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क्या चिंता केवल यहीं तक सीमित कर ली जाए कि कुछ टीवी चैनलों ने विज्ञापनों के जरिए धन कमाने के उद्देश्य से ही अपनी टीआरपी बढ़ाने के लिए उस बड़े फर्ज़ीवाड़े को अंजाम दिया होगा जिसका कि हाल ही में मुंबई पुलिस ने भांडाफोड़ किया है? या फिर जब बात निकल ही गई है तो उसे दूर तक भी ले जाया जाना चाहिए? मामला काफी बड़ा है और उसकी जड़ें भी काफी गहरी हैं। यह केवल चैनलों द्वारा अपनी टीआरपी (टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट) बढ़ाने तक सीमित नहीं है।
पूछा जा सकता है कि इस भयावह कोरोना काल में जब दुनियाभर में राष्ट्राध्यक्षों की लोकप्रियता में सेंध लगी पड़ी है, डोनाल्ड ट्रम्प जैसे चतुर खिलाड़ी भी अपने से एक अपेक्षाकृत कमज़ोर प्रतिद्वंद्वी से ‘विश्वसनीय’ ओपीनियन पोल्स में बारह प्रतिशत से पीछे चल रहे हैं, हमारे यहाँ के जाने-माने मीडिया प्रतिष्ठान द्वारा करवाए जाने वाले सर्वेक्षण में प्रधानमंत्री मोदी को 66 और राहुल गांधी को केवल आठ प्रतिशत लोगों की पसंद बतलाए जाने का आधार आखऱि क्या है ? मोदी का पलड़ा निश्चित ही भारी होना चाहिए, पर क्या उनके और राहुल के बीच लोकप्रियता का गड्ढा भी अर्नब के ‘रिपब्लिक’ और दूसरे चैनलों के बीच की टीआरपी के फर्क की तरह ही संदेहास्पद नहीं माना जाए? इस बात का पता कहाँ के पुलिस कमिश्नर लगाएँगे कि प्रभावशाली राजनीतिक सत्ताधारियों की लोकप्रियता को जाँचने के मीटर देश में किस तरह के लोगों के घरों में लगे हुए हैं ?
जनता को भ्रम में डाला जा रहा है कि टीआरपी का फर्जीवाड़ा केवल विज्ञापनों के चालीस हजार करोड़ के बड़े बाजार में अपनी कमाई को बढ़ाने तक ही सीमित है। हकीकत में ऐसा नहीं है। दांव पर और कुछ इससे भी बड़ा लगा हुआ है। इसका संबंध देश और राज्यों में सूचना तंत्र पर कब्जे के जरिए राजनीतिक आधिपत्य स्थापित करने से भी हो सकता है। देशभर में अनुमानत: जो बीस करोड़ टीवी सेट्स घरों में लगे हुए हैं और उनके जरिए जनता को जो कुछ भी चौबीसों घंटे दिखाया जा सकता है, वह एक खास किस्म का व्यक्तिवादी प्रचार और किसी विचारधारा को दर्शकों के मस्तिष्क में बैठाने का उपक्रम भी हो सकता है।वह विज्ञापनों से होने वाली आमदनी से कहीं बड़ा और किसी सुनियोजित राजनीतिक नेटवर्क का हिस्सा हो तो भी कोई आश्चर्य की बात नहीं।
क्या कोई बता सकता है कि सुशांत सिंह राजपूत मामले में मुंबई पुलिस को बदनाम करने के लिए हजारों (पचास हजार?) फेक अकाउंट सोशल मीडिया पर रातों-रात कैसे उपस्थित हो गए और इतने महीनों तक सक्रिय भी कैसे रहे? इतने बड़े फर्जीवाड़े के सामने आने के बाद सत्ता के गलियारों से अभी तक भी कोई आधिकारिक प्रतिक्रिया सामने क्यों नहीं आई? सोशल मीडिया पर इतनी बड़ी संख्या में फर्जी अकाउंट क्या देश की किसी बड़ी राजनीतिक हस्ती या दल के खिलाफ इसी तरह से रातों-रात प्रकट और सक्रिय होकर ‘लाइव’ रह सकते हैं ? निश्चित ही इतने बड़े काम को बिना किसी संगठित गिरोह की मदद के अंजाम नहीं दिया जा सकता। चुनावों के समय तो ये पचास हज़ार अकाउंट पचास लाख और पाँच करोड़ भी हो सकते हैं ! हुए भी हों तो क्या पता ! ‘रिपब्लिक’ या गिरफ्त में आ गए कुछ और चैनल तो टीवी स्क्रीन के पीछे जो बड़ा खेल चलता है, उसके सामने कुछ भी नहीं हैं। वह खेल और भी बड़ा है और उसके खिलाड़ी भी बड़े हैं। उसके ‘वार रूम्स’ भी अलग से हैं।
सोशल मीडिया प्लेटफार्मों पर नामी हस्तियों के लिए जिस तरह से ‘फर्जी’ फॉलोअर्स और ‘लाइक्स’ की खऱीदी की जाती है, वे चैनलों के फर्ज़ीवाड़े से कितनी अलग हैं? एक प्रसिद्ध गायक (रैपर) द्वारा यू ट्यूब पर अपना रिकार्ड बनाने के लिए फ़ेक ‘लाइक्स’ और ‘फॉलोइंग’ खरीदने के लिए बहत्तर लाख रुपए किसी कम्पनी को दिए जाने की हाल की कथित स्वीकारोक्ति, क्या हमें कहीं से भी नहीं चौंकाती? ऐसी तो देश में हजारों हस्तियाँ होंगी, जिनके सोशल मीडिया अकाउंट बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ ही संचालित करती हैं और इसी तरह से उनके लिए ‘नकली फालोअर्स’ की फौज भी तैयार की जाती है।
सवाल यह भी है कि एक खास किस्म की विचारधारा, दल विशेष या व्यक्तियों को लेकर सच्ची-झूठी ‘खबरों’ की शक्ल में अखबारों तथा पत्र-पत्रिकाओं में ‘प्लांट’ की जाने की सूचनाएँ और उपलब्धियाँ दो-तीन या ज़्यादा चैनलों द्वारा टीआरपी बढ़ाने के लिए अपनाए जाने वाले हथकंडों से कितनी भिन्न हैं ? सरकारें अपने विकास कार्यों की संदेहास्पद उपलब्धियों के बड़े-बड़े विज्ञापन जारी करती हैं और मीडिया संस्थानों में उन्हें लपकने के लिए होड़ मची रहती है। राज्यों में मीडिया (पर नियंत्रण) के लिए विज्ञापनों का बड़ा बजट होता है, जिस पर पूरी निगरानी ‘ऊपर’ से की जाती है। लिखे, छपे, बोले और दिखाए जाने वाले प्रत्येक शब्द और दृश्य की कड़ी मॉनीटरिंग होती है और उसी से विज्ञापनों की शक्ल में बाँटी जाने वाली राशि तय होती है। बताया जाता है कि ‘सुशासन बाबू' के बिहार में सूचना और जन-सम्पर्क विभाग का जो बजट वर्ष 2014-15 में लगभग 84 करोड़ था, वह पाँच सालों (2018-19) में बढक़र 133 करोड़ रुपए से ऊपर हो गया। चालू चुनावी साल का बजट कितना है अभी पता चलना बाक़ी है। अनुमानित तौर पर इतनी बड़ी राशि का साठ से सत्तर प्रतिशत प्रचार-प्रसार माध्यमों को दिए जाने वाले सरकारी विज्ञापनों पर खर्च होता है। हाल में सरकार की ‘उपलब्धियों’ का नया वीडियो भी जारी हुआ है और वह ख़ूब प्रचार पा रहा है।
कोई भी चैनल या प्रचार माध्यम, जिनमें अख़बार भी शामिल है, कभी यह नहीं बताता या स्वीकार करता कि पिछले साल भर, महीने या सप्ताह के दौरान कितनी अपुष्ट और प्रायोजित खबरें प्रसारित-प्रकाशित की गईं, कितने लोगों और समुदायों की धार्मिक भावनाओं को चोट पहुँचाई गई, साम्प्रदायिक वैमनस्य फैलाने में क्या भूमिका निभाई गई! तब्लीगी जमात को लेकर जो दुष्प्रचार किया गया, वह तो अदालत के द्वारा बेनकाब हो भी चुका है। दिल्ली के दंगों में मीडिया की भूमिका का भी आगे-पीछे खुलासा हो जाएगा। एक चैनल पर बहस के बाद एक राजनीतिक दल से जुड़े प्रवक्ता की मौत ने क्या एंकरों की भाषा, जुबान और आत्माएँ बदल दी हैं या फिर सब कुछ पहले जैसा ही चल रहा है? कोरोना सहित बड़े-बड़े मुद्दों को दबाकर महीनों तक केवल एक अभिनेत्री और उसके परिवार को निशाने पर लेने का उद्देश्य क्या हकीकत में भी सिर्फ अपनी टीआरपी बढ़ाना था या फिर उसके कोई राजनीतिक निहितार्थ भी थे? ‘रिपब्लिक‘ चैनल या अर्नब जैसे ‘पत्रकार/एंकर’ कभी भी अकेले नहीं पडऩे वाले हैं! न ही मुंबई पुलिस द्वारा पर्दाफाश किए गए किसी भी फर्जीवाड़े में किसी को भी कभी कोई सजा होने वाली है। मारने वालों से बचाने वाले के हाथ काफी लंबे और बड़े हैं।
-श्रवण गर्ग
परस्पर विश्वास और प्रेम का पुल कितना ही मजबूत क्यों न हो, अगर उस पर संवाद का रंगरोगन न किया जाए, तो देर-सबेर दीमक लगने ही लगती है!
कई बार हम बहुत अधिक नजदीकी रिश्ते में संवाद को अनदेखा करते रहते हैं। एक साथ रहने, समय बिताने और साथ भोजन करने का यह अर्थ यह नहीं है कि हम हमेशा एक दूसरे के मन को ठीक से पढ़ पाएं। मन के भीतर चल रही उठापटक तक पहुंचने के लिए उससे कहीं अधिक आगे पहुंचना जरूरी है। इस तरह के अनेक अनुभव मिलते हैं, जब हमें पता चलता है कि किसी ऐसे व्यक्ति ने जीवन में अप्रिय निर्णय ले लिया, जिसकी इस तरह की कोई संभावना ही नहीं थी। फिर किसी दिन हमें पता चलता है, अरे! यह क्या हो गया। उसके बारे में तो कभी इस तरह सोचा ही नहीं था। वह भी ऐसा कदम उठा सकता है/सकती है! इसीलिए जीवन संवाद में हम सबसे अधिक जोर इस बात पर देते हैं कि हम एक-दूसरे के मन को शक्ति प्रदान करते रहें। परस्पर मन टटोलते रहें। ऐसा न हो कि भीतर कुछ घुटन चल रही हो, लेकिन हमें उसका एकदम अंदाजा ही न हो।
आज का संवाद खास है। अगर आपके छोटे भाई हैं, तो आप इस संवाद को जरूर पढ़ें। अगर आप खुद छोटे हैं, तो यह आपके लिए ही है।
इंदौर से जीवन संवाद के सुधी पाठक राजेश ठाकुर ने लिखा कि बहुत दिनों से वह महसूस कर रहे थे कि उनका छोटा भाई कुछ परेशानी में है, लेकिन जब भी वह बात करते, तो वह टाल देता- ‘मैं एकदम ठीक हूं, आप बेकार परेशान हो रहे हैं।’ राजेश, कोशिश तो कर रहे थे बात करने की, लेकिन आपसी रिश्तों का संकोच, परंपरावादी संयुक्त परिवार के कारण खुलकर बात कर पाने में हिचक रहे थे।
जब उनसे मेरी बात हुई, तो मैंने उन्हें विनम्रतापूर्वक सुझाव दिया कि इस काम में अपनी पत्नी को भी शामिल करें। उन्होंने बताया था कि उनकी पत्नी, छोटे भाई और उसकी पत्नी के बीच बहुत ही मधुर संबंध हैं। थोड़ी हिचक के बाद उन्होंने इस बात को स्वीकार कर लिया। वह, उनकी पत्नी और भाई चार घंटे के लिए एकदम अलग जगह मिले। बिल्कुल इत्मिनान से। बिना गुस्से में आए। एक-दूसरे को सुना गया। गलतियों को स्वीकार किया गया। आगे का रास्ता बुना गया। जबसे बातचीत हुई दोनों भाई सुकून में हैं।
परस्पर विश्वास और प्रेम का पुल कितना ही मजबूत क्यों न हो, अगर उस पर संवाद का रंगरोगन न किया जाए, तो देर-सबेर दीमक लगने ही लगती है!
संवाद से गुजरने के बाद राजेश ने बताया कि उनका भाई दस साल से बस इसी कोशिश में है कि किसी तरह रातोंरात अमीर बन जाए। दस साल से वह किसी एक काम में ध्यान देने की जगह रोज ही नए काम की तैयारी में जुटा रहता है। इसी कारण उसने अपनी शानदार नौकरी छोड़ दी थी। उसे अपने दोस्तों की तरह बिजनेस में अपार सफलता की संभावना दिख रही थी। उसके बाद उसे शुरुआती सफलता तो नहीं मिली, लेकिन वह आने वाली सफलता को संभालने की स्थिति में भी नहीं था। उसके पास पैसे खूब आए। जमकर आए, लेकिन दूसरों से नकल की होड़, स्वयं को सबसे बेहतर साबित करने की वजह से बेपनाह खर्च बढ़ते गए। हर छह महीने में नए दोस्त बनते गए। यहां तक कि एक समय ऐसा आया, जब राजेश खुद ही भाई से उपेक्षित महसूस करने लगे, लेकिन उनकी पत्नी की समझबूझ से दोनों भाइयों का रिश्ता टूटने से बचता रहा!
