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मन की गांठ, कैंसर से कम खतरनाक नहीं। अगर कैंसर को सही समय पर नहीं पकड़ा जाए, तो जीवन छोटा हो जाता है। ऐसे ही मन की गांठ समय रहते न खोली जाए, तो यह जीवन के चंद्रमा पर पूरी तरह ग्रहण लगा सकती है!
हमारा मन समुद्र से गहरा है! समुद्र की गहराई का अनुमान तट पर खड़े होकर नहीं लग सकता। उसके लिए तो समंदर के भीतर ही प्रवेश करना होता है। मन का स्वभाव भी ऐसा ही है। मन के बारे में हमें इतने तरह के भ्रम हैं कि उन्हें सरलता से पहचानना संभव नहीं। मन हमें बाहर से वैसा ही दिखता है, जैसे समंदर में बर्फ के बड़े-बड़े पहाड़ दूर से दिखते हैं। ऐसा लगता है कि छोटे-मोटे टीले हैं, चट्टाने हैं। जहाज को इनसे खतरा नहीं, लेकिन होता अक्सर इसका उल्टा है। ‘टाइटैनिक’ फिल्म को देखें, तो इसका आधार मन की गलतफहमी है, जहाज के कप्तान की जानकारी में कमी नहीं। ‘टाइटैनिक’ के पास एक से बढक़र एक अनुभवी और गहरी जानकारी रखने वाले विशेषज्ञ थे, लेकिन वह भी समंदर के भीतर बैठे बर्फ के पहाड़ को ठीक से पकड़ नहीं पाए। क्योंकि दूर से वह बहुत छोटा दिख रहा था।
जीवन भी ठीक इसी मिजाज का है। डिप्रेशन (अवसाद) की छोटी-छोटी झलकियां हमें अक्सर दिखाई देती हैं, लेकिन हम इनको गंभीरता से नहीं लेते। हम मन में उगने वाले तनाव के खरपतवार को समय रहते हटाने का काम नहीं कर पाते। इसकी कीमत हमें जीवन की फसल के नुकसान के रूप में चुकानी होती है।
एक छोटी सी कहानी कहता हूं। इससे आपको अपने मन की शक्ति और संभालने में सहजता होगी।
एक पहलवान जिसे हराना अपने समय में बहुत मुश्किल था। अब बुजुर्ग होकर ज़ेन साधक बन गया था। ज़ेन बौद्ध धर्म की ही शाखा है जो जापान तक पहुंचते हुए कुछ परिवर्तन के साथ अधिक परिपक्व और तर्क के साथ नए रूप में करोड़ों लोगों के ज्ञान पाने का माध्?यम बनी।
यह बूढ़ा साधक अब पहलवानी से बहुत दूर आ गया था। उन दिनों एक नौजवान लड़ाके की बड़ी चर्चा थी। वह बहुत तेज़ तर्रार होने के साथ चतुर भी था। उसने अपने समय के सभी बड़े योद्धाओं को हरा दिया था। उसे ख्याल आया कि इस बुजुर्ग को हराकर ही वह सिद्ध माना जाएगा। तो उसने बुजुर्ग को चुनौती दे डाली।
बूढ़े साधक के शिष्यों ने उनको बहुत समझाया। लेकिन वह नहीं माने और युवा पहलवान की चुनौती स्वीकार कर ली। चतुर लड़ाका अपने सामने एक शांत, स्थिर लड़ाके को देखकर समझ गया कि इसकी शक्ति का केंद्र कहीं और है। उसने दूसरा उपाय अपनाया। उसने बूढ़े साधक को अपशब्द कहने आरंभ कर दिए। एक के बाद एक ऐसी अपमानजनक बातें कहीं कि कोई दूसरा होता तो बौखला जाता। लेकिन अनुभवी साधक एकदम शांत खड़ा रहा।
कुछ देर बाद युवा पहलवान बेचैन हो उठा। उसके सारे पैंतरे बेकार हो गए। उसने हार मान ली।
बुजुर्ग साधक से उसके शिष्यों ने पूछा, उसकी बातें सुनकर हमारा खून खौल रहा था। लेकिन आप शांत रहे, और वह हार गया। साधक ने केवल इतना कहा, उसने मेरे बारे में जो कुछ कहा, उनमें से कोई भी बात सच नहीं थी। इसलिए मैंने उनको स्वीकार नहीं किया। और हम, अपने मन पर दूसरों के कचरे को परत दर परत जमाते जाते हैं। मन को अंधेरे की ओर धकेलने वालों से सावधान रखना जरूरी है।
आइए, मन की ओर चलते हैं। चेतना की सारी जड़ें मन की गहराई में हैं। हम जैसे भी हैं, अपने मन के कारण ही हैं। इसलिए इसके काम करने के तरीकों को समझना सबसे पहला कदम है, जीवन की ओर।आइए समझें, दर्द की परतों को किस तरह धीरे-धीरे खोलना है।
मन में बैठे दर्द की परतों को धीरे-धीरे खोलिए। संवाद का मरहम ही इसे ठीक करने में सक्षम है। इसके सरीखा जादू किसी दूसरी दवा में नहीं। जब भी मित्र, परिचित, सहकर्मी, परिजन मन की पीड़ा/तनाव/मन की गांठ लेकर आपके पास आएं, तो उसे ‘हवा’ में मत उड़ाइए। उनको सुनिए, सुनना संकट सुलझाने की पहली किश्त है!
उससे मत कहिए कि अपनी नौकरी की चिंता करो। तुम्हारे ऊपर जिम्मेदारी का बोझ है। बेकार की बातों में उलझे हो! मत कहिए कि वह जिंदगी को समझ नहीं पा रहा है! नहीं समझ रहा, इसीलिए तो आपके पास आया है। मन की गांठ, कैंसर से कम खतरनाक नहीं।
अगर कैंसर को सही समय पर नहीं पकड़ा जाए, तो जीवन छोटा हो जाता है। ऐसे ही मन की गांठ समय रहते न खोली जाए, तो यह जीवन के चंद्रमा पर पूरी तरह ग्रहण लगा सकती है!
जब भी कोई मन की गांठ लेकर आपके समीप आए, उसे उतने ही स्नेह, अनुराग से सुनिए, जिस तरह हमारी जटिल बीमारी का इलाज करने वाला समझदार डॉक्टर हमारी बात सुनता है। अपनी व्यस्तता भूल जाइए जब कोई दोस्त/प्रियजन मन की कुछ बात कहने आया हो। अपने किंतु/ परंतु/ आशंका के बादल एक तरफ रख दीजिए। बस उसे सुनिए।
सुनने पर इतना जोर इसलिए, क्योंकि हम हमेशा जल्दबाजी में रहते हैं। किसी के लिए दो पल का समय भी तन्मयता और सघनता के साथ नहीं दे पाते। हम सुन नहीं पाते। बिना सुने कोई बात कैसे समझी जा सकती है। इससे कोई फर्क ही नहीं पड़ता कि कहने वाला कौन है! हमें तो बस सुनने का अभ्यास करना है। यह दूसरों से अधिक हमारे मन को स्वस्थ रखने के लिए उपयोगी है। यह मन को ठोस, सुंदर और निरोगी बनाता है। (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र
विद्याचरण शुक्ल के बारे में कल लिखना मधुमक्खी के छत्ते को छेडऩे जैसा हो गया। कल उनका जन्मदिन भी मनाया जा रहा था, और उस दिन उन्हें इमरजेंसी का खलनायक लिखना कुछ लोगों को खल गया जो उन्हें नायक मानते थे, और हैं। सच तो यह है कि कल सुबह जब यह लिखा गया, उस वक्त यह याद भी नहीं था कि विद्याचरण शुक्ल ने अपना जन्मदिन एक अगस्त से खिसकाकर दो अगस्त कर लिया था, क्योंकि उस दिन उनके दिवंगत पिता पंडित रविशंकर शुक्ल का भी जन्मदिन पड़ता था, और समारोह कुछ अधिक हो सकते थे। चूंकि इस अखबार का मिजाज नेताओं की जन्मतिथि और पुण्यतिथि पर लिखने का नहीं है, इसलिए यह दिन याद भी नहीं था। लेकिन जैसा कि हम बार-बार लिखते हैं सार्वजनिक जीवन में जीने वाले लोग शीशे के मछलीघर में रहने वाली मछली की तरह की ही निजता के दावेदार हो सकते हैं।
आज किसी और नेता के बारे में लिखने के पहले विद्याचरण शुक्ल के बारे में कुछ बातें और लिखी जा सकती हैं, और उनके साथ मेरा वास्ता खासा लंबा पड़ा है, उन्हें कई दशक तक छत्तीसगढ़ में करीब से देखा है, इसलिए उनके बारे में लिखना कुछ अधिक दिलचस्प भी है, और आज राखी के दिन की निजी हड़बड़ी के बीच उन पर अधिक रफ्तार से लिखना अधिक आसान भी है।
विद्याचरण शुक्ल को उनकी रंगीनमिजाजी के लिए भी जाना जाता था, हालांकि हिन्दुस्तान में नेताओं की जिंदगी के इस पहलू के बारे में ज्यादा लिखा नहीं जाता, और जनता भी जिंदगी के ऐसे किस्सों को सुनकर भी अनसुना कर देती है, और वोटों पर इसका फर्क नहीं पड़ता।
इंदिरा गांधी के एक जूनियर मंत्री रहते हुए उस वक्त विद्याचरण शुक्ल को अमरीका की किसी एक संस्था से न्यौता मिला था, जिसे लेकर बाद में सरकार के भीतर उन्हें झिडक़ी भी पड़ी थी कि यह संस्था अमरीकी खुफिया एजेंसी सीआईए से रिश्तों के लिए जानी जाती है, और उन्हें इसके न्यौते पर नहीं जाना था। खैर, वे गए थे, और वह वक्त होली के तुरंत बाद का था। यह बात बहुत पुरानी है, मेरी देखी हुई नहीं लेकिन सुनी हुई है। जब वे वहां पहुंचे तो उनके बालों पर से होली का रंग गया नहीं था। जिस किसी अमरीकी पत्रकार ने उन्हें देखकर वहां कोई खबर बनाई, या किसी गॉसिप कॉलम में लिखा, उसने लिखा कि इंदिरा गांधी का एक ऐसा मंत्री आया है जो अपने बालों को बैंगनी रंगता है।
आपातकाल के बहुत बाद विद्याचरण शुक्ल कांग्रेस छोडक़र, एनसीपी में जाकर, वहां से निकलकर भाजपा के उम्मीदवार बनकर लोकसभा चुनाव लडक़र हार चुके थे। लेकिन भाजपा के भीतर अभी दो बरस पहले कर्नाटक की एक सांसद शोभा करंदलाजे ने पार्टी का यह पोस्टर पोस्ट किया था और लिखा था कि वीसी शुक्ला को पत्रकारों के खिलाफ बदनीयत से सत्ता के बेजा इस्तेमाल का दोषी पाया गया था, लेकिन इसका ईनाम उन्हें राजीव सरकार ने मंत्री बनाकर दिया गया था, बाद में नरसिंह राव सरकार में भी। अब भाजपा के 2018 के इस पोस्टर का खलनायक, 2004 में छत्तीसगढ़ की महासमुंद संसदीय सीट के चुनाव में भाजपा का नायक था! उस वक्त भी इमरजेंसी का इतिहास वीसी शुक्ला के साथ था ही।
जब उन्हें विदेश मंत्री बनाया गया, तो भी लोगों ने मजाक बनाया कि उन्हें एक्सटर्नल अफेयर्स दिया गया है। लेकिन असल जिंदगी में उन्होंने अपने आसपास अपने से कम से कम एक पीढ़ी से अधिक फासले वाले लोगों को ही रखा, जिनसे उनका बातचीत का लिहाज बना रहता था। उनकी राजनीति ऐसी थी कि वे अपनी बराबरी के किसी और को साथ नहीं रखते थे, और शायद ऐसी ही राजनीति उनके बड़े भाई श्यामाचरण शुक्ल की भी थी, और इसीलिए ये दोनों भी एक साथ राजनीति नहीं करते थे, एक प्रदेश में रहता था, तो दूसरा राष्ट्रीय राजनीति में। दोनों ही भाईयों के सबसे करीब सहयोगी हमेशा ही उनके पांव छूने वाले रहते थे, और राजनीति में यह बात बड़ी सहूलियत की रहती है कि जो लोग बिना बात पांव पकड़ते रहते हैं, वे किसी बात के होने पर भी हाथ नहीं पकड़ सकते। इन दोनों के आसपास इनका नाम लेकर, नाम के साथ जी लगाकर बोलने वाले लोग अपवाद के रूप में ही रहे होंगे, बाकी तमाम साथी-समर्थक बड़ी कमउम्र के रहते थे। और तो और अखबारनवीसों में भी इन दोनों को वैसे ही लोग अधिक सुहाते थे जो कि उन्हें भैया बोलते हों।
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मैंने अपनी अखबारनवीसी में निजी और पारिवारिक रिश्तों के बिना किसी नेता को कभी भैया नहीं कहा। नतीजा यह था कि विद्याचरण शुक्ल लंबे अरसे तक मेरे साथ सहज नहीं रह पाते थे। उन्हें भैया न कहने वाला अखबारनवीस बागी तेवरों वाला लगता था, और मुझे 30 बरस तक देखने के बाद भी उनके मन से यह शक कभी नहीं गया कि मैं कहीं उनकी बात रिकॉर्ड तो नहीं कर रहा हूं। मैंने उन्हें बार-बार अपने तरीके साफ किए कि मैं किसी भी रिकॉर्डिंग के पहले बताकर, पूछकर, और रिकॉर्डर सामने रखकर बात रिकॉर्ड करता हूं, लेकिन उनकी नजरें मेरी जेब पर, या शायद आखिरी के कुछ बरसों में मेरे मोबाइल पर लगी ही रहती थीं। यह तो गनीमत कि उनकी जिंदगी रहने तक मेरे कान पर ब्लूटूथ टंगना शुरू नहीं हुआ था, वरना उन्हें पक्का भरोसा रहता कि यह उनकी बातचीत रिकॉर्ड करने के लिए ही है।
आखिरी के कुछ बरस उनका शक कुछ घटा था, उनके खिलाफ मेरे कोई बागी तेवर हैं इसकी गलतफहमी कम हुई थी, और उन्हें यह गलतफहमी हो गई थी कि मैं एक समझदार और बात करने लायक पत्रकार हूं। नतीजा यह हुआ कि वे अपनी जिस जीवनी को लिखना चाहते थे, और जिसके लिए उन्होंने एक अघोषित सलाहकार मंडल बनाया था, उस जीवनी के बारे में वे मुझसे भी चर्चा करने लगे। उनके व्यक्तित्व का यह पहलू मेरा देखा हुआ नहीं था, और मेरे लिए यह बात थोड़ी सी अटपटी भी थी कि वे मुझसे रायमशविरा करने लगे थे। मैंने एक शर्त रखी थी जिसे न चाहते हुए भी उन्होंने मान लिया था कि वे जब मुझसे बात करेंगे, तो कोई तीसरे व्यक्ति वहां नहीं रहेंगे।
वे आमतौर पर अपने मुसाहिबों से घिरे रहते थे। कोई भी बड़ा नेता वैसे ही दायरे के भीतर महफूज महसूस करता है, विद्याचरण भी उनमें से ही एक थे। उनके आसपास उनके तकरीबन हर वाक्य पर जी भैया कहने वाले लोग अगर न रहें, तो उनका बातचीत का सिलसिला ठीक नहीं चलता था। जिस तरह शास्त्रीय संगीत के कार्यक्रम में अगर सम पर सिर हिलाने वाले कुछ समझदार श्रोता सामने न रहें, तो गायक का मूड उखड़ जाता है, किसी पेशेवर कव्वाल के साथ उसके शेर दुहराने वाले लोग न रहें, तालियों से संगत देने वाले लोग न रहें, तो कव्वाली आधी भी अच्छी नहीं हो पाती, और तो और छत्तीसगढ़ में किसी भागवत-प्रवचन में भी सामने बैठे कुछ लोग प्रवचनकर्ता की हर बात पर हहो-हहो कहने वाले न रहें, तो प्रवचनकर्ता पटरी से उतर जाते हैं, कुछ ऐसा ही विद्याचरण शुक्ल के साथ भी होता था। अकेले में बात करना, किसी गैरभक्त से बात करना उनके लिए कुछ अटपटा सा था, लेकिन फिर भी वे मुझसे बात करने के लिए यह बर्दाश्त कर लेते थे।
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आखिरी के इन बरसों में आमतौर पर दोपहर के खाने की मेज पर घंटों लंबी ऐसी अकेले बातचीत के आखिर में उनका शक मुझ पर से कुछ घटा रहता था, और मैं उनके तजुर्बे का कायल होकर वहां से निकलता था। हिन्दुस्तान के राजनीतिक इतिहास के इतने लंबे दौर के वे एक प्रमुख खिलाड़ी रहे, तमाम चीजों के गवाह रहे, उनसे बातें करने के बाद मैं बहुत सी नई जानकारियां पाकर निकलता था, और मुझे हैरानी भी होती थी कि इतने ऊपर तक पहुंचा हुआ यह नेता किस तरह स्थानीय राजनीति और छोटे, ओछे मुद्दों पर अपना वक्त जाया करता था। इस पर भी हैरानी होती थी कि उनके आसपास अधिकतर समय रहने वाले अधिकतर लोग ऐसे नहीं थे, जो कि उनसे कोई बौद्धिक बहस कर सकते हों। कुल मिलाकर जिस वक्त आप अपने समविचारकों और अपने प्रशंसकों से घिर जाते हैं, आपका आगे बढऩा रूक जाता है, विद्याचरण शुक्ल के साथ मेरा मानना है कि ऐसा ही कुछ हुआ था। इसलिए जब आखिर में उनका नमक खाते हुए भी उनसे असहमति और बहस के साथ मैं उनकी जीवनी पर चर्चा करता था, तो वे मुझे बर्दाश्त करते हुए सुनने लगे थे।
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मैं उन्हें बार-बार याद दिलाता था कि चिट्ठियां, दस्तावेज, और जानकारियों को इकट्ठा करना, लोगों से उस पर विचार-विमर्श करना काफी नहीं है, और उन्हें असल लिखना शुरू कर देना चाहिए। उन्हें यह बात कुछ बुरी लगती थी कि मानो मैं उनकी बढ़ती हुई उम्र और बाकी कम बचे हुए वक्त के बारे में इशारा कर रहा हूं। मेरी ऐसी कोई नीयत नहीं थी, लेकिन मेरा यह तो पक्का भरोसा है कि इंसान को अपनी खुद की जिंदगी की नियति का पहले से कुछ पता नहीं होता, और इसीलिए काल करे सो आज कर, आज करे सो अब, जैसी अच्छी नसीहत किसी ने लिखी थी। विद्याचरण शुक्ल नक्सलियों की गोली से मारे जाएंगे यह तो मैंने अपने सबसे बुरे सपने में भी नहीं देखा होता, लेकिन लिखना शुरू करना विचार-विमर्श के मुकाबले खासा मुश्किल और मेहनतकश काम होता है, इसलिए लोग आमतौर पर बातें करते रह जाते हैं। इसलिए मैं आखिरी की ऐसी कई मुलाकातों में उन्हें लिखना शुरू करने के लिए कोंचने लगा था। मेरा ख्याल है कि वे अपनी जीवनी लिखने को लेकर जितने गंभीर थे, उससे खासे अधिक गंभीर वे उसके बारे में चर्चा भर करने को लेकर थे। यह एक अलग बात थी कि देश के एक नामी-गिरामी इतिहासकार, रामचन्द्र गुहा से भी वे अपनी जीवनी को लेकर विचार-विमर्श करते थे। इसका मुझे पक्का भरोसा है कि ताजा भारतीय इतिहास पर अच्छा लिखने वाले रामचन्द्र गुहा को भी विद्याचरण शुक्ल से खासी जानकारी मिली होगी।
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मैं उनकी राजनीति की जीत-हार के मौजूद आंकड़ों पर यहां जगह बर्बाद नहीं कर रहा हूं, बल्कि कुछ ऐसी बातों को लिख रहा हूं जो कि लोगों की कम सुनी हुई होंगी। इन बातों में अनुपात से बहुत अधिक मौजूदगी मेरी अपनी भी है, लेकिन मैं अपने देखे-सुने को ही इस कॉलम में अधिक लिखना चाहता हूं। विद्याचरण शुक्ल की जिंदगी किस्म-किस्म के मलाल से भरी हुई थी, उन्हें आपातकाल की सारी तोहमतें अपने सिर पर लेने की बेबसी का मलाल भी था, और वे यह भी कहते थे कि उनके पास इंदिरा गांधी और संजय गांधी का नाम लेने का मौका था, लेकिन उन्होंने सारी जिम्मेदारी खुद लेना खुद ही तय किया था। उन्हें वीपी सिंह को लेकर यह मलाल था कि कांग्रेस ने उन्हें पार्टी से निकाला, लेकिन वीपी सिंह की सरकार में उन्हें वह महत्व नहीं मिला जिसके कि वे हकदार थे। उन्हें नरसिंहराव सरकार के दौरान संसदीय कार्यमंत्री रहते हुए सोनिया गांधी के लिए असुविधा खड़ी करने वाले बोफोर्स विवाद को बढ़ावा देने का मलाल नहीं था, लेकिन बाद में जब सोनिया गांधी ने उन्हें छत्तीसगढ़ का पहला मुख्यमंत्री नहीं बनाया, तो उन्हें उसका बड़ा मलाल था। वे महत्वाकांक्षी थे, कुछ मायनों में अतिमहत्वाकांक्षी भी थे, थोड़ी सी हद तक वे महत्वोन्मादी भी थे, लेकिन इन सबसे ऊपर वे जमीनी-चुनावी राजनीति करने में जितने लड़ाकू थे, उतने लड़ाकू लोग छत्तीसगढ़ की राजनीति में कम ही होंगे। विद्याचरण शुक्ल पर बात अभी बाकी है मेरे दोस्त, एक ब्रेक के बाद।
-सुनील कुमार
मन में जब भी अतीत के घाव तैरने लगें, हमेशा उनको करुणा का मरहम दीजिए। क्षमा की खुराक दीजिए। कुछ जख्म होते हैं, जिनको भुलाना आसान नहीं होता लेकिन इतना इंतजाम तो किया ही जा सकता है कि वह कम से कम नुकसान दें।
जीवन संवाद में हम निरंतर प्रेम, अहिंसा, क्षमा और करुणा की बात करते हैं। जीवन का प्राथमिक उद्देश्य मनुष्य बनना होना चाहिए। मनुष्यता के इतिहास के महानतम नायकों में सबसे शक्तिशाली संदेश यही है। लेकिन हम लालच को सफलता, स्वार्थ को प्रेम और महत्वाकांक्षा में लालच को इस तरह मिलाने में व्यस्त हुए कि जीवन के असली रंग से ही दूर हो गए।
