमज़ोर महसूस कर रही थी."

"अगर वे इस बात को लेकर आश्वस्त नहीं थे तो उन्हें हमें अपने घरों से बाहर निकलने के लिए नहीं कहना चाहिए था. हम कम से कम अपने घरों में छिपे तो होते. हम पर इतना ख़तरा तो नहीं होता."

शाम 5 बजे - लतीफ़ा के समूह को भारतीय विदेश मंत्रालय ने सूचित किया कि अगले 15-20 मिनट में उन्हें हवाई अड्डे पर ले जाया जाएगा. लेकिन ऐसा हुआ नहीं.

शाम 6 बजे - मंत्रालय की ओर से एक और फ़ोन आया और इस बार लतीफ़ा और उनके समूह को वापस सेफ़हाउस जाने के लिए कहा गया. उस समय लगा कि हर कोशिश बेकार हो गई.

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वह कहती हैं तब मैं सोच रही थी "क्या हमारी सरकार के पास कोई ताक़त नहीं है? क्या वे हमें एयरपोर्ट में प्रवेश भी नहीं करा सकते? हमें यहां छोड़ दिया गया है. कोई तो हमें यहां से बाहर निकाले."

रातें जागते हुए लतीफ़ा भावनात्मक रूप से टूट चुकी थीं. बाकियों की हालत भी ऐसी ही थी.

शाम 6:50 बजे - "अधिकारियों ने हमें बताया है कि हमें रात में निकाला जा सकता है लेकिन क्या पता... ऐसा वे बहुत बार कह चुके थे. हम निराश हो चले थे और हममे से कई लोग तो वापस घर लौटने का विचार कर रहे थे. हम 3 दिन से सोए नहीं थे. जिनके साथ छोटे बच्चे थे उनके साथ परिस्थितियां और मुश्किल थीं."

8 बजे - थकी और निराश लतीफ़ा ने यह सोचकर घर वापस जाने का फ़ैसला किया कि वो इतनी जल्दी तो देश से बाहर नहीं जा सकेंगी. लेकिन बाद में उसी रात भारतीय वायु सेना के सी-17 विमान ने भारतीयों और अफ़ग़ानों के एक समूह को सफलतापूर्वक वहां से निकाला. और लतीफा जैसे कई लोग जो वापस घर वापस चले गए, छूट गए.

9:40 बजे - "मुझे दूसरों ने बताया कि यह फ़टाफ़ट हो गया. सेफ़हाउस पहुंचने के तुरंत बाद ही उन्हें वापस एयरपोर्ट ले जाया गया. उनके पास इतना समय भी नहीं था कि वे मुझे सूचित कर सकते. मैं पीछे छूट गई थी. वे सभी एयरपोर्ट के भीतर थे."

लतीफ़ा कहती हैं,"मैं सेफ़हाउस छोड़ने के फ़ैसले के लिए ख़ुद पर नाराज़ नहीं होना चाहती थी. हम मानसिक और शारीरिक रूप से थक चुके थे. मैं अभी भी आशान्वित थी क्योंकि मुझे बताया गया कि और लोगों को भी निकालने के लिए उड़ानें संचालित की जाएंगी."

22 अगस्त
लतीफ़ा से विदेश मंत्रालय ने दो बार संपर्क किया और उनका नाम उन लोगों की एक नई सूची में जोड़ा गया जिन्हें निकाला जाना था.

23 अगस्त
लतीफ़ा से भारतीय मंत्रालय ने 2:30 (स्थानीय समयानुसार) बजे संपर्क किया और उनसे कहा गया कि वह सुबह 5:30 बजे तक एक ख़ास जगह पर पहुंच जाएं. बसें सुबह 6:30 बजे हवाई अड्डे के लिए रवाना होने वाली थीं.

सुबह 8 बजे- 21 सीटों की क्षमता वाली दो मिनी बसें 70-80 यात्रियों को लेकर हामिद करजई अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे के मुख्य द्वार पर पहुंचीं. बाहर का नज़ारा पहले सा ही था.

