ब्लॉग
विष्णु नागर
अगले साल दिसंबर में सोवियत संघ के पतन और बिखराव के तीन दशक पूरे हो जाएँगे।ऐसा क्यों और कैसे हुआ, इस पर विद्वानों ने बहुत लिखा है और आगे भी लिखेंगे। विद्वत्ता मेरा क्षेत्र नहीं है, इसलिए यहाँ उस विस्तार में जाना मेरा उद्देश्य नहीं। मैं कहना चाहता हूँ कि जो भी हुआ-अच्छा या बुरा-वह तो हो चुका है मगर हम साहित्य के अनौपचारिक विद्यार्थी उसके आज तक बहुत ऋणी हैं। चूँकि सोवियत संघ खत्म हो चुका, उसके खत्म होने का दुनिया में बहुत जश्न भी मनाया जा चुका है, इसलिए उसके एकाध ऋण को भी भूल जाना अनैतिक होगा।उसने इस अर्थ में काफी बड़ा काम किया था कि हमारी अपनी हिंदी और अन्य अनेक भारतीय तथा विदेशी भाषाओं में अपने देश का महान (और विचाराधारात्मक भी)साहित्य विपुलता से उपलब्ध करवाया था।इतना बड़ा काम न पहले किसी और देश ने कभी किया था,न अब कोई कर रहा है।
सोवियत संघ ने हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में यह साहित्य बेहद सस्ते दामों पर और बहुत अच्छे कागज पर उपलब्ध करवाया था। विशेषता यह भी रही कि उसने ये अनुवाद रूसी से सीधे हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में करवाए। बीच में अंग्रेजी को यथासंभव नहीं आने दिया। यही माक्र्स-लेनिन आदि की किताबों के मामले में किया। बाल साहित्य के बारे में भी यही किया। विज्ञान आदि विषयों की पुस्तकों के साथ किया। जो पुस्तकें अंग्रेजी में भी आज तक नहीं आई हैं,उन्हें उसने हिंदी में उपलब्ध करवाया।उदाहरण के लिए मेरा बड़ा बेटा अमेजन पर रसूल हमजातोव का ‘मेरा दागिस्तान’ का अंग्रेजी संस्करण ढूँढ रहा था तो उसे नहीं मिला लेकिन हिंदी की यह लोकप्रिय किताब रही है।
हमारी पीढ़ी और उससे पहले तथा बाद की पीढिय़ाँ इस साहित्य से बहुत लाभान्वित हुई हैं। सोवियत संघ ने ये किताबें कुछ खास शहरों में ही उपलब्ध नहीं करवाई थीं, बल्कि छोटे से छोटे कस्बों में अपनी वैन से हासिल करवाईं। अपने महान साहित्य का प्रसार भी एक राजनीतिक कर्म है, इसे सोवियत नेताओं ने समझा था। यह अलग बात है कि सोवियत संघ का टिका रहना इन किताबों के प्रचार-प्रसार पर निर्भर नहीं था मगर एक राज्य न टिका मगर उसने जो साहित्य हमें उपलब्ध करवाया, वह जरूर टिकाऊ था और आज भी है। उसकी सांस्कृतिक कूटनीति के अन्य सकारात्मक पक्ष भी थे लेकिन वे यहाँ हमारे विषय नहीं। उसने प्रेमचंद आदि बडे लेखकों को रूसी में उपलब्ध करवाया,यह भी एक पक्ष है। हम लोगों की दो- चार कविताओं को भी रूसी के एक संकलन में शामिल किया गया था, आदि।
उस जमाने में तब की महंगाई के हिसाब से हिंदी की किताबें आमतौर पर महंगी थीं, हालांकि उतनी महंगी नहीं थीं, जितनी आज हो चुकी हैंं।उस जमाने में हम जैसों ने ढेर सारी सोवियत किताबें खरीदीं,जो प्रगति प्रकाशन या रादुगा से छप कर आती थीं। अपने बच्चों के लिए भी ये सस्ती और सुंदर किताबें खरीदीं।एक किताब तो मुझे भी बहुत प्रिय थी-‘पापा जब बच्चे थे’।