आज जब छोटा भाई कर्ज में डूबने की कगार पर है, तो वही बड़ा भाई उसे किनारे पर लाने के प्रयास कर रहा है, जिसे दोस्तों की भीड़ के बीच अकेला छोड़ दिया गया था।
यह संवाद छोटे-बड़े से अधिक एक-दूसरे के लिए दिल में जगह बचाए और बनाए रखने के लिए है। इसे हमेशा ध्यान में रखें! (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र
यह कहानी ईमानदार कोशिश के साथ परिवार की शक्ति को बताने वाली है। संकट का सामना करने में वित्तीय समझदारी से अधिक जीवन की आस्था, साहस की भूमिका होती है!
कोरोना के कारण दुनियाभर में छाए संकट के बीच कुछ ऐसी कहानियां जीवन संवाद को मिलीं, जिनमें जीवन की आस्था, मनुष्यता और साहस का गहरा बोध है। आज ऐसी ही एक कहानी के लिए आपको मैं भोपाल लिए चलता हूं। खेती-किसानी से जुड़े खाद-बीज, छोटे-छोटे उपकरण बनाने वाली एक कंपनी के बड़े अधिकारी अमिताभ त्रिवेदी नौकरी छोडक़र अपना काम शुरू करने का फैसला करते हैं। दस बरस पहले लिया गया फैसला सही साबित होता दिख रहा था। तभी उनके एक प्रोडक्ट की असफलता ने उनको भारी कर्ज की ओर धकेल दिया। देनदारियां इतनी बढ़ गईं कि अपना घर उन्हें गिरवी रखना पड़ा। उसके बाद भी बात नहीं बनी, तो बेचकर अपने ही घर में किराएदार बनना पड़ा। इस बीच उनके कारोबार में अहम भूमिका निभाने वाले पारिवारिक सदस्य के भ्रष्टाचार के बारे में जानकारी मिली।
पारिवारिक दृष्टि से वह व्यक्ति इतना महत्वपूर्ण था कि अचानक उस पर संदेह करना संभव नहीं था, लेकिन जांच-पड़ताल के बाद अमिताभ जब इस नतीजे पर पहुंचे कि उसकी गतिविधियां उनके कारोबार को डुबोने की ओर बढ़ रही हैं। उस व्यक्ति पर निर्भरता इतनी अधिक थी कि उसके बिना कारोबार के बारे में सोचना ही संभव नहीं था, लेकिन कड़े फैसले करते हुए अमिताभ ने उसे स्वयं से अलग कर लिया। नए सिरे से कंपनी को खड़ा करने का काम किया। ऐसा करते हुए हर दिन आर्थिक संकट बढ़ता गया। लगभग चार करोड़ रुपए तक!
उन्होंने अपने सभी लेनदारों को इकट्ठा किया। साफ-साफ सब कुछ बताया। जब इतना अधिक कर्ज हो, तो सबसे बड़ी चुनौती मानसिक संतुलन बनाए रखने की होती है। इस काम में उनकी पत्नी ने अपनी भूमिका का निर्वाह बेहद संवेदनशीलता, आत्मीयता से किया। अपने दोनों बच्चों की पढ़ाई-लिखाई को यथासंभव इस संकट से बचाए रखा। उन्होंने अपनी जीवनशैली को इतनी स्पष्टता और ईमानदारी से पैसा देने वालों के सामने रखा कि हर किसी ने इस बात का भरोसा किया कि अमिताभ का पैसा उनकी किसी लापरवाही, फिजूलखर्ची से नहीं डूबा, बल्कि विशुद्ध रूप से व्यापार में नुकसान के कारण हुआ। इसकी भी बड़ी वजह मौसम और तकनीकी विफलता है।
अमिताभ और उनकी पत्नी के साथ संवाद के दौरान मैंने इस बात को निरंतर महसूस किया कि पति-पत्नी की आपसी समझबूझ से किसी भी संकट को सरलता से सहा जा सकता है। अमिताभ के कर्ज अब धीरे-धीरे समाप्ति की ओर बढ़ रहे हैं। वह जोर देकर कहते हैं कि मृत्यु और शारीरिक बीमारी के अलावा कोई भी ऐसा संकट नहीं, जिसका समाधान न हो।
अपने इस संकट को संभालने की योग्यता उन्हें एक वित्तीय सलाहकार (कंसलटेंट) के रूप में भी बाजार में स्थापित कर रही है। अपने कारोबार के साथ वह नए लोगों को मुश्किल आर्थिक स्थितियों को संभालने की सलाह दे रहे हैं। यह कहानी ईमानदार कोशिश के साथ परिवार की शक्ति को बताने वाली है। संकट का सामना करने में वित्तीय समझदारी से अधिक जीवन की आस्था, साहस की भूमिका होती है!
‘जीवन संवाद’ के पाठकों को याद होगा, पिछले कुछ समय में हमें भोपाल, जयपुर और लखनऊ सहित देश के अनेक शहरों से ऐसी कहानियां मिलीं, जिनमें आर्थिक संकट के कारण आत्महत्या करने, एक शहर से दूसरे शहर चले जाने, अपनी पहचान छुपा लेने की बात है, लेकिन अमिताभ की यह कहानी कुछ और ही कहती है। अगर आपके व्यवहार में ईमानदारी है। आप अपनी कही बात/वादे निभाने का हुनर रखते हैं, तो मुश्किल समय में अगर बहुत से लोग आपका साथ छोड़ भी देते हैं, तो भी कुछ लोग जरूर आपके साथ खड़े रहते हैं! आपको संकट से बाहर निकालने के लिए बहुत से लोगों की नहीं, केवल कुछ लोगों की जरूरत होती है। कई बार तो एक ही व्यक्ति पर्याप्त होता है। हमें अपने सुख के दिनों में हमेशा यह ध्यान रखना चाहिए कि हमारा सबसे बड़ा संकटमोचक कौन है। जिनने संकट में मदद की, उनका हमेशा ख्याल रखिए। सुख की व्यस्तता में उनको मत भूलिए। मदद करते वक्त ध्यान रहे कि अपने लिए ही कुछ किया जा रहा है, दूसरों के लिए नहीं। जैसे हम पौधे लगाते हैं! (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र
दुनियाभर में आत्महत्या के बढ़ते आंकड़े बताते हैं कि पुरुष अपने जीवन को संभालने में स्त्रियों के मुकाबले कहीं कमजोर साबित हुए हैं। आंसुओं की कमी इसकी मुख्य वजहों में से एक है!
अपने जीवन के संघर्ष, तनाव को संभालने के मामले में दुनियाभर में स्त्रियां पुरुषों से कहीं आगे हैं। यही वजह है कि असमय अपने जीवन को समाप्त करने वाले पुरुषों की संख्या बहुत अधिक है। पुरुष स्त्रियों से दोगुनी संख्या में आत्महत्या कर रहे हैं। सामान्य सोच यह बताती है कि इस मामले में स्त्रियों की संख्या अधिक होगी, लेकिन आंकड़ों का अध्ययन यह नहीं कहता। इस बात को थोड़ा धीरज के साथ समझने की जरूरत है कि कोमलता, संवेदनशीलता और प्रेम को कमजोरी के रूप में देखने वाला पुरुष समाज आखिर इतना कठोर कैसे होता जा रहा है कि वह अपने ही जीवन को समाप्त करने के लिए तैयार हो जाता है। आत्महत्या की अनेक परतें हैं। एकदम प्याज की तरह परत के ऊपर परत। जिस तरह अच्छे से प्याज काटना हो तो आंसुओं से गुजरना होता है, उसी तरह मन की तह तक जाने के लिए जरूरी है कि हम उसके भीतर उतरते चले जाएं।
जीवन में कठोरता को हमने इतना अधिक जरूरी मान लिया कि कोमलता से लज्जित होने लगे। विनम्रता और शालीनता से बात करने को हमने उपेक्षित करना शुरू कर दिया। हमारे आसपास एक ऐसा वातावरण बनता जा रहा है, जहां हमारा वाचाल होना, बढ़-चढक़र दावे करना बहुत जरूरी बना दिया गया है! हमारी कोमलता पीछे छूटती जा रही है।
लाओत्से, कहते हैं, ‘तुमने कभी फूल की शक्ति देखी है। निर्बल होकर भी वह कितना शक्तिशाली है। उसे तुम ईश्वर को चढ़ाते समय नतमस्तक हो जाते हो। प्रेमिका को देते समय प्रेम से भर जाते हो। कोमलता ही जीवन है। हम सब रोते हुए ही इस दुनिया में आते हैं, लेकिन धीरे-धीरे आंसुओं से दूरी बना लेते हैं। यह दूरी ही हमें मनुष्यता से दूर धकेलती रहती है।’
हमें लाओत्से को ध्यान से सुनना होगा। कोमल बनने की ओर बढऩा होगा। आंसुओं को फिर से पुकारना है! भीतर फूल खिलने देना है, चट्टान नहीं। चट्टान यह सोचती जरूर है कि वह कितनी कठोर, बलशाली है, लेकिन वह भूल जाती है कि कमजोर दिखने वाली जल की धारा ही अंतत: जीतती है, चट्टान को रेत होकर बहना ही होता है!
लखनऊ से अवसाद से जूझ रहे एक युवा उद्योगपति ने फोन किया। कई हफ्तों की बातचीत के बाद उन्हें इस बात के लिए राजी किया जा सका कि भावनाओं को रोकें नहीं। खुद को सुपरमैन मानने से बचें, जब रोने का मन करे जीभर रो लें। आपसे यह कहते हुए प्रसन्नता हो रही है कि अब वह काफी बेहतर महसूस कर रहे हैं। दुनियाभर में आत्महत्या के बढ़ते आंकड़े बताते हैं कि पुरुष अपने जीवन को संभालने में स्त्रियों के मुकाबले कहीं कमजोर साबित हुए हैं। आंसुओं की कमी इनकी मुख्य वजहों में से एक है!
जिस पश्चिम की दुनिया की चकाचौंध में हम अक्सर डूबे रहते हैं, वहां तो जान देने वालों में पुरुषों की संख्या कहीं अधिक है। जापान में इस दिशा में कुछ वर्ष पहले से अद्भुत प्रयोग हो रहा है। वहां विश्वविद्यालय युवाओं को रोना सिखा रहे हैं। अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त करना सिखाया जा रहा है। दुख को जमने नहीं देना है। जमते-जमते वह मन के लिए भारी चट्टान बन जाता है। आंसू में वह शक्ति है, जो चट्टान को अपने कोमल स्पर्श से एक बार फिर रेत में बदल दे।
‘जीवन संवाद’ में हम लगातार कोशिश करते हैं कि मन को आंसुओं के नजदीक रख सकें। जैसे ही कोई व्यक्ति मन के दुख को आंसू उपलब्ध करा देता है, उसका बहुत सारा बोझ हल्का हो जाता है। सहज हो जाता है। अपने आसपास उन लोगों को देखिए, जो थोड़ी-सी बात पर भावुक हो जाते हैं। आप पाएंगे कि उनका मन और तन दोनों कहीं अधिक निरोगी हैं। स्वस्थ हैं। इस दिशा में पहला कदम यह होना चाहिए कि जब कोई रो रहा हो, तो उसे रोकें नहीं। उसके निर्मल बनने में उसके सहभागी बनें। अगर हम अपने लडक़ों को रोना सिखा सकें, तो संभव है दुनिया आगे चलकर कुछ सुंदर बन जाएगी।
पुरुष का आक्रोश और उसकी कुंठा सरलता से प्रेम की ओर बढ़ पाएंगे। यह जो पुरुषों की क्रूरता है, यह बरसों की आंसुओं से दूरी भी है। यह दूरी मिटाना सरल तो नहीं, लेकिन असंभव एकदम नहीं है! हम सबको जीवन की ओर बढऩे के लिए कठोरता के खोल से बाहर निकलने की जरूरत है! यह यात्रा स्वयं से शुरू होकर ही दुनिया की ओर जाएगी।
-दयाशंकर मिश्र
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत ने जब महाराष्ट्र से प्रकाशित होने वाली एक पत्रिका से अपने साक्षात्कार में कहा होगा कि पूरी दुनिया में भारत के मुस्लिम ही सबसे ज़्यादा संतुष्ट हैं, तब वे निश्चित ही कल्पना नहीं कर पाए होंगे कि एक राष्ट्रभक्त पारसी समूह और दक्षिण भारत के एक सार्वजनिक उपक्रम द्वारा संयुक्त रूप से संचालित आभूषण बनाने वाली कम्पनी तनिष्क द्वारा जारी किए जाने वाले वीडियो विज्ञापन के बाद राष्ट्रवादियों के झुंड उनके कहे की इस तरह से धज्जियाँ उड़ा देंगे ! इस हिंदी पत्रिका का नाम ‘विवेक’ बताया जाता है और भागवत का साक्षात्कार प्रकाशित होने के कोई पाँच दिन बाद ही ‘तनिष्क’ के खिलाफ मचे ‘सोशल बवाल’ ने देश में हिंदू-मुस्लिम संबंधों के ‘ज़मीनी विवेक’ की ‘गोदाई’ कर दी।
भारतीय त्योहारों के अवसर पर जारी किए जाने वाले अनूठे विज्ञापनों की तनिष्क की एक लम्बी श्रंखला है। विवाद का मुद्दा बनाए गए वीडियो विज्ञापन में एक ऐसी गर्भवती हिंदू महिला की ‘गोद भराई’ की रस्म के अत्यंत ही भावपूर्ण दृश्य हैं, जिसका विवाह एक मुस्लिम परिवार में हुआ है। ससुराल में हिंदू परम्परा के दृश्य से अभिभूत महिला जब अपनी मुस्लिम सास से सवाल करती है कि ऐसी रस्म तो उनके यहाँ नहीं होती तो वह (सास) जवाब देती है कि बेटी को ख़ुश रखने की रस्म तो हर घर में होती है।बवाल मचाने वालों ने अपनी ‘जनता ट्रायल’ में विज्ञापन को ‘लव-जिहाद’ को बढ़ावा देने वाला ठहरा दिया।
विरोध से घबराकर ‘तनिष्क’ ने अपने कर्मचारियों की हिफाजत के हित में विज्ञापन को वापस ले लिया।जिन लोगों ने विरोध किया वे उस छब्बीस-ग्यारह की बर्बरता को भूल गए, जब पाकिस्तानी आतंकवादियों ने इसी टाटा समूह के मुंबई स्थित ‘ताज होटल’ को खून की होली का मैदान बना दिया था और उसके सभी वर्गों के कर्मचारियों ने अपनी जानों की क़ुर्बानी देकर मेहमानों की जानें बचाई थीं।
मोहन भागवत एक बहुत ही विचारशील व्यक्ति हैं। ऐसा माना जाता है कि वे काफ़ी सोच-विचारकर ही कुछ कहते हैं, जिसमें यह भी शामिल होता है कि उनके कहे के बाद उसकी धार्मिक-राजनीतिक प्रतिक्रिया क्या हो सकती है! पर सवाल यह भी है कि भागवत या अन्य कोई विचारक कभी भी यह दावा क्यों नहीं करते कि दलित और पिछड़े वर्गों के लोग भी सबसे ज़्यादा भारत में ही संतुष्ट हैं ?