हम वर्तमान में रहना भूलते जा रहे हैं। जीवन संवाद को हर दिन मिलने वाले संदेश, ईमेल और व्हाट्सएप को अगर एक छोटा सा आधार मान लिया जाए तो नब्बे प्रतिशत लोग इसलिए प्रसन्न नहीं होते। सब से दूर रहते हैं क्योंकि वह अपनी स्मृतियों से अंधेरा ही खींचते रहते हैं। जबकि कठिन से कठिन परिस्थिति में रहने वाले मनुष्य के जीवन में भी प्रेम का ऐसा एक भी कोमल पल न हो यह संभव नहीं। लेकिन हम उस एक पल को महत्वपूर्ण नहीं मानते।
हम उसे जरूरी ही नहीं मानते, जो शीतल हवा है। आत्मा का अमृत किसी गहरे सागर में नहीं है वह हमारे पास ही है लेकिन अवचेतन मन में इतने गहरे बैठ गया है कि बिना किसी गहरी पुकार, प्रेम की गहरी आकांक्षा के वह बाहर नहीं आ सकता।
आपसे एक छोटी सी कहानी कहता हूं। संभव है उससे मेरी बात लिख सरलता से स्पष्ट हो पाएगी।
एक दिन सक्सेना जी (इनका नाम ही सक्सेना जी है) अपने मित्र से मिलने उसके घर पहुंचे। वह फोन पर सक्सेना जी की दुख भरी बातें सुन सुनकर परेशान हो गए थे। उसने सक्सेना जी से कहा आइए, स्वागत है। बताइए क्या सेवा की जाए।
सक्सेना जी अपने ऑफिस के बड़े अधिकारी थे। लेकिन रहते हमेशा दुखी। उन्होंने कहा ऐसी कोई विशेष इच्छा नहीं। उनके मित्र बड़े सुलझे हुए थे।
उनने सक्सेना जी को थोड़ी देर में घर के व्यंजन परोसने शुरू कर दिए। सक्सेना जी के सामने जो थाली आई उसमें बासी रोटियां थीं। एकदम ठंडी दाल थी। सब्जी थी जो दाल से भी ठंडी थी। उसके बाद इसी तरह की और भी चीजें हैं जो बिना संदेह बासी थीं। गर्मी के दिन थे। आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता था कि यह बचा हुआ खाना ही था जो सक्सेना जी को पेश किया गया! सक्सेना जी एकदम गुस्से से लाल हो गए। उन्होंने दोस्त से कहा यह क्या है मुझे बासी खाना पेश किया जा रहा है। मित्र ने उतनी ही सरलता से कहा नहीं देखिए चाय उबल रही है। वह एकदम ताजी है।
सक्सेना जी गुस्से में जरूरत थे लेकिन मित्र की सरल, सहज और बुद्धिमता पूर्ण जीवन शैली के कायल भी थे। इसलिए सोचने लगे कि इसका मतलब क्या है! मित्र ने अधिक परेशान न करते हुए अपने बच्चों से वह सभी बासी चीजें हटा लेने के लिए कहा। उसके बाद तुरंत लजीज? व्यंजन पेश किए गए! जिनकी सुगंध से घर महक उठा।
मित्र ने कहा, सक्सेना जी- मैंने आपसे कई बार निवेदन किया है बासी-बासी बातें न किया करो। जब देखो तब अतीत का दुख मन पर लादे रहते हो। जो बीत गया वह हमारे नियंत्रण से बाहर है! इसलिए उसकी चिंता में केवल हम घुल सकते हैं। लेकिन अतीत में टहलते रहने से कुछ हासिल नहीं होता। अतीत में हाथ-पांव मारने से भी कुछ नहीं मिलता। अतीत एक दलदल है, जैसे दलदल में जितनी ऊपर आने की कोशिश हम करते हैं उतना ही धंसते जाते हैं।
अतीत की तरह ही जो भविष्य होगा, उस पर भी हमारा बस नहीं। इसलिए हमें केवल वर्तमान के आनंद में रहने का अभ्यास करना चाहिए। मन में जब भी अतीत के घाव तैरने लगें, हमेशा उनको करुणा का मरहम दीजिए। क्षमा की खुराक दीजिए। कुछ जख्म होते हैं, जिनको भुलाना आसान नहीं होता लेकिन इतना इंतजाम तो किया ही जा सकता है कि वह कम से कम नुकसान दें। जीवन केे प्रति कृतज्ञता और आस्था के सिद्धांंत को अपना कर हम बहुत सारे ऐसेेे कष्टों से मुक्त हो सकते हैं, जो हमारे अपने ओढ़े हुए हैं। (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र
बेतरतीब लिखने की अराजक आजादी की एक सहूलियत यह भी होती है कि एक बार में एक से ज्यादा लोगों के बारे में भी लिखा जा सकता है, और एक व्यक्ति के बारे में एक से ज्यादा किस्तों में भी। कुछ व्यक्ति छत्तीसगढ़ की राजनीति में सचमुच ऐसे रहे जिनके बारे में कई-कई किस्तों में ही थोड़ी सी बात हो पाएगी, इसलिए ऐसे लोगों के बारे में एक किस्त तो शुरू में हो जानी चाहिए।
विद्याचरण शुक्ल छत्तीसगढ़ की राजनीति में सबसे अधिक चर्चित, सबसे अधिक विवादास्पद, और जिंदगी के आखिर में बहुत ही अप्रत्याशित शहादत पाने वाले नेता रहे। किसने यह सोचा था कि शानदार व्यक्तित्व और आलीशान शौक रखने वाला यह नेता इस तरह नक्सल गोलियों का शिकार होकर अस्पताल में दम तोड़ेगा। विद्याचरण शुक्ल तो न कभी राज्य की सरकार में रहे, न ही केन्द्र सरकार में उनका कोई काम नक्सल-विरोधी अभियान वाला रहा, और वे नक्सल-हमले में इस तरह फंस गए।
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विद्याचरण शुक्ल ने राजनीति में अहमियत विरासत में पाई थी। वे अविभाजित मध्यप्रदेश के अपने वक्त के सबसे बड़े नेता पंडित रविशंकर शुक्ल के बेटे थे, और उम्र के लिहाज से वे श्यामाचरण शुक्ल के छोटे भाई थे। यह एक अलग बात थी कि दोनों भाईयों की राजनीति नदी के दो पाटों की तरह अलग-अलग फासले पर चलती थी, और दोनों कभी एक साथ राज्य में, या एक साथ केन्द्र में सक्रिय नहीं रहे। बहुत सा दौर तो ऐसा रहा कि इन दोनों में से कोई एक कांग्रेस के बाहर भी रहा। इन दोनों की तुलना करने का वक्त अगली किसी किस्त में आएगा, लेकिन एक लाईन इन दोनों के बारे में किसी बुजुर्ग अखबारनवीस की कही हुई यह लिखना जरूरी है जो उन्होंने किसी पत्रकार के सवाल के जवाब में कही थी। छत्तीसगढ़ के सबसे महत्वपूर्ण पत्रकार रहे मायाराम सुरजन ने बाहर से आए किसी पत्रकार के एक सवाल के जवाब में कहा था- विद्याचरण शुक्ल अधिक तेज नेता हैं, लेकिन श्यामाचरण शुक्ल एक बेहतर इंसान हैं।
यह बात दोनों की तारीफ करने वाली थी, लेकिन फिर भी विद्याचरण शुक्ल को यह बात खटक सकती थी कि उन्हें श्यामाचरण जितना अच्छा इंसान नहीं माना गया। खैर, सार्वजनिक जीवन में लोगों को अपनी अहमियत के अनुपात में ही मूल्यांकन बर्दाश्त करना होता है, और विद्याचरण शुक्ल से अधिक मूल्यांकन तो छत्तीसगढ़ में न किसी नेता का हुआ होगा, और न ही शायद आगे भी हो।
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छत्तीसगढ़ से बाहर विद्याचरण शुक्ल की दोनों-तीनों शिनाख्त अप्रिय कही जा सकती हैं। आपातकाल के दौरान वे सेंसर-मंत्री थे, जब वीपी सिंह ने कांग्रेस छोड़ी, और जनमोर्चा बनाया, तो विद्याचरण शुक्ल कांग्रेस से निकाले गए थे, और वे जनमोर्चा के एक बड़े नेता बने, और तीसरा मौका आया जब छत्तीसगढ़ राज्य के मुख्यमंत्री न बनाए जाने पर उन्होंने कांग्रेस पार्टी छोड़ी, और शरद पवार की एनसीपी का राज्य संगठन बनाया, तीन साल बाद विधानसभा चुनाव में जोगी पार्टी-सरकार को शिकस्त दी। ये तीनों ही बातें जो उन्हें बाहर खबरों में लाती थीं, वे तीनों ही कांग्रेस पार्टी के लिए अप्रिय अध्याय रहीं। विद्याचरण शुक्ल छत्तीसगढ़ के पहले मुख्यमंत्री न बन पाने से इतने आहत रहे कि वे पहले एनसीपी के प्रदेश के मुखिया बने, और फिर कांग्रेस के खिलाफ लोकसभा चुनाव लडऩे के लिए भाजपा चले गए, और शायद उनकी जिंदगी का वही सबसे बुरा फैसला रहा जब कांग्रेस के परंपरागत वोटरों ने उन्हें खारिज कर दिया, और भाजपा के परंपरागत वोटरों ने उन्हें अछूत का अछूत माना। यह उनका चुनावी अंत था, यह अलग बात थी कि पार्टी में बाद में उनका दाखिला हो गया, और जब बस्तर में पार्टी के एक काफिले में वे चल रहे थे, तो नक्सल-हमले में घायल होने के बाद जब वे गुजरे, तो अपने पर वे पार्टी के झंडे के भी हकदार हो गए थे।
विद्याचरण शुक्ल अपने राजनीतिक जीवन को लेकर एक मोटी किताब के हकदार हैं, इस छोटे से कॉलम का न तो इतना दुस्साहस है कि उन्हें दो-चार किस्तों में समेटने की कोशिश करे, और न ही वह मुमकिन ही होगा। इसलिए यह साफ कर देना जरूरी है कि यह कुछ-कुछ बातों को लेकर लिखा जा रहा है, और जितना लिखा जा रहा है, उससे कई गुना अधिक छूटा भी जा रहा है।
विद्याचरण शुक्ल अपनी उम्र के खिलाफ हमेशा लड़ते रहे। उन्हें बहुत बन-ठनकर, सजकर, शान से जीना पसंद था। वे बहुत नफीस कपड़ों के आदी थे, और खादी के परंपरागत कपड़ों से परे वे तरह-तरह के पतलून और टी-शर्ट भी पहनते थे। उनके शौकीनमिजाज होने के बारे में बहुत सी और कहानियां भी प्रचलित रहीं, लेकिन उनमें से किसी की वजह से भी छत्तीसगढ़ के लोगों के मन में उनके लिए सम्मान में कमी नहीं रही, कभी कोई अपमान नहीं रहा। छत्तीसगढ़ से बाहर देश के अंग्रेजी मीडिया में, अपनी आदतन बेरहमी के मुताबिक विद्याचरण शुक्ल को लेकर कई तरह की विवादास्पद बातें गॉसिप कॉलमों में लिखी जाती थीं, और उनमें से ही एक बात को लेकर छत्तीसगढ़ के उस वक्त के एक सबसे प्रमुख अखबार को शुक्ल-समर्थकों की ओर से मुकदमेबाजी भी झेलनी पड़ी थी, और उसकी वजह के पीछे मैं व्यक्तिगत रूप से जिम्मेदार भी था। दिल्ली के एक अखबारनवीस की लिखी गई वैसी ही एक मजाकिया बात वहां तो खप गई थी, लेकिन छत्तीसगढ़ में यहां के एक हिन्दी अखबार में उसके छपने से बरसों तक विद्याचरण शुक्ल से अखबार की बातचीत भी बंद रही, और मेरी भी। बाद में दोनों ही पक्षों के शुभचिंतक और दोस्त सुभाष धुप्पड़ ने किसी तरह बातचीत का सिलसिला शुरू करवाया था।
दरअसल विद्याचरण शुक्ल छत्तीसगढ़ के मीडिया से एक खास किस्म के बर्ताव के आदी थे। आपातकाल के पहले से इस शहर के बड़े-बड़े पत्रकार उन्हें भैया कहकर ही बात करते थे, और कुछ बड़े सीनियर पत्रकार भी भरी प्रेस कांफ्रेंस में उनके पैर छूते थे। ऐसे बर्ताव के बाद आपातकाल में तो और भी बहुत से पत्रकार उनका एक अतिरिक्त सम्मान करने लगे थे, क्योंकि छत्तीसगढ़ की खबरें उनकी खुर्दबीनी निगाह में रहती थीं, और राज्य का छोटा सा मीडिया पूरे देश के सेंसर-मंत्री (जिसके ओहदे का नाम सूचना एवं प्रसारण मंत्री था) को सीधे बर्दाश्त करने की हालत में नहीं था।
आपातकाल के बाद शाह आयोग और दूसरी कई किस्म की जांच का सामना करते हुए विद्याचरण शुक्ल वहां तो कमजोर होते रहे, लेकिन वे छत्तीसगढ़ में फिर भी बड़े नेता बने रहे। हमने ऊपर दोनों भाईयों की राजनीति के अलग-अलग चलने का जिक्र भी किया है। लेकिन एक दौर ऐसा था जब ये दोनों के दोनों अलग-अलग किरदारों में एक सा काम कर रहे थे, और वह दौर इमरजेंसी का था। इमरजेंसी में विद्याचरण शुक्ल दिल्ली में संजय गांधी की चौकड़ी में रहे, और देश भर के मीडिया पर तरह-तरह का जुल्म किया। इधर छत्तीसगढ़ में श्यामाचरण शुक्ल मुख्यमंत्री रहे, और पूरे प्रदेश में हजारों बेगुनाह मीसा में बंद कर दिए गए, संजय गांधी को युवा हृदय सम्राट स्थापित करने के लिए बस्तर में आमसभा करवाई गई, और पूरे प्रदेश से सरकारी बसों को उसमें लगाया गया, जिसके भुगतान से बाद में कांग्रेस पार्टी ने मना कर दिया कि उसका लिखित आदेश दिखाया जाए। वह दौर ऐसा था कि हिन्दुस्तान की सरहद में किसी के पास इतना हौसला नहीं था कि संजय गांधी की हसरतों से कोई सवाल करे, और कुछ राज्यों में तो मुख्यमंत्री संजय गांधी की चप्पलें लेकर पैदल चल रहे थे, अपने अंगवस्त्र से मंच पर संजय गांधी की कुर्सी साफ कर रहे थे। बाद में शुक्ल बंधु अपनी सफाई में चाहे जो कहते रहे हों, इतिहास की हकीकत यही है कि इन्हें अपनी कुर्सियों से इतना मोह था कि अपनी तनी हुई देह से रीढ़ की हड्डी भी इन्होंने अलग करके इमरजेंसी के दौरान ताले में धर दी थी। दोनों भाई राजनीति अलग-अलग करते थे, लेकिन मध्यप्रदेश में इमरजेंसी की ज्यादतियों में दोनों पार्टी के एक पुराने निशान, बैल-जोड़ी की तरह एक ही मकसद में लगे हुए थे।
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पूरे देश के लिए विद्याचरण शुक्ल आपातकाल के बाद से एक खलनायक की तरह रहे, और मीडिया के लोग उनकी सेंसरशिप को कभी माफ नहीं कर पाए। उन्हीं का तजुर्बा है कि हिन्दुस्तान में बाद की किसी सरकार ने सेंसरशिप को घोषित रूप से लागू करने के बारे में नहीं सोचा, यह एक अलग बात है कि रीढ़ की हड्डियों का संग्रहालय बनाने में बहुत से बड़े नेताओं को आज भी मजा आता है।
मीडिया के लोगों को इमरजेंसी के वीसी शुक्ला से कितनी नफरत थी उसका एक तजुर्बा मुझे तब हुआ जब देश के सबसे विख्यात कॉर्टूनिस्ट आर.के. लक्ष्मण का छत्तीसगढ़ आना हुआ। वह शायद अर्जुन सिंह के मुख्यमंत्री रहने का दौर था, और उन्होंने लक्ष्मण को राज्य पर एक स्कैचबुक बनाने का न्यौता दिया था। उसी सिलसिले में लक्ष्मण पूरे प्रदेश का दौरा कर रहे थे, और छत्तीसगढ़ आने पर वे रायपुर में सर्किट हाऊस में अपनी पत्नी के साथ ठहरे हुए थे। वे मीडिया के लोगों से बात नहीं करते थे, उनके इंटरव्यू भी शायद ही कहीं छपते थे। लेकिन मैंने लक्ष्मण के बेटे के एक दोस्त का जिक्र किया जो कि मेरे साथ युद्ध-संवाददाता प्रशिक्षण में महीनों तक रहा था। सर्किट हाऊस जाकर जब इस पहचान के हवाले से मैंने उनसे बात करनी चाही, तो वे अपनी आदत के खिलाफ तुरंत ही मिलने आ गए, और फिर अपनी पत्नी को भी बुलवा लिया कि बेटे के दोस्त का दोस्त आया है। मैं उन दिनों फोटोग्राफी भी करता था, और लक्ष्मण के इंटरव्यू के साथ-साथ मैंने सर्किट हाऊस के बाहर लॉन पर उन्हें ले जाकर उनकी ढेर सारी तस्वीरें खींची थीं। बाद में डार्करूम में खुद ही तुरंत उनके प्रिंट तैयार करके लौटकर उनसे हर प्रिंट पर ऑटोग्राफ भी करवाया था। उस इंटरव्यू के दौरान और बाकी बातचीत में लक्ष्मण ने विद्याचरण शुक्ल की इमरजेंसी और सेंसर के खिलाफ इतनी गालियां दी थीं, इतनी गालियां दी थीं, कि उनका यहां पर जिक्र असंसदीय हो जाएगा। अब न लक्ष्मण रहे, न ही वीसी शुक्ला, इसलिए वे गालियां अब कागजों पर दर्ज करना भी ठीक नहीं है।
विद्याचरण शुक्ल तीन बेटियों के पिता रहे, जिनमें से किसी ने भी राजनीति में उनके जीवनकाल में कोई दिलचस्पी नहीं ली। उनकी बड़ी बेटी उनके गुजरने के बाद उनकी राजनीतिक विरासत सम्हालने की हसरत जरूर रखती थी, लेकिन तब तक छत्तीसगढ़ की राजनीति इतनी तेज रफ्तार और नेताओं के लिए ओवरटाईम का सामान बन चुकी थी कि दिल्ली में बसी हुई प्रतिभा पांडेय के लिए छत्तीसगढ़ में कोई भी जगह बची नहीं थी।
विद्याचरण शुक्ल पर अगली कई-कई किस्तों में लिखना हो सकता है, ये सिर्फ उनसे जुड़ी हुई कुछ बातें हैं, बाकी बातें अगली किसी किस्त में।
-सुनील कुमार
हमारा दिमाग बहुत ही ताकतवर मशीन की तरह काम करता है। हम जैसे-जैसे उसे इनपुट देते हैं उसके आधार पर ही वह आउटपुट देता है। यहां भी चेतन और अवचेतन मन का संबंध महत्वपूर्ण हो जाता है।
कोरोना हम सबके जीवन को ऐसे मोड़ पर ले आया है, जहां पर सबके सामने तरह-तरह की चुनौतियां हैं। कुछ लोगों की दिशा ही बदल गई। बहुत से लोगों का काम हमेशा के लिए बदलने वाला है। बड़ी संख्या में लोगों को अपना काम बदलना पड़ेगा। इस बीच इस बदलाव के कारण मन पर जो दबाव पड़ रहा है, उसके कारण बड़ी संख्या में लोगों का जीवन अस्त-व्यस्त हो गया है।
जीवन संवाद के सजग पाठक महेश विश्वकर्मा ने जोधपुर से हमें लिखा है कि पिछले कुछ समय से वह ठीक से सो नहीं पा रहे हैं। उनको नींद नहीं आ रही। दिनभर की चिंताएं रात को मस्तिष्क पर सवार होकर मन में उतर आती हैं। मन में अधूरी चिंताएं हलचल पैदा करती हैं, दिमाग को विश्राम नहीं करने देतीं। यह तब है, जब महेश को अब तक किसी भी तरह का वित्तीय नुकसान नहीं उठाना पड़ा है। असल में वह भविष्य के प्रति बहुत अधिक आशंकित हैं। इसके साथ ही उन्होंने बहुत अधिक आशा बांध रखी है। देश, काल, परिस्थितियों को देखते हुए भी नहीं देखना हमारी बड़ी पुरानी समस्याओं में से एक है।
महेश दुनिया भर से आने वाली खबरों के कारण मानसिक रूप से परेशान हो रहे हैं। हमारा दिमाग बहुत ही ताकतवर मशीन की तरह काम करता है। हम जैसे-जैसे उसे इनपुट देते हैं उसके आधार पर ही वह आउटपुट देता है। यहां भी चेतन और अवचेतन मन का संबंध महत्वपूर्ण हो जाता है। हम अनेक बातों/चीज़ों को अवचेतन मन की ओर धकेलते जाते हैं। अनसुलझी बातें इक_ी होती जाती हैं। जैसे घर में कबाड़ जरूरी चीजें को संभाल कर रखने से शुरू होता है लेकिन धीरे-धीरे सभी बेकार की चीज़ें वहां जमा होती जाती है। अवचेतन मन भी ठीक इसी तरह से काम करता है। इसलिए हमें उसके प्रति सतर्क, जागरूक रहने की जरूरत है।
इसलिए, मन कैसे काम करता है। यह समझना जरूरी है। इससे हम उन रास्तों पर भटकने से बच जाएंगे, जिनका जीवन से कोई सरोकार नहीं होता। एक छोटी सी कहानी कहता हूं आपसे। इससे मेरी बात आप तक अधिक स्पष्टता से पहुंच पाएगी।
राजा के सबसे प्रभावशाली, बुद्धिमान मंत्री का पद रिक्त हुआ। राजा ने मंत्री से कहा- जाने से पहले वह इस पर किसी को नियुक्त करके जाए। प्रतियोगिता हुई, तरह-तरह की परीक्षाओं से अंत में दस उम्मीदवार बचे। अंतिम मुकाबला इन्हीं में से होना था। मंत्री ने सबको बुला कर कहा, एक सप्ताह का समय है। एक सप्ताह के बाद मुख्य परीक्षा होगी। हम देखना चाहते हैं कि आप में से कौन सबसे अधिक सजग दृष्टि रखता है। आप सबको एक बड़े कमरे में बंद किया जाएगा। दरवाजा भीतर से ही बंद होगा। वहां एक ताला लगा होगा। जो दरवाजा खोलकर बाहर आएगा, वही विजेता होगा।
सारे उम्मीदवार इस सूचना के बाद नगर के बाजारों में टहलने निकल गए। ऐसी किताब खोजने में जुट गए, जिनमें तालों के बारे में जानकारी हो। कुछ तो ताला बाजार में जाकर चाबियां भी इक_ी कर लाए। चोरी छुपे चाबियों को अपने कपड़ों में छुपा कर कमरे में परीक्षा के लिए पहुंचे। एक रात पहले सबको उस कमरे में बंद कर दिया गया। जिस दिन उस से निकल कर सीधे राजा के दरबार में पहुंचने का रास्ता खुल जाना था!