"बड़ी संख्या में लोग अभी भी अपनी किस्मत आज़मा रहे थे. हमने तालिबान लड़ाकों को लोगों को चाबुक से मारते देखा है. वे हवा में फायरिंग कर रहे थे. हमें सभी खिड़कियों को बंद रखने और पर्दे लगाने के लिए कहा गया था. यह डरावना था."

सुबह 8:45 बजे- लतीफ़ा को लेकर बस मेन गेट से सुरक्षित एयरपोर्ट में दाखिल हुई.

वो कहती हैं, "बहुत मुश्किल से हम अंदर जाने में कामयाब हो सके. मुख्य द्वार पर तालिबान के सदस्य थे. कुछ मुख्य द्वार के अंदर भी दिखाई दिये. हम और अंदर पहुंचे और यहां से हम अमेरिकी सैनिकों को देख सकते थे. वे हमें वेव कर रहे थे. कुछ भारतीय अधिकारी हमें लेने आए और हमारे पासपोर्ट की जांच की."

सुबह 10 बजे - सभी महिला यात्रियों को एक अस्थायी तंबू में बैठाया गया और अमेरिकियों ने उन्हें खाना दिया.

11:20 बजे - "अमेरिकी सैनिकों ने आकर हमें तंबू से बाहर निकाला और उसके बाद हमें धधकते सूरज के नीचे टरमैक पर बिठाया गया. हम भारतीय विमान के उतरने का इंतजार कर रहे थे. हमने सुना कि वे अमेरिकी सैनिकों से लैंड करने के लिए अनुमति मिलने की प्रतीक्षा कर रहे थे."

दोपहर 12:04 बजे - "मैं भारतीय सैन्य विमानों को टरमैक से दूर खड़ा देख सकती थी. उसके बाद हमें फ़्लाइट में चढ़ने के लिए ले जाया गया."

12:20 बजे - "हम भारतीय सैन्य विमान के अंदर थे और वे हमें ताजिकिस्तान ले जा रहे थे."

दोपहर 1 बजे - लतीफ़ा का फ़ोन दोपहर 1 बजे स्विच ऑफ हो गया. हमने उन्हें कॉल करके चेक करने की कोशिश की. पर बात नहीं हो सकी. इसका शायद यह मतलब है कि फ़्लाइट ने क़ाबुल से ताजिकिस्तान के लिए उड़ान भर ली हो और भारत के रास्ते होकर आया हो.

24 अगस्त
आख़िरकार लतीफ़ा की फ़्लाइट सुबह 9:40 बजे दिल्ली के इंदिरा गांधी इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर लैंड हुई और इस तरह एक दुखद अध्याय का अंत हुआ.

मैंने फ़्लाइट लैंड होने के तुरंत बाद उन्हें कॉल किया और कहा- वेलकम होम लतीफ़ा.

यह सुनकर वो रोने लगीं और बोलीं, "मुझे समझ नहीं आ रहा है कि मैं इसका क्या मतलब समझूँ. मैं तो यहाँ आ गई हूँ लेकिन मेरे पति और परिजन अब भी अफ़गानिस्तान में हैं."

लतीफ़ा ने कहा, "काबुल में मेरे साथ जो कुछ हुआ, अब मुझे वो सब याद आ रहा है. जब हम काबुल में थे तब हमारे सोचने के लिए भी एक मिनट का वक़्त नहीं था लेकिन जैसे ही फ़्लाइट दुशांबे पहुँची, सबकुछ याद आने लगा."

उन्होंने कहा, "मैं जम सी गई हूँ. अब मैं बस यही दुआ कर रही हूँ कि मेरे पति और सास-ससुर भी जल्दी वहाँ से सुरक्षित निकल जाएं. जब तक ऐसा नहीं होता, मुझे नहीं लगेगा कि मैं घर वापस आ गई हूँ." (bbc.com)

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