जब किसी प्रतिष्ठित हिंदू संगठन के सम्मानित व्यक्ति द्वारा केवल एक समुदाय विशेष को लेकर ही इस तरह का कोई दावा किया जाता है तो उससे जो ध्वनि निकलती है, वह कुछ अलग तरह से महसूस की जाती है। और वह यह कि जिन लोगों की संतुष्टि की बात कही जा रही है, उन्हें तो वास्तव में भारत देश में उस तरह से निवास करने की नैतिक पात्रता ही नहीं है, जैसी कि बाकी वर्गों और समुदायों को है। इस सवाल को तो खैर कोई उठा ही नहीं सकता कि सभी हिंदू भी वास्तव में संतुष्ट हैं या नहीं जबकि भारत को ‘मूलत:’ उन्हीं का देश माना जाता है। ऐसा मानकर चला जाता है कि अगर रहवासी बहुसंख्यक समुदाय का है तो उसके असंतुष्ट होने का तो कभी कोई कारण हो ही नहीं सकता।
हकीकत यह है कि लगभग सभी राजनीतिक दल, जिनमें कांग्रेस भी शामिल है, स्वतंत्रता प्राप्ति के सात दशकों से ज़्यादा समय बाद भी करोड़ों की एक बड़ी आबादी को कोई ‘आत्माधारी’ शरीर नहीं बल्कि एक ‘विषय’ (सब्जेक्ट) मानते हैं। इन दलों के सामने सवाल इस आबादी को विकास (या विज्ञापनों में भी!) बराबरी की भागीदारी प्रदान कराने का नहीं बल्कि यह है कि उसे अपने आपको देश की ‘मुख्यधारा’ में शामिल होने के बारे में सोचना चाहिए। उस मुख्यधारा में जो कि उसके लिए अदृश्य बना दी गई है।भारत को इस आबादी का देश ही नहीं माना जाता। उसे एक ऐसा मेहमान या शरणार्थी समझा जाता है, जो या तो ट्रेन छूट जाने के कारण अपने लिए निर्धारित वतन को रवाना नहीं हो पाया या फिर वह जान-बूझकर ही विलम्ब से स्टेशन पर पहुँचा।यह कोई नहीं बताता कि ‘मुख्यधारा’ आखिर किस कसौटी या बलिदान को माना जाएगा ! तनिष्क के विज्ञापन की बात करें तो उसकी एक परिभाषा यही निकलती है कि बहू अगर मुस्लिम और सास हिंदू होती तो ‘गोद भराई’ देश की मुख्यधारा में शामिल मान ली जाती।
दलित महिलाओं के साथ उच्च वर्गों से संबंध रखने वाले अपराधियों द्वारा बलात्कार, रात के अंधेरे में उनका प्रशासन द्वारा शव-दाह और सत्ताओं में बैठे लोगों (उत्तरप्रदेश ,राजस्थान, मध्यप्रदेश, ओडिशा आदि सभी शामिल हैं) द्वारा उनका बचाव-यह देश की कौन सी मुख्यधारा है, जिसके जरिए हम दुनिया की महाशक्ति बनना चाह रहे हैं ?
चिंता इस बात की नहीं है कि एक पारसी मालिक के आधिपत्य वाली कम्पनी द्वारा जारी विज्ञापन का इतने आक्रामक तरीके से विरोध किया गया ( गांधीधाम, गुजरात में तो धमकियों के बाद ‘तनिष्क’ के एक शोरूम के बाहर एक माफीनामा उसके मैनेजरों को गुजराती भाषा में चिपकाना पड़ा) कि उसे आनन-फानन में वापस लेना पड़ा और टाटा समूह की समूची देशभक्ति कठघरे में खड़ी कर दी गई, ज़्यादा क्षोभ यह है कि सत्ता और संगठनों के उच्च पदों पर बैठे लोगों ने भी इस नए कि़स्म के राष्ट्रवाद पर अपनी कोई आपत्ति या प्रतिक्रिया नहीं व्यक्त की।
सवाल यह भी है कि जब अति विशिष्ट लोगों के द्वारा इस तरह के दावे किए जाएँ कि मुस्लिम सबसे ज़्यादा संतुष्ट हैं, महिलाएँ सबसे ज़्यादा सुरक्षित हैं, दलितों और पिछड़ों के सम्मान की पूरी रक्षा की जाएगी तो उस पर कोई सवालिया निशान क्या केवल उन लोगों के द्वारा ही लगाए जाने चाहिए जो कि वास्तव में पीडि़त हैं या फिर उनके द्वारा भी जो राजनीतिक शोषण की समूची व्यवस्था को मज़बूत करने में अपनी भागीदारी निभा रहे हैं ?
-श्रवण गर्ग
बच्चे पेड़ के पत्ते नहीं हैं, जो वह पेड़ की मर्जी से ही कदमताल करें। उनका स्वतंत्र जीवनबोध है। इस बात को हम जितनी सरलता से स्वीकार कर लेंगे, हमारे रिश्ते उतने ही महकेंगे।
जीवन में यात्रा का कितना महत्व है। यात्राएं बंद होने पर यह बात समझ में आती है। यात्रा बंद होने का अर्थ हुआ, अब जीवन के तट पर काई जमने लगेगी। जो हमेशा ही चलने को तत्पर है, जीवन का आनंद उसे ही मिलेगा! खानाबदोशी, जीवनशैली है, जिसे हासिल हुई, वही आनंद बता सकता है। अष्टावक्र के दृष्टांत को पढ़ते-समझते हुए ‘खानाबदोश’ शब्द के नए अर्थ मिले। रजनीश कहते हैं, खाना यानी घर और बदोश यानी कंधे पर।
जिसका घर अपने कंधे पर है, वही खानाबदोश। जो खानाबदोश है, वही जीवन का मर्म समझ पाएगा। वह कहते हैं, ठहरना मत यहां, अधिक से अधिक टेंट लगा लेना। लेकिन रुक मत जाना! मनुष्य के रूप में हमें कितनी आजादी और स्वतंत्रता मिली है, यह बात हम स्वयं ही भूल चुके हैं। इसलिए, हम नई-नई जकडऩें तैयार करते रहते हैं। नए-नए बंधन बांधे ही जाते हैं। इन बंधनों को ही हम कामयाबी समझते हैं। जबकि असली कामयाबी है, हमारी चेतना की स्वतंत्रता।
जीवन संवाद को रांची? से एक ई-मेल मिला। पिता राधेश्याम जी ने चिंतित होकर पूछा है, ‘मेरा बेटा मेरे बताए रास्ते पर नहीं चलता। इससे हमारे बीच बहुत मुश्किल हो गई है। समझ में नहीं आ रहा क्या किया जाए! कैसे इस परिस्थिति को संभालूं। सरकारी कर्मचारी हूं, अब रिटायरमेंट नजदीक है, लेकिन बेटा मेरी किसी बात पर राजी नहीं। सोचता हूं रिटायरमेंट से पहले उसकी शादी कर दूं। लेकिन वह तैयार नहीं। मैं चाहता हूं सरकारी नौकरी करे, लेकिन वह अपनी प्राइवेट नौकरी से ही संतुष्ट है। जहां उसे पैसे तो ठीक मिल रहे हैं, लेकिन नौकरी की गारंटी नहीं’!
मैं राधेश्याम जी के प्रश्न के बाद से ही सोच रहा हूं कि संकट क्या है? यह अकेले उनका संकट नहीं है। अधिकांश भारतीय माता-पिता अभी भी अपने बच्चों को उसी चश्मे से देख रहे हैं, जो चश्मा खुद उनकी नजऱ के हिसाब से सही नहीं है। अभिभावक होने का अर्थ यह नहीं कि आप हर वक्त केवल इसी चिंता में घुलते रहें कि आपका बच्चा आपके हिसाब से सपने नहीं बुन रहा। राधेश्याम जी से मैंने कहा, ‘क्या उन्होंने पिता का मनचाहा सपना पूरा किया था? क्या उन्होंने पिता की हर बात मानी थी’।
उन्होंने मजेदार उत्तर दिया, ‘अगर मैं उनका कहा मानता, तो मैं किसान ही बना रहता अफसर नहीं बन पाता’। मैंने कहा, ‘जो आप नहीं कर पाए, उसकी अपेक्षा बेटे से मत करिए’!
खानाबदोशी का अर्थ केवल इतना नहीं है कि हम यहां-वहां टहलते रहें। उससे अधिक यह हर व्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रतिनिधि विचार है। अपने बच्चों को निर्णय लेने की स्वतंत्रता देना। जीवन में बहुत बड़ा कदम है, दिखने में छोटा, लेकिन यह मन? में नन्हा पौधा लगाने जैसा है! बड़े से बड़ा वृक्ष भी पौधे से ही तैयार होता है। हम अपने आसपास व्यक्तियों को जितनी स्वतंत्रता दे पाएंगे, और वह उस स्वतंत्रता का जितना सार्थक उपयोग कर पाएंगे, हमारा जीवन उतना ही रचनात्मक होगा।
जीवन को बांधना नहीं है, उसे बहने देना है। कई बार बच्चों पर थोपा गया अत्यधिक अनुशासन उनकी रचनात्मकता के रास्ते रोक लेता है। आत्मविश्वास से उनको आगे नहीं बढऩे देता, क्योंकि सारे निर्णय कोई और कर रहा होता है।
बच्चे पेड़ के पत्ते नहीं हैं, जो वह पेड़ की मर्जी से ही कदमताल करें। उनका स्वतंत्र जीवनबोध है। इस बात को हम जितनी सरलता से स्वीकार कर लेंगे, हमारे रिश्ते उतने ही महकेंगे।
-दयाशंकर मिश्र
जब से नरेन्द्र दामोदर दास मोदी प्रधानमंत्री बने हैं, तब से देश में ‘गोमूत्र-गोबर विज्ञान’ का तीव्र गति से और ऐतिहासिक तथा अद्भुत विकास हुआ है। ऐसा विकास तो ऋषिमुनि सतयुग तथा त्रेतायुग में भी नहीं कर पाए थे। कांग्रेस वगैरह भी इस किस्म का विकास करने के योग्य नहीं थींं बल्कि अटलबिहारी वाजपेयी भी लगता है, यह काम मोदीजी के लिए छोड़ गए थे।
मैं तो प्रतीक्षा कर रहा था कि गोमूत्र-गोबर-विज्ञान (गोगोवि) मेंं उनके इस महती योगदान के लिए इस बार का चिकित्सा या रसायन का नोबल पुरस्कार प्रधानमंत्री को दिया जाएगा मगर खेद है कि निर्णायकों की दृष्टि अमेरिका और यूरोप के बाहर नहीं जाती। हमें एकमत से इसका विरोध करना चाहिए और 2021 में गोगोवि के विकास के लिए यह पुरस्कार मोदीजी को मिले, यह सुनिश्चित करना चाहिए। नोबेल कमेटी को यह चेतावनी देना चाहिए कि अगर अगला नोबेल पुरस्कार मोदीजी को नहीं दिया तो भविष्य में कोई भी भारतीय इसे स्वीकार नहीं करेगा। इतना ही नहींं भारतवासी कैलाश सत्यार्थी भी इसे वापिस कर देंगे।
अमेरिका के प्रवासी भारतीयों के एक बड़े हिस्से का यह नैतिक कर्तव्य है कि वे न केवल ट्रंप को जिताएँ बल्कि उनका अगला मिशन ‘मोदी-नोबेल’ होना चाहिए। इस पुण्य कार्य में वे ब्रिटेन आदि के प्रवासियों का भी सहयोग ले सकते हैं।बाकी यहाँ भक्तमंडली है ही। वह इसके लिए जीजान लड़ा देगी। बिहार और पश्चिम बंगाल के चुनाव के बाद उनका यही मिशन -2021 होना चाहिए।
प्रसन्नता की बात है कि गोगोवि में नित नई प्रगति चालू है। अभी बीते मंगलवार को कोई राष्ट्रीय कामधेनु आयोग है,उसके कोई अध्यक्ष हैं- वल्लभ भाई कथीरिया। उन्होंने हमें नवीनतम वैज्ञानिक ज्ञान दिया है कि गाय का गोबर एंटीरेडिएशन है। इसका इस्तेमाल मोबाइल में किया जा सकता है। चाहें तो इस ज्ञान का फायदा उठाकर मुकेश अंबानी, जियो को आगे और आगे रख सकते हैं।
गोगोवि के वैज्ञानिक आज भारत के कोने-कोने में फैले हुए हैं। बहुसंख्यकों के किसी भी मोहल्ले के किसी भी घर पर पत्थर मारो, 99 फीसदी से अधिक संभावना है कि वहाँ एक या अधिक गोगोवि वैज्ञानिक मिल जाएँँगे। इनकी संख्या इतनी बड़ी है कि जिन्हें बाकायदा वैज्ञानिक माना जाता है, वे इनके आगे कहीं नहीं ठहरते। विश्व के सारे वैज्ञानिकोंं की संख्या भी इनके आगे बमुश्किल दो प्रतिशत होगी।
यह भारत के लिए गौरव की बात है मगर 21वीं सदी के महान भारतीय वैज्ञानिक मोदीजी का इस पर गौरव प्रकट न करना लज्जा का विषय है। उनकी अचूक दृष्टि से भारत की यह श्रेष्ठ उपलब्धि चूक सकती है, इस पर भरोसा नहीं होता मगर करना पड़ रहा है।
गोमूत्र-गोबर वैज्ञानिकों की एक अत्यंत लोकप्रिय और अत्यंत सामयिक खोज है कि गोमूत्र से कोरोना ठीक हो सकता है। इसके अलावा कैंसर के इलाज में भी यह कारगर है। अगर मोदीजी एम्स समेत सब जगह कोरोना और कैंसर के इलाज में गोमूत्र सेवन अनिवार्य कर देंं तो कोरोना और कैंसर लंगोट छोडक़र भारत से हमेशा के लिए भाग जाएँगे। यह मिशन आत्मनिर्भरता की दिशा में एक बड़ा कदम होगा और 2024 के आमचुनाव में मोदीजी की विजय का यह विश्वगुरु टाइप नुस्खा साबित होगा। भारत की विश्व गुरू फिर से बनाने का जो मजाक उड़ाते हैं, उनके मुँह क्या जो-जो भी अंग बंद हो सकते हैंं, सब बंद हो जाएँँगे। ऐसे लोग मास्क पहनकर भी मुँह दिखाने लायक नहीं रह जाएँगे। मोदीजी स्ट्रेटेजिक गलती न करें और हर पिछले प्रधानमंत्री का हर रिकॉर्ड तोड़ते हुए नोबल पुरस्कार की दिशा में मजबूती से कदम बढ़ाएँ।
एक गोगोवि वैज्ञानिक ने शोध किया है कि गाय आक्सीजन लेती है और आक्सीजन ही छोड़ती है। यह ब्रह्मांड की सबसे बड़ी खोज है। इस वैज्ञानिक के आगे आइंस्टीन भी छूंछे साबित होते हैं। एक खोज यह भी है कि बंसी की धुन सुनकर गाय ज्यादा दूध देने लगती है। शायद पड़ोसन गाय से उधार लेकर दे देती होगी। वैसे भी गाय माँँ होने के कारण दयालु होती है। गोगोवि के क्षेत्र में इस बीच इतनी अधिक खोजें हुई हैं कि मैं कंप्यूटर को कलम समझकर सबकुछ लिखने की कोशिश करूँगा तो उसकी हार्डड्राइव फट जाएगी या गौरव से फूला हुआ मेरा सीना या दोनों एकसाथ।मैं इतना स्वार्थी हूँ कि दोनों की रक्षा करना चाहता हूँ। अत: इति गोमूत्र-गोबर विज्ञान पुराणे रेवाखंडे करके आपसे अनुमति चाहता हूँ।
-विष्णु नागर
जो अपने भीतर करुणा, प्रेम और कोमलता रखते हैं। उनके भीतर ही कुछ घटने की संभावना अधिक होती है। जीवन का सुख चट्टान से अधिक मिट्टी में है!