तोल्सतोय के महाउपन्यास ‘युद्ध और शांति’ से लेकर उनके आरंभिक उपन्यास ‘कज्जाक’ तक और ‘पुनरुत्थान’ तक उपलब्ध हुआ। ‘अन्ना केरनिन्ना’ जैसा उपन्यास न जाने क्यों इनमें नहीं था। इसके अलावा तुर्गनेव, गोगोल, पुश्किन, दास्तोयेव्स्की, गोर्की, चेखव आदि न जाने कितने महान लेखक अक्सर अच्छे अनुवादों में हासिल हुए। ‘पुनरुत्थान’ का अनुवाद तो भीष्म साहनी ने किया था। और भी अच्छे अनुवादक थे।मुनीश सक्सेना, राजीव सक्सेना, नरोत्तम नागर,मदन लाल मधु आदि।कविताओं के अनुवाद लगभग नहीं हुए या अच्छे नहीं हुए। मसलन ‘मेरा दागिस्तान’ में लेखक की कविताओं के मदनलाल मधु के अनुवाद बेढब हैं।
पत्रकार के नाते हम जैसे पत्रकारों का एक भला सोवियत संघ ने किया कि उसकी लगभग रोज विज्ञप्तियाँ हिंदी में आती थीं।कागज बढिय़ा होता था तो उसकी पीठ पर लिखना सुखकर था। सोवियत कागजों का यह उपयोग अधिक किया। बाकी कुछ लेखकों को पुरस्कार भी मिले,रूस की यात्रा का सुख भी मिला वगैरह मगर हमें जो मिला, वह भी कम न था।
चीन ने रूस के मुकाबले दस प्रतिशत भी इस मामले में नहीं किया।तथाकथित कम्युनिस्ट देश उत्तरी कोरिया अपने ‘महान’ किम उल सुंग के विचारों के प्रचार में लगा रहा,जिनकी आज किसी को परवाह नहीं। अमेरिका ने अपनी महानता और आधुनिक होने के गुण बहुत गाए। उसका साहित्य से इतना ही वास्ता रहा कि उसने आर्थर केसलर की किताब ‘द्दशस्र ह्लद्धड्डह्ल द्घड्डद्बद्यद्गस्र’ का हिंदी संस्करण शायद ‘पत्थर के देवता’ नाम से उपलब्ध करवाया था,जो शाजापुर के दिनों में किसी से लेकर पढ़ा था।बाद में कहीं नहीं दिखा।
विष्णु नागर
हमारे देश में बेचने-खरीदने वाले का धंधा कोरोना काल में भी जोरों पर है। इसमें इतना उछाल आया हुआ है कि कामधंधे भले चौपट हो गए मगर सेंसेक्स ऊपर और ऊपर और ऊपर ही चढ़ता जा रहा है। मैंने सेंसेक्स को दोस्त समझकर कहा कि ए, ताऊ, इस हालत में तो इतना ऊपर मत जा, गिरेगा तो तेरे कलपुर्जे भी नहीं मिलेंगे। उसने कहा, ‘अबे हट, बे कलमघिस्सू। तू क्या जाने हमारा खेल! तूने तो कभी एक पैसा भी शेयर बाजार में नहीं लगाया है।कायर कहीं के, बुझदिल, मुझे शिक्षा देता है! तेरी ये मजाल! तू है क्या चीज।आदमी का चोला पाकर तू मुझसे भिडऩे आया है। तू समझता है, तू मुझसे ताकतवर है? बेट्टा मेरे सामने पूरा बाजार, सारे मंत्री-प्रधानमंत्री शीश नवाते हैं जबकि तेरे ऊपर गली का खजेला कुत्ता भी भोंकने को भी तैयार नहीं होगा। जा पहले गंदे नाले के पानी में अपनी शकल धोकर आ, फिर आकर बात करना। हट जा, मेरी नजरों के सामने से वरना तेरा कत्ल कर दूँगा।
क्यों रे गधे, जब देश बेचनेवाले, देश बेच रहे हैं। बेच-बेच कर एमएलए, मंत्री और सरकारें खरीद रहे हैं, तब तू मुझसे कह रहा है, ज्यादा उछल मत। क्यों नहींं उछलूँ? तुझसे पूछ कर उछलूँगा क्या? और नीचे धड़ाम से गिरा भी तो तेरे पिता श्री का क्या जाता है बे। तू अपने काम से काम रख।
