राष्ट्रीय
gautam navlakha photo from twitter
जेल में ज़िंदगी मुश्किल होती है लेकिन हाल के कुछ हफ़्तों में भारत के जेल अधिकारियों ने क़ैदियों की ज़िंदगी और दुश्वारियों भरी बना दी है और उनके प्रति क्रूरता से पेश आ रहे हैं.
ख़ास तौर पर उन क़ैदियों के ख़िलाफ़ जो सरकार को लेकर मुखर आलोचक रहे हैं जबकि अंतरराष्ट्रीय अधिकार समूहों ने इन्हें 'मानव अधिकारों को बचाव करने वाला' बताया है.
इस महीने की शुरुआत में बॉम्बे हाई कोर्ट ने मुंबई के तालोजा जेल के अधिकारियों को इस बात की याद दिलाई थी कि वो क़ैदियों की ज़रूरतों को लेकर 'मानवतावादी' का रुख़ अपनाएं.
जस्टिस एसएस शिंदे और एमएस कार्निक ने कहा था, "हमें जेलरों के लिए वर्कशॉप करने की ज़रूरत है. कैसे इतनी छोटी ज़रूरतों को पूरा करने से मना किया जा सकता है. ये सब मानवता के दायरे में आते हैं."
यहाँ जिन 'छोटी ज़रूरतों' की बात की गई है वो एक्टिविस्ट गौतम नवलखा का चश्मा है. जिसे देने से उन्हें जेल के अंदर मना कर दिया गया था.
जजों की ये टिप्पणी तब आई थी जब गौतम के परिवार वालों ने मीडिया में यह बात कही थी कि उनका चश्मा जेल में चोरी हो गया है और जब परिवार वालों ने नया चश्मा भेजा तब जेल के अधिकारियों ने उसे लेने से मना कर दिया.
उनकी साथी साहबा हुसैन कहती हैं, "उन्हें 30 नवंबर को उनका चश्मा चोरी होने के तीन दिन बाद मुझे कॉल करने की इजाज़त दी गई. वो 68 साल के हैं. उन्हें अधिक पावर के चश्मे की ज़रूरत पड़ती है. उसके बिना वो लगभग अंधे हो जाते हैं."
मार्च में कोरोना की वजह से लॉकडाउन होने के बाद परिवार वालों और वकीलों को जेल जाकर मिलने पर पाबंदी लगा दी गई है. जेल में बंद क़ैदियों को पार्सल लेने की भी इजाज़त नहीं है.
साहबा हुसैन कहती हैं कि गौतम नवलखा ने उन्हें बताया था कि उन्होंने जेल अधीक्षक से बात की है और अधीक्षक ने इस बात का भरोसा दिया है कि उन्हें उनका चश्मा मिल जाएगा.
दिल्ली में रहने वाली साहबा हुसैन तुरंत बाज़ार गईं और उन्होंने नया चश्मा खरीद उसे तीन दिसंबर को डाक से भेज दिया.
वो बताती हैं, "मैंने तीन-चार दिनों के बाद जब चेक किया तब पता चला कि पार्सल पाँच दिसंबर को जेल पहुँच चुका था लेकिन उसे लेने से मना कर दिया गया और पार्सल वापस लौटा दिया गया."
इसके बाद ही जजों ने 'मानवता' याद दिलाने वाली टिप्पणी की. सोशल मीडिया पर भी तब इसे लेकर लोगों का ग़ुस्सा फूटा. जेल अधिकारियों ने फिर जाकर उन्हें एक नया चश्मा दिया.
गौतम नवलखा कोई मामूली क़ैदी नहीं हैं. वो एक ग़ैर सरकारी संगठन पीपल्स यूनियन फोर डेमोक्रेटिक राइट्स के पूर्व सचिव हैं. उन्होंने अपना पूरा जीवन लोगों के लिए नागरिक अधिकार मिलने की लड़ाई में बिताया है. उनके काम को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सराहा गया है.
वो अप्रैल से भीमा कोरेगांव मामले में जेल में हैं. वो उन 16 कार्यकर्ताओं, कवियों और वकीलों में से एक हैं जिन्हें भीमा कोरेगाँव में आयोजित दलितों की रैली में उन्हें हिंसा करने के लिए भड़काने के मामले में गिरफ़्तार किया गया है. यह रैली एक जनवरी, 2018 को आयोजित की गई थी. इन सभी क़ैदियों ने अपने ऊपर लगे आरोपों से इनकार किया है.
गौतम नवलखा अकेले ऐसे नहीं हैं जिन्हें जेल के अंदर इस तरह की बुनियादी ज़रूरतों को देने से मना किया गया है.