रात भर कोई नहीं सोया। केवल एक उम्मीदवार को छोडक़र जो न तो किताब खोजने गया और न ही ताले की चाबी। वह पूरी मौज में विश्राम में रहा। रात भर पूरी शांति से सोया। उसके अलावा बाकी नौ, सारी रात जागते रहे। सोचते रहे कि किस तरह दरवाजा खोला जा सकता है। अगले दिन रात भर के जागे और चिंता में डूबे उम्मीदवार तालाा खोलने में जुट गए। वह जो रात भर सोया था, गहरी शांति में था। उसक भीतर जरा भी बेचैनी नहीं थी। बाकी नौ जल्दबाजी में थे। सबने जाकर कोशिशें शुरू कर दीं। उस विशाल कमरे में कुछ ऊंचाई पर एक खिडक़ी थी। जहां वह बूढ़ा मंत्री शांति से बैठ कर सारे दृश्य देख रहा था।
जब सारे उम्मीदवार अपनी कोशिश में हार गए तो वह युवक शांति से उठा। उसने रात को ही गहराई से कमरे और दरवाजे को समझा था। वह शांति से दरवाजे के पास पहुंचा, और दरवाजे की सिटकनी खोलकर बाहर निकल आया।
बुजुर्ग मंत्री प्रसन्नता से झूमते हुए उसका स्वागत करने दरवाजे की ओर बढ़ गए। असल में ताला तो था लेकिन बाहर निकलने के लिए ताला खोलने की जरूरत नहीं थी। ताले को इस तरह लगाया गया था कि उसे बिना खोले ही बाहर जाना संभव था। लेकिन उसके अतिरिक्त सभी उम्मीदवार अपना सारा ध्यान, ज्ञान और चेतना ताले पर ही केंद्रित किए रहे इसलिए उन्हें ख्याल ही नहीं रहा इसके बिना भी दरवाजा खोला जा सकता है। (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र
राजनीति, सार्वजनिक जीवन, और शासन-प्रशासन में रहते हुए कोई व्यक्ति किस तरह कुएं का मेंढक हो सकता है, यह देखना हो तो रायपुर के महापौर, विधायक, और छत्तीसगढ़ की पहली सरकार के मंत्री रहे हुए तरूण चटर्जी को देखना चाहिए। कुएं का मेंढक लिखने मतलब किसी भी तरह तरूण चटर्जी, या मेंढक का अपमान करना नहीं है, इन दोनों को इस मिसाल पर आपत्ति हो सकती है, लेकिन तरूण चटर्जी के मिजाज का बखान करने के लिए इससे कम शब्दों में इससे बेहतर कोई मिसाल नहीं हो सकती। इसलिए तरूण चटर्जी की आत्मा, और उनके वक्त के कुएं के मेंढकों के आज के वंशज दोनों कृपया बुरा न मानें।
तरूण चटर्जी की सारी की सारी जिंदगी रायपुर म्युनिसिपल की सरहद, और उनकी अपनी विधानसभा सीट तक सीमित थी। भाजपा के 13 विधायकों को लेकर वे दल-बदल करके जोगी सरकार में शामिल हुए थे, और थोक के इस सौदे में उन्हें मंत्री बनना नसीब हुआ था। लेकिन पूरे प्रदेश के मंत्री रहते हुए भी उनके दिमाग के टॉवर की रेंज उनके विधानसभा क्षेत्र की सरहद पर खत्म हो जाती थी। अपने साम्राज्य में वे एक-एक गली-नाली को जानते थे, लेकिन बाहर के किसी को नहीं पहचानते थे। यह उनकी खामी नहीं थी, उनकी खूबी थी कि वे टेबिल लैम्प की रौशनी की तरह अपना सारा ध्यान फोकस रखते थे, अपने वोटरों तक सीमित रखते थे।
तरूण चटर्जी ने विद्याचरण शुक्ल के साथ राजनीति शुरू की थी, और बढ़ते-बढ़ते वे अपने दम पर अपनी लोकप्रियता से महापौर चुने गए। एक महापौर का जितना ध्यान म्युनिसिपल की बुनियादी जिम्मेदारियों पर रहना चाहिए, उतना पूरे का पूरा ध्यान तरूण चटर्जी का रहता था। और वे दिन खासे मुश्किल के भी थे। छत्तीसगढ़ में दशकों तक विद्याचरण शुक्ल की मर्जी कांग्रेस पार्टी के अधिकतर लोगों के लिए हुक्म सरीखी रहती थी। फिर तरूण तो विद्या भैया के खेमे के थे, उनकी मर्जी से परे कुछ सोच नहीं सकते थे। और छत्तीसगढ़ की उस वक्त राजधानी न बने हुए रायपुर में हर कोई अपने काम को लेकर विद्याचरण तक पहुंच रखते थे। नतीजा यह था कि मेयर के लायक कोई काम भी अगर वीसी शुक्ला से होते हुए आता था, तो हैरानी नहीं होती थी। ऐसे में वीसी की मर्जी के साथ-साथ चलते हुए म्युनिसिपल को चलाना, और जनता के छोटे-छोटे काम करना, तरूण चटर्जी के पहले, और उनके बाद वैसा कोई दूसरा मेयर नहीं हुआ।
उन दिनों राजधानी भोपाल रहती थी। मेयर को किसी भी काम के लिए भोपाल में मंत्री और सचिव के पास, और डायरेक्ट्रेट में जाकर डेरा डालना पड़ता था। तरूण चटर्जी तेज थे, वे अपने साथ अपने टाइपिस्ट और टाईपराईटर को लेकर जाते थे, और वहां मंत्रालय-सचिवालय, वल्लभ भवन, के बाहर पेड़ के नीचे टाईपिस्ट का डेरा डलवा देते थे। भीतर दफ्तरों में तरूण चटर्जी से जिस बात का प्रस्ताव बनाकर भेजने के लिए कहा जाता था, वह प्रस्ताव वे घंटे भर में लेकर वापिस सिर पर चढ़ बैठते थे। लोगों के साथ उनकी बातचीत का लहजा अपने साम्राज्य की जरूरतों से तय होता था, और वे किसी भी सीमा तक नरमी बरतते हुए मंत्री या अफसर के हाथ जोड़ लेते थे, और उनका यह मानना रहता था कि किसी निर्वाचित और पद पर बैठे नेता की अकेली इज्जत होने वाला काम रहता है, और कुछ नहीं।
म्युनिसिपल की राजनीति में जितना जोड़तोड़ करना होता है, जितना छोटा-छोटा ख्याल रखना होता है, उसमें तरूण चटर्जी बहुत ही माहिर थे। एक गैरछत्तीसगढ़ी समुदाय के रहते हुए भी वे किसी भी स्थानीय जाति और समुदाय के बाशिंदे के मुकाबले अधिक छत्तीसगढ़ी, और अधिक स्थानीय थे। किसी को डांटकर, किसी को फटकार कर, किसी को पुचकार कर, और जरूरत रहे तो किसी की मुसाहिबी भी करके वे काम निकालते थे।
राजनीति में तरूण चटर्जी ने कांग्रेस छोडक़र भाजपा में जाना तय किया क्योंकि उन्हें अपने इलाके का और अपना भला उस वक्त भाजपा में दिख रहा था। भाजपा से विधायक बनने के बाद उन्होंने रातोंरात 13 विधायकों के साथ भाजपा तोड़ी, मुख्यमंत्री निवास के रास्ते में नाम के लिए शायद एक कोई नई पार्टी बनाई, और कांग्रेस में चले गए। वे बुनियादी रूप से कांग्रेसी सोच के नेता थे, लेकिन उससे भी ऊपर वे गरीबों के नेता थे। उनके म्युनिसिपल इलाके में, और उनके चुनाव क्षेत्र में गरीबों का जितना भला हुआ, उतना शायद प्रदेश के किसी भी दूसरे विधानसभा क्षेत्र में नहीं हुआ होगा। तमाम गंदी बस्तियों और झुग्गी-झोपडिय़ों को बसाना, वहां बुनियादी सुविधाएं जुटाना, जमीन के पट्टे दिलवाना, रिक्शों का मालिकाना हक दिलवाना, एकबत्ती कनेक्शन दिलवाना, राशन कार्ड बनवाना, उनका रोज का काम था। मंत्री बनने के पहले तक कलेक्ट्रेट, म्युनिसिपल, और अनगिनत सरकारी दफ्तरों में वे जुलूस लेकर पहुंचते रहते थे, या प्रतिनिधि मंडलों के साथ जाकर अफसरों से गरीबों का काम करवाते थे।
बहुत पुराने गांधीवादी सांसद केयूर भूषण को छोड़ दें, तो बाद की पीढ़ी में तरूण चटर्जी, और उनके एक दूसरे साथी नेता बलबीर जुनेजा जो बाद में मेयर भी बने, यही दो ऐसे नेता थे जो आए दिन कुष्ठरोगियों की बस्ती में जाते रहते थे, उनके साथ बैठते थे, उनके काम निपटाते थे। तरूण चटर्जी मोटे तौर पर गरीबों की राजनीति करते थे, उनके बुनियादी काम निपटाने के लिए किसी से भी भिड़ जाते थे, और हिकमतअमली से काम निकलवा लेते थे।
उनके परिवार से राजनीति में किसी की दखल नहीं रही, और वे कुनबे के अकेले नेता बनकर रहे, और चले गए। राजनीति के इमरजेंसी के बाद से शुरू वे ऐसे दिन थे जब छत्तीसगढ़ में कांग्रेस और जनसंघ, या भाजपा के बीच कोई निजी कटुता नहीं रहती थी, और पक्ष-विपक्ष की अपनी-अपनी जगह दोनों एक-दूसरे के साथ सहअस्तित्व में जी लेते थे। तरूण चटर्जी की चर्चा जरूरी इसलिए है कि स्थानीय संस्थाओं की राजनीति में अपनी निजी महत्वाकांक्षा से, आत्मसम्मान और दंभ से ऊपर जाकर कैसे जनहित के काम करवाए जा सकते हैं, तरूण चटर्जी इसकी एक बड़ी मिसाल रहे। अपने वोटरों और आम लोगों के बीच एक जुझारू और कामयाब नेता की छवि के पीछे उनकी चतुराई भी थी, मेहनत भी थी, और कामयाबी भी थी। आज के वक्त जब छत्तीसगढ़ राज्य बन चुका है, और मेयर होने का मतलब मुख्यमंत्री का करीबी होना हो जाता है, तब वैसे जुझारूपन और वैसे संघर्ष के दिन लद गए। तरूण चटर्जी की कल्पना करने के लिए उनके वक्त का होना जरूरी है, उस वक्त तो उनके इलाके में हर कोई उन्हें अच्छी तरह जानते ही थे।
तरूण चटर्जी के लिए जिंदगी में एक बड़ी शिकस्त रही अपने ही घर के वार्ड से म्युनिसिपल का चुनाव हारना। वे इसके पहले मेयर रह चुके थे, विधायक रह चुके थे, लेकिन बड़े नेता हो जाने के बाद फिर मेयर बनने के लिए उन्होंने वार्ड का चुनाव लड़ा, और एक साधारण समझे जाने वाले नेता से हार गए। यह एक अलग बात है कि हार का विश्लेषण करने वाले लोगों ने इसकी वजह ढूंढ निकाली और कहा कि भाजपा के एक राष्ट्रीय स्तर के बड़े नेता सिकंदर बख्त रायपुर आए थे, और तरूण चटर्जी उन्हें प्रचार के लिए अपने वार्ड ले गए थे जहां की मुस्लिम आबादी भरपूर थी। उनकी चतुराई धरी रह गई दो मायनों में, एक तो यह कि बड़े नेता को छोटा चुनाव नहीं लडऩा चाहिए, दूसरी यह कि अतिआत्मविश्वास में मुस्लिम आबादी में भाजपा के बड़े नेता को वे ऐसे वक्त ले गए जब बाबरी मस्जिद गिरने के जख्म ताजा थे। बाकी कुछ और लोगों की चर्चा के दौरान तरूण चटर्जी के बारे में कुछ और बातें।
-सुनील कुमार
पवन दीवान की जिंदगी छत्तीसगढ़ के राजिम से जुड़ी रही। वे वहीं पास एक गांव, किरवई, में पैदा हुए, जहां उनके एक कच्चे मकान में उनके साथ खाने का मौका मुझे मिला था। उसके अलावा भी आपातकाल के तुरंत बाद के जनता पार्टी राज के वक्त से उनसे जो परिचय शुरू हुआ, तो वह कभी कमजोर नहीं पड़ा। उनके बारे में लिखते हुए मैं कई बार बहुत बेरहम हुआ, लेकिन उनके दिल का रहम डिगा नहीं। मुझसे वे हमेशा प्रेम का बर्ताव करते रहे, जो कि सांसारिक जीवन से ऊपर उठ जाने का एक सुबूत सा था, लेकिन सुबूत था नहीं।
अपनी निजी जिंदगी में पारिवारिक स्थिति की वजह से पवन दीवान सन्यासी बने रहे, वे सन्यासी की पोशाक में भी जिए, लेकिन उनका मन सन्यास से अछूता रहा। वे राजनीति से कभी सन्यास नहीं ले पाए, और उनका मोह भी खत्म नहीं हुआ। इस तरह वे एक सन्यासी की देह में एक असन्यासी आत्मा के साथ जीते रहे, लड़ते रहे, पाते रहे, खोते रहे, और फिर पाने की चाहत में पार्टियां बदलते रहे।
अब वे नहीं रह गए हैं, लेकिन यह लिखने में मुझे कोई हिचक इसलिए नहीं है कि उनके रहते-रहते भी मैं काफी कुछ कड़वा लिखते रहता था, और वे उसे बर्दाश्त करते हुए मुझसे प्रेमसंबंध बनाए रखते थे।
पृथक छत्तीसगढ़ राज्य के लिए आंदोलन करने वाले पुराने लोगों में से पवन दीवान भी एक थे। इस आंदोलन से उनके पहले भी लोग जुड़े, और उनके बाद भी, लेकिन पवन दीवान के नाम का जिक्र पृथक छत्तीसगढ़ से हमेशा ही बने रहा। इमरजेंसी के तुरंत बाद जब चुनाव हुए, तो जनसंघ और समाजवादियों ने मिलकर जनता पार्टी बनाई थी, और पवन दीवान राजिम विधानसभा सीट से उसके उम्मीदवार थे। यह सीट श्यामाचरण शुक्ल की घरेलू सीट मानी जाती थी, लेकिन आपातकालीन ज्यादतियां इतनी अधिक हुई थीं कि संजय गांधी के चरणों पर अपनी-अपनी रीढ़ की हड्डियां चढ़ाकर मुख्यमंत्री बने रहने वाले लोगों में से श्यामाचरण भी थे। वे जनता पार्टी की लहर में, और जबरिया-नसबंदी जैसे कुकर्म के तुरंत बाद पवन दीवान से चुनाव हार बैठे। अविभाजित मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री रहे रविशंकर शुक्ल के मुख्यमंत्री रहे बेटे को हराने वाले पवन दीवान को मध्यप्रदेश में मंत्री बनने का मौका मिला। शायद यही चुनाव था जब छत्तीसगढ़ में एक नया नारा इस्तेमाल हुआ था- पवन नहीं यह आंधी है, छत्तीसगढ़ का गांधी है।
पवन दीवान राजनीति में आने के पहले से छत्तीसगढ़ के एक सबसे लोकप्रिय कवि थे, और सन्यासी होने के बावजूद उनकी एक बड़ी रोमांटिक कविता, एक थी लडक़ी मेरे गांव की, चंदा जिसका नाम था..., की खूब डिमांड रहती थी, और वे मंच से कविता पढऩे वाले सबसे लोकप्रिय कवियों में से एक थे। इस कविता की मांग बराबर रहती थी, और वे इसे आखिरी तक बचाकर भी रखते थे, क्योंकि पहले रसमलाई परोस दी, तो बाद में बालूशाही किसे सुहाएगी। पवन दीवान जितने लोकप्रिय कवि थे उतने ही लोकप्रिय भागवत-प्रवचनकर्ता भी थे। उनकी भागवत सुनने के लिए भी लोग जुटते थे, और ये तमाम चीजें उनके चुनाव जीतने में काम आईं।
जनता पार्टी सरकार में जेल मंत्री रहते हुए पवन दीवान ने मुझ पर एक व्यक्तिगत उपकार भी किया था। रायपुर की सेंट्रल जेल में एक कैदी को फांसी की सजा होनी थी। यह 1978 की बात थी, और मुझे अखबार में नौकरी शुरू किए दो ही बरस हुए थे। उम्र 20 बरस थी, लेकिन अखबारनवीसी का जोश बहुत था। जेल सुप्रीटेंडेंट जी.के. अग्रवाल से मेरे दोस्ताना ताल्लुकात थे, हालांकि वे उम्र में मुझसे दोगुने से भी बड़े थे। उनकी मेहरबानी से मैं जेल के इस कैदी, बैजू, से कई दिनों तक रोज उसकी कोठरी में जाकर मिलकर, लंबी बातचीत करके आता था। यह पूरा सिलसिला जेल के नियमों के खिलाफ था, लेकिन यह चला। आखिर में जब उसकी फांसी का दिन आ गया, तो मैंने अग्रवाल साहब से कहा कि कोई ऐसा जरिया हो सकता है कि मैं यह फांसी देख सकूं? उन्होंने कहा कि उनके अधिकार में तो ऐसा नहीं है, लेकिन अगर जेलमंत्री चाहें तो ऐसी इजाजत दे सकते हैं, और उस इजाजत की अधिक छानबीन किए बिना वे अपने स्तर पर मुझे यह छूट दे देंगे।
पवन दीवान से मेरे उस वक्त के एक वरिष्ठ सहकर्मी राजनारायण मिश्र के संबंध अधिक घरोबे के थे, और उनके साथ जाकर मैंने ऐसी चि_ी पवन दीवान को सर्किट हाऊस में दी। अग्रवाल साहब भी मंत्री के रायपुर में होने की वजह से सर्किट हाऊस में ही थे। चि_ी में मैंने फांसी की सजा के बेरहम होने, और उसके खिलाफ एक जनमत तैयार करने के लिए ऐसी रिपोर्टिंग की जरूरत बखान की थी, जो कि पूरी तरह बोगस तर्क था। लेकिन उनको छूने वाली बात इसके बाद थी कि कवि हृदय जेलमंत्री के रहते हुए ऐसी अनुमति की उम्मीद है। इस पर पवन दीवान ने अग्रवाल साहब से पूछा, और उनका सोचा हुआ जवाब था- सर, जेल मैन्युअल इस बारे में मौन है। लेकिन आप तो मंत्री हैं, आप चाहें तो इजाजत दे सकते हैं।
पवन दीवान का लंबा प्रशासनिक इतिहास तो था नहीं, फांसी की सजा को अमानवीय, उसके खिलाफ जागरूकता की जरूरत, और मंत्री को कवि हृदय लिखना काम आया, और उन्होंने उसी आवेदन पर अनुमति लिख दी। नतीजा यह हुआ कि अपने एक और वरिष्ठ सहकर्मी गिरिजाशंकर के साथ मैंने वह फांसी देखी, और उसकी रिपोर्ट लिखी, जो कि हिन्दुस्तान में अपने किस्म की पहली रिपोर्ट थी। बीस बरस की उम्र में, वैसी शोहरत दिलाने वाली रिपोर्ट के मौके के लिए मैं हमेशा ही पवन दीवान का अहसान मानते रहा, और जब कभी उनके दल-बदल पर मुझे खिल्ली उड़ानी पड़ी, मन के भीतर अच्छा नहीं लगा। इसके बावजूद पेशे का ईमान वैसी कड़वी बातें लिखवाते रहा। पवन दीवान जब कई बार कई पार्टियां बदल चुके थे, तब शायद उनके आखिरी दल-बदल के वक्त मैंने इस अखबार के पहले पन्ने पर उनकी ठहाके लगाती हुई तस्वीर के साथ लिखा था- यह आदमी हर कुछ बरस में पार्टी बदल देता है, उसके बाद छूटी हुई पिछली पार्टी किसी वक्त उसे लेने के फैसले पर रोती है, और यह आदमी इसी तरह ठहाके लगाकर हॅंसता है।
ऐसा लिखने के बाद भी पवन दीवान ने कभी बोलचाल बंद नहीं की। कभी इंटरव्यू देना उनके लिए राजनीतिक असुविधा का रहता था, तो भी वे अनचाहे भी मुझसे तो बात कर ही लेते थे। उनके देह पर कपड़ा आधी धोती जितना छोटा रहता था, लेकिन उनका दिल बड़ा था। दिल इस मायने में भी बड़ा था कि उसमें हसरतें हमेशा बड़ी रहीं। उनसे लालबत्ती और ओहदे का मोह नहीं छूटा। परिवार का सांसारिक मोह तो उन्होंने छोड़ दिया था, लेकिन राजनीतिक जीवन का मोह उनके मन में हमेशा ही उछालें मारते रहता था।
जब जनता पार्टी सरकार गई और मध्यप्रदेश में अर्जुन सिंह की सरकार आईं, उस वक्त अर्जुन सिंह कांग्रेस पार्टी के भीतर छत्तीसगढ़ के शुक्ल बंधुओं के मुकाबले छोटे नेता थे। वे सार्वजनिक बातचीत में भी उन्हें श्यामा भैया, विद्या भैया कहकर बुलाते थे, और एक बहुत ही शातिर राजनेता की तरह उनकी जड़ें भी काटते थे। वही वक्त था जब वे 1980 में मुख्यमंत्री बने थे, और शुक्ल बंधुओं, और उनके गुजरे हुए पिता रविशंकर शुक्ल के व्यक्तित्व के समानांतर उन्होंने कुछ विकल्प खड़े करने की कोशिश की, और कामयाब हुए। उसी में उन्होंने शहीद वीरनारायण सिंह को स्थापित किया, पवन दीवान को कांग्रेस में लेकर आए। इस राजनीतिक फैसले में जेल सुप्रिटेंडेंट अग्रवाल साहब अर्जुन सिंह के काम आए। वे पवन दीवान के जेलमंत्री रहते उनके रायपुर से गुजरते हुए जेल में कैदियों के लिए उनका भागवत प्रवचन करवाते थे, और उनके करीब थे। उनके मार्फत पवन दीवान से कई दौर की बात चली, और शायद उसी वक्त अजीत जोगी भी रायपुर के कलेक्टर बनकर आए थे। कुल मिलाकर अफसरों की घेराबंदी के साथ पवन दीवान का कांग्रेस प्रवेश हुआ, और शुक्ल बंधुओं को एक कड़वा घूंट पीकर रह जाना पड़ा। पवन दीवान को अर्जुन सिंह ने मंत्री स्तर का दर्जा देकर किसी निगम का अध्यक्ष बनाया था, और अपने सहयोगियों से कहा भी था कि उनका ख्याल रखें।
पवन दीवान का ऐसा विविधता से भरा हुआ राजनीतिक जीवन रहा, सामाजिक, धार्मिक, और आध्यात्मिक जीवन रहा, सन्यासी और सांसारिक का मिलाजुला जीवन रहा, रोमांटिक कविता से भीगा हुआ साधु जीवन रहा। वे एक अच्छे इंसान रहे, और राजनीति में जितनी मौकापरस्ती और जितना दलबदल मान्य है, वे उस सीमा के भीतर उसका पूरा इस्तेमाल करते हुए गुजरे। उनके बारे में यादें बहुत हैं, बाकी फिर कभी किसी अगली किस्त में।
-सुनील कुमार
स्वतंत्रता, जितनी बाहरी जरूरत है उससे कहीं अधिक यह हमारी आंतरिक विचार प्रणाली से जुड़ी हुई है। अपने निर्णय को निष्ठा के कर्ज से दूर रख कर ही हम उस स्वतंत्रता की ओर बढ़ सकते हैं जिसकी हम अक्सर बातें करते हैं।
महाभारत की सबसे बड़ी शिक्षा में से एक है, निष्ठा के प्रति सतर्कता। महाभारत की पूरी कहानी में निष्ठा एक ऐसा किरदार है, जिसके आसपास पूरी कथा रची गई है। निष्ठा पर विचार करते समय इसमें से मनुष्यता, नैतिकता और न्याय का दृष्टिकोण भुला देने के कारण ही वह भीषण संघर्ष हुआ जिसकी कहानी महाभारत है। दुर्योधन के प्रति कर्ण की निष्ठा में इन तीनों गुणों की कमी है। उसकी निष्ठा की आंखें केवल और केवल दुर्योधन को देख पाती हैं। क्योंकि उनकी आंखों पर दुर्योधन के कर्ज की पट्टी बंधी है!