सही कहा, ताऊ तुमने। मैं क्षमा माँगता हूँ। क्षमा बडऩ को चाहिए, छोटन को उत्पात। इतना कह कर मैंने मामला शांत करना चाहा।यह सुन कर उसने कहा, अबे ये कौनसी छोटन-बडऩ भाषा बोल रहा है, हिंदी बोल, हिंदी। अंग्रेजी आती हो तो अंग्रेजी बोल।
खैर मैंने किसी तरह राम-राम करते मामला सुलझाया। संकट टलने के पंद्रह मिनट बाद दिमाग थोड़ा शांत हुआ तो सोचा, वाकई ताऊ सही कह रह था। जब बेचनेवाले बैंक बेच रहे हैं, बीमा कंपनियाँँ बेच रहे हैं, तेल कंपनियाँ, विमान सेवा, हवाई अड्डे, ओनजीसी, भारतीय रेल बेच रहे हैं। एयर इंडिया न बिके तो लोहेलंगर के भाव बेचने की कोशिश कर रहे हैं। ऐसे मैं भी सेंसेक्स बेचारा न उछले तो क्या सुस्त पड़ा रहे?
अरे जब एक सुपर स्टार तेल से लेकर ऐप तक सबकुछ बेच चुका और अभी भी उसका बेचने का हौसला बुलंदी पर है तो सेंसेक्स क्यों मृतप्राय: रहे? अभी वह कोरोना पॉजिटिव हो गया तो इसे भी उसने एक प्राइवेट अस्पताल का विज्ञापन करके भुना लिया। नाम और कमा लिया, नामा इसी से मिलेगा। किसी ने कभी सोचा था कि बेचने वाला स्टार अगर कोरोना पाजिटिव भी हो जाए तो घबराता नहीं, इसे भी बेच देता है! यह पक्का है कि अस्पताल से बाहर आकर, वह कोरोना से लडऩे का अपना ‘साहस’ भी ऊँची कीमत में बेचेगा।इस बीच कोरोना का टीका बन गया तो उसे भी बेचेगा। कोरोना का ब्रांड एंबेसडर वही बनेगा। प्रधानमंत्री की ‘उज्ज्वल छवि’ उसने पहले भी बेची है अब और भी जोरशोर से बेचेगा।
कहानी इन दो पर ही खत्म नहीं होती। क्रिकेट खिलाड़ी तो सरेआम बिकते हैं। फिर उनकी कैप, उनकी शर्ट, उनकी पैंट के घुटने भी बिकती है। बल्ला भी बिकता है।खेल का मैदान भी बिकता है। फिर तरह -तरह के सामान बेचना रह जाता है, तो उसे भी ये खिलाड़ी बेचने लगते हैं। ‘भारतरत्न’ पा जाएँ तो भी ईश्वर की कृपा के वशीभूत होकर ये बेचते रहते हैं।
अभी कुछ युवा कांग्रेसी नेताओं ने भाजपा को अपनी धर्मनिरपेक्षता आस्था बेच दी और सांप्रदायिकता खरीद ली। साथ में राज्यसभा की सीट भी हासिल कर ली। इतना ही नहीं, अपनों को अपने राज्य में मंत्री पद दिलवाकर, अब खुद भी केंद्र में मंत्री बनेंगे। फिर न जाने क्या-क्या खरीदेंगे-बेचेंगे। गैरभाजपाई नेता और एमएलए तो भाजपा मंडी में थोक के भाव खरीदती है। सुनते हैं कि हर विधायकी की कीमत तीस-पैंतीस करोड़ तक है। पचास करोड़ भी हो सकती है और एक राजस्थानी नेता तैयार बैठे हैं। जीवनभर में भी जितनी काली कमाई नहीं होती, वह एक झटके में हो जाती है।ईमान ही तो बेचना होता है, मतदाताओं को धोखा ही तो देना होता है। ईमान कोई कीमती चीज तो है नहीं, दस रुपये के नोट बराबर इसकी वैल्यू है। और धोखा देना तो खैर आज की राजनीतिक शैली है।