एक ही जैसी घटनाओं पर हमारे विचार अक्सर अलग-अलग होते हैं। यहां तक तो ठीक है, लेकिन अगर हम चीजों को ध्यान से देखने लगें, ढंग से देखने लगें, तो पाते हैं कि देखने के एक ढंग से चीज एक तरह से दिखाई पड़ती है। दूसरे ढंग से दूसरी तरह की दिखाई पड़ती है। चीज तो वही है, लेकिन हमारा देखने का ढंग मायने बदल देता है! घटना एक जैसी ही घटती है, हम सबके जीवन में, लेकिन हमारी दृष्टि की भिन्नता अर्थ बदल देती है। हम लोग जीवन में कितनी ही शव यात्राएं देखते हैं। बुजुर्ग बीमारों को देखते हैं, लेकिन हम पर कोई असर नहीं होता। सिद्धार्थ एक दिन देख लेते हैं और उसके बाद वह कभी सिद्धार्थ नहीं रह पाते। वह हमेशा के लिए गौतम बुद्ध बन जाते हैं। अगर बुढ़ापा और अंतिम यात्रा देखने से जीवन की दृष्टि बदलती, तो हम सब बदल चुके होते, लेकिन ऐसा नहीं है। बदलता केवल वही है, जिसके भीतर कुछ घुमड़ रहा हो। बिना बादल के बारिश नहीं होती। बादल होने ही चाहिए और वह भी भीतर से भरे हुए!
एक छोटी-सी कहानी कहता हूं आपसे, संभव है इससे मेरी बात अधिक स्पष्ट हो पाएगी। एक दिन एक राजा ने सपना देखा कि उसके महल के छप्पर पर कोई चल रहा है। उसने जाकर पूछा, ‘तुम कौन हो और छत पर क्या कर रहे हो’? व्यक्ति ने कहा, ‘मेरा ऊंट गुम गया है। उसे ही खोज रहा हूं’। राजा को हंसी आ गई। उसने कहा, ‘तुम पागल मालूम होते हो। कभी छप्पर पर भी ऊंट मिलता है’!
ऊंट खोजने वाले ने कहा, ‘कैसी बात करते हो! अगर तुम्हारे धन और वैभव से सुख मिल सकता है, तो ऊंट भी छप्पर पर मिल सकता है’। राजा को नींद न आई उसके बाद, रातभर। कुछ दिन पहले उसने किसी से इसी तरह की बात कही थी कि सुख तो धन और साधन में है। राजा ने नगर में सब ओर अपने गुप्तचर दौड़ा दिए और कहा कि पता लगाइए कोई बड़ा फकीर आया है।
सैनिक तो खोज न सके, लेकिन एक दिन एक सूफी फकीर ने महल के दरवाजे पर आकर कहा, ‘जाओ, राजा से कहो, इस सराय में मैं रुकना चाहता हूं। मैं पहले भी यहां ठहरता रहा हूं।’ दरबान ने कहा, ‘आपको कोई गलतफहमी हो गई है! यह सराय नहीं, राजा का महल है’। बात काफी बढ़ गई। राजा तक पहुंची, तो वह दौड़ा हुआ चला आया। वह आदरपूर्वक उनको ले आया।
राजा ने फकीर से पूछा, ‘आप इस महल में जब तक चाहें, रहें, लेकिन इस महल को आप सराय क्यों कह रहे हैं, मैं समझ नहीं पा रहा हूं’। फकीर ने कहा, ‘मैं पहले भी यहां आया था, लेकिन तब यहां के राज सिंहासन पर कोई और बैठा था’। राजा ने कहा, ‘वह मेरे पिता थे’। फकीर ने कहा, ‘उसके पहले आया, तो कोई और था! राजा ने कहा, ‘वह मेरे दादा थे’!
फकीर ने ठहाका लगाते हुए कहा, ‘इसीलिए तो मैं इसे सिंहासन कह रहा हूं। यहां लोग बैठते हैं, फिर चल देते हैं। तुम भी भला कितनी देर बैठोगे। यह घर नहीं है। घर तो वहां होता है, जहां बस गए हो बस गए! जहां से हटना संभव न हो’।
सुनते हैं फकीर की बात सुनकर राजा सिंहासन से उतर आया और फकीर से प्रणाम करके कहा, ‘यह सराय है। आप यहां रुकें, मैं जाता हूं’। ऐसा नहीं है कि यह शब्द केवल फकीर ने उस राजा से ही कहे होंगे। फकीर तो एक ही जैसी बात सबसे करते हैं। उनको हमारे कुछ होने और न होने से कोई सरोकार नहीं। जो अपने भीतर करुणा, प्रेम और कोमलता रखते हैं। उनके भीतर ही कुछ घटने की संभावना अधिक होती है। जीवन का सुख चट्टान से अधिक मिट्टी में है! जहां नमी नहीं होगी, वहां कोमलता कैसे होगी। कोमलता के बिना प्रेम, अहिंसा को उपलब्ध होना संभव नहीं। इनके बिना जीवन को पाना सरल नहीं है। जिंदगी बांहें फैलाए खड़ी है, लेकिन कदम हमें ही बढ़ाना है।
-दयाशंकर मिश्र
क्या चिंता केवल यहीं तक सीमित कर ली जाए कि कुछ टीवी चैनलों ने विज्ञापनों के ज़रिए धन कमाने के उद्देश्य से ही अपनी टीआरपी बढ़ाने के लिए उस बड़े फर्ज़ीवाड़े को अंजाम दिया होगा जिसका कि हाल ही में मुंबई पुलिस ने भांडाफोड़ किया है ? या फिर जब बात निकल ही गई है तो उसे दूर तक भी ले जाया जाना चाहिए ? मामला काफ़ी बड़ा है और उसकी जड़ें भी काफ़ी गहरी हैं। यह केवल चैनलों द्वारा अपनी टीआरपी (टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट) बढ़ाने तक सीमित नहीं है।
पूछा जा सकता है कि इस भयावह कोरोना काल में जब दुनियाभर में राष्ट्राध्यक्षों की लोकप्रियता में सेंध लगी पड़ी है, डोनाल्ड ट्रम्प जैसे चतुर खिलाड़ी भी अपने से एक अपेक्षाकृत कमज़ोर प्रतिद्वंद्वी से ‘विश्वसनीय’ ओपीनियन पोल्स में बारह प्रतिशत से पीछे चल रहे हैं, हमारे यहाँ के जाने-माने मीडिया प्रतिष्ठान द्वारा करवाए जाने वाले सर्वेक्षण में प्रधानमंत्री मोदी को 66 और राहुल गांधी को केवल आठ प्रतिशत लोगों की पसंद बतलाए जाने का आधार आखऱि क्या है ? मोदी का पलड़ा निश्चित ही भारी होना चाहिए, पर क्या उनके और राहुल के बीच लोकप्रियता का गड्ढा भी अर्नब के ‘रिपब्लिक’ और दूसरे चैनलों के बीच की टीआरपी के फक़ऱ् की तरह ही संदेहास्पद नहीं माना जाए? इस बात का पता कहाँ के पुलिस कमिश्नर लगाएँगे कि प्रभावशाली राजनीतिक सत्ताधारियों की लोकप्रियता को जाँचने के मीटर देश में किस तरह के लोगों के घरों में लगे हुए हैं ?