आज ‘जीवन संवाद’ में महाभारत की चर्चा इसलिए क्योंकि हमें बड़ी संख्या में पाठकों ने लिखा है कि वह कई बार ना चाहते हुए भी माता-पिता और परिवार के दबाव में, उनके प्रति निष्ठावान होने के कारण अपने निर्णय नहीं करते। परिवार में कुछ भी गलत होते हुए देखने के बाद भी उसके विरुद्ध खड़े नहीं होते। क्योंकि वह सम्मान और निष्ठा की डोर से बंधे होते हैं।
कर्ण का जीवन दुखमय है। उसमें दुख, उपेक्षा और प्रतिभाशाली होते हुए भी अधिकारों के प्रति वंचित किए जाने की पीड़ा है। ऐसी पीड़ा के बीच दुर्योधन जैसे सहारे के प्रति निष्ठावान होना स्वाभाविक तो हो सकता है लेकिन न्याय संगत नहीं। इससे मनुष्यता के इतिहास में कर्ण की भूमिका उसके सभी गुणों के बावजूद धूमिल होती जाती है। जबकि कर्ण जैसा दानवीर पूरी कथा में दूसरा नहीं है। निष्ठा के दूसरे उदाहरण स्वयं भीष्म पितामह जो धर्म के ज्ञाता, महावीर और हर प्रकार के संकट का सामना करने में सक्षम हैं। लेकिन वह भी कर्ण की तरह केवल सिंहासन के प्रति निष्ठावान हैं।
इसीलिए भीष्म पितामह और कर्ण का जीवन उस यश को प्राप्त नहीं होता जो उनसे बहुत कम प्रतिभाशाली और सक्षम दूसरे किरदारों को मिला। निष्ठा अक्सर ही हमसे उस समय मौन रहने को कहती है जब समाज को हमारी आवाज़ की जरूरत है। इसीलिए अक्सर विद्रोही, पढ़े लिखे और चैतन्य विचार के लोग राजनीति में सफल नहीं हो पाते। क्योंकि राजनीति उस तरह की निष्ठा की मांग करती है जिसकी पूर्ति बहुत हद तक भीष्म, द्रोण और कर्ण करते हैं। यहां विदुर का उल्लेख भी जरूरी है, जो इन सब के बीच धृतराष्ट्र की नौकरी करते हुए भी सत्य के पक्ष में सजगता से खड़े हैं। उनके बिना तो पांडवों की यात्रा आगे जाती नहीं दिखती।
इन सब किरदारों पर विस्तार से बातचीत हम जीवन संवाद के अगले अंकों में करेंगे, आज की बातचीत को हम कर्ण पर ही केंद्रित रखते हैं। कर्ण से हम क्या सीख सकते हैं! 'जीवन संवाद' के लॉकडाउन के दौरान एक व्याख्यान में यह प्रश्न पूछा गया। इस प्रश्न में शामिल था कि दोस्ती कर्ण जैसी होनी चाहिए!
कर्ण से हम बहुत कुछ सीख सकते हैं। लेकिन दोस्ती और निष्ठा के विवेक में अंतर करना जरूरी है। कर्ण से हम सीख सकते हैं, लोगों के तानों और 'लोग क्या कहेंगे' के बीच प्रतिभा को निखारते रहना। द्रोण जैसे गुरु से अपने अंगूठे की रक्षा करना। लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण है, जो गलती की उसे नहीं दोहराना। किसी के प्रति निष्ठावान होते हुए भी अपने विवेक की ओर से आंखें नहीं मूंदना।
हमें इस बात को याद रखना ही होगा कि विवेक हमारा ही है। कर्ण दुर्योधन के राज्य से बाहर जाकर, उसका राज्य लौटा कर एक सामान्य जीवन जीने का विकल्प चुन सकते थे, यदि उन्हें सत्य के प्रति राज्य से अधिक अनुराग होता। कर्ण ने द्रौपदी वस्त्र हरण के समय जिस तरह का व्यवहार किया वह यह बताता है कि अपने मित्रों के प्रति सतर्क न रहने और निष्ठा की पट्टी आंखों पर बनी रहने के कारण हमारा दिमाग, चेतना कब अन्याय की ओर झुक जाए। इसका कोई ठिकाना नहीं।
व्यक्तिगत असहमतियों को हम अन्याय में नहीं बदल सकते। कर्ण के व्यक्तित्व का प्रकाश उस दिन निष्ठा की पट्टी ने धूमिल कर दिया जब उसने दुर्योधन की प्रसन्नता के लिए अपने मनुष्यता के दायित्व को भुला दिया।
हमें इस बात को स्पष्टता से समझना है कि किसी की मेहरबानियों का कजऱ् उतारते समय यह अवश्य ध्यान रखा जाए कि निष्ठा का अर्थ अपने विवेक और मनुष्यता के प्रति सतर्क विचारों से दूरी नहीं है। हम अक्सर निर्णय लेने के समय ऐसे ही विचारों से लगे रहते हैं। स्वतंत्रता, जितनी बाहरी जरूरत है उससे कहीं अधिक यह हमारी आंतरिक विचार प्रणाली से जुड़ी हुई है। अपने निर्णय को निष्ठा के कर्ज से दूर रख कर ही हम उस स्वतंत्रता की ओर बढ़ सकते हैं जिसकी हम अक्सर बातें करते हैं।
अपने जीवन को हम जितना अधिक स्वतंत्र बना पाएंगे, उसमें आनंद की सुगंध उतनी ही व्यापक होगी। इसलिए अपने विचार और मन को उधार के विचारों से जितना संभव हो दूर रखें। निष्ठा का अर्थ अपने विवेक और मनुष्यता के प्रति सतर्क विचारों से दूरी नहीं है! (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र
-विष्णु नागर
प्रधानमंत्री बीच- बीच में कुछ अच्छे काम भी करते रहते हैं, जिन पर उनके आलोचकों की दृष्टि नहीं जाती।कोरोना की वजह से ही सही प्रधानमंत्री इस बीच विदेश तो गए ही नहीं, देश में भी एक जगह गये पश्चिम बंगाल के बाढग़्रस्त क्षेत्रों का दौरा करने। असम और बिहार की बाढ़ देखने भी नहीं गए। सोचा होगा सारी बाढ़ें एक जैसी होती हैं। इनमें कोई सेंसेशन नहीं है। छड्डो जी, वेख कर भी की होणा ए। अब कोरोना के आगमन के बाद पहली बार वह विशिष्ट जनता के बीच जाएँगे -अयोध्या में रामलला का मंदिर बनवाने- खतरा उठाते हुए।भगवान राम के लिए वह स्वास्थ्य तो क्या जीवन भी बलिदान कर सकते हैं।
इस बीच प्रधानमंत्री ने कहीं न जाकर देश का सैकड़ों करोड़ रुपया बचाया है, इसकी प्रशंसा की जानी चाहिए थी मगर उनके मंत्रियों तक ने ऐसा नहीं किया तो विरोधियों से ही क्या अपेक्षा रखना! राहुल गाँधी से तो बिल्कुल ही नहीं। शायद मैं पहला व्यक्ति हूँँ, जो इसकी प्रशंसा करने की हिम्मत कर रहा है। शाबाश पट्ठे विष्णु नागर। इसके बावजूद मुझे मालूम है कि इसके लिए मेरी तारीफ स्वयं मोदीजी तो क्या, उनका कोई चंगूमंगू भी नहीं करेगा मगर कोई बात नहीं। अब आदत सी हो गई है इस सबकी। कोरोना की तरह, यह भी एक मजबूरी है। चलिए फिर भी अपन ने अपना धर्म निभा दिया। ऊपरवाले मेरी तरफ से आँख मत मीच लेना, याद रखना मेरे इस योगदान को।
अब मोदीजी का दूसरा अच्छा काम। इधर राममंदिर बन रहा है, उधर पाँच राफेल लड़ाकू विमान भी धूमधाम से भारत पधार गए हैं।मुझे खुशी होती अगर प्रधानमंत्री स्वयं उनका स्वागत करने जाते। नहीं गए, यह मेरे खयाल से गलत हुआ। पर वे प्रधानमंत्री हैं, गलती भी वही करेंगे, उनकी तरफ से मैं तो नहीं कर सकता! एलाऊ भी नहीं है। यह उनका अधिकार क्षेत्र है। राफेल में परमाणु हथियार ले जाने की क्षमता भी है। यानी मोदीजी, भगवान के भरोसे भी हैं और राफेल के भरोसे भी। इसे यूँ भी कह सकते हैं कि उन्हें भगवान से अधिक भरोसा राफेल पर है। प्रशंसक बताते हैं कि इससे बढिय़ा लड़ाकू विमान पाकिस्तान तो क्या चीन के पास भी नहीं है। इसका नाम सुनते ही चीन के होश उड़ गए हैं तो पाकिस्तान का हाल क्या हुआ होगा, आप समझ ही सकते हैं। मोदीजी और गोदी चैनलों के एंकर-एंकरानियाँ, इस पर तो होना चय्ये बल्ले-बल्ले। घर-घर दिए जलने चय्ये थे मगर लोग भी गलती कर रहे हैं। यथा राजा, तथा प्रजा।
वैसे अब ये सब क्या याद करना गलत है कि मनमोहन सरकार 126 राफेल विमानों का सौदा कर रही थी और मोदीजी 36 से ही संतुष्ट कैसे हो गए, यह सीक्रेट है। वैसे कहते हैं, संतोषी सदा सुखी।इस बहाने एक कंगाल उद्योगपति की भी मदद हो गई, अच्छी बात है। वैसे भी मोदीजी को बैंकों को कंगाल करनेवाले मगर खुद संपन्न होकर विदेश भाग जानेवाले उद्योगपतियों को ज्यादा पसंद करते हैं।
ऐसों पर भी वह कृपा करते हैं, जो देशभक्त रहे, लूट कर भागे नहीं। कायर नहीं थे। और ऐसों पर तो उन्हें विशेष कृपा करना चाहिए, जो भागे नहीं मगर देशी-विदेशी बैंकों का पैसा जीम कर यहीं बैठे हैं। वैसे मोदीजी की दयालुता विश्व प्रसिद्ध है। सुना है कि अब यह ब्रह्मांड प्रसिद्ध भी होने जा रही है।इससे भारत का गौरव बहुत बढ़ेगा।इस पर सभी भारतीयों को गर्व होना चाहिए और इसकी अभिव्यक्ति भी गीत, संगीत, नृत्य, कविता, फिल्मों आदि माध्यमों से होना चाहिए।मेरा काम सुझाव देना था, दे दिया। बाकी आपकी इच्छा।मैं अवसर के अनुकूल कविता नहीं लिख पाता हूँ। इस मामले में मैं दिव्यांग हूँ वरना मैं भी पीछे रहनेवालों में नहीं हूँ।
राममंदिर पर तो उत्साह का इजहार मैं पिछले ही हफ्ते कर चुका था। अब फिर से करना चाहता था मगर इस बीच मन पर उदासी की छाया पड़ चुकी है। पता चला कि आडवाणी जी के भगीरथ प्रयत्नों से जो बाबरी मस्जिद गिराई गई थी और दंगे हुए थे (या कराए गए थे), उसके 18 साल बाद जिस मंदिर का शिलान्यास मोदीजी करने जा रहे हैं, वह भव्य तो होगा मगर इतना भव्य भी नहीं होगा कि विश्व का सबसे भव्य और दिव्य मंदिर कहलाने की योग्यता पा सके। और तो और भारत का भी सबसे भव्य-दिव्य कहला सके, इस काबिल भी नहीं हो सकेगा। यह विश्व का पाँचवा और भारत का दूसरा बड़ा मंदिर होगा। सुना है कि यह सुनकर मोदीजी के प्रति भक्तों का विश्वास डोलने लगा है।वे कह रहे हैं, अच्छा हुआ, हमें नहीं बुलाया गया वरना मोदीजी को तो अपनी बदनामी की परवाह नहीं मगर हमें तो अपनी इज्ज़त की परवाह है! खत्म होने दो कोरोना संकट, विरोधस्वरूप अब हम स्वयंसेवक अंगकोरवाट मंदिर जाएँगे, अयोध्या नहीं। उनकी इस बात से तो मैं भी इत्तफाक रखता हूँ और मैंने भी अटैची तैयार रखी है।मैं भी वहीं जाऊँगा।
डिसकस तो मोदीजी की अन्य उपलब्धियों को भी करना चाहता था मगर बहते आँसुओं के बीच मुझसे लिखा नहीं जा रहा। वैसे जाते -जाते इतना कह दूँ कि मोदीजी ने कोरोना को ‘‘जन आंदोलन’’ बना कर अच्छा किया। इस कारण ही शायद रोज पचास हजार लोग इसकी चपेट में रहे हैं। ‘जनांदोलन’ बनाए बिना यह संभव नहीं था। यह भी कमाल है कि उन्होंने अपने बंगले में बैठे- बैठै इसे ‘जनांदोलन’ बना दिया!
इस कॉलम का आज पहला दिन, छत्तीसगढ़ के राज्य बनने के, और रायपुर के राजधानी बनने के पहले दिन से शुरू कर रहा हूं। अविभाजित मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह उस वक्त छत्तीसगढ़ के भी सबसे लोकप्रिय कांग्रेस नेता थे। वैसे तो यहां नेता बड़े-बड़े थे, श्यामाचरण शुक्ल, और विद्याचरण शुक्ल दोनों मौजूद थे, दोनों ताकतवर भी थे। आज इस बात को पढक़र दोनों की आत्मा को कुछ ठेस पहुंचेगी कि दिग्विजय सिंह वर्ष 2000 में छत्तीसगढ़ के बाहर के नेता होते हुए भी इस राज्य में सबसे लोकप्रिय कांग्रेस नेता थे। नेता तो मोतीलाल वोरा भी थे, जो दिग्विजय के काफी पहले मुख्यमंत्री रह चुके थे, और कांग्रेस हाईकमान के बहुत करीबी हो गए थे, लेकिन वे भी लोकप्रियता में दिग्विजय के पासंग नहीं बैठते थे। ऐसे में राज्य बनने के पहले, और बनने का फैसला हो जाने के बाद एक दिन दिग्विजय भोपाल से रायपुर आए। उन्होंने कम्युनिटी हॉल, जहां पर अभी पुलिस मुख्यालय और राजभवन दाएं-बाएं बन गए हैं, वहां पर एक बैठक ली। बैठक में सभी तबकों के लोगों को बुलाया गया, और उनकी राय ली गई कि शहर में कहां क्या बनाया जाए। मौजूद लोग लोगों की भावनाएं एकदम उफान पर थीं, यह राज्य बनने जा रहा है यह बात एकदम से लोगों के गले नहीं उतर रही थी, हालांकि वह संसद के रास्ते, और उसके भी पहले दिग्विजय की विधानसभा के रास्ते हकीकत बन चुकी थी।
दिग्विजय खुद कुछ पिघले हुए थे, और उन्हें मालूम था कि वे कुछ ही दिन इस इलाके के मुख्यमंत्री हैं, हालांकि उन्होंने खुद पहल करके अविभाजित मध्यप्रदेश की विधानसभा में छत्तीसगढ़ को राज्य बनाने का प्रस्ताव पास करवाया था। कम्युनिटी हॉल में मैं भी मौजूद था, और दिग्विजय सिंह को मैंने घर आने का न्यौता दिया कि इसके बाद पता नहीं वे समारोह में ही आएंगे या कब आएंगे। अविभाजित मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में वे एक बार मेरे घर आएं, ऐसा मैं इसलिए भी चाहता था कि सुख-दुख में वे उस अखबार के साथ खड़े रहे थे जिसमें मैं काम करता था, और मैं कुछ नाजुक मौकों का भागीदार भी था।
उन्होंने तुरंत हॉं कहा, मैं मोटरसाइकिल से घर लौटा, और कुछ देर बाद दिग्विजय का काफिला वहां आ गया। उनके साथ अफसरों की गाडिय़ां भी थीं, और कांग्रेस के भी बहुत से नेता साथ आए थे। लेकिन यह दिग्विजय की भलमनसाहत थी कि उन्होंने साथ आए तमाम लोगों को बरामदे में ही रोक दिया, और भीतर अकेले ही आए। बैठक में बैठकर वे तीन लोगों के छोटे से परिवार से बात करते रहे, और जब उन्हें एक नॉनअल्कोहलिक वाईन पेश की गई, तो वे कुछ हड़बड़ाए, और फिर जोरों का ठहाका लगाते हुए मेरे बेटे से बोले- अब तुम मुझे वाईन पिलाना सिखा रहे हो...!
मेरे डिजाइन किए हुए घर को वे खूब देर तक खड़़े देखते रहे, साथ में तस्वीरें खिंचवाईं, और एक व्यस्त दौरे के बीच जिसे काफी कहा जा सकता है, उतना वक्त गुजारकर वे गए।
फोटो : पीटीआई
लेकिन एक मुख्यमंत्री के रूप में उनकी उदारता का मुझे पहले भी तजुर्बा हो चुका था। इसके काफी पहले जब मेरी मॉं गुजरीं, तब देर रात फोन पर लगी, नई-नई आंसरिंग मशीन पर उनका रिकॉर्ड किया हुआ मैसेज मिला कि उन्हें मॉं के गुजरने की खबर से तकलीफ हुई है, और अगले दिन उन्हें रायपुर आना था, और वे घर आएंगे। इसके बाद उस वक्त रायपुर-भिलाई के आईजी सीपीजी उन्नी का फोन आया कि सीएम कल एयरपोर्ट से सीधे मेरे घर पहुंचेंगे।
अगले दिन वे आए, एयरपोर्ट से सीधे घर आए, एक ही दिन पहले अंतिम संस्कार हुआ था, तो पूरा परिवार घर पर ही थे। आते ही उन्होंने परिवार के उन तमाम लोगों के पैर छुए जो कि उनसे बड़े थे, और जितनी देर बैठे, किसी तरह की राजनीतिक चर्चा नहीं की, सिर्फ परिवार से बात की, और फिर निकले।
उनका एक और तजुर्बा अभी कुछ बरस पहले का, जब उनकी पत्नी का कैंसर से निधन हो गया था, और अमृता से उनकी दूसरी शादी हुई थी। अमृता राज्यसभा टीवी पर एक बहुत अच्छी पत्रकार रह चुकी थीं, और उसके कुछ कार्यक्रमों में मैंने हिस्सा लिया था, इसलिए उनसे मेरा टेलीफोन और टीवी का परिचय था। उन दिनों मैं स्लिपडिस्क की वजह से बिस्तर पर था, और मैसेंजर पर ही अमृताजी से बात हुई थी। उनसे दिग्विजय को पता लगा कि मैं ऐसी तकलीफ में हूं तो उन्होंने खबर करवाई कि डोंगरगढ़ से देवी दर्शन करने के बाद लौटकर वे घर आएंगे। वे आए, खासी देर बैठे, वे खुद स्लिपडिस्क से गुजरे हुए थे, इसलिए उनके पास देने के लिए बहुत सारी नसीहतें थीं। यहां से लौटने के बाद वे नर्मदा परिक्रमा के लिए निकलने वाले थे, और उस बारे में भी देर तक बात होती रही।
छत्तीसगढ़ की राजनीति के बारे में अपने तजुर्बे को लिखते हुए आज अचानक यह भी याद पड़ रहा है कि भोपाल के वक्त से अब तक, दिग्विजय सिंह ने सुख-दुख के मौकों पर रिश्ता रखा, साथ निभाया, और उनके खिलाफ पिछले अखबार में जितना तेजाबी मैंने लिखा था, मुख्यमंत्री रहते हुए भी उन्होंने कभी उसका कोई हिसाब चुकता नहीं किया। दूसरी तरफ उनसे अधिक सीनियर छत्तीसगढ़ के बहुत से कांग्रेस नेताओं का तजुर्बा इससे बहुत अलग रहा, जो न सुख में साथ रहे, न दुख में साथ रहे, और न उनसे ऐसी कोई उम्मीद ही रही, कोई कमी भी नहीं खली।
दिग्विजय सिंह बुनियादी रूप से एक अच्छे इंसान, रिश्तों और पहचान का खूब ख्याल रखने वाले नेता हैं, और यही वजह है कि वे आज भी छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के अधिकतर नेताओं से अधिक लोकप्रिय हैं, और इस प्रदेश के पूरे संगठन में उनका खूब सम्मान है। जिस वक्त वे अविभाजित मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री रहे, उस वक्त भी वे छत्तीसगढ़ में इतने नेताओं को, प्रमुख सामाजिक व्यक्तियों को, अखबारनवीसों को नाम से जानते और बुलाते थे जितना छत्तीसगढ़ के बाकी तमाम दिग्गज कांग्रेस नेता मिलकर भी नहीं जानते थे। उनके बारे में कई और बातें फिर कभी।
-सुनील कुमार
पिछले कुछ महीनों में हिन्दुस्तान में एक ऐसा जननायक देखा जो न राजनीति से निकलकर आया, और न ही किसी सामाजिक आंदोलन से। उसके एजेंडा में कोई धर्म, मंदिर-मस्जिद, या जाति का आरक्षण भी नहीं था। उसके नारों में महिला अधिकारों की बात भी नहीं थी, पशुओं के हक की लड़ाई भी नहीं थी, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी नहीं थी, और न ही लोकतंत्र को साफ-सुथरा बनाने जैसा कोई सपना वह बेच रहा था। फिर भी वह बिना किसी इतिहास के, और बिना जाहिर तौर पर दिखती भविष्य की किसी साजिश के भी जननायक बन गया।
बात थोड़ी सी अटपटी है। उसके साथ न आयुर्वेद और योग के जादुई करिश्मे के दावों की ताकत थी, न अन्ना हजारे सरीखे चौथाई सदी लंबे आंदोलन का इतिहास था। फिर भी आज वह हिन्दुस्तान में करोड़ों लोगों के लिए एक आदर्श बन गया है, और देश-विदेश में बसे और फंसे हुए हिन्दुस्तानी उसकी तरफ टकटकी लगाकर उम्मीद से देख रहे हैं।
अभी दो महीने पहले ही जब मुम्बई में फिल्म अभिनेता सोनू सूद ने घर लौटने की हसरत रखने वाले प्रवासी मजदूरों की वापिसी के इंतजाम का सिलसिला शुरू किया, तो लोगों को लगता था कि दो-चार बस रवाना करने के बाद यह सिलसिला बस हो जाएगा। लेकिन हैरानी की बात यह है कि यह सिलसिला गजब की रफ्तार से जारी है, और अब जब तकरीबन तमाम वे मजदूर घर पहुंचाए जा चुके हैं जो कि घर जाना चाहते थे, तो अब सोनू सूद दुनिया के दूसरे देशों में फंसे हुए हिन्दुस्तानी छात्र-छात्राओं को विमान से वापिस लाने की मशक्कत में जुट गए हैं। और यह मेहनत महज एक चेक काटकर अक्षय कुमार की तरह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के निजी-सार्वजनिक खाते में डालकर बंद हो गई, न ही कुछ और फिल्मी सितारों की तरह कुछ हजार लोगों के घर महीने-दो महीने का राशन भेजने जैसी मदद तक सीमित रही। सोनू सूद का कोई बहुत लंबा सार्वजनिक इतिहास याद नहीं पड़ता सिवाय इसके कि वे फिल्मों में काम करते आए हैं, और उनके नामुमकिन से गंठे हुए बदन को स्टेज और टीवी पर जगह-जगह दिखाने का मुकाबला चलते रहता है। वे इतने बड़े, इतने महंगे, और शायद इतने रईस फिल्म एक्टर नहीं रहे कि आज मुम्बई में सबसे बड़ा सामाजिक-खर्च करना उनकी एक नैतिक जिम्मेदारी होती। फिर खर्च से परे देखें तो कोरोना की दहशत के बीच बस अड्डों पर, रेलवे स्टेशनों पर, और हवाई अड्डे पर वे जिस तरह जाते हुए मजदूरों, मरीजों, और दूसरे लोगों को बिदा करते रहे, वह हिन्दुस्तान के इतिहास में एक अभूतपूर्व हौसले की बात रही। जिसने आज तक कोई चुनाव नहीं लड़ा है, और जिसकी जनता के प्रति ऐसी कोई सार्वजनिक जवाबदेही बनती है, वह कोरोना से बचने का मास्क लगाए हुए सैकड़ों लोगों को हर दिन बिदा करते हुए, उनकी बसों में चढक़र उनसे वापिसी का वायदा लेते हुए जिस तरह दिखा, वह पूरी तरह अनोखी बात थी, और बड़ी अटपटी बात भी थी। बहुत से लोगों को इतनी भलमनसाहत पर एक बड़ा जायज सा शक होता है कि इसके पीछे कौन सी बदनीयत छुपी हुई है, और इस पूंजीनिवेश के एवज में यह आदमी आगे जाकर क्या मांगेगा?