खरीदनेवाले में यह आत्मविश्वास होता है कि सबकुछ खरीदा जा सकता है। यह दुनिया एक बाजार के सिवाय कुछ नहीं है। यहाँ न्याय भी खरीदा जा सकता है, गवाह, वकील, जज भी। धर्म, ईमान, इंसानियत सब खरीदे जा सकते हैंं। उन्हें ताज्जुब होता है कि इस दुनिया में ऐसा भी कुछ होता है, जो बिकशनशील नहीं होता, जो खरीदा नहीं जा सकता! उधर जो जितनी जल्दी बिक जाता है, जितनी जल्दी ऊँची सीढिय़ाँ चढ़ जाता है, वह उतना ही ज्यादा गरीबों का हमदर्द होने की घोषणाएँ भी करता रहता है। खुद गरीबी से, पिछड़ी जाति से आने की मुनादी इतनी बुलंद आवाज में करता है कि दूसरे किसी की आवाज सुनाई नहीं देती।वह सत्ता को खरबपतियों को बेच कर आराम से 18-18 घंटे सोता है। वह सोने को ही जागना घोषित कर देता है। हाँ जब कोई अडाणी-अंबानी मोबाइल पर उसे याद करता है तो आधी रात को भी जी सर, कहते-कहते बिस्तर से उठकर खड़ा हो जाता है। जी, जी बस हो गया आपका काम।सुबह हम बेच देंगे, शाम को आप खरीद लेना। नमस्ते-नमस्ते, गुडनाइट, गुडनाइट।
सुदीप ठाकुर
बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव आज यानी 11 जून को 72 वर्ष के हो रहे हैं। उनके जन्मदिन पर उनकी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल ने 72 हजार से अधिक गरीब लोगों को खाना खिलाने का एलान किया है। इसकी जानकारी पार्टी के नेता और उनके पुत्र तेजस्वी ने ट्वीटर के जरिये दी है। लालू खुद इस समय चारा घोटाले के मामले में झारखंड की एक जेल में सजा काट रहे हैं। ऐसे समय जब बिहार में कुछ महीने बाद विधानसभा चुनाव हैं, उनके जन्मदिन का यह आयोजन बताता है कि उनकी पार्टी को अब भी उनकी राजनीतिक विरासत पर भरोसा है।
आखिर क्या है उनकी राजनीतिक विरासत? फिर एक ऐसा नेता, जिसे भ्रष्टाचार के मामले में दोषी ठहराया जा चुका हो, जो जेल में हो और लंबी अदालती लड़ाइयों तथा बीमारियों के कारण जिसके सक्रिय राजनीति में लौटने के कोई आसार भी नजर न आ रहे हों, उसके नाम पर लोग क्यों भरोसा करेंगे? ऐसे दौर में जहां नरेंद्र मोदी और अमित शाह देश की राजनीति की धुरी बन गए हैं, और जिनकी रणनीतियों के आगे सारे सियासी समीकरण ध्वस्त हो जाते हों, लालू की राजनीति क्या मायने रखती है?
पांच दशक के सक्रिय राजनीतिक जीवन के जरिये लालू ने साबित किया है कि आप उन्हें नजरंदाज नहीं कर सकते। 1974 के जेपी आंदोलन से निकले लालू यों तो 1977 में जनता लहर में सवार होकर पहली बार लोकसभा पहुंचे थे, लेकिन 1989-90 के दौर में वह एक अवधारणा की तरह उभरे। फरवरी 1988 में बिहार के महान समाजवादी नेता कर्पूरी ठाकुर के निधन के बाद वह विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता चुने गए थे और यहीं से उनकी सामाजिक न्याय की राजनीति की शुरुआत हुई। मार्च, 1990 में महज 42 साल की उम्र में लालू बिहार के मुख्यमंत्री बने थे और यह गोपालगंज से निकले एक चरवाहे के बेटे के लिए वाकई बड़ी उपलब्धि थी, जिसने भीषण गरीबी देखी थी। मुख्यमंत्री बनने के कई दिनों बाद तक भी वह वेटर्नरी कॉलेज के उसी सर्वेंट चर्टर में रहते थे, जहां उन्हें कभी उनके चपरासी भाई के पास पढऩे के लिए भेजा गया था!