जनता को भ्रम में डाला जा रहा है कि टीआरपी का फर्ज़ीवाड़ा केवल विज्ञापनों के चालीस हज़ार करोड़ के बड़े बाज़ार में अपनी कमाई को बढ़ाने तक ही सीमित है। हक़ीक़त में ऐसा नहीं है। दांव पर और कुछ इससे भी बड़ा लगा हुआ है। इसका सम्बंध देश और राज्यों में सूचना तंत्र पर क़ब्ज़े के ज़रिए राजनीतिक आधिपत्य स्थापित करने से भी हो सकता है। देशभर में अनुमानत: जो बीस करोड़ टीवी सेट्स घरों में लगे हुए हैं और उनके ज़रिए जनता को जो कुछ भी चौबीसों घंटे दिखाया जा सकता है, वह एक ख़ास कि़स्म का व्यक्तिवादी प्रचार और किसी विचारधारा को दर्शकों के मस्तिष्क में बैठाने का उपक्रम भी हो सकता है। वह विज्ञापनों से होनेवाली आमदनी से कहीं बड़ा और किसी सुनियोजित राजनीतिक नेटवर्क का हिस्सा हो तो भी कोई आश्चर्य की बात नहीं।
क्या कोई बता सकता है कि सुशांत सिंह राजपूत मामले में मुंबई पुलिस को बदनाम करने के लिए हज़ारों (पचास हज़ार ?) फ़ेक अकाउंट सोशल मीडिया पर रातों-रात कैसे उपस्थित हो गए और इतने महीनों तक सक्रिय भी कैसे रहे? इतने बड़े फर्ज़ीवाड़े के सामने आने के बाद सत्ता के गलियारों से अभी तक भी कोई आधिकारिक प्रतिक्रिया सामने क्यों नहीं आई? सोशल मीडिया पर इतनी बड़ी संख्या में फज़ऱ्ी अकाउंट क्या देश की किसी बड़ी राजनीतिक हस्ती या दल के खिलाफ इसी तरह से रातों-रात प्रकट और सक्रिय होकर ‘लाइव’ रह सकते हैं ? निश्चित ही इतने बड़े काम को बिना किसी संगठित गिरोह की मदद के अंजाम नहीं दिया जा सकता। चुनावों के समय तो ये पचास हज़ार अकाउंट पचास लाख और पाँच करोड़ भी हो सकते हैं !हुए भी हों तो क्या पता ! ‘रिपब्लिक’ या गिरफ़्त में आ गए कुछ और चैनल तो टीवी स्क्रीन के पीछे जो बड़ा खेल चलता है, उसके सामने कुछ भी नहीं हैं। वह खेल और भी बड़ा है और उसके खिलाड़ी भी बड़े हैं। उसके ‘वार रूम्स’ भी अलग से हैं।
सोशल मीडिया प्लेटफ़ार्मों पर नामी हस्तियों के लिए जिस तरह से ‘फज़ऱ्ी’ फ़ॉलोअर्स और ‘लाइक्स’ की खऱीदी की जाती है, वे चैनलों के फर्ज़ीवाड़े से कितनी अलग हैं ? एक प्रसिद्ध गायक (रैपर) द्वारा यू ट्यूब पर अपना रिकार्ड बनाने के लिए फ़ेक ‘लाइक्स’ और ‘फ़ॉलोइंग’ खऱीदने के लिए बहत्तर लाख रुपए किसी कम्पनी को दिए जाने की हाल की कथित स्वीकारोक्ति, क्या हमें कहीं से भी नहीं चौंकाती ? ऐसी तो देश में हज़ारों हस्तियाँ होंगी, जिनके सोशल मीडिया अकाउंट बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ ही संचालित करती हैं और इसी तरह से उनके लिए ‘नक़ली फ़ालोअर्स’ की फ़ौज भी तैयार की जाती है।
सवाल यह भी है कि एक ख़ास कि़स्म की विचारधारा, दल विशेष या व्यक्तियों को लेकर सच्ची-झूठी ‘खबरों’ की शक्ल में अख़बारों तथा पत्र-पत्रिकाओं में ‘प्लांट’ की जाने की सूचनाएँ और उपलब्धियाँ दो-तीन या ज़्यादा चैनलों द्वारा टीआरपी बढ़ाने के लिए अपनाए जाने वाले हथकंडों से कितनी भिन्न हैं ? सरकारें अपने विकास कार्यों की संदेहास्पद उपलब्धियों के बड़े-बड़े विज्ञापन जारी करती हैं और मीडिया संस्थानों में उन्हें लपकने के लिए होड़ मची रहती है। राज्यों में मीडिया (पर नियंत्रण) के लिए विज्ञापनों का बड़ा बजट होता है, जिस पर पूरी निगरानी ‘ऊपर’ से की जाती है। लिखे, छपे, बोले और दिखाए जाने वाले प्रत्येक शब्द और दृश्य की कड़ी मॉनीटरिंग होती है और उसी से विज्ञापनों की शक्ल में बाँटी जाने वाली राशि तय होती है। बताया जाता है कि ‘सुशासन बाबू’ के बिहार में सूचना और जन-सम्पर्क विभाग का जो बजट वर्ष 2014-15 में लगभग 84 करोड़ था, वह पाँच सालों (2018-19) में बढक़र 133 करोड़ रुपए से ऊपर हो गया।चालू चुनावी साल का बजट कितना है अभी पता चलना बाक़ी है। अनुमानित तौर पर इतनी बड़ी राशि का साठ से सत्तर प्रतिशत प्रचार-प्रसार माध्यमों को दिए जाने वाले सरकारी विज्ञापनों पर खर्च होता है।हाल में सरकार की ‘उपलब्धियों’ का नया वीडियो भी जारी हुआ है और वह ख़ूब प्रचार पा रहा है।
कोई भी चैनल या प्रचार माध्यम, जिनमें अख़बार भी शामिल है, कभी यह नहीं बताता या स्वीकार करता कि पिछले साल भर, महीने या सप्ताह के दौरान कितनी अपुष्ट और प्रायोजित खबरें प्रसारित-प्रकाशित की गईं, कितने लोगों और समुदायों की धार्मिक भावनाओं को चोट पहुँचाई गई, साम्प्रदायिक वैमनस्य फैलाने में क्या भूमिका निभाई गई ! तब्लीगी जमात को लेकर जो दुष्प्रचार किया गया, वह तो अदालत के द्वारा बेनक़ाब हो भी चुका है। दिल्ली के दंगों में मीडिया की भूमिका का भी आगे-पीछे खुलासा हो जाएगा। एक चैनल पर बहस के बाद एक राजनीतिक दल से जुड़े प्रवक्ता की मौत ने क्या एंकरों की भाषा, ज़ुबान और आत्माएँ बदल दी हैं या फिर सब कुछ पहले जैसा ही चल रहा है? कोरोना सहित बड़े-बड़े मुद्दों को दबाकर महीनों तक केवल एक अभिनेत्री और उसके परिवार को निशाने पर लेने का उद्देश्य क्या हक़ीक़त में भी सिफऱ् अपनी टीआरपी बढ़ाना था या फिर उसके कोई राजनीतिक निहितार्थ भी थे? ‘रिपब्लिक’ चैनल या अर्नब जैसे ‘पत्रकार/एंकर’ कभी भी अकेले नहीं पडऩे वाले हैं! न ही मुंबई पुलिस द्वारा पर्दाफाश किए गए किसी भी फर्जीवाड़े में किसी को भी कभी कोई सजा होने वाली है। मारने वालों से बचाने वाले के हाथ काफी लम्बे और बड़े हैं।
-श्रवण गर्ग
छोटी-छोटी बात पर हम रिश्ते खत्म करने लगें, तो कोई रिश्ता बाकी ही न रहेगा। सहना, असल में प्रेम का ही पर्यायवाची है। सहना, मनमुटाव से कहीं अधिक प्रेम के निकट है। महाभारत इसकी सरल व्याख्या है!
डॉ. राही मासूम रजा ने महाभारत के संवाद लिखते समय बेहद खूबरसूरत, एक से बढक़र एक शब्दों का उपयोग किया। इन्हीं में से एक कौरव-पांडवों के बीच निर्णायक युद्ध के समय का है। कर्ण के सामने सहदेव हैं। जाहिर है, मुकाबला बराबरी का नहीं है। अपने वचन से बंधे कर्ण, सहदेव को घायल करके आगे बढ़ जाते हैं। जाते हुए वह सहदेव से इतना ही कहते हैं, शिविर में जाकर स्नेहलेप लगाओ, युद्ध अपनी बराबरी वालों से किया जाता है। कितना सुंदर शब्द है, स्नेहलेप! सहदेव को स्नेहलेप की उस समय जितनी जरूरत रही होगी, उससे कहीं अधिक जरूरत इस समय हमारे समाज को है। हम सब एक-दूसरे के लिए बहुत अधिक कठोर होते जा रहे हैं।
हम भूल रहे हैं कि प्रेम ही सर्वोत्तम मार्ग है। हमें एक-दूसरे को सहन, बर्दाश्त करना सीखना होगा। सहनशीलता कमजोरी नहीं, जीवनशैली है। प्रेम को संभालने की कला ही हमें स्नेहन की ओर ले जाएगी। कटु स्मृति, वचन और अपमान स्नेहलेप की प्रतीक्षा में हैं।
एक-दूसरे को बर्दाश्त करने, सहन करने का अर्थ यह नहीं कि हम किसी के अत्याचार को सहन करने की बात कर रहे हैं। परस्पर सहने, बर्दाश्त करने के मायने हुए कि हम गुणों के बीच जितना एक-दूजे की कमजोरी का ख्याल कर जाएं, उस समय जबकि गुस्सा सातवें आसमान पर होता है। मेरे अपने जीवन में मुझसे उम्र में कहीं बड़े एक व्यक्ति हुए जिनसे गहरा प्रेम तो था, लेकिन अनेक विषयों पर भारी असहमति थी।
असहमति के बीच भी हमने एक-दूसरे को बर्दाश्त करना नहीं छोड़ा। अंतत: असहमति गल गई। केवल प्रेम बाकी रहा। छोटी-छोटी बात पर हम रिश्ते खत्म करने लगें, तो कोई रिश्ता बाकी ही न रहेगा। सहना, असल में प्रेम का ही पर्यायवाची है। सहना, मनमुटाव से कहीं अधिक प्रेम के निकट है। महाभारत इसकी सरल व्याख्या है!
इसलिए, हमें समझना होगा कि जिंदगी उतनी बड़ी नहीं, जितनी हम माने बैठे हैं। एक-दूसरे से लड़ते-झगड़ते, मान-अपमान करते, सहते हम कई बार भूल जाते हैं कि जीवन बहुत लंबी यात्रा नहीं। यह तो प्री-पेड सिम कार्ड की तरह है। इधर, टॉकटाइम खत्म उधर संवाद समाप्त। जीवन कोमल, क्षमायुक्त होना चाहिए। एक-दूसरे को बर्दाश्त करने की क्षमता हम जितनी जल्दी विकसित कर लें, उतना ही सुंदर, सुगंधित हमारा जीवन होगा।
एक छोटा किस्सा आपसे कहता हूं। मुंबई से ‘जीवन संवाद’ के पाठक आयुष्मान त्रिपाठी अपने भाई को किसी अप्रिय घटना के लिए क्षमा करने को राजी न थे। मन में गांठ पुरानी हो चली थी। वह उनका जिक्र आते ही असहज हो जाते थे। कई बरस बीते, सब चाहते कि भाइयों में संवाद कायम हो। सब कोशिश में लगे थे। इस बीच, एक कोशिश मैंने भी की। आयुष्मान से कहा कि अगर तुम्हारे भैया कल किसी वजह से न रहें, तब भी यही नाराजगी कायम रहेगी।
वह विचलित, नाराज होकर बोले- अरे! आप ऐसा कैसे कह सकते हैं। वह मेरे बड़े भाई हैं। मैंने कहा, बस यही तो आप भूल गए! यह भाई का प्यार जो भीतर है, उसे थोड़ा बाहर लाइए। प्रेम को इतना संकुचित मत कीजिए कि वह जीवित के लिए समाप्त हो जाए। केवल किसी के न रहने पर प्रकट हो।
हम अक्सर देखते हैं कि किसी सगे-संबंधी, मित्र को हम बीमारी की हालत में देखने नहीं पहुंच पाते, लेकिन अगर किसी कारण से वह न रहें, तो तुरंत सब काम छोडक़र उनकी ओर दौड़ते हैं। मेरा सुझाव है कि हमें इस दिशा में बदलाव की जरूरत है। हमें जीवित को कहीं अधिक महत्व देने की जरूरत है। हम अभी भी अपने रिवाजों का अधिक ख्याल रखते हैं, बजाय व्यक्तियों के। मैं रिवाज की जगह जीवत से प्यार, स्नेह और उसकी पीड़ा पर स्नेहलेप करने को महत्व देने का निवेदन कर रहा हूं! (hindi.news18)
-दयाशंकर मिश्र
जिसे विकास कहा जाता है, भाईसाहब वह एक ऐसी कुत्ती चीज है, जो जिसको नजर आना होती है, उसी को आती है। हर किसी को नहीं। जैसे हर सरकार को उसके कार्यकाल में हुआ ‘विकास’ अनिवार्य रूप से नजर आता है मगर विपक्ष को उतनी ही अनिवार्यता से नजर नहीं आता। दो और समस्याएँ हैंं। हर सरकार को अपने द्वारा किया गया विकास सूरज की तरह साफ दीखता है मगर दूसरे का भ्रष्टाचार भी उतना ही साफ दीखता है। मतलब सरकार और विपक्ष को दो-दो सूरज एकसाथ दीखते हैं। दूसरी ओर जिसके लिए विकास किया गया है, उस जनता को एक भी सूरज नहीं दिखाई देता।ये कुछ रघुकुल रीत की तरह है, जो आजादी के बाद से आज तक चली आई है और रामलला मंदिर बनने के बाद भी चली आती रहेगी और चली आती रहनी चाहिए वरना ‘विकास’ कैसे होगा! चाहे आँकड़ों में हो मगर होना चाहिए वरना ‘विकास’ करने वालों का भविष्य खतरे में पड़ जाएगा और उनका भविष्य मोस्ट इंपार्टेंट है।वह देश और जनता के भविष्य की तरह व्यर्थ सवाल नहीं है।
जैसे अपने मोदीजी हैं यानी नरेन्द्र दामोदरदास मोदी।उन्हें भी पिछले छह सालों में उनके द्वारा किया गया ऐसा जबरदस्त विकास नजर आता है कि जितना पिछले साठ साल में पहले कभी नहीं हुआ था। जैसे विकास मोदीजी की प्रतीक्षा में ही बैठा था और मोदीजी भी प्रधानमंत्री बनने के इंतजार में थे कि बनें और विकास की मशीन को हाईस्पीड में चालू कर दें और रातदिन विकास ही विकास करते रहें। अटलजी को भी यही लगता था कि उन्होंने इतना अधिक ‘विकास’ कर दिया है कि ‘इंडिया शाइन’ करने लगा है मगर बदले में इंडिया ने उन्हें शाइन करने से इनकार कर दिया। जब चंद्रशेखर जी प्रधानमंत्री बने थे तो उन्होंने तो हद ही कर दी थी। कहा था कि उन्होंने चालीस दिन में ही इतना ‘विकास’ कर दिया है कि उतना पिछले चालीस वर्षों में भी नहीं हुआ! मतलब हदें छूने की होड़ लगी रहती है, जिसमें हर प्रधानमंत्री अपने कार्यकाल में आटोमेटिकली जीत जाता है।
वैसे मैं भी नकारात्मक नहीं हूँ। मानता हूँ कि पिछले छह सालों में बहुत ‘विकास’ हुआ है मगर ‘विकास’ की मोदीजी की लिस्ट दूसरी है, मेरी दूसरी। मोदीजी को महंगा से महंगा चश्मा पहन लेने पर भी जो ‘विकास’ नहीं दिखाई देता, मुझे नंबरवाला सस्ती फ्रेम का चश्मा पहन कर दीख जाता है। उधर उन्हें जो ‘विकास’ दीखता है, वह मुझे नहीं दीखता। आँखें उनकी भी दो हैं, मेरी भी दो। देश उनका भी और वे मानें तो मेरा भी यही है मगर उन्हें लगता है, मेरे चश्मे का नंबर गलत है, मुझे लगता है, उन्हें भी अब मेरी तरह बाईफोकल चश्मा पहन लेना चाहिए। उम्र के सत्तरवाँ साल पार करने के बाद उन्हें हीरोगीरी नहीं दिखाना चाहिए मगर ट्रंप जैसे महामना उनके आदर्श हैं। उन्होंने दुनिया को दिखा दिया है कि चश्मा हो न हो, जिन्हें फर्क नहीं पडऩा होता, नहीं पड़ता। ट्रंपजी को खुद कोरोना होने से पहले भी कोरोना नहीं दीखता था, अब तो और भी नहीं दीखता!