कुछ लोगों का यह मानना है कि बिहार में चुनाव होने वाला है, और मुम्बई से रवानगी में यूपी-बिहार के मजदूर ही सबसे अधिक थे, इसलिए आने वाले चुनाव में सोनू सूद का कोई पार्टी चुनाव प्रचार में इस्तेमाल कर सकती है। पल भर के लिए बहस को यह मान भी लें कि यह चुनाव प्रचार के लिए एक नायक तैयार करने की कोशिश है, और सोनू सूद के पीछे कोई संपन्न राजनीतिक दल दसियों करोड़ खर्च कर रहा है, तो इसमें भी न तो कुछ अलोकतांत्रिक है, और न ही कुछ अभूतपूर्व। हिन्दुस्तान के चुनावी इतिहास में सैकड़ों फिल्मी सितारों को अब तक उम्मीदवार बनाया जा चुका है, और हजारों को प्रचार में इस्तेमाल किया जा चुका है। दक्षिण भारत में कई ऐसे राज्य रहे हैं जहां फिल्मी सितारे मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे, और देश में कई फिल्मी सितारे केन्द्रीय मंत्री बने, अनगिनत मंत्रिमंडलों में, संसद और विधानसभाओं में फिल्मी सितारों को जगह मिली है। ऐसे में अगर सोनू सूद के इस हैरतअंगेज सामाजिक योगदान के पीछे उनकी अपनी या किसी राजनीतिक दल की चुनावी नीयत है, तो वह रहे। ऐसी नीयत के साथ भी देश में ऐसे कितने लोग हैं जिन्होंने मुसीबतजदा लोगों की मदद करने के लिए सेहत पर खतरा उठाकर अनजानों को गले लगाया, दिन-दिन भर खड़े रहकर बसों को रवाना किया, और इन सबसे भी ऊपर ट्विटर पर आई हर अपील का जवाब दिया, हर जरूरत पर मदद का भरोसा दिलाया, और मदद के इस काम में कोई सीमा नहीं मानी।
अब हालत यह है कि ट्विटर पर ऐसा कोई दिन नहीं जाता जब लोग अपने परिवार के गंभीर बीमार के इलाज के लिए उनसे मदद न मांगें, और सोनू सूद हर मुमकिन-नामुमकिन मदद का पूरा भरोसा न दिलाएं। दो दिन पहले की ही बात है कि सोनू सूद ने खुद होकर यह लिखा है- अब है रोजगार की बारी, एक सोनू-सूद-पहल, अब इंडिया बनेगा कामयाब।
इस नई मुनादी के आगे की जानकारी अभी आना बाकी है, लेकिन अगर सोनू सूद के ट्विटर अकाऊंट पर लोगों की जरूरतों को देखें, और उनमें से हर किसी को पूरा करने की उनकी नीयत, कोशिश और उनका वायदा देखें, तो आंखें भर आती हैं, और भरोसा भी नहीं होता है कि कोई इतना भला कैसे हो सकता है, और खासकर, क्यों हो सकता है?
दसियों हजार अपीलों में से सामने-सामने की दो-चार अगर देखें, और उन पर सोनू सूद का वायदा देखें, तो यह अद्भुत लगता है, और इस दुनिया के बाहर का लगता है। अभी किसी छोटी सी गरीब बच्ची ने मुम्बई के मलाड इलाके से हाथ जोडक़र एक वीडियो बनाकर भेजा है और सोनू सूद अंकल से अपील की है कि उसके घर में बहुत ज्यादा टपकने वाले पानी को रोकने में मदद करें, उनकी कोई मदद नहीं करता है।
इस पर सोनू सूद का जवाब 9 मिनट के भीतर ही पोस्ट होता है- आज के बाद आपकी छत से कभी पानी नहीं आएगा।
एक किसी ने पोस्ट किया- आप मूवी लेकर आएं, मैं आपकी मूवी 10 लोगों को दिखाऊंगा और उनसे बोलूंगा कि वो भी यही करें। अपना अकाऊंट नंबर दें, कुछ आर्थिक सहयोग देना चाहता हूं आपके पुण्य यज्ञ में।
मिनटों के भीतर सोनू सूद का जवाब पोस्ट होता है- धन्यवाद भाई। बस उस राशि से किसी गरीब परिवार को राशन और स्कूल की फीस भर देना, समझ लेना आपका सहयोग मुझे मिल गया।
कोई अस्पताल में बिस्तर नहीं पा रहे हैं तो सोनू सूद उसका इंतजाम कर रहे हैं, एक गरीब बच्चा बुरी तरह झुलस गया है, तो सोनू सूद उसके इलाज के लिए वायदा कर रहे हैं कि यह मान लो कि इसका इलाज हो गया है। उस बच्चे का पूरा हाथ प्लास्टिक सर्जरी के लायक दिख रहा है, और धनबाद के एक गांव के बच्चे से सोनू सूद का यह वायदा है। अभी दो ही दिन पहले एक खबर आई कि किस तरह उत्तर भारत में एक गरीब किसान को अपने बच्चों की ऑनलाईन पढ़ाई के लिए स्मार्टफोन खरीदने को अपनी गाय बेचनी पड़ी। यह खबर पाते ही सोनू सूद ने खुद होकर लोगों से बार-बार अपील की कि इस आदमी की जानकारी भेजो, इसे इसकी गाय वापिस दिलाते हैं। जबकि लोगों ने इस अखबारी कतरन को मोदीजी के नाम टैग किया था, जिनकी सरकार और जिनकी पार्टी की तरफ से उस पर कोई जवाब देखने नहीं मिला। अब एक पहाड़ी गांव में गाय वापिस दिलवाने का जिम्मा भी सोनू सूद ने उठाना चाहा, खुद होकर।
अब ऐसे किस्से दसियों हजार हैं, और एक किसी ने भी कहीं यह नहीं लिखा है कि उससे किया गया वायदा पूरा नहीं हुआ। इसलिए यह मानने की ठोस वजह है कि वे लोगों के काम आ रहे हैं। अब सवाल यह उठता है कि क्या देश के सबसे संपन्न प्रदेश महाराष्ट्र की राजधानी, और देश की सबसे संपन्न महानगरी मुम्बई मजदूरों को घर भेजने से लेकर टपकती छत सुधरवाने तक के लिए एक अकेले इंसान के आसरे रहे? सोनू सूद की नीयत को 24 कैरेट खरा सोना मान लें तो भी सवाल यह है कि क्या लोकतंत्र में जो सरकारों की बुनियादी जिम्मेदारी है, उसे सरकार से परे के एक इंसान के निजी दम-खम पर इस तरह छोड़ देना ठीक है? हैरत तो तब होती है जब कुछ प्रदेशों के मंत्री-मुख्यमंत्री सार्वजनिक रूप से ट्विटर पर सोनू सूद का शुक्रिया अदा करते दिखते हैं कि उन्होंने उनके प्रदेश के मजदूरों को बस-ट्रेन या प्लेन से वापिस भिजवाया। यह शुक्रिया अदा करने की बात है, या शर्म से डूब मरने की कि जो सरकार की बुनियादी जिम्मेदारी थी उसे दूसरे के भरोसे छोड़ दिया, और खुद एक धन्यवाद देने की वेटलिफ्टिंग जैसी जिम्मेदारी उठा रहे हैं?
कोई जादूगर धरती की तमाम दिक्कतों को दूर कर दे, कोई ईश्वर पल भर में कोरोना को मार दे, गरीबी खत्म कर दे, तो क्या निर्वाचित-लोकतांत्रिक और तथाकथित जनकल्याणकारी सरकारें उसके भरोसे पर बैठना अपना पूरा काम मान लें? यह याद रखना चाहिए कि सोनू सूद का अपने इंतजाम से मजदूरों को पूरे देश वापिस भेजने का सिलसिला दो सरकारों की नाकामयाबी की वजह से जरूरी हुआ था। महाराष्ट्र की उद्धव ठाकरे सरकार अपने प्रदेश में काम करने आए मजदूरों को जिंदा रहने का इंतजाम नहीं कर पाई, और केन्द्र की नरेन्द्र मोदी सरकार ने मजदूरों की जरूरत को समझे बिना रेलगाडिय़ों को बंद कर दिया।
लोकतंत्र में कोई समाजसेवी सरकार की जिम्मेदारियों का विकल्प अगर बन रहे हैं, तो यह सरकारों की परले दर्जे की नाकामी हैं। सोनू सूद की तारीफ में कसीदे गढऩे वाली सरकारों पर धिक्कार है कि उनका काम एक अकेला इंसान कर रहा है। और यह काम बंद होते भी नहीं दिख रहा है, यह काम मजदूरों की घरवापिसी से परे विदेशों में पढ़ रहे छात्रों की देशवापिसी तक, और इलाज से लेकर छत तक फैलते जा रहा है। यह कहां तक जाएगा, यह अंदाज लगाने का कोई जरिया नहीं है, इसका अंग्रेजी की एक मशहूर कॉमिक स्ट्रिप के नाम से बखान किया जा सकता है- रिप्लेज बिलीव इट ऑर नॉट।
एक सांस में इस मुद्दे पर इससे अधिक लिखना मुमकिन नहीं है, लेकिन जिन लोगों का इंसानियत पर से भरोसा उठ गया है, उन्हें ट्विटर पर जाकर सोनू सूद का पेज देखना चाहिए जहां देश भर से दसियों हजार लोग उन्हें दुआ भेज रहे हैं, उनकी तस्वीरें और पेंटिंग बनाकर पोस्ट कर रहे हैं, और उन्हें देश का एक ऐसा नायक मान रहे हैं जो कि सरकारों और राजनीति में नहीं है। (hindi.news18.com)
-सुनील कुमार
इस समय हर कोई बहुत जल्दी में है, यह बात और है कि कोई कहीं पहुंचता दिखाई नहीं देता। अक्सर पहुंचकर भी रास्ते में ही रहते हैं!
बच्चों के लिए माता-पिता का आशावाद, चिंता नई चीज नहीं है। यह हमेशा से थी। हां, पहले यह बहुत हद तक ‘समय’ से आकार लेती थी। अब यह चिंता बच्चे की शिक्षा आरंभ होते ही तनाव में बदल जाती है। ‘डियर जिंदगी’ को बड़ी संख्या में अभिभावकों के सवाल मिल रहे हैं।
परीक्षा के कठिन मौसम में बच्चों से कहीं अधिक तनाव में अभिभावक रहते हैं। इस समय इंटरनेट पर दस साल का बच्चा एलेक्स छाया हुआ है। एलेक्स खुद को ‘ओशियानिया एक्सप्रेस’ का संस्थापक और सीईओ कहता है। एलेक्स ने ऑस्ट्रेलियन एयरलाइंस ‘क्वांटस’ के सीईओ एलन जोएस को चि_ी लिखकर अपनी एयरलाइंस खोलने के लिए मदद करने की गुजारिश की है। बच्चे ने लिखा, ‘प्लीज, मुझे सीरियसली लें, मैं एक एयरलाइंस शुरू करना चाहता हूं।’ एलन ने चि_ी का जवाब देने के साथ ही उन्हें मिलने के लिए भी बुलाया है।
यहां चि_ी के जिक्र का अर्थ केवल इतना है कि दुनिया के दूसरे समाजों में बच्चों को किस तरह लिया जाता है। बच्चे की चि_ी को एक सीईओ कितनी गंभीरता से ले रहा है, उसे संवाद का मौका दिया जा रहा है और उसे जितना संभव हो प्रोत्साहित किया जा रहा है। इसके उलट हमारे यहां माता-पिता केजी वन से लेकर पहली दूसरी में ही बच्चे के स्कूल में प्रदर्शन से दुखी हुए जा रहे हैं। हम अपने बच्चे को एक ऐसे ‘तुलना घर’ में धकेले जा रहे हैं जहां हर समय उसे परीक्षा से गुजरना है। बच्चे की रुचि, उसकी प्रतिभा के दायरे तलाशने की जगह हम पहले से चुनी, तय की हुई चीजें उसके ऊपर थोप रहे हैं।
हम बच्चे को ऐसे ‘दीवार’ की ओर धकेल रहे हैं जहां कोई खिडक़ी नहीं है जहां कोई रोशनदान नहीं, बस गहरा अंधेरा है। अब यह केवल संयोग की बात हो सकती है कि उसके धक्के से या तो दीवार में सुराग हो जाए या किसी वजह से कोई हाथ बढ़ाकर उसे दीवार के उस पार ले जाए। हम बच्चों पर अपने और अपने समय के वह सभी ग्लैमरस सपने थोप रहे हैं जिनसे उनके ‘कुछ हो जाने’ की आस है।
हमारे एक मित्र हैं जो किसी जमाने में गायक बनना चाहते थे, नहीं बन पाए तो आप अपने 15 बरस के बेटे में अपना सपना जीने की कोशिश कर रहे हैं। बच्चे की आवाज निसंदेह अच्छी है, लेकिन वह तो कंप्यूटर इंजीनियर बनना चाहता है। अमेरिका जाकर पढऩा चाहता है और भारत के लिए सुपर कंप्यूटर से बहुत आगे की कोई चीज तैयार करना चाहता है। वह अपने सपने को जीना चाहता है, मित्र बेटे के बहाने ‘अपने’ सपने को पूरा करना चाहते हैं। यह सपनों का टकराव नहीं, सपने का अतिक्रमण है।
अब जरा एलेक्स के सपने और इस बच्चे के सपने को सामने रखकर देखिए। एलेक्स के सपने को एक अनजान सीईओ का सहारा मिलता है। दूसरी ओर हमारे यहां एक पिता अपने सपने के लालच को संभाल नहीं पा रहा। बच्चे में उसके खुद के स्वतंत्र सपने को पूरा करने की हिम्मत कैसे भरेगा।
हमें बहुत गंभीरता से एक समाज के रूप में यह समझने की जरूरत है कि हम अपने बच्चों को कितनी स्वतंत्रता दे रहे हैं और कितनी देने की जरूरत है। बच्चों को महंगे स्कूल, महंगी जि़द, कपड़े और गैजेट की जगह अगर किसी चीज़ की सबसे ज्यादा जरूरत है तो ‘उनके’ सपनों की तलाश में मददगार बनने की। उनके भीतर की प्रतिभा को बिना किसी मिलावट के जानने और समझने की। बच्चों पर दांव लगाने की और उनके सपनों में साझेदार होने की। इससे हम बहुत हद तक उनके भीतर बढ़ रहे तनाव, गहरी निराशा और आत्महत्या जैसे खतरे को कम कर सकते हैं। (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र
हमारे अब तक के अनुभव यही रहे हैं कि जब-जब भी बाहरी ताक़तों की तरफ़ से देश की संप्रभुता पर आक्रमण हुआ है ,समूचा विपक्ष अपने सारे मतभेदों को भूलकर तत्कालीन सरकारों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा हो गया है। जिस चर्चित ‘कारगिल युद्ध ‘को लेकर हाल ही में विजय दिवस मनाया गया उसकी भी यही कहानी है।सम्पूर्ण भारत प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व के साथ खड़ा हुआ था।आश्चर्यजनक रूप से इस समय पिछले अनुभवों की सूची से कुछ भिन्न होता दिखाई पड़ रहा है।
देश की सीमाओं पर पड़ोसी देश चीन की ओर से हस्तक्षेप और अतिक्रमण हुआ है ,उससे निपटने को लेकर चल रही तैयारियाँ भी नभ-जल-थल पर स्पष्ट दिखाई दे रही हैं पर सरकार चीनी हस्तक्षेप को सार्वजनिक रूप से स्वीकार करने को तैयार नहीं है।छोटी-छोटी बात पर आए-दिन सरकारों को मुँह चिढ़ाने वाला विपक्ष भी इस समय तटस्थ भाव से खामोशी की मास्क मुँह पर लटकाए हुए कोरोना से लड़ाई में अपनी व्यस्तता जता रहा है।जनता को तो जैसे कुछ भी पता ही नहीं है या फिर सब कुछ जानते हुए भी वह अनजान बनी रहना चाहती है।पर एक शख़्स है जो अपनी आधी-अधूरी पार्टी के सहारे और अपने राजनीतिक भविष्य की कोई चिंता किए बग़ैर चीन के द्वारा भारतीय सीमा में किए गए अनधिकृत प्रवेश को लेकर सरकार को लगातार कठघरे में खड़ा कर रहा है।
राहुल गांधी नाम का यह शख़्स जो इस समय लगातार सवाल उठा रहा है उसे उसके जवाब तो नहीं मिल रहे हैं ,उल्टे उससे दूसरे प्रश्न पूछे जा रहे हैं।ये प्रश्न भी प्रधानमंत्री स्वयं नहीं कर रहे हैं।उनकी पार्टी के अन्य लोग कर रहे हैं।सही भी है। प्रधानमंत्री के सामने राहुल गांधी की हैसियत का भी सवाल है।वे हैं तो केवल एक साधारण सांसद ही और वह भी सुदूर केरल प्रांत से ,उत्तर प्रदेश में हारे हुए। राहुल गांधी के सरकार से सवाल कोई लम्बे-चौड़े नहीं हैं।उन्हें उठाने के पीछे भावना भी ईमानदारी और देशभक्ति की ही है जिसकी कि अपेक्षा प्रधानमंत्री देश के नागरिकों से अक्सर ही करते रहते हैं।यह भी तय है कि राहुल जो कुछ भी कर रहे हैं उसके कारण अमेठी में उनके वोट और कम ही होने वाले है।वे फिर भी कर रहे हैं।
राहुल सरकार से कह रहे हैं कि चीनी सैनिकों ने भारत की ज़मीन के एक भाग पर क़ब्ज़ा कर लिया है ।इस तथ्य को छुपाना और ऐसा होने देना दोनों ही देश-हित के विरुद्ध है।उसे लोगों के संज्ञान में लाना राष्ट्रीय कार्य है। ‘अब आप अगर चाहते हैं कि मैं चुप रहूँ और अपने लोगों से झूठ बोलूँ जबकि मैं पूरी तरह से आश्वस्त हूँ ; मैंने सैटेलाइट फ़ोटो देखे हैं ,पूर्व सैनिकों से बात करता हूँ ।आप अगर चाहते हैं कि मैं झूठ बोलूँ कि चीनी सैनिकों ने हमारे क्षेत्र में प्रवेश नहीं किया है,तो मैं झूठ बोलने वाला नहीं।मैं ऐसा बिलकुल नहीं करूँगा।मुझे परवाह नहीं अगर मेरा पूरा करियर तबाह हो जाए।’
क्या यह आश्चर्यजनक नहीं लगता कि अगर राहुल गांधी झूठ बोल रहे हैं तो सरकार उस झूठ को इस तरह से क्यों छुपा रही है कि वह उसका खंडन करने को तैयार नहीं है ? इसका परिणाम यही हो रहा है कि राहुल जो कह रहे हैं वह सच नज़र आ रहा है।राहुल गांधी के सवालों का न सिर्फ़ कोई भी विपक्षी दल खुलकर समर्थन करने को तैयार नहीं है ,पूर्व रक्षा मंत्री और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के नेता शरद पवार तो इस मामले में पूरी तरह से सरकार के ही साथ हैं।उनका कहना है कि इस मुद्दे का राजनीतिकरण नहीं किया जाना चाहिए।पवार का इशारा इस बात की तरफ़ भी है कि देश ने चीन के हाथों ज़मीन 1962 के युद्ध में खोई थी।प्रधानमंत्री का इस सम्बंध में कथन अभी तक यही है कि न तो कोई हमारी ज़मीन पर घुसा है और न किसी भारतीय ठिकाने (पोस्ट) पर क़ब्ज़ा किया है।
क्या मान लिया जाए कि देश की जनता ने अपने जानने के बुनियादी अधिकार और विपक्षी दलों ने अपने सवाल करने के हथियार के इस्तेमाल को सरकार की अनुमति के अधीन कर दिया है ? सवाल यह भी है कि कहीं राहुल खुद की पार्टी में भी तो अकेले नहीं पड़ते जा रहे हैं ? पता नहीं चलता कि उनकी पार्टी के कितने सीनियर नेता इस समय उनके साथ बराबरी से खड़े हैं ? तो फिर ऐसी स्थिति में इस लड़ाई को राहुल गांधी एक नेता के रूप में और एक सौ पैंतीस साल पुरानी कांग्रेस एक संगठन के तौर पर कितनी दूरी तक निभा पाएगी ? चिंता यहाँ केवल एक व्यक्ति के करियर को लेकर ही नहीं बल्कि एक स्थापित राजनीतिक संगठन के बने रहने की ज़रूरत की भी है।चाहे एक मुखौटे के तौर पर ही सही ,देश में लोकतंत्र के लिए उसका बने रहना ज़रूरी है।साथ ही ,पिछले सात वर्षों से कांग्रेस-मुक्त भारत के जो सपने देखे जा रहे हैं उनके हक़ीक़त में बदले जाने को लेकर उठने वाली चिंताएँ राहुल गांधी के करियर से कहीं ज़्यादा बड़ी हैं।पूछा जा सकता है कि जब देश को ही सरकार से कुछ जानने की ज़रूरत नहीं पड़ी है तो फिर राहुल गांधी अकेले को चीनी हस्तक्षेप और पीएम कैयर्स फंड आदि की जानकारी को लेकर अपना करियर और कांग्रेस का भविष्य दांव पर क्यों लगाना चाहिए ? तो क्या फिर राहुल गांधी को सामूहिक रूप से यही सलाह दी जानी चाहिए कि वे उसी तरह से बोलना बंद कर दें जैसे कि हम सब ने बंद किया हुआ है ? तब तो पूरे देश में केवल एक व्यक्ति की आवाज़ ही गूंजती रहेगी।अभी तो दो लोग बोल रहे हैं ! और अंत में यह कि : ‘राहुल गांधी द्वारा पूछे जा रहे ग़ैर-राजनीतिक सवालों से सहमत होने लिए उनकी राजनीतिक विचारधारा से भी ‘सहमत’ होना क़तई ज़रूरी नहीं है !’