मुख्यमंत्री बनने के शुरुआती दिनों में वह अचानक हेलीकॉप्टर से किसी गांव में उतर जाते थे और लोगों से सीधे संवाद करने लगते थे। उनकी आत्मकथा गोपालगंज से रायसीना में, मेरी राजनीतिक यात्रा (सह लेखक, नलिन वर्मा) के इस संवाद पर गौर कीजिए:
'क्या लालू ने तुमको रोटी दी?'
'नहीं।'
'क्या उसने तुमको मकान दिया?'
'नहीं।'
'क्या उसने तुमको कपड़ा दिया?'
'नहीं।'
'तो फिर उसने तुम्हारे कल्याण के लिए क्या किया?'
'जीवन में स्वर्ग सब कुछ नहीं होता। उन्होंने हमें स्वर दिया।'
मुख्यमंत्री बनने के बाद लालू ने पहले दो काम किए, गरीबों से सीधा संवाद और मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद जातियों का गठजोड़। लालू ने इसके चलते अमूमन अमीर लोगों के लिए आरक्षित रहने वाले पटना क्लब को निचली जातियों के लोगों के शादी और अन्य पारिवारिक कार्यक्रमों के लिए खुलवा दिया। ऊंची जातियों के वर्चस्व को तोडऩे की दिशा में यह प्रतीकात्मक कदम था। इसके बाद अगले चरण में उन्होंने सांप्रदायिक सौहार्द कायम करने को अपनी राजनीति का हिस्सा बनाया। यही वह दौर था, जब मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू किए जाने के बाद, जिसके एक वास्तुकार खुद लालू भी थे, भारतीय जनता पार्टी ने मंदिर आंदोलन को उभारना शुरू किया था। 23 अक्तूबर, 1990 को बिहार में प्रवेश कर रही लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा को लालू के निर्देश पर रोका गया और उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। यह मंडल बनाम कमंडल की राजनीति का चरम था।
लालू ने अपने सियासी फायदे के लिए एमवाई (मुस्लिम-यादव गठबंधन) बनाया, जिसका लाभांश भी उन्हें मिला। लालू के आलोचक भी यह स्वीकार करते हैं कि जेपी आंदोलन से निकले वह अकेले नेता हैं, जिन्होंने सांप्रदायिकता से कभी समझौता नहीं किया। यही वजह है कि भाजपा से उनकी पटरी कभी नहीं बैठी। जबकि नीतीश कुमार हों या रामविलास पासवान भाजपा के साथ कभी असहज नहीं रहे।
यह सवाल अब काल्पनिक है कि यदि लालू प्रसाद यादव चारा घोटाले में दोषी नहीं ठहराए जाते, तो बिहार और देश की राजनीति कैसी होती? वह भी ऐसे समय, जब संसद के भीतर और बाहर विपक्ष बिखरा हुआ है। हकीकत यही है कि चारा घोटाले के अनेक मामलों में उन्हें दोषी ठहराया जा चुका है और यह लड़ाई अभी काफी लंबी है। इतनी लंबी की उनकी सक्रिय राजनीति में वापसी असंभव लगती है।
अक्तूबर, 2013 में चारा घोटाले के मामले में दोषी ठहराए जाने के कारण लोकसभा से उनकी सदस्यता खत्म कर दी गई थी और उन पर चुनाव लडऩे पर रोक भी लगा दी गई। उनके साथ दोषी ठहराए गए जनता दल (यू) के जगदीश शर्मा की भी लोकसभा से सदस्यता खत्म हो गई थी। वास्तव में लालू उन गिने-चुने नेताओं में से हैं, जिन्हें भ्रष्टाचार के मामले सजा हुई है और जिनकी लोकसभा या विधानसभा से सदस्यता रद्द हुई है, तथा जिनके चुनाव लडऩे पर रोक लगाई गई।