और तो और अब आदित्यनाथ जी को भी यह शिकायत होने लगी है कि उन्होंने उत्तर प्रदेश में पिछले तीन सालों में जितना ‘विकास’ किया है, वह अंतरराष्ट्रीय ‘षडय़ंत्रकारी’ विपक्ष को नहीं दीखता। वैसे आदित्यनाथ जी विकास के लिए कभी प्रसिद्ध क्या बदनाम तक नहीं रहे! किसी का ध्यान ही नहीं जाता कि उनसे विकास की उम्मीद करना चाहिए और निराश होना चाहिए! उनकी ख्याति का असली क्षेत्र तो फर्जी इनकाउंटर है और इसमें उनका मुकाबला कोई मुख्यमंत्री नहीं कर सकता।इसमें उनका परफार्मेंस देश में ‘सर्वश्रेष्ठ’ है। हद से हद उनकी आलोचना राज्य में बलात्कार, हत्या और दमन के ‘विकास’ लिए की जा सकती है, जो सजायोग्य अपराध है। किसी बेवकूफ ने भी शायद उन पर ‘विकास’ करने या न करने की तोहमत लगाई हो, तो विपक्ष भी क्यों लगाएगा! समस्या यह है कि उन्होंने ‘विकास’ के जो प्रतिमान स्वयं स्थापित किए हैं, उनकी खुद वह चर्चा करना पसंद नहीं करते। वैसे सामान्यत: राजनीति में यह अच्छी बात नहीं मानी जाती मगर योगी होने का मतलब भी यही है कि अपने मुँह मियाँँ मि_ू न बनो! ऐसा भी नहीं है कि जिसे ‘विकास’ कहते हैं, उसके दावे उन्होंने पहले कभी नहीं किए मगर किसी ने न उनका खंडन किया, न मंडन। इस पर सर्वसम्मति है कि इस ओर उनका ध्यान भटकाकर न उनका समय बर्बाद करना चाहिए, न अपना।
-विष्णु नागर
जब बच्चे के नंबर कम आएं/ उसका प्रदर्शन आपके हिसाब से ठीक न हो, तो उस वक्त उसके साथ खड़े होने के लिए बहुत प्रेम और स्नेह की जरूरत होती है। अधिकांश लोग ऐसा कर पाने में सफल नहीं हो रहे हैं!
‘मैं अपने स्कूल के साथियों से बहुत ज्यादा परेशान हूं। उनकी बातें मुझे बहुत चुभती हैं। जब मैं इसके बारे में स्कूल और घर में बात करती हूं, तो कोई गंभीरता से नहीं लेता। अब मैं इससे तंग आ गई हूं, मुझे लगता है जिंदगी छोडक़र चली जाऊं! परीक्षा में प्रदर्शन को लेकर एक-दूसरे को परेशान करने, तंग करने का काम स्कूल न जाने से रुका नहीं। यह काम तो आसानी से ऑनलाइन पढ़ाई के दौरान भी हो रहा है। केवल शिक्षक के भरोसे यह नहीं रुकने वाला।’
जीवन संवाद को फेसबुक मैसेंजर पर देर रात यह संदेश मिला। एक बहुत ही प्यारी बच्ची का, जो फेसबुक पर अपने पापा के अकाउंट के पोस्ट पढ़ते हुए मुझसे जुड़ गई। उसने मैसेज भेजने के बाद यह भी कहा कि उसका नाम कहीं न लिया जाए। उसका संदेश मिलने के बाद मैं ठीक से सो नहीं पाया रातभर।
कैसी दुनिया बना ली है, हमने! मेरी तकलीफ उस समय और बढ़ गई, जब उस बच्ची ने कहा कि उसने अपनी मां को जब बताया कि कम नंबर आने पर उसके साथी, दोस्त उसे तरह-तरह से ताना मारते हैं। परेशान करते हैं, तो मां ने कहा, ‘बच्चे ठीक ही करते हैं। जब तुम पढ़ती नहीं हो, तो उस वक्त क्यों नहीं सोचती। अगर मेहनत नहीं करोगी, तो दूसरे तो चिढ़ाएंगे ही।’
मैं उनकी मां को जानता हूं, सुलझी, सुशिक्षित और व्यवहार कुशल हैं। लेकिन कई बार इतना ही काफी नहीं होता। अपने बच्चे के लिए हम कठोर हो जाते हैं। हमें नंबरों के पीछे नहीं जाना है, केवल किताबी पढ़ाई -लिखाई ही सबकुछ नहीं, ऐसी बातें करने में तो वह बहुत भली लगती हैं, लेकिन जब अपने बच्चे के नंबर कम आएं, तो उस वक्त उसके साथ खड़े होने के लिए बहुत प्रेम और स्नेह की जरूरत होती है। अधिकांश लोग ऐसा कर पाने में सफल नहीं हो रहे हैं!
माता-पिता का सबसे बड़ा संकट यह है कि वह बच्चों के साथ अपने भविष्य को जोडक़र चलते हैं। वह यह मानकर भी चलते हैं कि बच्चों के बारे में सारे फैसले उनको ही करने हैं। बच्चों को मानसिक रूप से मजबूत बनाना, मेरे ख्याल में सबसे जरूरी काम है। बच्चे एक-दूसरे की टिप्पणी का सही तरीके से सामना कर पाएं, यह बहुत जरूरी है। उनके मन को समझना और संभालना हमारा सबसे पहला काम होना चाहिए।
अगर मेरा बेटा/मेरी बेटी अपेक्षा के अनुकूल प्रदर्शन नहीं कर पा रहे हैं, तो किसकी ‘जिम्मेदारी’ है, जैसे शब्द का उपयोग न करें। नतीजे ठीक नहीं आने के पीछे बहुत सारे कारण होते हैं। बच्चे की रुचि, उसकी क्षमता, दिए गए वक्त में काम पूरा करने की योग्यता जैसे बहुत सारे पैमाने हैं, जिनके आधार पर नंबर तय होते हैं।
मजेदार बात यह है कि दुनिया को सुंदर, रहने लायक और प्रेमपूर्ण अधिकांश वह लोग नहीं बनाते, जो खूब अच्छे नंबर लेकर आए। इनमें ज्यादा संख्या ऐसे बच्चों की है, जिनको स्कूल, शिक्षा संस्थान समझने में असफल रहे!
रवींद्रनाथ टैगोर की प्रतिभा से हम सब अच्छी तरह परिचित हैं। उनकी पूरी शिक्षा-दीक्षा स्कूल में नहीं घर में हुई। आइंस्टीन को तो उनके स्कूल ने ही यह कहकर निकाल दिया कि इसके कारण दूसरे बच्चे पीछे रह जाएंगे! यहां केवल दो उदाहरण का अर्थ यह नहीं कि दुनिया में ऐसे लोगों की कमी है। दुनिया में ऐसे लोग इतने अधिक हैं कि उनको गिनना संभव नहीं।
असल में स्कूल सारे बच्चों के लिए नहीं हैं। वह सबके लिए बनाए ही नहीं गए। वह केवल उनके लिए बनाए गए हैं, जो उनके सांचे में फिट होते हैं। अब यह हमारी गलती है कि हम अपनी पहचान की कीमत पर उसमें जगह पाना चाहते हैं!
हम सबको समझना होगा कि प्रतिस्पर्धा बढ़ जाने का मतलब यह नहीं कि मनुष्यता के सिद्धांतों से दूर चले जाएं। मैं बार-बार दोहराना चाहता हूं कि बच्चा हमारा है, स्कूल का नहीं। स्कूल की दिलचस्पी बच्चे में नहीं उसके रिजल्ट में है। इसलिए, हमें अपने बच्चे के पक्ष में खड़े होना है। बच्चे के हिसाब से स्कूल बदलने हैं, स्कूल के हिसाब से बच्चे को नहीं।
‘जीवन संवाद’ को अपने हृदय के कष्ट साझा करने के लिए इस बच्ची को स्नेह और प्यार। मैंने केवल उसे यही समझाने की कोशिश कि जो आपसे साझा कर रहा हूं। उसके सपने, जीवन उसका अपना है उस पर दूसरे किसी की छाया नहीं पडऩी चाहिए।
सबसे जरूरी बात है कि उसका मन इतना मजबूत बनाना है कि वह दूसरों की बातों से हताश न हो जाए। निराश होकर कभी भी खुद को अकेला और कमजोर न समझे। कई बार ऐसा होता है जब माता-पिता बच्चे के मन को नहीं समझ पाते, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं होता कि वह उससे प्रेम नहीं करते। मन को न समझते हुए, वह असल में गलती कर रहे होते हैं, और गलती करने का अर्थ यह नहीं कि प्रेम कम है!
-दयाशंकर मिश्र
हमें अपनी भाषा को भी प्रेम देना है। बिना प्रेम के भाषा कमजोर होती जाती है। हमारे आसपास बढ़ता गुस्सा, बर्दाश्त करने की क्षमता का कम होना बताता है कि हमारी भाषा खोखली होती जा रही है, अति की ओर बढ़ती जा रही है, उसे प्रेम का साथ मिलना जरूरी है। इससे ही हम मन को घृणा की ओर बढऩे से रोक पाएंगे।
अपनी हर दिन की जिंदगी में हम अक्सर इस तरह की बातें सुनते रहते हैं, ‘मैं उनसे बहुत प्रेम करता हूं। उनके विरुद्ध कुछ नहीं सुन सकता। मैं उनसे इतनी घृणा करता हूं कि उनके प्रति आदर का मामूली टुकड़ा भी मेरे मन में नहीं!’ असल में हम सब ऐसे समय में हैं जहां अतिवादी शक्तियों का ही वर्चस्व है। टेलीविजन, राजनीति ने हमारे सामान्य जीवन को अपेक्षा से कहीं अधिक प्रभावित कर दिया है।
क्या हम सामान्य नहीं रह सकते। प्रेम और घृणा के बीच भी कुछ है। उसे उपलब्ध होना इतना कठिन तो नहीं, जितना हमने बना लिया है। हमारा रवैया कुछ-कुछ ऐसा है, मानिए, हम गाड़ी चलाएंगे तो अधिकतम सीमा पर ही चलाएंगे, नहीं तो घर ही बैठे रहेंगे। सबकुछ, अति पर जाकर खत्म हो रहा है।
हमने राजनीति को कुछ ज्यादा ही महत्व अपने जीवन में दे दिया है। हमारा सामान्य जीवन भी उनसे इतना प्रभावित हो गया कि हमारी भाषा, विचार और संवाद तक उनके जैसे होने लगे। किसी सभ्य नागरिक समाज के लिए यह बहुत आदर्श स्थिति नहीं मानी जा सकती। समाज कभी राजनीति का नकलची बंदर नहीं हो सकता। समाज के बीच से राजनीति आती है, राजनीति से समाज पैदा नहीं होता। हां, राजनीति चाहे तो उसे आगे चलकर अपने हिसाब से बदलने की कोशिश कर सकती है।
इसलिए नागरिक, समाज को अपने जीवनमूल्यों की रक्षा स्वयं करनी पड़ती है। हम सबको इस बात की पड़ताल करने की जरूरत है कि हमारा जीवन सामान्य बना रहे। प्रेम और घृणा दोनों की अत्यधिक निकटता असल में जीवन को प्रभावित करती है। जब हम बहुत अधिक प्रेम में होते हैं, तो असल में एक ऐसी जगह होते हैं जहां से टकराव का कोई भी द्वार खुल सकता है, क्योंकि प्रेम को हम तुरंत ही अधिकार से जोड़ लेते हैं। घर, परिवार, कारोबार और समाज हर जगह आपसी रिश्तो में टकराव का सबसे बड़ा कारण प्रेम को अधिकार में बदलने की जल्दबाजी है।
टकराव बढऩे पर अगर उसे समय पर न संभाला जाए, तो उसके घृणा की ओर बढऩे में देर नहीं लगती। इसलिए यह बहुत जरूरी है कि जीवन में संतुलन बना रहे। प्रकृति की पाठशाला में कितना सुंदर संतुलन है। काश! हम इसे समझने की ओर बढ़ पाते।
एक छोटी-सी कहानी आपसे कहता हूं। संभव है, इससे मेरी बात आप तक सरलता से पहुंच सके। एक बार महात्मा बुद्ध से एक नए साधक ने कहा, ‘मैं आपसे बहुत प्रेम करता हूं। आपके विरुद्ध कुछ भी सुनना मेरे लिए संभव नहीं। जब भी आपकी आलोचना सुनता हूं, मन में बेचैनी और हिंसा के विचार आने लगते हैं’।
बुद्ध ने उसकी ओर देखते हुए कहा, अभी तो आए हो। खुद को थोड़ा देखो। अभी तुम्हारा ही मन कमजोर है, तो दूसरों से संवाद कैसे कर सकोगे! मुझसे प्रेम का अर्थ दूसरे के प्रति असहिष्णु हो जाना नहीं है। प्रेम का अर्थ असहमति के द्वार बंद करना नहीं है। असहमति अपनी जगह और प्रेम अपनी जगह!
अपने प्रेम को संकुचित मत करो, उसकी सबके लिए उपलब्धता ही जीवन में सुख का प्रवेश द्वार है। हमें इनको मिलाने की जरूरत नहीं। जब भी किसी के प्रति इतना प्यार हो जाए कि वह दूसरे के लिए संकटकारी हो जाए, तो उसे प्रेम नहीं कहेंगे। असल में वह प्रेम की सरल नदी नहीं है, वह तो प्रेम की बाढ़ हो जाएगी! बाढ़ से किसी का भला नहीं होता।
हमें अपनी भाषा को भी प्रेम देना है। बिना प्रेम के भाषा कमजोर होती जाती है। हमारे आसपास बढ़ता गुस्सा, बर्दाश्त करने की क्षमता का कम होना बताता है कि हमारी भाषा खोखली होती जा रही है। अति की ओर बढ़ती जा रही है, उसे प्रेम का साथ मिलना जरूरी है। इससे ही हम मन को घृणा की ओर बढऩे से रोक पाएंगे।
-दयाशंकर मिश्र
लोक नायक जयप्रकाश नारायण (जेपी) की आज पुण्यतिथि है और तीन दिन बाद ग्यारह अक्टूबर को उनकी जयंती ।सोचा जा सकता है कि वे आज अगर हमारे बीच होते तो क्या कर रहे होते ! 1974 के ‘बिहार आंदोलन’ में जो अपेक्षाकृत छोटे-छोटे नेता थे, आज वे ही बिहार और केंद्र की सत्ताओं में बड़ी-बड़ी राजनीतिक हस्तियाँ हैं। कल्पना की जा सकती है कि जेपी अगर आज होते और 1974 जैसा ही कोई आह्वान करते (‘सिंहासन ख़ाली करो कि जनता आती है ‘) तो कितने नेता अपने वर्तमान शासकों को छोड़कर उनके साथ सड़कों पर संघर्ष करने का साहस जुटा पाते ! ऐसा कर पाना शायद उस जमाने में काफ़ी आसान रहा होगा!