-श्रवण गर्ग
आज सुबह-सुबह एक अखबारनवीस साथी ने फोन करके कुछ झिझकते हुए एक सलाह दी। उसे कुछ तो जानकारी थी, और कुछ काम देखकर अंदाज था कि इन दिनों मैं काम से लदा हुआ हूं। फिर भी उसका कहना था कि छत्तीसगढ़ की राजनीति को जितने समय से मैंने देखा है, उसके बारे में मुझे कुछ लिखना चाहिए क्योंकि और लोगों के साथ-साथ पत्रकारों की ही एक ऐसी पीढ़ी आ गई है, जिसने उन दिनों के किस्से भी सुने हुए नहीं है, क्योंकि मेरी अखबारनवीसी में शुरूआती दिनों में यह पीढ़ी पैदा भी नहीं हुई थी। यह सलाह सुनते ही पल भर को तो दिल बैठ गया कि क्या रोज इतना काम करने के बाद भी अब आसपास के लोग भी बूढ़ा और बुजुर्ग मानने लगे हैं कि मुझे संस्मरण लिखने की सलाह दे रहे हैं। यह काम तो जिंदगी के आखिरी दौर में किया जाता है, और जहां तक काम का सवाल है, अभी तो मैं जवान हूं।
फिर भी सदमे से उबरने में मिनट भर से अधिक नहीं लगा क्योंकि सलाह बड़ी दिलचस्प थी। न रोज लिखने की बेबसी, न कॉलम का कोई साईज तय, और न ही किसी खास मुद्दे पर सिलसिलेवार लिखना। फिर यह भी लगा कि राजनीति के साथ-साथ जुड़े हुए दूसरे मुद्दों पर भी लिखना हो जाएगा।
उस पर जब एक गैरअखबारनवीस दोस्त से सलाह ली, तो उसका कहना था कि दुश्मन बनाने का सबसे आसान तरीका संस्मरण लिखना होता है, अगर सच लिखा जाए। पर मेरे दिमाग में अपना भुगता हुआ, अपनी भागीदारी वाला संस्मरण ही लिखना नहीं है, ऐसा भी लिखना दिमाग में आ रहा है जो कि कुछ दूरी से देखा हुआ होगा। और फिर कुछ लोगों को अगर बुरा लगता है, तो उससे बचते हुए कब तक ताजा इतिहास को लिखा जा सकता है?
यह सब सोचते हुए इस कॉलम के लिए एक नाम सूझा, यादों का झरोखा, पता नहीं इससे बेहतर भी कोई और नाम हो सकता था या नहीं, लेकिन नाम में क्या रक्खा है, गूगल का क्या मतलब होता है, याहू का क्या मतलब होता है, फेसबुक में फेस से परे बहुत कुछ है, और बुक तो है ही नहीं, इसलिए नाम कुछ भी हो, उस कॉलम में लिखना कुछ अच्छा हो जाए, और अधिक दिनों तक लिखना हो सके, तो हो सकता है कि मुझे लिखना और लोगों को पढऩा सुहाने लगे।
छत्तीसगढ़ की राजनीति की छोटी-छोटी घटनाओं पर बिना किसी सिलसिले के कल से इसी वेबसाईट पर पढ़ें।
-सुनील कुमार
दूसरे को पराजित करने का भाव मनुष्य के मन को 'बदलापुर' बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. जैसे ही इस बदलापुर की जगह करुणा को मिल जाती है हमारा मन दूसरों के प्रति कोमल होने लगता है.
हमारे मन में दूसरों के लिए जब कभी क्षमा का भाव आने लगता है तो उसे रोकने का काम कठोरता करती है. इस कठोरता को हम करुणा की कमी भी कर सकते हैं! इसलिए बहुत जरूरी है कि हम इस बात की ओर निरंतर ध्यान देते रहें कि मन में करुणा की मात्रा कहीं कम तो नहीं पड़ रही.
करुणा, जीवन में उस समय कम नहीं पड़ती दिखती जब हमें एहसास हो जाएगी सामने वाले के पास बहुत थोड़ा समय है. थोड़ा संवेदनशील होकर सोचिए. हम सबके जीवन इतने अधिक अनिश्चित और छोटे हैं कि उस में कठोरता की जगह बहुत कम होनी चाहिए. अगर हम करुणा के कोमल भाव को अपने हृदय में स्थान दे पाते तो संभव है कि समाज की दिशा कुछ और होती. मनुष्यता गहरा विचार है, हमने इसे समझने और जीवन में उतारने की जगह केवल रट लिया है.
ठीक उसी तरह जैसे 'पंचतंत्र ' की एक कहानी में साधु तोतों के समूह को शिकारियों से बचाने के लिए उन्हें सिखाता है, 'शिकारी आता है, जाल फैलाता है, लेकिन हमें जाल में नहीं फंसना है.' तोते जब यह दोहराने लगते हैं, तो साधु को भ्रम हो जाता है कि तोतों ने समझ लिया है कि अब वह शिकारी के जाल में नहीं फंसेंगे. वह उनकी शिक्षा को पर्याप्त समझ कर आगे बढ़ जाता है. लेकिन कुछ ही दिन बाद देखता है कि शिकारी अपना जाल समेट कर जा रहा है. उसमें फंसे तोते रटा हुआ पाठ दोहरा रहे हैं, शिकारी आता है ,जाल फैलाता है लेकिन हमें जाल में नहीं फंसना है!
हमारी स्थिति तोतों से बहुत अलग नहीं. जब बच्चा छोटा होता है तो हम सारी अच्छी बातें उसे सिखाने, समझाने की जगह रटाने में ऊर्जा खर्च करते हैं. नैतिक शिक्षा का जीवन में उपयोग करने की जगह जब से हम उसे रटने लगे, मनुष्यता, उसके साथी संकट की ओर बढ़ने लगे.
मनुष्यता का कटोरा इसलिए हर दिन रिक्त होता जा रहा है क्योंकि उसमें करुणा की कमी होती जा रही है. मन से करुणा का मिटना मनुष्यता का संकुचन है. तोते इसलिए संकट में नहीं पड़े क्योंकि उनके पास शिक्षा नहीं थी. शिक्षा तो थी उनके पास, लेकिन उन्होंने उसे जीवन की जगह पाठ/रटने में खोजा. हम भी यही गलती कर रहे हैं. हमने साक्षरता को ही शिक्षा मान लिया है.
किसी भी आदमी के पढ़े-लिखे होने का अंदाजा उसकी डिग्री देखकर नहीं लगाया जा सकता. साक्षरता अलग बात है और शिक्षा की रोशनी दूसरी बात. मेरे जीवन में दो महिलाएं ऐसी रहीं जिनकी साक्षरता का प्रतिशत शून्य है. मेरी दादी और मां. लेकिन मैं विश्वास पूर्वक कहता हूं कि दोनों ही शिक्षित हैं. शिक्षा और साक्षरता इतनी अलग-अलग बात है.
साक्षरता उस गली का नाम है जिस से गुजर कर आप शिक्षा की ओर थोड़ी आसानी से जा सकते हैं. लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि किसी के शिक्षित होने के लिए साक्षरता अनिवार्य है.
अब बात माफी और करुणा की. अगर हमारी दृष्टि में थोड़ी करुणा की मात्रा बढ़ जाए तो जीवन में तनाव, दुर्भावना और ईर्ष्या का बहुत सारा कचरा स्वयं ही मन से साफ हो जाता है. जैसे ही हमें पता चलता है इस व्यक्ति का जीवन अब सीमित है हमारे मन में उसके लिए करुणा आ जाती है. उसके दोष के प्रति हम विनम्र हो जाते हैं. हम सब का जीवन एक जैसा ही अनिश्चित और छोटा है.
निश्चित तो केवल मृत्यु है. लेकिन इस बात की तो हमने केवल रटा है. समझा नहीं है. अगर समझ गए होते तो हमारे भीतर करुणा अधिक होती. दया, प्रेम और ममता अधिक होती. लेकिन हम संसार में सबसे अधिक निश्चित मृत्यु को ही हमेशा अपने से दूर मानते हैं. इतने दूर कि उसके बारे में कभी विचार तक नहीं करते.
इस पर विचार/चिंतन न करने के कारण दूसरों के प्रति बदला मन में तैरता रहता है. दूसरे को नीचा दिखाने की भावना. दूसरे को पराजित करने का भाव मनुष्य के मन को 'बदलापुर' बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. जैसे ही इस बदलापुर की जगह करुणा को मिल जाती है हमारा मन दूसरों के प्रति कोमल होने लगता है.
जैसे ही मन कोमल होता है, उसमें प्रेम उतरने लगता है. जिसके जीवन में प्रेम के फूल खिल जाते हैं उसके सारे संकट स्वयं हल हो जाते हैं. हमें अपने भीतर प्रेम को बढ़ाना है. करुणा को गहराई देनी है!
-दयाशंकर मिश्र
हमें इस बात को समझना होगा कि हम चाहते क्या हैं. जीवन में सपनों के पीछे दौड़ना और उन चीजों को हासिल करना जिन्हें हम कामयाबी कहते हैं, समझते हैं. इसमें कुछ भी खराबी नहीं है. तब तक जब तक हम उसे खुद से भी कीमती न समझने लगें.
हम जितने अधिक अकेले होते जा रहे हैं, हमारा मन उससे कहीं अधिक सुगंध, महक, उदारता और प्रेम से दूर होता जा रहा है. बोगनवेलिया सरीखा. दूर से देखने पर झाड़ी में इस पौधे की सुंदरता मन को मोहित करती है लेकिन पास जाते हैं, हमें समझ में आता है कि असल में इसमें पास आने जैसा कुछ नहीं. बोगनवेलिया, सजावटी फूल है. दूर से देखने पर ही इसका सुख है. इसमें वह सुगंध नहीं, जो मन को महका सके. यह आंखों के लिए तो फिर भी ठीक है, लेकिन जो प्रेम की आशा में इसके पास जाएंगे वह अनमने होकर ही लौटेंगे.
हम प्रेम से धीरे-धीरे इतने दूर होते जा रहे हैं कि हमारा मन बहुत तेजी से बोगनवेलिया की तरह होता जा रहा है. बाहर से दिखने में तो बहुत आकर्षण है, बहुत सजावट है. लेकिन भीतर रोशनी की कमी है. प्रेम की हवा नहीं है. स्नेह की उदारता नहीं. अगर कुछ बचता है तो केवल एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा. किसी भी कीमत पर आगे निकलने की होड़. अपनी सुगंध, स्वभाव से दूर जाकर हम बहुत अधिक हासिल नहीं कर सकते. क्योंकि इसकी कीमत चुका कर जो भी हमें मिलेगा उससे जीवन में उजाला नहीं आएगा.
चंद्रमा का उजाला उधार का उजाला होता है. बहुत अच्छी बात है कि चंद्रमा इस बात को जानता है. इसलिए वह शीतल है. लेकिन मनुष्य दूसरों के उजाले को अपना प्रकाश मानने की जिद किए बैठा है!
जीवन में अधिकांश लोग मन की सुगंध को बोगनवेलिया होने की चाहत में खोते जा रहे हैं. खुद से दूर निकलते जा रहे हैं. लॉकडाउन में मनुष्य के स्वभाव की इतनी विचित्र परतें सामने आ रही हैं, जिसका स्वयं हमें भी अंदाजा नहीं था. इतनी जल्दी लोग टूट रहे हैं जैसे उनके मन कांच के बने हुए. संघर्ष की धूप जरा सी उन पर पड़ी नहीं कि चटक जाते हैं. इस चटकने को हम ऐसे दिखाते हैं, मानो यह कोई बाहरी समस्या है.
हमारे अधिकांश प्रश्न बिल्कुल भीतरी होते हैं. एकदम अंदरूनी. लेकिन हम उन्हें बाहर-बाहर ही खोजते रहते हैं. तलाशते रहते हैं. अपने रिश्तों में प्रेम की कमी, जीवन में उल्लास, आनंद, उदारता और स्नेह की कमी भीतर से उपजी है. इसलिए उपजी, क्योंकि प्रेम, अहिंसा, क्षमा और करुणा से दूर होते जा रहे हैं. जंगल के बाहर खड़े होकर जंगल को महसूस नहीं किया जा सकता. उसके लिए तो जंगल के भीतर उतरना ही होगा. हमारा मन जो इतना बेचैन, उदास, परेशान दिख रहा है. उसके कारण बाहरी नहीं हैं. नितांत अंदरूनी हैं.
हमें इस बात को समझना होगा कि हम चाहते क्या हैं. जीवन में सपनों के पीछे दौड़ना और उन चीजों को हासिल करना जिन्हें हम कामयाबी कहते हैं, समझते हैं. इसमें कुछ भी खराबी नहीं है. तब तक जब तक हम उसे खुद से भी कीमती न समझने लगें. हमें इस बात को अपने भीतर उतारने की जरूरत है कि जिंदगी सबसे जरूरी है. जिंदगी का कोई विकल्प नहीं. वह अविकल्पनीय है.
हम जैसे ही जिंदगी का विकल्प ढूंढने लगते हैं, खुद को कमजोर करने लगते हैं. कुछ समय पहले अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत ने जो रास्ता अपनाया, वह जिंदगी के विकल्प खोजना है. सांसों की डोर टूटती के बाद कोई उजाला नहीं है. बस एक अंधेरा है. मुक्ति नहीं है, मुक्ति का भ्रम है. आत्महत्या मनुष्यता का की हत्या है. मानवता का वध है. इस विचार को खुद भी समझिए और दूसरों को भी इसके प्रति सजग करिए.
आत्महत्या को किसी भी तरह सही नहीं ठहराया जा सकता. जिन दुखों को हम इतना बड़ा मान बैठे हैं कि जीवन दांव पर लगाने को तैयार हैं. वह दुख नहीं, हमारी चेतना के अंधेरे हैं. प्रेम और क्षमा मनुष्यता के इतिहास की सबसे खूबसूरत मीनारें हैं. हम इनसे दूर चले गए, इसका अर्थ यह नहीं कि इनका अस्तित्व नहीं!
चलिए, अपने पास चलते हैं. खुद से प्रेम करते हैं. खुद को क्षमा करते हैं. खुद को प्यार करते हैं. बिना स्वयं को इनसे परिचित कराए इसे दूसरों के साथ कैसे किया जा सकता है. अपने जीवन को ही सबसे बड़ी प्रार्थना समझिए. जीवन में हर चीज़ को दोबारा हासिल करना संभव है, बस जीवन ही ऐसा है जिसे खोकर प्राप्त नहीं किया जा सकता. इसलिए अपने मन को प्रेम के निकट ले जाइए. उसे रेगिस्तान बनने से बचाइए. बोगनवेलिया बनने से बचाइए.
-दयाशंकर मिश्र
दल बदलने वालों के घर हो !
-श्रवण गर्ग
राजस्थान में भी कांग्रेस की सरकार अगर अंततः गिरा ही दी जाती है तो उसका ‘ठीकरा’ किसके माथे पर फूटना चाहिए ? मध्य प्रदेश को लेकर यही सवाल अभी हवा में ही लटका हुआ है।मार्च अंत (या उसके पहले से भी ) से मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री का गांधी परिवार के साथ मंत्रणा करते हुए कोई चित्र अभी सार्वजनिक नहीं हो पाया है।महाराष्ट्र में अजित पवार भी फड़नवीस के साथ ताबड़तोड़ शपथ लेने के पहले सचिन पायलट की तरह ही किसी को दिखाई नहीं दे रहे थे।महाराष्ट्र का भाजपा प्रयोग तब सफल हो जाता तो शरद पवार की उम्र भर की राजनीतिक कमाई स्वाहा हो जाती।वे दोनों कांग्रेसों को बचा ले गए।इतना ही नहीं ,शिव सेना का भी उन्होंने कांग्रेसी शुद्धीकरण कर दिया है।अब उद्धव ने मुख्यमंत्री के रूप में भाजपा को फिर से वैसा ही कोई प्रयोग करके दिखाने की चुनौती दी है।
अशोक गहलोत मुख्यमंत्री होने के अलावा एक बड़े जादूगर भी हैं।उनकी सरकार भी अब किसी बड़े जादू से ही बच सकती है।बहुत मुमकिन है पायलट के पास विधायकों की गिनती पूरी होने तक विधान सभा क्वॉरंटीन में ही रहे।राजस्थान में संकट की शुरुआत ‘सोने की छुरी पेट में नहीं घुसेड़ी जाती’ के प्रचलित राजस्थानी मुहावरे से हुई थी और उसका आंशिक समापन :’जनता राजभवन घेर ले तो फिर मुझे मत कहिएगा’, से हुआ था।मुख्यमंत्री ने अब कहा है कि ज़रूरत(?) पड़ी तो वे अपने विधायकों के साथ राष्ट्रपति से भी मिलेंगे या प्रधानमंत्री निवास के सामने धरना देंगे।मुख्यमंत्री को अभी अपनी उस चिट्ठी का जवाब प्रधानमंत्री से नहीं मिला है जिसमें उन्होंने राजस्थान में लोकतंत्र बचाने की अपील की थी।गेहलोत अपनी सत्ता बचाने के उनके संघर्ष को जनता के अधिकारों की लड़ाई में बदलना चाहते हैं। जनता जब महामारी और अभावों से मुक़ाबला कर रही हो,सत्ता की लड़ाई में उससे भागीदारी की उम्मीद करना वैसा ही है जैसी कि प्रधानमंत्री से मदद की माँग करना।
हो यह रहा है कि सभी जनता को बेवक़ूफ़ बनाना चाहते हैं। जनता भी कई बार अपना परिचय इसी प्रकार देने में ज़्यादा सुरक्षित महसूस करती है। वह जानती है कि भाजपा लोकतंत्र की रक्षा के नाम पर चुनी हुई सरकारों को गिराने और कांग्रेस उन्हें बचाने के काम में लगी है।जनता के विवेक पर किसी का कोई भरोसा नहीं है। ऐसा नहीं होता तो विधायकों का समर्थन जुटाने के लिए करोड़ों की बोलियां नहीं लगतीं और जनता के चुने हुए प्रतिनिधि अपने आप को सितारा होटलों के कमरों में ‘दासों’ की तरह बंद नहीं कर लेते।
जनता के नाम पर सारा नाटक चल रहा है और जनता मूक दर्शकों की तरह थिएटर के बाहर खड़ी है ।अंदर मंच पर केवल अभिनेता ही दिखाई देते हैं ।सामने का हाल पूरा ख़ाली है।प्रवेश द्वारों पर सख़्त पहरे हैं।
मध्य प्रदेश में कोरोना काल का पूरा मार्च महीना एक चुनी हुई सरकार को गिराने में खर्च हो गया।जिसके बारे में मुख्यमंत्री ने ही ,बाद में वायरल हुए आडियो के अनुसार, स्वीकार किया कि सब कुछ केंद्र के इशारे पर किया गया था।उसी केंद्र के इशारे पर जिसके प्रधानमंत्री को अपनी सरकार बचाने के लिए गेहलोत ने चिट्ठी लिखी है।शिवराज सिंह के शपथ लेने के तीन महीने बाद पूरे मंत्रिमंडल का गठन हुआ और अभी कुछ दिन पहले ही काफ़ी जद्दोजहद के बाद मंत्रियों को विभागों का बँटवारा हुआ।अब ज़्यादातर नए मंत्री उप-चुनाव जीतने की तैयारी में लग गए हैं।मुख्यमंत्री को कोरोना हो गया है ।प्रदेश फिर भी चल रहा है।लोकतंत्र भी देश की तरह मध्य प्रदेश में भी पूरी तरह सुरक्षित है।एक सरकार कोरना में बन गई दूसरी को कोरोना की आड़ में ज़िंदा नहीं रहने दिया जा रहा है।
देश एक ऐसी व्यवस्था की तरफ़ बढ़ रहा है जिसमें सब कुछ ऑटो मोड पर होगा। धीरे-धीरे चुनी हुई सरकारों की ज़रूरत ही ख़त्म हो जाएगी।जनता की जान की क़ीमत घटती जाएगी और ग़ुलामों की तरह बिकने को तैयार जन प्रतिनिधियों की नीलामी-बोलियाँ बढ़ती जाएँगी।अमेरिका और योरप में इन दिनों उन बड़े-बड़े नायकों की सैंकड़ों सालों से बनीं मूर्तियाँ ,जिनमें कि कोलंबस भी शामिल हैं,इसलिए ध्वस्त की जा रहीं हैं कि वे कथित तौर पर ग़ुलामी की प्रथा के समर्थक थे।हमारे यहाँ इस तरह के नायकों के चित्र ड्रॉइंग रूम्स और कार्यालयों में लगाए जा रहे हैं और गांधी जी के पुतलों पर गोलियाँ चलाई जा रही हैं।
लोकतंत्र की रक्षा के लिए जिस जनता की लड़ाई का दम भरा जा रहा है उसमें अस्सी करोड़ तो पाँच किलो गेहूं या चावल और एक किलो दाल लेने के लिए क़तारों में लगा दिए गए हैं और बाक़ी पचास करोड़ कोरोना से बचने के लिए बंटने वाली सरकारी वैक्सीन का अपने घरों में इंतज़ार कर रहे हैं। गेहलोत और कमलनाथ को वास्तव में घेराव राज भवन और प्रधानमंत्री आवास का नहीं बल्कि उन लोगों के घरों का करना चाहिए जो भुगतान की आसान किश्तों पर सत्ता की प्राप्ति के लिए अपनी पार्टी और नेतृत्व के प्रति स्व-आरोपित असहमति व्यक्त करने के लिए तैयार हो गए।और यह भी कि इस ‘असहमति’ के लिए उस मतदाता की कोई ‘सहमति’ नहीं ली गई जिसकी उम्मीदों को सरे आम धोखा दिया जा रहा है ?