इस मामले में समकालीन भारतीय राजनीति में लालू प्रसाद यादव की किसी अन्य राजनेता से तुलना हो सकती है, तो वह तमिलनाडु की दिवंगत पूर्व मुख्यमंत्री जे जयललिता थीं, जिन्हें भी भ्रष्टाचार के मामले में दोषी ठहराया गया, जिनकी वजह से उन्हें भी पद छोडऩा पड़ा था। हालांकि एक बड़ा फर्क यह है कि जयललिता राजनीतिक रूप से उस तरह से आज भी अस्वीकार्य नहीं हैं, जिस तरह से लालू प्रसाद यादव। बेशक, जयललिता अपनी अनुपस्थिति में आज भी तमिलनाडु में लोकप्रिय हैं, मगर लालू भी अपने उत्कर्ष में ऐसे ही लोकप्रिय थे।
लालू और जया दोनों का सियासी सफर एकदम जुदा रहा है और फिर हिंदी भाषी प्रदेश और तमिलनाडु की राजनीति में भी फर्क है।सबसे बड़ा फर्क तो यही है कि जयललिता से भारतीय जनता पार्टी को कभी परहेज नहीं रहा। तब भी जब नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से भ्रष्टाचार को लेकर 'जीरो टालरेंस' के दावे किए जाते हैं। जयललिता का अन्नाद्रमुक एनडीए का हिस्सा है। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री पलनीस्वामी के दफ्तर में एमजी रामचंद्रन के साथ ही अम्मा यानी जयललिता की फोटो लगी हुई है। वास्तविकता यही है कि दिवंगत अम्मा आज भी अन्नाद्रमुक की सुप्रीम लीडर हैं।
लालू और जयललिता भ्रष्टाचार के अलग-अलग सियासी चेहरे हैं।
इसके बावजूद भ्रष्टाचार को कतई जायज नहीं ठहराया जा सकता। झारखंड की जेल में सजा काट रहे लालू प्रसाद यादव को अपने राजनीतिक गुरु कर्पूरी ठाकुर से जुड़ा यह किस्सा याद आता होगा। पहली बार उपमुख्यमंत्री बनने के बाद कर्पूरी ठाकुर ने अपने बेटे रामनाथ को एक पत्र लिखा। पत्र का मजमून कुछ इस तरह से था: 'तुम इससे प्रभावित नहीं होना। कोई लोभ लालच देगा, तो उस लोभ में नहीं आना। मेरी बदनामी होगी।'
सुदीप ठाकुर का ब्लॉग : विस्थापितों के संकट का सामना किया था नेहरू ने
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 24 मार्च की रात जब देशव्यापी लॉकडाउन लागू करने की घोषणा की थी, तो संभवतः इसका अंदाजा नहीं था कि लाखों लोग अपने घरों के लिए निकल पड़ेंगे। ये कौन लोग थे? इसका उत्तर तलाशे बिना सरकार, मीडिया, सोशल मीडिया, नीति नियंता, औद्योगिक जगत, बुद्धिजीवी और साहित्यकार यहां तक कि आम जन ने उनके लिए एक शब्द चुना और वह है 'माइग्रेंट लेबर' या प्रवासी मजदूर। सरकार के एक कदम से यह प्रवासी मजदूर अपने घर लौटने लगा। उसने सरकार से कोई खास अपेक्षा भी नहीं की, शायद उसे बहुत उम्मीद भी नहीं थी। मगर इन दो महीनों के दौरान हमने एक ऐसी परिघटना को देखा जिसे 'रिवर्स माइग्रेशन' कहा जा रहा है, यानी विपरीत दिशा में पलायन। यह विपरीत दिशा उनके घर की ओर जाती है। घर लौटना 'विपरीत' कैसे हो सकता है! यह समय कैसी-कैसी नई शब्दावलियां गढ़ रहा है, यह अलग विचार का विषय है। लेकिन घर