फादर स्टेन स्वामी
father stan swamy photo by ravi prakash
अभी कुछ दिनों पहले ही फादर स्टेन स्वामी को जेल में स्ट्रॉ और सिपर देने से मना कर दिया गया. वो भी भीमा कोरेगाँव मामले में ही जेल में बंद हैं.
83 साल के एक्टिविस्ट और पादरी फादर स्टेन स्वामी पर्किंसन की बीमारी से पीड़ित हैं. उनके वकीलों ने कोर्ट में बताया है कि वो कप को अपने हाथों से पकड़ कर नहीं रख सकते हैं क्योंकि उनके हाथ कांपते रहते हैं.
कई लोगों ने सोशल मीडिया पर अपना ग़ुस्सा निकालते हुए इसे एक घटिया हरकत बताया है और उन्हें तालोजा जेल में सीपर भेजने को लेकर एक अभियान चलाया गया. इसके बाद जल्द ही सिपर फॉर स्टेन ट्विटर पर ट्रेंड करने लगा. कई लोगों ने जेल भेजने के लिए ऑनलाइन ख़रीदे सिपर की स्क्रीनशॉट भी शेयर की.
मुंबई के रहने वाले दीपक वेंकटेशन ने फ़ेसबुक पर लिखा, "जेल में स्ट्रॉ और सिपर की बाढ़ ला दीजिए. पूरी दुनिया को बता दीजिए कि हम अब भी एक राष्ट्र के तौर पर इंसानी जज्बा रखते हैं. हो सकता है कि हमने ग़लत नेता चुन लिया हो लेकिन हमारे अंदर इंसानियत अब भी बाक़ी है. एक 83 साल के बुज़ुर्ग को स्ट्रॉ नहीं मिल रहा हो, जिस देश में हम रहते, वो ऐसा तो नहीं हो सकता."
तीन हफ़्ते बाद फादर स्टेन स्वामी के वकील जब कोर्ट में इसे लेकर गए तो जेल के अधिकारियों ने बताया कि उन्हें सिपर दिया जा चुका है.
वरवर राव
ververa rao, photo from twitter
पिछले महीने 80 साल के माओवादी विचारक वरवर राव को कोर्ट के दखल देने के बाद अस्पताल में इलाज के लिए भर्ती कराया गया.
उनकी वकील इंदिरा जय सिंह ने बॉम्बे हाई कोर्ट में कहा कि उनके मुवक्किल बिस्तर पर बीमार पड़े हुए हैं और उन्हें कोई मेडिकल सहायता नहीं दी जा रही है. उनका कैथेटर तीन महीने से नहीं बदला गया."
उन्होंने सरकार पर लापरवाही का इल्ज़ाम लगाते हुए कहा कि वरवर राव की जेल में ही मौत हो सकती है.
जुलाई में वरवर राव को जेल में कोविड-19 हो गया था. उनके परिवार ने जब इसे लेकर प्रेस कॉन्फ्रेंस की और बयान दिया तब जाकर उन्हें अस्पताल ले जाया गया.
लाइव लॉ वेबसाइट के संस्थापक और भारतीय अपराध क़ानून के विशेषज्ञ एमए राशिद कहते हैं, "पिछले पाँच छह सालों से राजनीतिक कार्यकर्ताओं को ग़ैर-क़ानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम (यूएपीए) के तहत जेल में डाल कर राजनीतिक असहमति को कुचलने की कोशिश सरकार की ओर से की जा रही है. "
"इनमें से कई पर राजद्रोह का मामला चलाकर उन्हें 'एंटी-नेशनल' भी घोषित किया गया है. ऐसे क़ैदियों को, भले ही उनके मामले में अभी सुनवाई चल रही हो, जेल के अंदर दयनीय हालत में सालों अपनी सुनवाई के इंतज़ार में रहने पर मजबूर किया जा रहा है."
राशिद बताते हैं कि कैदियों को संविधान के अंतर्गत अधिकार मिले हुए हैं. उन्हें मेडिकल सुविधाएं मुहैया कराने या फिर सिपर या स्ट्रॉ जैसी बुनियादी ज़रूरत की चीज़ें नहीं देना भारतीय न्यायव्यवस्था को अनसुना करना है.
वो बताते हैं, "सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस वीआर कृष्ण अय्यर ने अपने 1979 के ऐतिहासिक फ़ैसले में यह कहा था कि क़ैदियों को भी सम्मान के साथ जीने का हक़ है. उनके मौलिक अधिकार नहीं छीने जा सकते हैं."
"तब से सुप्रीम कोर्ट और दूसरे कोर्ट हमेशा क़ैदियों के मानवाधिकारों को बरकरार रखने को लेकर फ़ैसले देते रहे हैं."