विष्णु नगर
वैसे तो भगवान श्री राम की किरपा से सभी कुछ बहुत ठीक है।बस यहाँ मंदिरों की कमी अब बहुत खलने लगी है। भव्य मंदिर तो पूरे देश में एक भी नहीं और भगवान श्री राम का तो अखंड भारत में भी नहीं।अयोध्या तक में भव्य तो छोड़ो,टपरिया वाला मंदिर भी नहीं है।ऐसे में अतीव प्रसन्नता की बात है कि अब माननीय प्रधानमंत्री 32 सेकंड के अत्यंत शुभ अभिजीत मुहूर्त में उसकी आधारशिला रखने जा रहे हैंं ,जो अगले आम चुनाव से ठीक पहले तैयार हो जाएगा और मोदी जी द्वारा एक नायाब तोहफे के रूप में राष्ट्र को समर्पित कर दिया जाएगा।ताली।भगवान श्रीराम की जय।मोदी जिंदाबाद।
यह सही है कि इस देश में सरकारी स्कूल भी बहुत हैं,कालेज तो खैर बहुत हैं ही।शिक्षा का आलम यह है कि वहाँ से हर छात्र मोदीजी की तरह योग्य होकर बाहर आ रहा है। अस्पताल तो प्रधानमंत्री ने एक से एक, बढ़िया से बढ़िया गाँव -गाँव में खुलवा दिए हैं। जनता अब बीमार पड़ना सीख चुकी है,ताकि विश्वस्तरीय चिकित्सा सेवा को सफल बनाने में अपना विनम्र योगदान देकर भारत की कीर्ति चहुंओर फैला सके।खेतों में बारह महीने फसलें लहराने लगी हैं। किसान काट- काट कर परेशान भी हैं और खुशहाल भी।फसलों का न्यूनतम क्या अधिकतम मूल्य उन्हें मिल रहा है।कारखानों के मजदूर कमा- कमा कर मोटे और शक्तिशाली हो रहे हैं। इतना अधिक उत्पादन हो रहा है कि चीन-अमेरिका और यूरोप के देश भी हीनभावना से ग्रस्त हो गए हैं।सब तरफ इंडिया का यानी मोदी जी का डंका बज रहा है बल्कि बजानेवाले इतने अधिक हैं कि डंकों का अभाव हो गया है।भारत ने आश्वासन दिया है कि अंबानी-अडाणी प्राइवेट लिमिटेड जल्दी ही डंकों के अभाव की आपूर्ति कर देगी।एक भी प्राणी को डंके के अभाव में मरने नहीं दिया जाएगा।पशु-पक्षी भी माँग करेंगे तो उन्हें भी प्राथमिकता के आधार पर आपूर्ति की जाएगी।एक ही शर्त है कि पेमेंट आनलाइन हो।
इस बीच चीन ने ' मेड इन चाइना ' डंकों की आपूर्ति करने का प्रयास किया था मगर पूरी दुनिया ने इन्हें रिजेक्ट कर दिया।सबने कहा कि जो बात ' न्यू इंडिया ' के मोदी ब्रांड डंके मेंं है, वह शी ब्रांड चीनी डंके में कहाँ! चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग सिर पकड़ कर बैठे गा रहे हैं कि क्या से क्या हो गया बेवफा.. और उन्हें कोई दिलासा दे नहींं रहा।मोदीजी ने ही मानवीयता के नाते उन्हें फोन पर कहा, अब मत करना कभी हमारी जमीन पर कब्जा करने की बदत्तमीजी!करोगे तो घुस के मारूँगा समझे लल्लू! ।फौरन पाँच सेकंड में हमारी जमीन खाली कर दो।नो चूँँ -चाँ।आराम से बैठोगे तो तुम्हारे डंकों पर 'मेड इन इंडिया' की मोहर लगवाकर दुनिया भर में सप्लाई करवा दूँगा।मंजूर हो तो बात करो।उसका नाम मगर मोदी डंका रखना पड़ेगा,वरना तुम जानते हो मुझे।
उधर शी जिनपिंग का इतना बुरा हाल है,इधर भारत सॉरी ' न्यू इंडिया ' में सब तरफ समृद्धि का आलम है।भूख- बीमारी की तो अब याद भी नहीं आती।कोरोना तो लंगोट छोड़कर भाग चुका हैै। मोदीजी ने पिछले छह साल में इतना अधिक कर दिया है कि लोग कह रहे हैं,मोदी जी अब और प्रगति नहीं।अब तो आप एक ठो राममंदिर अयोध्या में बनवा दो और आप बनवाओगे तो भव्य से कम तो बनवा ही नहीं सकतेे! अब देखो चीन की मदद से आपने नर्मदा किनारे, गुजरात में सरदार पटेल की कितनी शानदार और भव्य मूर्ति बनवाई है।इतनी भव्य कि इस कोरोना काल में भी विदेशी पर्यटक भारत सरकार से विशेष अनुमति लेकर स्पेशल फ्लाइट से उसे देखने के लिए टूटे पड़ रहे हैं।एकदूसरे के सिर पर पाँव रख कर पटेल साहब की मूर्ति देखने का आनंद ले रहे हैं।कह रहे हैं कि कोरोना-फोरोना से क्या डरना, अगर जीवन सार्थक करना है तो सरदार पटेल की प्रतिमा देखना जरूरी है। इसके बाद जान भी चली जाए तो वांदा नहीं।रोज दो- चार विदेशी इस भगदड़ में मृत्यु को प्राप्त होकर स्वर्ग का सुख भोगने के लिए धरा से प्रयाण कर रहे हैं मगर किसी को कोई शिकायत नहीं। इस कारण सभी भारतीयों को तो छोड़ो,गुजरातियों तक का वहाँ नंबर नहीं आ रहा है मगर नो प्राब्लम।डालर अतिथि देवो भव।
इधर आप भव्य संसद भवन भी बनवा रहे हो।आपके होते हुए कंगाली भी भव्यता के आड़े नहीं आ सकती।आपकी प्रतिज्ञा है कि इधर संसदीय व्यवस्था को मटियामेट करूँगा,उधर संसद भवन को भव्य बनवाऊँगा। क्या दूरदृष्टि है, क्या पक्का इरादा है! ब्रहमा, विष्णु, महेश सब आपकी अभ्यर्थना कर रहे हैं। पृथ्वी नामक ग्रह पर भारत नामक देश का नाम आपने इतना उज्जवल कर दिया है कि उसकी रोशनी से देवताओं की आँखों चुँधिया रही हैं।उनके अँधे होने का संकट पैदा हो गया है।कृपा करो हे मोदी देव की प्रार्थना वे कर रहे हैं।
तो ऐसे मोदी- राज में एक नहीं,दस करोड़ मंदिर भारत में बनेंगे। एक से एक भव्य और दिव्य। मंदिर ही भारत को जगत गुरु बनाने की असली कुंजी होगी। भारत पहले जगतगुरु था ही इसलिए कि भारत की हर गली,हर कूचे में एक मंदिर हुआ करता था। वह तो विदेशी आक्रांताओं ने सारे ध्वस्त कर दिए और देश में मंदिरों का ऐसा भयंकर अकाल पड़ गया कि लोगों को खेती और उद्योग धंधों में परिश्रम करने को विवश होना पड़ा।अब अयोध्या से नये विश्व गुरू काल का उद्भव हो रहा है। भविष्य में सब वर्णाश्रम धर्म के अनुसार मंदिर की सेवा करेंगे और इस तथा उस जीवन को अर्थवत्ता प्रदान करेंगे।
फिर से तालियाँ।
जीवन का सुख एक-दूसरे के साथ संबंध में संतुलन से है। कुछ उसी तरह जैसे हम कोई वाहन चलाते हैं। कार चलाते समय केवल ब्रेक पर पांव रखने से कार आगे नहीं बढ़ेगी। उसी तरह केवल एक्सीलेटर पर सारा जोर देने से कार पर नियंत्रण नहीं रहेगा।
कोरोना ने सेहत पर जितना संकट उत्पन्न किया है, उतना ही इसके कारण घर-परिवार में तनाव गहराया है। कोरोना दृश्य और अदृश्य दोनों रूप में बराबरी से कष्ट दे रहा है। हमें इससे पहले लंबे समय से इस तरह एक साथ, बंद कमरों में रहने का अभ्यास नहीं था। इसलिए, लॉकडाउन के बीच पारिवारिक तनाव, तकरार बढ़ती जा रही है। घर-परिवार में एकदम मामूली चीजों को लेकर तनाव बढ़ रहा है।
पति-पत्नी के बीच होने वाला सामान्य विवाद कलह की सीमा तक बढ़ रहा है। छोटी-छोटी बात पर झगड़े इतने अधिक हो रहे हैं कि साथ रहने की मिन्नतें करने वाले हम सब अब थोड़ी दूरी की प्रार्थना कर रहे हैं। ‘जीवन संवाद’ को इस बारे में बहुत से संदेश मिले हैं। हम बहुत अधिक सुनाने में यकीन रखते हुए ‘सुनने’ से दूर जा रहे हैं। हमारे बहुत से संकट केवल इस बात से बड़े होते जाते हैं कि हम सुनने को एकदम तैयार नहीं होते। हमें एक दूसरे के साथ रहते हुए एक-दूसरे का वैसा ही ख्याल रखना होगा जैसा हम दूर रहने वाले का करते हैं!
अति हर चीज की खराब है। भले ही वह साथ रहने की क्यों न हो। हम अक्सर दूरी का महत्व कम करके देखने लगते हैं। कोरोना ने हमें समझाया कि मनुष्य के लिए रिश्ता और उनके बीच सही तालमेल की कितनी जरूरत है। यह कुछ उसी तरह है, जैसे लॉकडाउन के दौरान हमारा प्रकृति के मामलों में हस्तक्षेप बंद हुआ तो पर्यावरण निखर गया। नदियां, फूल पत्ते, सब में हमने जो अति मिला दी थी। कोरोना ने उसमें अति हटाकर संतुलन कर दिया।
रिश्तों में भी कुछ इसी तरह के संतुलन की जरूरत है। खासकर उन दंपतियों के बीच जिनमें से कोई एक या दोनों कामकाजी हैं। ऑफिस के काम के साथ घर के काम को लेकर वहां तनाव नियमित होता जा रहा है।
दंपतियों के बीच तनाव को लेकर आज आपसे एक छोटी सी कहानी कहता हूं। संभव है, इससे आप मेरी बात सरलता से समझ जाएंगे। एक जेन साधक के पास उनके शिष्य ने अपनी परेशानी रखी। उनका कहना था कि उनकी पत्नी अत्यंत कठोर अनुशासन वाली है। उनके नियम कायदे अत्यधिक सख्त हैं। उसके थोड़ी देर बाद उनकी एक शिष्या ने ऐसी ही कुछ बात अपने पति के बारे में कही। साधक ने दोनों को बुलाया। अगले दिन दोनों को कहा गया कि वे अपनी पत्नी, पति के साथ आएं।
चारों लोगों से बात करते हुए साधक ने अपनी मुट्ठी बंद करते हुए कहा, अगर हाथ हमेशा के लिए ऐसा हो जाए तो आप लोग क्या कहेंगे। सब ने उत्तर दिया, यही कहेंगे कि हाथ खराब हो गया है। मुट्ठी नहीं खुल रही, तो अवश्य ही गंभीर संकट है। उसके बाद साधक ने अपने दोनों हाथ खोलकर फैला दिए। जेन साधक ने कहा, अगर हमेशा के लिए हाथ ऐसा ही हो जाए उंगलियां मुड़ें ही न तो कैसा होगा! इस पर भी चारों का यही उत्तर हुआ तब भी हाथ खराब ही कहा जाएगा।
साधक ने आनंदित होते हुए उंगलियों को खोलते-बंद करते, हवा में लहराते हुए कहा आपको याद रखना होगा, दांपत्य जीवन के सुख, आनंद का रहस्य इसमें ही है। साथ रहते हुए एक दूसरे के लिए बंधन के साथ सहज सम्मान, आज़ादी का इंतजाम करना ही होगा। इसके बिना बात नहीं बनेगी।
जीवन का सुख एक-दूसरे के साथ संबंध में संतुलन से है। कुछ उसी तरह जैसे हम कोई वाहन चलाते हैं। कार चलाते समय केवल ब्रेक पर पांव रखने से कार आगे नहीं बढ़ेगी। उसी तरह केवल एक्सीलेटर पर सारा जोर देने से कार पर नियंत्रण नहीं रहेगा। ब्रेक और एक्सीलेटर दोनों के संतुलन से ही वाहन का गतिमान और सुरक्षित होना संभव है। ठीक इसी तरह हमारा जीवन है। यह केवल रोकने से नहीं चलेगा। उसी तरह गति से भी नहीं चलेगा। यह संतुलन के सौंदर्य से ही सुगंधित होता है।
-दयाशंकर मिश्र
-श्रवण गर्ग
देश की राजधानी दिल्ली से सटे उत्तर प्रदेश के गाजियाबाद में बीस जुलाई को एक बेकसूर पत्रकार विक्रम जोशी की हत्या पर पत्रकारिता के शीर्ष संस्थानों जैसे एडिटर्स गिल्ड, भारतीय प्रेस परिषद आदि की ओर से किसी औपचारिक भी प्रतिक्रिया का आना अभी बाकी है। ये संस्थान और बड़े सम्पादक अभी शायद यही तय कर रहे होंगे कि जो व्यक्ति मारा गया, वह वास्तव में भी कोई पत्रकार था या नहीं। यह भी कहा जा रहा है कि वह गुंडों के खिलाफ अपनी किसी प्रकाशित रिपोर्ट को लेकर तो नहीं मारा गया। उसकी हत्या तो अपनी भांजी के साथ छेड़छाड़ के खिलाफ की गई पुलिस रिपोर्ट की वजह हुई। ऐसे लोगों को विक्रम जोशी के अपनी छोटी-छोटी बेटियों की आँखों के सामने मारे जाने या उसके पत्रकार होने या न होने से भी कोई फर्क नहीं पड़ता ! ये जानते हैं कि दिल्ली और अन्य गाँव-शहरों में रोजाना ही लोगों को सडक़ों पर मारा जाता है और कहीं कोई पत्ता भी नहीं हिलता।मैं विक्रम जोशी को नहीं जानता। वे गाजियाबाद के किस स्थानीय अखबार में काम करते थे यह भी पता नहीं। मेरे लिए इतना जान लेना ही पर्याप्त था कि वे एक बहादुर इंसान रहे होंगे। और यह भी कि अपनी भांजी के साथ छेड़छाड़ को लेकर पुलिस तक जाने की हिम्मत कोई पत्रकार ही ज़्यादा कर सकता है। आम आदमी पुलिस और गुंडों दोनों से ही कितना डरता है, सबको जानकारी है।
विक्रम जोशी की हत्या तो देश की राजधानी की नाक के नीचे हुई इसलिए थोड़ी चर्चा में भी आ गई, पर सुनील तिवारी के मामले में तो शायद इतना भी नहीं हुआ होगा। मध्य प्रदेश में बुंदेलखंड क्षेत्र के निवाड़ी जिले के गाँव पुतरी खेरा में पत्रकार तिवारी की दबंगों द्वारा हाल ही में हत्या कर दी गई। सुनील तिवारी ने भी पुलिस अधीक्षक को आवेदन कर उन दबंगों से अपनी सुरक्षा का आग्रह किया था, जिनके खिलाफ वे लिख रहे थे और और उन्हें धमकियाँ मिल रहीं थीं।कोई सुरक्षा नहीं मिली।तिवारी का वह वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल है जिसमें वे बता रहे हैं कि उन्हें और उनके परिवार को किस तरह का खतरा है।निश्चित ही अब पूरी कोशिश यही साबित करने की होगी कि तिवारी पत्रकार थे ही नहीं।आरोप यह भी है कि तिवारी जिस अखबार के लिए उसके ग्रामीण संवाददाता के रूप में काम करते थे उसने भी उन्हें अपना प्रतिनिधि मानने से इनकार कर दिया है।आश्चर्य भी नहीं होना चाहिए।
क्या पत्रकार होना न होना भी पत्रकारिता जगत की वे सत्ताएँ ही तय करेंगी जो मीडिया को संचालित करती हैं, जैसा कि अभिनेता के रूप में पहचान स्थापित करने के लिए फिल्म उद्योग में जरूरी है? अगर आप सुशांत सिंह राजपूत हैं तो वे लोग जो बालीवुड की सत्ता चलाते हैं आपको कैसे अभिनेता मान सकते हैं ! ऐसा ही अब मीडिया में भी हो रहा है। पहले नहीं था। गाजियाबाद या निवाड़ी या और छोटी जगह पर होने वाली मौतें इसीलिए बिना किसी मुआवजे के दफ्न हो जातीं हैं कि मौजूदा व्यवस्था आतंक के नाम पर केवल विकास दुबे जैसे चेहरों को ही पहचानती है। वह भी उस स्थिति में अगर आतंक से प्रभावित होने वालों का सम्बन्ध व्यवस्था से ही हो।
गाजियाबाद के विक्रम जोशी या निवाड़ी के सुनील तिवारी को व्यक्तिगत तौर पर जानना जरूरी नहीं है। ज़्यादा जरूरी उन लोगों को जानना है जिनके जिम्मे उनके जैसे लाखों-करोड़ों के जीवन की सुरक्षा की जवाबदारी है और इनमें बिना चेहरे वाले कई छोटे-छोटे पत्रकार और आरटीआई कार्यकर्ता शामिल हैं। वर्ष 2005 से अब तक कोई 68 आरटीआई कार्यकर्ता मारे जा चुके हैं और छह को आत्महत्या करनी पड़ी है। इस सिलसिले में ताजा मौत 38-वर्षीय पोयपिन्हुँ मजवा की है जो बीस मार्च को मेघालय में हुई है। व्यवस्था के साथ-साथ ही उस समाज को भी अब जानना जरूरी हो गया है जिसके भरोसे संख्या में अब बहुत ही कम बचे इस तरह के लोग अभी भी तराज़ू के भारी पलड़े की तरफ बिना देखे हुए अपने काम में ईमानदारी से में लगे हुए हैं और समाज हरेक ऐसी मौत को अपनी ही एक और साँस का उखड़ जाना नहीं मानता।
विक्रम जोशी की हत्या को लेकर मैंने एक ट्वीट किया था। उसकी प्रतिक्रिया में सैकड़ों लोग मेरे द्वारा व्यक्त चिंता के समर्थन में आ गए। पर कुछ उनसे अलग भी थे जिनके विचारों का उल्लेख यहाँ इसलिए जरूरी है कि देश किस तरह से चलना चाहिए ये ही लोग तय करते हैं। जैसे : (1)’ सही कह रहे हैं श्रीमानजी ! अधिकांश मीडिया जगत के पास साँसों के अलावा कुछ भी नहीं बचा। कलम तो पहले ही बिक चुकी है, अब साँसों का भी संकट खड़ा हो गया है ‘, (2)’ पिछली सरकार में तो पत्रकारों को जेड प्लस सुरक्षा थी। कोई भी पत्रकार की हत्या नहीं हुई, लिस्ट भेजूँ क्या ?’, (3) ‘विक्रम जोशी की हत्या उनके द्वारा पत्रकार की हैसियत से किसी रिपोर्ट के प्रकाशन के कारण नहीं हुई है।’ ऐसे और भी कई ट्वीट।
एक घोषित अपराधी विकास दुबे की पुलिस के हाथों ‘संदेहास्पद’ एंकाउंटर में हुई मौत की जाँच तो सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में चल रही है, पर गुंडों के हाथों सामान्य नागरिकों, पत्रकारों, आरटीआई कार्यकर्ताओं, आदि की आए दिन होने वाली हत्याएँ तो सभी तरह के संदेहों से परे हैं। फिर भी अपराधियों को सजा क्यों नहीं मिलती? क्या हमें इसी तरह की हिंसक अराजकता के बीच जीना पड़ेगा?
हमें प्यार और स्नेह की जरूरत सबसे अधिक कब होती है। उस वक्त जब हम सुख और आनंद की तरफ बढ़ रहे होते हैं, उस समय जब हम अपने मुश्किल दौर से गुजर रहे हों। इसका उत्तर बहुत मुश्किल नहीं है। लेकिन हम मनुष्यता और संवेदनशीलता से दूर होते जाने के कारण मन की बहुत सामान्य जरूरत से दूर होते जा रहे हैं। इसका सबसे सरल उदाहरण हम इस समय देख रहे हैं कि सडक़ पर हो रही/ हो चुकी दुर्घटना, हिंसा में जीवन के लिए संघर्ष कर रहे लोगों की मदद में हमारी दिलचस्पी हर दिन घटती जा रही है।
हम वीडियो बनाने में इतने अधिक व्यस्त हैं कि इसे ही हम अपनी जिम्मेदारी समझ बैठे हैं। भारतीय समाज वायरल वीडियो का सबसे बड़ा उपभोक्ता तो बन गया है लेकिन मदद करने के मामले में हमारा मन कमजोर हो रहा है। मदद के लिए जब तक हम आगे नहीं आएंगे, हमारी मदद के लिए भी कोई नहीं आएगा। इस सहज सिद्धांत से मन कहीं दूर चला गया है। हमें मन को एक बार फिर कोमल, उदार और संवेदनशील बनाने की दिशा में आगे बढऩा है!
हमें बचपन में सुनाई जाने वाली कहानियों में एक बड़ी सुंदर कहानी मदद के बारे में है। एक घने जंगल में बहुत सुंदर और ताकतवर शेर रहा करता था। उस की दहाड़ इतनी दूर तक जाती थी कि उसके आसपास कई मील तक सन्नाटा पसरा रहता। उसे दूसरे ही शेरों की तरह नींद बहुत प्रिय थी। जब वह सोता तो किसी की हिम्मत न होती कि उसके आसपास फटके। पेड़ों पर रहने वाले बंदर तक इस बात का ध्यान रखते थे। उसके सेवक लोमड़ी, लकड़बग्घा भी हर प्रकार से कोशिश करते कि उसकी नींद में कोई परेशानी पैदा न हो!
जंगल का राजा शेर एक दोपहरी शिकार के बाद नींद के आनंद में था। उसी समय उसकी गुफा में कहीं से चूहा आ गया। संभव है चूहा अपने किसी रिश्तेदार के यहां घूमने-फिरने आया हो। क्योंकि उसकी गुफा के आसपास रहने वाले चूहे तो शेर की आदत से अच्छी तरह परिचित थे। चूहा अपनी मौज में इस तरह डूबा कि शेर की पीठ पर उछल कूद कर बैठा। शेर की नींद खुल गई। उसकी अलसाई आंखों में गहरा गुस्सा उतर आया। उसने एक ही झटके में अपने पंजे से चूहे को दबोच लिया। तुम्हारी ऐसी हिम्मत। शेर ने दहाड़ते हुए कहा। चूहे को अपनी गलती का एहसास हो चुका था। वह बुद्धिमान चूहा था। उसने संकट के समय भी धैर्य नहीं खोया। तुरंत शेर से अभयदान की मांग करते हुए अपनी जान बख्शने की गुजारिश करने लगा। इस दौरान इसने एक ऐसी बात कही जो अब तक शेर से किसी ने न कही थी।
चूहे ने कहा, आप हमारे राजा हैं। राजा को चूहे का वध शोभा नहीं देता। मेरी जान बख्श दीजिए, संभव है मैं किसी दिन आपके काम आऊं! उसका जवाब सुनकर शेर को हंसी आ गई। हंसने से उसका गुस्सा दूर हो गया। उसने कहा, तुम मेरे किस काम आओगे। लेकिन मैं तुम्हारी सोच से प्रभावित हुआ। जाओ, लेकिन ध्यान रहे ऐसी गलती दोबारा न हो। चूहा अपने ईश्वर को धन्यवाद देता हुआ, वहां से भागा।
समय बीता। कुछ दिन बाद जंगल में एक शिकारी आया। उसने कई दिन की जांच पड़ताल के बाद यह पाया कि शेर को पकडऩे का सबसे अच्छा वक्त दोपहर का है। जब वह गहरी नींद में होता है। उसने एक दोपहर बहुत ही कुशलता से शेर को जाल में फंसा लिया। दोपहर का वक्त था वह काफी मेहनत करके थक गया था। जैसे ही उसने देखा कि शेर फंस चुका है। वह अपने साथियों के साथ थोड़ी देर विश्राम के लिए चला गया। इसी बीच उस चूहे को यह खबर मिल गई। उसे अपना वायदा याद आया।
वह तुरंत शेर के पास हाजिर हो गया। अपने कुछ साथियों को भी ले गया। शेर ने उसे देखते ही पूछा तुम यहां क्या कर रहे हो। चूहे ने कहा अगर आपकी अनुमति हो तो मैं तुरंत जाल काटने के काम में लग जाऊं। शेर ने कहा इतना आसान नहीं है फिर भी तुम कोशिश करके देख लो। चूहे ने अपने पूरे परिवार को इस काम में लगा दिया।
थोड़ी ही देर में चूहों ने अपने और साथियों को इस काम में शामिल कर लिया। उसके कुछ देर बाद जंगल का राजा आजाद हो चुका था। इस बार उसकी दहाड़ कुछ ऐसी थी कि शिकारी और उसके साथी चुपचाप जंगल से भाग गए। शेर ने चूहे और उसके साथियों का धन्यवाद किया!