लौटते लाखों मजदूरों ने घड़ी की सुई को 73 वर्ष पीछे विपरीत दिशा में धकेल दिया है, जब आजादी मिलने के साथ ही देश को विभाजन की त्रासदी से गुजरना पड़ा था। उस समय देश की पहली सरकार को विभाजन की वजह से हो रहे विस्थापन के कारण आज से कहीं अधिक बड़ी चुनौती का सामना करना पड़ा था। इन दिनों जब अक्सर पंडित जवाहर लाल नेहरू को 'विलेन' और 'विदूषक' की तरह पेश किए जाने की कोशिश होती रहती है, यह देखना एक सबक की तरह हो सकता है कि देश के प्रथम प्रधानमंत्री और उनकी सरकार ने इस चुनौती का किस संवेदनशीलता के साथ सामना किया था।
आगे बढ़ने से स्पष्ट कर दूं कि विभाजन की वजह से हुए विस्थापन और आज हो रहे प्रवासी मजदूरों के पलायन की प्रकृति और कारण में मौलिक अंतर है, लेकिन ये दोनों मानवीय त्रासदियां हैं, इससे कौन इंकार कर सकता है।
विभाजन के बाद जो नया देश पाकिस्तान के नाम से बना था, वह दो हिस्सों में बंटा हुआ था, पश्चिमी पाकिस्तान ( यानी आज का पाकिस्तान) और पूर्वी पाकिस्तान (यानी आज का बांग्लादेश)। 15 अगस्त, 1947 के तुरंत बाद भय, आशंका, और असुरक्षा के बीच बड़ी संख्या में शरणार्थियों का भारत आने का सिलसिला शुरू हो गया था। इन शरणार्थियों को विस्थापित भी कहा जा रहा था। 1950 के आते आते पश्चिमी पाकिस्तान से आने वाले विस्थापितों की संख्या सीमित हो गई थी, लेकिन पूर्वी पाकिस्तान से लगातार विस्थापितों का आना जारी था। आजादी के बाद 1951 में कराई गई पहली जनगणना में उस समय देश के तीसरे महानगर कलकत्ता की कुल आबादी में 27 फीसदी आबादी पूर्वी पाकिस्तान से आए बांग्ला शरणार्थियों की थी! (http://www.catchcal.com/kaleidoscope/people/east.asp) इनमें से अधिकांश पूर्वी पाकिस्तान से आए बांग्ला शरणार्थी थे।
इस बीच, पंडित नेहरू ने एक जनवरी, 1950 को नागपुर में एक पत्रकार वार्ता में कहा, 'पश्चिम बंगाल को किसी भी प्रांत और देश के किसी भी हिस्से की तुलना में विभाजन और उसके बाद की घटनाओं का असर अधिक झेलना पड़ा है। पंजाब को भी कष्ट उठाने पड़े हैं जहां नरसंहार हुए, वहीं आर्थिक रूप से पश्चिम बंगाल को अधिक मुश्किलों का सामना करना पड़ा।' ( द लाइफ ऑफ पार्टीशनः ए स्टडी ऑन द रिकंस्ट्रक्शन ऑफ लाइव्स इन वेस्ट बंगाल)। इसी बीच इसी मुद्दे पर संसद में बहस के दौरान सुचेता कृपलानी ने कहा, 'देश के विभाजन का फैसला पश्चिम बंगाल ने नहीं लिया था, बल्कि यह फैसला हिंदुस्तान का था, इसलिए यह शरणार्थी समस्या पूरे देश की है और सभी राज्यों को पुनर्वास में हिस्सेदारी बंटानी चाहिए।'
कोरोना के संकट काल में अभी संसद और राज्यों की विधानसभाएं स्थगित हैं। प्रधानमंत्री ने महामारी फैलने और लॉकडाउन के दौरान विपक्षी नेताओं के साथ संभवतः एक बार ही वीडियो कांफ्रेंस के जरिये चर्चा की है। वह राज्यों के मुख्यमंत्रियों से पांच बार ऐसी चर्चा कर चुके हैं। मगर विभाजन के बाद की सबसे बड़ी त्रासदी पर अब तक संसद में कोई बात नहीं हुई है, क्योंकि बजट सत्र को नियत तिथि से 13 दिन पहले 22 मार्च को स्थगित कर दिया गया।