चौबीस मार्च, 1977 को मैं उस समय दिल्ली के राजघाट पर उपस्थित था, जब एक व्हील चेयर पर बैठे हुए अस्वस्थ जेपी को गांधी समाधि पर जनता पार्टी के नव-निर्वाचित सांसदों को शपथ दिलवाने के लिए लाया गया था। वर्तमान की मोदी सरकार में शामिल कुछ हस्तियाँ भी तब वहाँ प्रथम बार निर्वाचित सांसदों के रूप में मौजूद थीं। जेपी के पैर पर पट्टा चढ़ा हुआ था। आग्रह किया जा रहा था कि उनके पैरों को न छुआ जाए। वह दृश्य आज भी याद आता है, जब भीड़ के बीच से निकल कर उनके समीप पहुँचने के बाद मैंने उन्हें प्रणाम किया तो वे हलके से मुस्कुराए और मैं स्वयं को रोक नहीं पाया ... उनके पैरों के पास पहुँचकर हल्के से स्पर्श कर ही लिया। उन्होंने मना भी नहीं किया।
जेपी ने (और शायद दादा कृपलानी ने भी) सांसदों को यही शपथ दिलवाई थी कि वे गांधी का कार्य करेंगे और अपने आप को राष्ट्र की सेवा के लिए समर्पित करेंगे।राजघाट पर हज़ारों लोगों की उपस्थिति थी।अभिनेता देव आनंद भी वहाँ पहुँचे थे।प्रशंसकों ने उन्हें अपने पैर ज़मीन पर रखने ही नहीं दिए। अपने कंधों पर ही उन्हें बैठाकर पूरे समय घुमाते रहे।शत्रुघ्न सिन्हा भी शायद वहाँ थे। अदभुत दृश्य था। राजघाट की शपथ के बाद के दिनों में दिल्ली के दीनदयाल उपाध्याय मार्ग स्थित गांधी शांति प्रतिष्ठान में जे पी की उपस्थिति में ही सत्ता के बँटवारे को लेकर बैठकों का जो दौर चला उसका अपना अलग ही इतिहास है। राजघाट की आशाभरी सुबह के कोई ढाई वर्षों के बाद आज के ही दिन जेपी ने देह त्याग कर दिया।वे भी तब उतने ही निराश रहे होंगे जैसे कि आज़ादी प्राप्ति के बाद गांधी जी रहे होंगे। कांग्रेस, बापू को और जनता पार्टी जेपी को जी नहीं पाईं। जेपी के निधन तक उनका जनता पार्टी का प्रयोग उन्हें धोखा दे चुका था।
याद पड़ता है कि जेपी को सबसे पहले राजगीर(बिहार) में 1967 के सर्वोदय सम्मेलन में दूर से देखने का अवसर मिला था। तब तक उनके बारे में केवल सुन-पढ़ ही रखा था। जेपी की देखरेख में ही सम्मेलन की सारी तैयारियाँ हुईं थीं। दलाई लामा भी उसमें आए थे।संत विनोबा भावे तो उपस्थित थे ही, पर जेपी के विराट स्वरूप को पहली बार नज़दीक से देखने का मौक़ा अप्रैल 1972 में मुरैना के जौरा में हुए चम्बल घाटी के दस्युओं के आत्म-समर्पण और फिर उसके अगले माह बुंदेलखंड के दस्युओं के छतरपुर के निकट हुए दूसरे आत्म समर्पण में मिला था। उनका जो स्नेह उस दौरान प्राप्त हुआ, वही बाद में मुझे 1974 में बिहार आंदोलन की रिपोर्टिंग के लिए पटना ले गया।तब मैं दिल्ली में प्रभाष जोशी जी और अनुपम मिश्र के साथ ‘सर्वोदय साप्ताहिक’ के लिए काम करता था। पटना गया था केवल कुछ ही दिनों के लिए पर जे पी ने अपने पास ही रोक लिया उनके कामों में मदद के लिए। पटना में तब जेपी के कदम कुआ स्थित निवास स्थान पर केवल एक ही कमी खटकती थी और वह थी प्रभावती जी की अनुपस्थिति की। वे 15 अप्रैल, 1973 को जेपी को अकेला छोड़कर चली गईं थीं।
जे पी और प्रभावती जी के साथ केवल दो ही यात्राओं की याद पड़ती है।पहली तो तब की जब अविभाजित मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री प्रकाश चंद सेठी के विमान में दोनों को लेने लिए दिल्ली से पटना गया था और वहाँ से हम तीनों बुंदेलखंड के दस्युओं के आत्म समर्पण के लिए खजुराहो के हवाई अड्डे पर पहुँचे थे। दूसरी बार (शायद) उसी वर्ष किसी समय जेपी और प्रभावती जी के साथ रेल मार्ग द्वारा दिल्ली से राजस्थान में चूरू की यात्रा और वहाँ से वापसी। चूरू में तब अणुव्रत आंदोलन के प्रणेता आचार्य तुलसी की पुस्तक ‘अग्नि परीक्षा’ को लेकर विवाद खड़ा हो गया था।
जेपी के मित्र प्रभुदयाल जी डाबरीवाला लोक नायक को आग्रह करके चूरू ले गए थे, जिससे कि वहाँ साम्प्रदायिक सौहार्द स्थापित हो सके। जेपी ने कहलवाया कि मुझे उनके साथ चूरू की यात्रा करनी है और मैं तुरंत तैयार हो गया। चूरू की वह शाम भूले नहीं भूलती है, जब जे पी ने पूछा था उनके साथ टहलने हेतु जाने के लिए ... और मैं भाव-विभोर हो चूरू के एकांत में उस महान दम्पति के साथ घूमने चल पड़ा था। तब दिल्ली में स्वतंत्रता सेनानियों को ताम्रपत्र बाँटे जा रहे थे। मैंने उनसे इस दौरान किए गए कई सवालों के बीच यह भी पूछ लिया था कि: 'क्या सरकार आपको स्वतंत्रता सेनानी नहीं मानती ?’ जेपी शायद कुछ क्षण रुके थे फिर धीमे से सिर्फ़ इतना भर कहा कि :’हो सकता है, शायद ऐसा ही हो।’ मुझे याद नहीं पड़ता कि मैंने तब जेपी से कितने सवाल किए होंगे और उन्होंने क्या जवाब दिए होंगे।क्योंकि मैं तो उस समय अपने इतने निकट उनकी आत्मीय उपस्थिति के आभा मण्डल में ही पूरी तरह से खो गया था।जिस तरह से गांधी नोआख़ली में दंगों को शांत करवाकर चुपचाप दिल्ली लौट आए थे, वैसे ही जेपी भी चूरू से लौट आए।
मुझे अच्छे से याद है कि हम दिल्ली के रेल्वे स्टेशन पर चूरू जाने वाली ट्रेन की प्रतीक्षा में खड़े थे। जेपी थे, प्रभावती जी थीं, उनके सहायक गुलाब थे और मैं था। शायद प्रभुदयाल जी भी रहे हों। लम्बे प्लेटफ़ार्म पर काफ़ी लोगों की उपस्थिति के बावजूद कोई जेपी को बहुत विश्वास के साथ पहचान नहीं पा रहा था। उनकी तरफ़ लोग देख ज़रूर रहे थे। हो सकता है कि किसी को उनके वहाँ इस तरह से उपस्थित होने का अनुमान ही नहीं रहा होगा। पर जेपी के चेहरे पर किसी भी तरह की अपेक्षा या उपेक्षा का भाव नहीं था। वे निर्विकार थे। बेचैनी मुझे ही अधिक थी कि ऐसा कैसे हो रहा है ! याद पड़ता है कि सर्वोदय दर्शन के सुप्रसिद्ध भाष्यकार दादा धर्माधिकारी ने एक बार जेपी को संत और विनोबा को राजनेता निरूपित किया था।ऐसा सच भी रहा हो ! स्मृतियाँ तो कई और भी हैं पर फिर कभी। जेपी की स्मृति को प्रणाम।
-श्रवण गर्ग
जब हमारे सरोकार सबसे हटकर केवल स्वयं पर आकर टिक जाते हैं, तो हम अक्सर क्रोधित और बात-बात पर अपमानित महसूस करने लगते हैं। जिनका सारा ध्यान अपने पर रहता है उनके साथ यह अक्सर होता है!
एक-दूसरे से बात करते, सहमत-असहमत होते हुए हम एक-दूसरे को ऐसा बहुत कुछ कह जाते हैं, जो असल में कहना नहीं चाहते, लेकिन बहुत कुछ भीतर उमड़-घुमड़ तो रहा ही होता है। बारिश होने से पहले बादल भारी होते ही हैं। भीतर के बिना कुछ भी बाहर नहीं आता। बाहर से कितना भी प्रेम दिखाएंगे, लेकिन अगर वह भीतर बनना बंद हो गया है, तो बाहर कहां से आएगा। कारण कुछ भी हो सकते हैं। बहुत छोटी-छोटी बात पर हम एक-दूसरे से नाराज बने रहते हैं, लेकिन नाराजगी को बाहरी तल पर नहीं ले जाते। बाहर केवल उसे रखते हैं जो दिखाना होता है। घर का कचरा भी दो-चार दिन घर के भीतर रह जाए, तो परेशानी पैदा करने लगता है। फिर यह तो मन का कचरा है। अगर इसे सरलता से निकलने का रास्ता नहीं मिला, तो यह दूसरे रास्ते खोज लेता है।
गुस्से में चिल्लाना, अतीत की बातों को दोहराना, अव्यक्त को कह देना। इस बात को बताते हैं कि भीतर हम कुछ भरते गए हैं। संभव है हमारी नजर उस पर न पड़ी हो, लेकिन गया तो कुछ होगा ही। यह जो भीतर हलचल मच जाती है, उसका कारण भीतर की उठापटक में ही होता है। जब हमारे सरोकार सबसे हटकर केवल स्वयं पर आकर टिक जाते हैं, तो हम अक्सर क्रोधित और बात-बात पर अपमानित महसूस करने लगते हैं। जिनका सारा ध्यान अपने पर रहता है उनके साथ यह अक्सर होता है!
आपने सिगमंड फ्रायड का नाम सुना होगा। मन के विज्ञान को सरलता से समझाने वाले फ्रायड से एक बार किसी ने पूछा, आप इतने सारे लोगों की मानसिक बीमारियों का अध्ययन करते हैं। प्रश्नों के जवाब देते हैं। सुबह से शाम हो जाती है। इतने सारे लोगों के जटिल प्रश्नों के उत्तर देते हुए आपका दिमाग खराब नहीं होता! आप पागल नहीं हो जाते!
बुजुर्ग फ्रायड ने मुस्कराते हुए कहा, अपने पर ध्यान देने का समय ही नहीं मिलता। अपने पर ध्यान दिए बिना पागल होना बहुत मुश्किल है। सुबह से लग जाता हूं, दूसरों की चिंता में। अपने पर ध्यान देने का अवसर नहीं मिलता।
कितनी सुंदर बात कही है, फ्रायड ने। उनकी इस बात की पुष्टि, हमें बड़े-बड़े वैज्ञानिकों, आविष्कारकों, डॉक्टरों और शोधार्थियों के जीवन में भी देखने को मिलती है। अक्सर ऐसे लोग फ्रायड की तरह ही होते हैं। उनका ध्यान अपने पर नहीं, अपने काम पर होता है। जिसका ध्यान अपने पर जाएगा, वह मान-अपमान और अहंकार की पकड़ में आए बिना नहीं रह सकता। हम अपने मन को इतना कमजोर बना लेते हैं कि छोटी-छोटी बातों को अपने पर हमले के रूप में देखने लगते हैं। छोटी-छोटी असहमतियों को स्वाभिमान और ‘सेल्फ रिस्पेक्ट’ के टूटने से जोडक़र देखने लगते हैं। ऐसे समय में सबसे जरूरी यही है कि ध्यान कहां है! जब ध्यान अपने से हटकर रचनात्मकता, सृजन पर चला जाएगा, अपमान के भाव हल्के होते जाएंगे।
सुपरिचित कवि भवानीप्रसाद मिश्र की सुंदर कविता है, ‘अपमान’...
अपमान का
इतना असर
मत होने दो अपने ऊपर
सदा ही
और सबके आगे
कौन सम्मानित रहा है भू पर
मन से ज्यादा
तुम्हें कोई और नहीं जानता
उसी से पूछकर जानते रहो
उचित-अनुचित
क्या-कुछ
हो जाता है तुमसे
हाथ का काम छोडक़र
बैठ मत जाओ
ऐसे गुम-सुम से!
क्या आपके साथ भी यह होता है? अपमान असल में गुस्से, चलते हुए विचारों के परिणाम के रूप में हमारे सामने आता है। यह सोचना भी जरूरी है कि हम अक्सर अपमान की शिकायत किससे करते हैं! उनसे ही जिनके हम प्रेम में हैं। प्रेम पर कभी जरूरत से ज्यादा जोर मत दीजिए। नहीं तो, वह भी आपको निराशा की ओर ले जाएगा। हमें जीवन को ऐसी जगह ले जाना होगा, जहां वह केवल जीवन रह जाए। सुख-दुख की छाया जब जीवन पर एक जैसा असर करने लगे, तो समझिए जीवन अपने होने को उपलब्ध हो रहा है। अपमान की परतें मन को बदलापुर में बदलने का काम करती हैं। इसलिए, उनके प्रति सजग रहिए। (hindi.news18)
-दयाशंकर मिश्र
एक उम्र के बाद अपने से बड़ों से कोई शिकायत नहीं करनी चाहिए। केवल उनसे प्रेम किया जाना चाहिए, क्योंकि जिंदगी इतनी भी लंबी नहीं, जितनी हम माने बैठे हैं। इसलिए, जितना संभव हो उसे जीवन में भर लेना चाहिए। कल का क्या भरोसा!