लेकिन जिन लोगों ने जेल में वक़्त बिताया है, उनका कहना है कि भारत के जेलों में मानव अधिकार है ही नहीं.
सफ़ूरा ज़रगर
दिल्ली के तिहाड़ जेल में 74 दिनों तक रहने वालीं एक गर्भवती छात्र सफ़ूरा ज़रगर ने हाल ही में मुझ से कहा था कि उन्हें और दूसरे क़ैदियों को जेल में बुनियादी चीज़ें भी देने से मना किया गया.
दिल्ली में भड़की हिंसा के मामले में उन्हें अप्रैल में गिरफ़्तार किया गया था. उनके ऊपर हिंसा भड़काने का आरोप लगाया गया है. उनकी गिरफ़्तारी से लोगों में ग़ुस्से की भावना देखी गई. उन्हें जून में जमानत पर रिहा किया गया.
उन्होंने बताया, "मैं नंगे पाँव सिर्फ़ दो जोड़ी कपड़ों के साथ जेल गई थी. मेरे पास एक बैग था जिसमें शैम्पू, साबुन, टूथपेस्ट, टूथब्रश जैसी चीज़ें थीं. लेकिन उसे अंदर नहीं ले जाने दिया गया. मुझे मेरे जूते भी बाहर खुलवा दिए गए थे. मेरे जूते थोड़े हील वाले थे. मुझे बताया गया कि इसकी इजाज़त नहीं है."
उन्हें तब हिरासत में लिया गया था जब कोविड-19 की वजह से पूरे देश में लॉकडाउन लगा हुआ था.
वो बताती हैं, "मैं किसी भी मिलने आने वाले से मिल नहीं सकती थी. ना ही पार्सल ले सकती थी और ना ही पैसे ले सकती थी. पहले 40 दिनों तक मुझे घर पर कॉल करने की भी इजाज़त नहीं थी. इसलिए मैं हर छोटी चीज़ के लिए दूसरे क़ैदियों के रहम पर निर्भर थी."
अप्रैल में जब सफ़ूरा ज़रगर की गिरफ़्तार हुई थीं तब वो उस समय तीन महीने की गर्भवती थीं. वो बताती हैं कि साथ के क़ैदियों ने उन्हें चप्पल, अंडर गारमेंट्स और कंबल दिए.
जेल में कई हफ़्तों तक रहने के बाद उनके वकील ने कोर्ट में याचिका डाली ताकि उन्हें पाँच जोड़ी कपड़े मिल सके.
फरवरी में दिल्ली में दंगे भड़के थे जिसमें 53 लोगों की मौत हुई थी. इनमें से ज़्यादातर मुसलमान थे. इन दंगों के आरोप में ज़रगर समेत कई मुसलमान स्टूडेंट एक्टिविस्ट को गिरफ़्तार किया गया है.
अभियुक्तों का कहना है कि वे विवादास्पद नागरिकता संशोधन क़ानून का विरोध कर रहे थे और उनकी दंगे में कोई भूमिका नहीं थी.
इन गिरफ़्तारियों का वकीलों, कार्यकर्ताओं और अंतरराष्ट्रीय अधिकार समूहों ने निंदा की है.
लेकिन जो लोग गिरफ़्तार हुए वो जेल में ही रहने पर मजबूर हैं. उनकी ज़मानत की अर्जी लगातार ख़ारिज की जा रही है और वो अपनी बुनियादी ज़रूरत की चीज़ों के लिए कोर्ट का दरवाज़ा खटखटा रहे हैं.
पिछले महीने जेल में बंद 15 में से सात कार्यकर्ताओं ने चप्पल और गर्म कपड़े नहीं मिलने की शिकायत की थी. एक जज ने तब मजबूर होकर जेल के अधिकारियों को चेतावनी दी थी कि वे ख़ुद जाकर जेल का दौरा करेंगे.
सफ़ूरा ज़रगर बताती हैं, "चूंकि हम लोग आवाज़ उठाते हैं इसलिए जेल के अधिकारी हमें पंसद नहीं करते थे. वो हर हफ़्ते नए कायदे-क़ानून लेकर जा जाते थे और इसका इस्तेमाल हमें परेशान करने के लिए करते थे. "
कोविड-19 की वजह से लगी पाबंदियाँ अब भी लागू हैं. कैदियों के परिवार के लोगों का कहना है कि वो इस हालात में कुछ खास नहीं कर सकते सिवाए बहुत आपात स्थिति में कोर्ट में अपील करने के जैसा कि साहबा हुसैन ने नवलखा को चश्मे दिलवाने के मामले में किया है. (bbc)