अब जरा पीछे लौटिये। पूर्वी पाकिस्तान के विस्थापितों को पहले तो असम, पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा जैसे राज्यों में बसाया गया। उनकी संख्या जब बढ़ने लगी तो सरकार को उनके लिए नई जगहें तलाशनी पड़ी। संसद में तो इस पर लगातार संवाद होता रहा, उससे बाहर राष्ट्रीय विकास परिषद की बैठकों में भी इस पर गहन विमर्श हुआ। खुद नेहरू इस मुद्दे को गंभीरता से ले रहे थे। छह मई, 1955 को राष्ट्रीय विकास परिषद की चौथी बैठक हुई जिसमें चर्चा तो दूसरी पंच वर्षीय योजना पर होनी थी, मगर नेहरू ने भोजनवाकाश के बाद उस दिन के सबसे आखिरी बिंदु विस्थापितों के मुद्दे पर सबसे पहले चर्चा शुरू करवा दी।
उन वर्षों में हुई राष्ट्रीय विकास परिषद की बैठकों के ब्यौरे बताते हैं कि प्रधानमंत्री नेहरू, उनकी पूरी केबिनेट और राज्यों के मुख्यमंत्रियों के बीच किस लोकतांत्रिक मर्यादा में रहते हुए किस तरह खुल कर चर्चा होती थी। नेहरू मंत्रिमंडल में बकायदा मेहरचंद खन्ना शरणार्थी और पुनर्वास मामलों के मंत्री थे। आज हम प्रवासी मजदूरों का संकट जिस रूप में सामने आया है, उसमें उनके लिए अलग मंत्रालय के बारे में क्यों विचार नहीं हो सकता?
आखिरकार जब विस्थापितों को 80 हजार वर्ग मील में फैले दंडकारण्य में बसाने पर सहमति बनी तो उससे पहले काफी विचार विमर्श हुआ। यहां तक पहुंचने से पहले नेहरू ने विस्थापितों को बसाने के लिए जगह की उपलब्धता जानने के लिए तकरीबन हर मुख्यमंत्री से सुझाव मांगे। मुख्यमंत्रियों ने भी सुझाव देने और अपनी मुश्किलें बताने में कमी नहीं की। इन बैठकों में आए सुझावों से पता चलता है कि उस समय देश के सामने आधारभूत संरचना के निर्माण की कैसी चुनौती थी। पुराने मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री रविशंकर शुक्ल से जब नेहरू ने बस्तर के बारे में पूछा तो उनका जवाब था, 'हां, ऐसा संभव है, बशर्ते की जंगलों की कटाई हो और संपर्क के लिए 120 मील तक सड़कों का निर्माण कराया जाए।'
बाद में दंडकारण्य प्रोजेक्ट परियोजना बनी, जिसके तहत विस्थापितों को बसाने की पहल की गई, मगर उसकी अपनी दिक्क्तें थीं। जो लोग पूर्वी पाकिस्तान से आ रहे थे उनके लिए दंडकारण्य की पारिस्थितिकी अनुकूल नहीं थी। विस्थापितों को बसाने को लेकर स्थानीय आदिवासियों की ओर से विरोध का भी सामना करना पड़ा था।
नेहरू चाहते तो इतनी मशक्कत नहीं करते। उनका पीएमओ एक रिपोर्ट तैयार कर उसे मुख्यमंत्रियों को सौंप सकता था, क्योंकि उस समय तो सारे मुख्यमंत्री कांग्रेस के ही थे! आज उनकी पुण्यतिथि है, लिहाजा उनकी याद आना स्वाभाविक है, मगर जब-जब देश बड़ी त्रासदी का सामना करता है, तो नेहरू याद आ ही जाते हैं।