मुझे यह कहानी इसलिए भी याद आती रहती है क्योंकि हमारी जिंदगी भी कुछ इसी तरह है। कौन कब कहां आपकी मदद करने के काम आ सके, इसका कोई भरोसा नहीं। जिंदगी इस बात से तय नहीं होती कि हम ‘शेर’ के साथ कैसे पेश आते हैं। जिंदगी की दिशा और दशा इस बात से तय होती है कि हम उन लोगों के साथ कैसे पेश आते हैं जो हमारी नजर में ‘छोटे’ होते हैं। कहानी की भाषा में कहें तो ‘चूहे’ होते हैं।
इसलिए मदद को स्वभाव बनाइए। मदद कभी बेकार नहीं जाती, वह आपको अधिक प्रसन्नता आनंद और सुख देगी। हमको तो बस इस कहानी के शेर जैसा सहनशील, क्षमाशील होना है। बाकी जिंदगी खुद समझ लेती है! (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र
-विष्णु नागर
जब रोम जल रहा था और नीरो बंसी बजा रहा था
तो मैंने ही कहा था- ‘वाह-वाह, क्या बात है सम्राट’
जब रोम जल रहा था
और गरीब रोमनों को जलाकर
उन्हें मशालों में तब्दील किया जा रहा था
तो इसके आर्तनाद और चीख के बीच
खाने -पीने का सबसे ज्यादा आनंद
मैंने ही उठाया था
जिसे दो हजार साल बाद भी भूलना मुश्किल है
मैं आज भी सुन रहा हूँ नीरो की बाँसुरी
वही गिलास और वही प्लेट मेरे हाथ में है
वैसा ही है रोशनी का प्रबंध
सम्राट ने अभी पूछा मुझसे : ‘कैसी चल रही है पार्टी
कैसा है प्रबंध, कुछ और पीजिए, कुछ और खाइये’
नीरो मरने के लिए पैदा नहीं होते
न उसकी पार्टी में शामिल होने वाले लोग
अभी कहाँ जला है पूरा रोम
अभी तो मेरा घर भी खाक होना बाकी है
बुझती मशालों की जगह
नई मशालें लाई जा रही हैं
अभी तो पार्टी और भी रंगीन होने वाली है!
बहुत सारी चीजें हमारे स्वभाव का अनचाहे ही हिस्सा बन जाती हैं। धीरे-धीरे वह हमारे स्वभाव में घुलने लगती हैं। अगर समय रहते उनको ठीक ना किया जा सके तो वह हमारे अवचेतन मन में प्रवेश करने लगती हैं।
हम सब अक्सर अपने स्वभाव की छोटी- मोटी चीजों को लेकर परेशान होते रहते हैं। हमारा ध्यान उस ओर कम ही जाता है, जिस ओर जाना चाहिए। अक्सर हम मन पर पड़े बोझ के पत्थर कम देख पाते हैं। दूसरों से उलझने और अपने को सही साबित करने के चक्रव्यूह में ही फंसे रहते हैं। प्रसन्नता हमारे स्वभाव से दूर जा रही है। नाराजगी और स्वभाव में उग्रता बढ़ती जा रही है।
अपने भीतर का जब तक हमें बोध नहीं होता, हम शांति की ओर नहीं बढ़ सकते! स्वभाव से जुड़ी छोटी सी कहानी आपसे कहता हूं। संभव है इससे मेरी बात अधिक सरलता से आप तक पहुंच सके।
एक सरकारी अफसर साधक के पास पहुंचा। साधक गहरे मौन में रहते। बहुत जरूरी प्रश्नों के ही उत्तर देते। अफसर अक्सर इस गुमान में रहते हैं कि वही दुनिया चला रहे हैं। दुनिया उनकेे ही दम पर टिकी है। अफसर ने साधक से कहा मेरे पास समय नहीं है। मुझे जल्दी से समझाइए कि जीवन में शांति कैसे आ सकती है। साधक ने कोई उत्तर नहीं दिया। जो व्यक्ति उन्हें साधक के पास ले गए थे, उन्होंने किसी तरह अफसर को समझाया कि आपकी दुनिया के नियम सब जगह लागू नहीं होते। वह अफसर जल्दबाजी में थे, चले गए।
घर जाकर उनको एहसास हुआ कि अब तक तो जिन साधु और साधकों के पास वह पहुंचे, वह तो जैसे उनके इंतजार में ही बैठे थे। इस मायने में यह साधक अनूठे हैं।
अगले दिन वह अपने उस मित्र के यहां भागे जो उनको साधक के पास ले गए थे। वह गुस्से में मित्र के ऊपर भी नाराज हो गए थे कि उसने उनका बेहद कीमती समय ऐसे साधक के पास लेे जाकर खराब कर दिया, जो अपने यहां आने वालों से ठीक से बात नहीं करता। दूसरोंं के समय का सम्मान नहीं करता। संयोग से उनके मित्र सजग थे। प्रेम का रंग उनकी आत्मा में घुला हुआ था। वह उनको लेकर साधक केे पास गए। इस बार इस अफसर ने कोई जल्दबाजी नहीं की। प्रेम से बैठे रहे। समय आने पर बहुत इत्मीनान से उन्होंने कहा, मेरा स्वभाव बहुत उग्र है। इस नियंत्रित करने का उपाय बताइए।
साधक ने कहा यह तो नई चीज़ है। मैंने आज तक नहीं देखी। जरा दिखाओ तो कैसा होता है, उग्र स्वभाव! उस व्यक्ति ने कहा वह तो अचानक कभी-कभी होता है। उस पर मेरा नियंत्रण नहीं है। साधक ने कहा, यदि वह हमेशा नहीं है तो वह तुम्हारा स्वभाव नहीं है। किसी कारण से तुमने उसे थोड़ी देर के लिए पहना हुआ है। हमेशा इसी बात का ख्याल रखना। ओढ़ी हुई चीज थोड़ी देर के लिए होनी चाहिए हमेशा के लिए नहीं।
हम सबके साथ भी कुछ ऐसा ही है। बहुत साारी चीजें हमारे स्वभाव का अनचाहे ही हिस्सा बन जाती हैं। धीरे-धीरे वह हमारे स्वभाव में घुलने लगती हैं। अगर समय रहते उनको ठीक ना किया जा सके तो वह हमारे अवचेतन मन में प्रवेश करने लगती हैं। आपनेे देखा होगा कुछ लोगों का स्वभाव धीरे-धीरे बदलने लगता है। लेकिन एक दिन वह आपको पूरी तरह बदले हुए नजऱ आते हैं। वह छोटे-छोटे परिवर्तनों के प्रति सजग नहीं होते। घने से घना जंगल भी कुछ वर्षों में मैदान बन सकता है अगर वहां होने वाली कटाई पर समय रहते रोक न लगाई जाए।
हम सब अपने-अपने जीवन में अलग-अलग जिम्मेदारियों का निर्वाह करते हैं, अपनी जिंदगी चलाने के लिए। जिंदगी की जरूरतों को पूरा करने के लिए। बस यही बात मन में गहराई से बैठी रहनी चाहिए। इसे बहुत अच्छी तरह समझना होगा कि नौकरी की जरूरत को जिंदगी में जरूरत से ज्यादा महत्व नहीं देना है।
अपने स्वभाव का सजगता से निरीक्षण करते रहे। जांच करते रहें। कहीं कुछ चीजें आपके स्वभाव में दूसरों की तो शामिल नहीं हो रहीं। कभी-कभी जरूरत पडऩे पर सफर में हम दूसरों की चीजों से काम चला लेते हैं। लेकिन वह हमेशा के लिए हमारे पास नहीं रहतीं। ठीक इसी तरह से ध्यान रखना होगा कि कहीं ऐसा तो नहीं कि गुस्सैल, क्रोधी, किसी भी कीमत पर सब कुछ हासिल करने की जिद पर रहने वालों के साथ रहते हुए हम भी तो वैसे ही नहीं होते जा रहे!
अपने स्वभाव को सरल और प्राकृतिक बनाए रखना है। दूसरों का पहना और ओढ़ा स्वभाव हमारे किसी काम नहीं! (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र
-विष्णु नागर
एक मित्र ने याद दिलाया कि संसद परिसर में एक बुजुर्ग महिला ने देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का कालर पकड़ कर उनसे पूछा था:' भारत आजाद हो गया, तुम देश के प्रधानमंत्री बन गए, मुझ बुढ़िया को क्या मिला?' नेहरू जी का जवाब था:' आपको ये मिला कि आप प्रधानमंत्री का गिरेबान पकड़ कर खड़ी हैं।'
ऐसी बातें याद मत दिलाया करो मित्रो, रोना आ जाता है। इस युग में बता रहे हो कि आजाद भारत ने इसके नागरिकों को प्रधानमंत्री का गिरेबान पकड़ने तक की आजादी दी है। अब बता रहे हो,जब आज के राजनीतिक शिखर -पुरुष को अपना पुरुषार्थ नेहरू जी के बारे में अल्लमगल्लम झूठ फैलाने में नजर आ रहा है, जब पाठ्यक्रम से भी धर्मनिरपेक्षता गायब की जा रही है। पता नहीं है क्या कि अब यह देशद्रोह की श्रेणी में आता है ! जेल जाना चाहते हो क्या? इस युग में तो अगर कोई सपने में भी प्रधानमंत्री का गिरेबान पकड़ ले तो उसके सपने की स्कैनिंग हो जाएगी और बीच चौराहे पर उसका काम तमाम कर दिया जाएगा और सब उसके वीडियो फुटेज को ' एनज्वाय ' करेंगे।प्रत्यक्षदर्शी उस आदमी की यह हालत होते देख कर हँसेगे, ताली-थाली बजाएँँगे। खुशी से पागल हो जाएँँगे,मिठाई बाँटेंगे ,पटाखे फोड़ेंगे। एक दूसरे के मुँह और सिर पर गुलाल मलेंगे।दिये जलाएँँगे। मोदी जी के जयकारे लगाएँगे, 'जय मोदी हरे' आरती गाएँँगे। और यह सब टीवी चैनलों पर गौरवपूर्वक प्राइम टाइम में दिखाया जाएगा। सिर्फ़ यह नहीं दिखाया जाएगा कि उसकी बीवी दहाड़े मार कर रो रही है, कि उसके बच्चों को समझ में नहीं आ रहा है कि यह आखिर हुआ क्या है,पापा को जमीन पर क्यों लेटाया गया है!इनकी तबीयत खराब है तो इन्हें अस्पताल क्यों नहीं ले जाते? और मृतक की माँँ गश खाकर गिर पड़ी है।
लोग किसी भी तरह के सपना देखने से डरने लगेंगे- चाहे वह 'कौन बनेगा करोड़पति' में सात करोड़ रुपये जीतने का सपना हो!आज अच्छा सपना आया तो कल गिरेबान पकड़नेवाला सपना भी आ सकता है,जैसे उसे आया था! और कोई जरूरी है कि सपना उतना ही भयंकर आए,उससे भयंकर नहीं आएगा!लोग सपने से इतने डरेंगे कि कोई भी सपना आए, लोग रात को उठ बैठेंगे,पसीने -पसीने हो जाएँगे।ईश्वर या अल्लाह से दुआ माँगेंगे कि आइंदा कोई भी सपना न आए। लोग डाक्टर के पास जाएँगे कि डाकसाब ऐसी दवा दो कि नींद आए मगर अच्छे या बुरे सपने न आएँ! सुन कर डाक्टर खुल कर हँसेगा।कहेगा, यही तो मेरी भी समस्या है,मेरी भी बीमारी है,तुमको इसका क्या इलाज बताऊँ!ईश्वर में आस्था रखो,सोने से पहले रात को उसका स्मरण कर लिया करो,मैं भी यही करता हूँ।इसीसे ऊपरवाला बेड़ा पार करेगा तो करेगा वरना मझधार हिम्मत रखो।
मत दिलाया करो इस तरह कि याद बंधु,अब तो आडवाणी भी उनके कंधे पर हाथ रख कर खड़े नहीं हो सकते।वे भी सुरक्षा के लिए खतरा मान लिए जाएँगे और पता नहीं, उनका बाकी जीवन कहाँ और कैसे बीते!
मत रुलाया करो बंधु,मत रुलाया करो।रोने को बहुत कुछ है और अब भी पता नहीं क्यों कोई गाँधी, कोई नेहरू, कोई अंबेडकर, कोई भगत सिंह,कोई लालबहादुर शास्त्री , कोई सीमांत गाँधी,कोई मौलाना आजाद की बातें याद दिला देता है।देखो आजकल 'न्यू इंडिया' बनाया जा रहा है,यह उन सब बातों को भूलने का समय है। बंधु, अतीत में ले जाना बंद करो।ले ही जाना हो तो सभी मुगलों,सभी मुसलमानों के मुँँह पर कालिख पोतने के लिए ले जाओ।ले जाना हो तो इतने पीछे ले जाओ कि सोमनाथ मंदिर तोड़ने का दर्द हरा हो जाए और 2002 का दर्द भूल जाएँ।याद दिलाना हो तो ऐसे तमाम किस्से याद दिलाओ कि हम किस प्रकार उस समय जगद्गुरु थे,जब हमें पता भी नहीं था कि जगत् होता क्या है,हाँ गुरु का पता था!
इस तरह तुम याद दिलाते रहे तो फिर तुम पूरे स्वतंत्रता संघर्ष की याद भी दिलाने लगोगे! मत करो ऐसे उल्टे काम।आज तो वे तुम्हें और हमें शायद माफ कर दें, कल ऐसी याद को वे कानूनन गुनाह घोषित कर देंगे।'झूठ' फैलाने और 'सांप्रदायिक सौहार्द' खत्म करने के आरोप में तुम्हें -हमें अंदर कर देंगे और कोई यानी कोई भी बाहर नहीं ला पाएगा।लोकतंत्र अब हमारे यहाँ बहुत ही अधिक ' विकसित' हो चुका है, बहुत ही ज्यादा।इतना ज्यादा कि दुनिया दाँतों तले ऊँगली दबा रही है और मोदीजी चेतावनी दे रही है कि अरे -अरे, तुम यह क्या कर रहे हो,इतना ' लोकतंत्र ' भी ठीक नहीं है और जरा उस अमित शाह से भी कहो कि गृहमंत्री होकर भी वह क्यों लोकतंत्र का इतना 'विकास' और ' विस्तार ' कर रहा है,क्यों वह आपके और अपने पैरों पर कुल्हाड़ी चला रहा है? रोको उसे और खुद भी रुक जाओ। कदम पीछे की ओर ले जाओ।लोगों को सिखाओ कि पीछे की ओर देखे बिना कदमताल कैसे किया जाता है और इसे देशप्रेम कैसे समझा जाता है!
ये गिरेबान पकड़ने वाली बातें साझा मत किया करो बंधु, और गिरेबान पकड़ने की याद दिलाते हो तो यह बता दिया करो कि ये हकीकत नहीं, किस्से-कहानियाँँ हैं,लोककथाएँ हैं, गप हैं,ये वे सपने हैं,जो तब लोग देख लिया करते थे।ये सच नहीं था।तब भी यही निजाम था,अब भी यही है।आगे भी यही रहेगा।सच अगर कुछ है तो यही है।
-विष्णु नागर
जिस दिन यह टिप्पणी लिख रहा हूँ उस दिन पता नहीं क्यों सुबह से ही हेमंत कुमार का गाया और बचपन में और विशेषकर स्वतंत्रता दिवस तथा गणतंत्र दिवस पर कई बार सुना यह गाना मन में बारबार गूँजता रहा- ‘इन्साफ की डगर पे बच्चो दिखाओ चल के’। कोई प्रत्यक्ष कारण नहीं है इसका, फिर भी न जाने क्यों मेरे साथ उस दिं ऐसा हुआ। ऐसा भी नहीं है कि इसे पहली बार रेडियो या टीवी पर सुना हो, इसलिए यह मन में गूँज रहा हो। कभी-कभी मेरे साथ ऐसा होता है। कभी मौका मिला तो ऐसी चीजें यू ट्यूब पर सुन लेता हूँ हालांकि उसे कई-कई बार सुनकर भी मन नहीं भरता लेकिन आज इस गाने के मन में गूँजने का कारण क्या यह है कि मैं किसी संयोग से अपने बचपन में लौट आया हूँ? लगता तो नहीं मगर पता नहीं। 1961 में जब दिलीप कुमार-वैजयंती माला की फिल्म ‘गंगा जमुना’ आई थी-जिसका यह गाना है- तब मैं 11 साल का था और मेरे कस्बे में फिल्म का प्रचार करने के लिए स्थानीय अमीन सयानी साहब नई आई फिल्म की खूबियों का बखान करते हुए गली-गली में तांगे में घूमा करते थे। वे थे, तो लगभग अनपढ़ मगर फिल्म के प्रचार का अंदाज उनका इतना जोरदार होता था कि ऐसा हो नहीं सकता था कि उनके प्रचार के बाद कोई सड़ी से सड़ी फिल्म देखने से भी अपने को बचा पाए।
तब पता नहीं था कि यह गाना सुकूनभरी और भरोसा दिलानेवाली आवाज में किसने गाया है और इसे लिखा किसने है, उस उम्र में यह जानने की उत्सुकता भी नहीं होती थी लेकिन शायद हेमंत कुमार की आवाज से भी ज्यादा या यूं कहें कि उनकी आवाज के साथ शकील बदायूंनी के ये बोल बहुत अपील करते थे, इसलिए भी कि यह गाना खासकर बच्चों को संबोधित था। तब स्कूलों में पंडित नेहरू को चाचा नेहरू कहलवाया जाता था और नारा लगवाया जाता था- चाचा नेहरू जिंदाबाद। मुझे तब सचमुच लगता था कि नेहरूजी मेरे चाचा हैं, भले ही मैंने उन्हें दूर से भी कभी देखा नहीं था और शाजापुर जैसे छोटे से पिछड़े कस्बे में उनके आने की कोई उम्मीद भी नहीं थी। जब नेहरूजी नहीं रहे तो पड़ोसी के रेडियो पर उनकी शव यात्रा का वर्णन सुनकर मैं खूब रोया था-शायद किसी नेता के लिए पहली और आखिरी बार। तब लगता था कि जैसे यह गाना नेहरूजी की ओर से हमें दिया गया संदेश है, इसलिए बहुत द्रवित करता था।
अभी-अभी फिर से इसे सुना तो यह गाना फिर से बहुत अच्छा लगा, जबकि पंडित प्रदीप के लिखे और लता मंगेशकर द्वारा गाये जिस गाने को सुनकर नेहरू खूब रोये थे- ‘ओ मेरे वतन के लोगो जरा आँख मे भर लो पानी’ वह गाना न तब मुझे अपील करता था, न अब, जबकि उसी दौरान हुए चीनी हमले के समय मैंने अपने तीन-चार दोस्तों के साथ जूते पालिश करके सेना के जवानों के लिए चंदा जमा करके राष्ट्रीय सुरक्षा कोष में जमा किया था। पिछले न जाने कितने वर्षों से देशभक्ति के बहुत से गीत फालतू लगने लगे हैं। ‘मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरा-मोती’ टाइप गीत तो क्षमा कीजिए न तब बर्दाश्त होते थे, न अब। मनोज कुमार ने भावुकताभरी फिल्मी देशभक्ति से नाम बहुत कमाया मगर उनकी सिनेमाई देशभक्ति कभी अच्छी नहीं लगी। उसके बाद भी नकली देशभक्ति का व्यावसायिक उछाल बहुत आता रहा, जिसने चिढ़ को और बढ़ाया ही।
बहरहाल ‘जब इन्साफ की डगर पे’ गीत प्रचलित था, उस दौर में जो बच्चे थे या किशोर थे, उनमें से कई आज इस देश के भाग्यविधाता बने हुए हैं। उस दौर के मोदीजी तो आज देश के प्रधानमंत्री हैं। इन सबने मिलकर देश को जहाँ पहुँचा दिया है, उस जगह पर आकर आज के बच्चों को यह गीत शायद हास्यास्पद ही लगेगा और वे कहेंगे कि क्या पापा (मम्मी) आप बोर कर रहे हो। इस गाने में शकील बदायूं ने नेहरू युग के स्वप्नों, आकांक्षाओं को पिरोया है। इस गीत से पता चलता है कि तब नेता होना गंदी बात नहीं मानी थी, इसीलिए शायद बच्चों से कहा गया है- ‘नेता तुम्हीं हो कल के’। आज तो फिल्मी गानों में भी नेता बनने की बात व्यंग्य में ही कही जा सकती है। आज नेता गली-गली में हैं, उन्होंने डटकर-बेखटके कमाया है, खूब ठाठ हैं उनके, वे चुनाव भी बार-बार जीत जाते हैं मगर जनता के मन में उनके प्रति धेलेभर की भी इज्जत नहीं है। उस दौर के जिन बच्चों से शकील बदायूंनी और हेमंत कुमार ने ‘इन्साफ की डगर पे’ चलने की उम्मीद की थी, उनके लिए जुल्म की डगर पर चलना ही असली इन्साफ है, सच्चाइयों के बल पे आगे बढऩे की जिनसे उम्मीद आशा थी, वे झूठ और बेईमानी का हाथ मजबूती से पकड़ चुके है। जिन्हें संसार को बदलना था, उन्हें संसार ने बदल दिया है पूँजी की सेवा करने के लिए।जिन्हें तनमन की भेंट देकर भारत की लाज बचाना था, वे अपनी इज्जत लुटाने में लगे हैं। अपनों के लिए तो ठीक है मगर परायों के लिए, सबके लिए, न्याय की बात करना उनके लिए असंभव है। इन्सानियत के सर पर इज्जत का ताज नहीं कचरा रखा जा रहा है। बहुत कुछ इस बीच खो गया है, इसलिए इस बीच यह गीत भी खो गया है और इन्साफ की डगर भी।