उनकी आवाज बहुत मीठी थी। मीठे से अधिक उसमें प्यार की खुशबू थी। लगा कोई बरगद अपनी छांव में बैठे यात्री को मीठी हवा के झूले झुला रहा है। उनके शब्दों से प्रेम बरस रहा था। सच तो यह है कि मेरा मन भी उनके शब्दों के लिए कई बरस से तरस रहा था। जीवन उतना सरल नहीं, जितना हम मान लेते हैं। यही इसकी चुनौती, रस है। सारे अरमान निकल जाएं, तो जीने का रस कम न हो जाए! इसलिए आज जो उपलब्ध है, उसे पूरी तरह जीना होगा।
असल में केवल अभी जो मिला है, उसी क्षण को जीना ही सच्चा आनंद है। लाओत्से कहते हैं, यही जीवन-मार्ग है। मुझ पर अपने शब्दों से प्रेम और स्नेह की वर्षा करने वाले पिता सरीखे बुजुर्ग की उम्र अस्सी बरस के आसपास है। मुझे उनकी बातों के बाद देर तक वसीम बरेलवी साहब की याद आती रही। वो लिखते हैं-
‘वो मेरे घर नहीं आता मैं उसके घर नहीं जाता
मगर इन एहतियातों से तअल्लुक़ मर नहीं जाता।’
कभी-कभी शब्द कैसे जिंदगी में उतर आते हैं। जिन्होंने मुझे फोन किया था उनके साथ मेरा एकदम यही रिश्ता है। मैं उनके घर नहीं जाता और वह मेरे घर नहीं आते। ऐसा नहीं कि हम ऐसा नहीं चाहते, लेकिन कभी-कभी चाहना ही काफी नहीं होता।
इसलिए, मैंने निवेदन किया कि कभी-कभी जिंदगी में दोनों में से किसी की भी गलती न होने पर भी सजा जिंदगी को ही मिलती है। उस पिता की विवशता, प्रेम देखिए। अपने बेटे से वह नहीं पूछते कि मैं उनके घर क्यों नहीं आता। मुझसे भी नहीं कहते कि क्यों नहीं आते। लेकिन जानते सब हैं। फोन पर उन्होंने कोई गिला-शिकवा नहीं किया। केवल आशीर्वाद दिया। एक प्यारभरा गीला चुंबन जैसे मेरे माथे पर देर रात तक ताजा है। बात सुबह की है और लिख मैं देर रात को रहा हूं।
जीवन की मोहब्बत यही है। कई बरस तक वह मुझसे इसलिए बात नहीं कर पाए, क्योंकि वह डायरी नहीं मिल रही थी, जिसमें मेरा नंबर लिखा था। कैसा जीवन है! उनके घर में हर किसी के पास मेरा नंबर है, लेकिन वह किसी से मांगना नहीं चाहते थे। वह फोन न करते, तो भी हमें उनसे कोई शिकायत नहीं।
एक उम्र के बाद अपने से बड़ों से कोई शिकायत नहीं करनी चाहिए। केवल उनसे प्रेम किया जाना चाहिए, क्योंकि जिंदगी इतनी भी लंबी नहीं, जितनी हम माने बैठे हैं। इसलिए, जितना संभव हो उसे जीवन में भर लेना चाहिए। कल का क्या भरोसा!
जिनके बारे में लिख रहा हूं, उनके और हमारे रिश्ते का विरोधाभास देखिए। चाहते सब प्रेम ही हैं, लेकिन मन की दीवार कभी-कभी हम इतनी ऊंची उठा लेते हैं कि प्रेम की सारी सीढिय़ां छोटी पड़ जाती हैं। हम चाह करके भी बहुत कुछ नहीं कर पाते। बस, इतना ही कर सकते हैं कि प्रेम बना रहे, उसकी तने, पत्तियां कुछ कमजोर हो सकती हैं, लेकिन जड़ का ख्याल सबसे जरूरी है। यह जो मुझे फोन किया गया था, वह जड़ को सींचने जैसा ही था। यह हुनर सजगता से संभालने योग्य है। प्रेम न सही, प्रेम के पुल तो बने रहें।
यह किस्सा इसलिए भी आपसे साझा कर रहा हूं, क्योंकि ‘जीवनसंवाद’ को बहुत से प्रश्न रिश्तों की जटिलता पर मिलते हैं। मैं कहना चाहता हूं कि जीवन केवल सही-गलत के बीच का चुनाव नहीं। दोनों के बीच बहुत कुछ शेष रहता है। जो प्रेम में होते हैं, सुख को पाना चाहते हैं, उनको दोनों के बीच उतरना ही होगा। (hindi.news18)
-दयाशंकर मिश्र
हाथरस की घटना का केंद्र की मोदी और राज्य की योगी सरकार की राजनीतिक जरूरतों के नजरिए से विश्लेषण किए बिना उसकी गंभीरता का अनुमान लगाना संभव नहीं होगा। इस तरह की घटनाओं में पीडि़त वर्ग और उस पर अत्याचार करने वाले तबके को प्राप्त होने वाले सभी तरह के संरक्षण को सत्तारूढ़ दल की चुनावी आवश्यकताओं के संदर्भों में देखा जाए तो इस बात की आलोचना की निरर्थकता से साक्षात्कार होने लगेगा कि राज्य की कट्टर हिंदूवादी सरकार के खिलाफ किसी भी तरह की कार्रवाई करने में केंद्र की हुकूमत के हाथ क्यों बंधे हुए हैं।
उत्तर प्रदेश में सिर्फ सोलह महीनों के बाद विधानसभा के चुनाव होने हैं। वर्तमान विधानसभा का कार्यकाल 14 मार्च 1922 को समाप्त होने जा रहा है। अगले चुनाव तक न तो कोरोना का प्रकोप पूरी तरह से समाप्त होना है और न ही प्रदेश की अर्थव्यवस्था ही पटरी पर आने वाली है। भाजपा के लिए उत्तर प्रदेश में योगी सरकार की आक्रामक तरीके से वापसी इसलिए जरूरी है कि उसके ठीक बाद लोकसभा चुनाव की तैयारियाँ प्रारंभ हो जाएँगी। पिछले लोकसभा चुनाव में 2014 के मुकाबले भाजपा की नौ सीटें राज्य में कम हो गईं थीं। देश को जानकारी है कि एनडीए सरकार के लिए इस बार लोकसभा का चुनाव किस तरह की चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों के बीच होने वाला है और दांव पर क्या कुछ लगने वाला है! भाजपा के लिए उसकी बड़ी उम्मीदों का एकमात्र राज्य उत्तर प्रदेश ही है, जहां सबसे ज्यादा (80) सीटें हैं और वर्तमान में विपक्ष के नाम पर वहाँ घुप्प अंधेरा है। ऐसे हालात और किसी भी राज्य में नहीं हैं। हो सकता है कि बिहार विधानसभा के चुनाव परिणाम चौंकाने वाले प्राप्त हों।
अत: उत्तरप्रदेश को जीतने के लिए साम्प्रदायिक और जातिगत ध्रुवीकरण को और ज्यादा मजबूत करना जरूरी हो गया है। हाथरस कांड के आरोपियों के समर्थन में खुलेआम सभाएँ हो रही हैं, उनसे (आरोपियों) मिलने क्षेत्र के निर्वाचित प्रतिनिधि जेल पहुँच रहे हैं और दूसरी तरफ पीडि़ता के परिजनों को प्रतिबंधों के बीच जीवन जीना पड़ रहा है। राहुल-प्रियंका की यात्रा से कितना फर्क पड़ेगा, वहाँ के डीएम ही बता सकते हैं। इस सबका उद्देश्य यही समझा जा सकता है कि दलितों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों तथा उच्च जाति के मतदाताओं के बीच वैमनस्य के ध्रुवीकरण को किसी दीर्घकालिक रणनीति के तहत ही बढ़ावा दिया जा रहा है।
उत्तरप्रदेश की अनुमानित चौबीस करोड़ आबादी में लगभग अस्सी प्रतिशत जनसंख्या हिंदुओं की बताई जाती है। हाथरस की घटना को अगर राजनीतिक रूप से सवर्ण समाज के अस्तित्व के लिए दलितों की ओर से चुनौती बना दिया जाए तो उसकी चमत्कारिक चुनावी संभावनाओं को लेकर ओपिनियन पोल भी करवाया जा सकता है।
हाथरस की घटना का एक अन्य पहलू यह है कि प्रियंका और राहुल गांधी के नेतृत्व में जो कांग्रेस अभी तक प्रदेश के सवर्णों के बीच अपनी पैठ बनाने में लगी थी, उसे योगी सरकार ने सफलतापूर्वक मायावती और अखिलेश के वोट बैंक से टक्कर लेने के लिए पीछे धकेल दिया है। मुस्लिम अल्पसंख्यकों के बीच अपनी पकड़ कांग्रेस पहले ही कमजोर कर चुकी है। उत्तरप्रदेश में लड़ाई को पीडि़ता के प्रति न्याय के बजाय दलित बनाम सवर्णों के बीच शक्ति-परीक्षण में बदला जा रहा है। कथित आरोपियों को सजा दिलाने के संकल्प का मतलब अब यही होगा कि सरकार अपने राजनीतिक अस्तित्व को ही दांव पर लगा दे। और फिर ,सत्ता की राजनीति में प्रत्येक गाड़ी नहीं पलटाई जा सकती।
उत्तर प्रदेश की ओर से हाथरस का संदेश यही माना जा सकता है कि इस तरह की सभी घटनाओं के प्रति उठने वाली आवाज़ों को सख़्ती से दबा दिया जाएगा। साथ ही यह भी मान लिया जाए कि ‘जिन्हें अपराधी बताया जा रहा है, वे तो वास्तव में अपराध को रोकने में लगे थे।अपराध की घटना के लिए अज्ञात लोग जिम्मेदार हैं या फिर सरकार को बदनाम करने के लिए विदेशी आर्थिक मदद से षड्यंत्र रचा गया है।’ कल्पना की जा सकती है कि अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) की रिपोर्ट में (सुशांत सिंह की) हत्या के संदेह की कोई संकरी सी गली भी छोड़ दी जाती तो महाराष्ट्र और बिहार की राजनीति में अब तक कितने बड़े राजनीतिक भूचाल आ जाते। एक प्रिय अभिनेता की कथित आत्महत्या को कथित हत्या में बदलने की निर्मम कोशिशें और एक निर्दोष दलित युवती की ज़्यादतियों के बाद हुई मौत को ‘ऑनर किलिंग’ बताने तथा उसके शव को रात के अंधेरे में असंवेदनशील तरीके से जला देने, दोनों ही घटनाएँ वर्तमान राजनीति के एक अत्यंत ही घिनौने चेहरे को सार्वजनिक रूप से नंगा करती हैं।
हम केवल ऊपरी तौर पर ही अनुमान लगा रहे हैं कि हाथरस जिले के एक गाँव में एक दलित युवती के साथ हुए नृशंस अत्याचार और उसके कारण हुई मौत से सरकार डर गई है। वास्तव में ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है। सरकारें इस तरह से डर कर काम नहीं करतीं। ऐसी ही कुछ और घटनाएँ हो जाने दीजिए। हम लोग हाथरस को भूल भी जाएँगे और ज़्यादा डरने भी लगेंगे-अपराधियों और सरकार-दोनों से!
-श्रवण गर्ग
विष्णु नागर
लगता है कि उत्तरप्रदेश सरकार और भाजपा यह सिद्ध करने पर आमादा है कि 19 साल की हाथरस की दलित लडक़ी के साथ बलात्कार नहीं हुआ था और वे लडक़े जिन पर ऐसा आरोप है,वे निर्दोष हैं या कम से कम बलात्कार के दोषी नहीं हैं। दोषियों की जाति के लोगों ने शुरू से ही यह घोषणा कर दी है कि उनकी जाति के युवा दोषी नहीं हैं। उनकी दबाव की राजनीति इस घटना पर देशभर में व्याप्त आक्रोश पर हावी है। पीडि़त परिवार जिस तरह के राजनीतिक, प्रशासनिक तथा उच्च कही जाने वाली जातियों के दबाव में लाया जा रहा है, उससे लगता है, वही असली दोषी है। बाकी थोड़ा-बहुत न्याय दिलाने का ड्रामा भी चल रहा है। यह ड्रामा ही है। इसे भाजपा आईटी सेल के प्रमुख अमित मालवीय तथा अन्य भाजपाइयों के ट्विटर एकाउंट और भाषणों, साक्षात्कारों से स्पष्ट है। प्रधानमंत्री, गृहमंत्री, मुख्यमंत्री का सार्वजनिक मौन इसकी पुष्टि कर देता है। मौन स्वीकृति लक्षण।
एक भाजपाई विधायक दलित परिवार को ‘संस्कार’ का पाठ पढ़ा रहा है, दूसरा दोषियों को बचाने के लिए जाति की पंचायत कर रहा है। और कोई उन्हें रोकना नहीं चाहता बल्कि परदे के पीछे प्रोत्साहन साफ है।
मुख्यमंत्री की जाति और दोषियों की जाति का एक होना आज इस स्थिति का मुख्य कारण हो सकता है। धीरे-धीरे राजस्थान हो या जम्मू हो या उत्तरप्रदेश हर जगह अपराधियों को बचाने की जातिगत और सांप्रदायिक मुहिम सी चल पड़ी है। यह भी विशेषकर देश की भाजपा सरकार की ‘उपलब्धि’ है। अब तथ्यों की बात नहीं होगी क्योंकि तथ्य क्या हैं, यह जाति,धर्म और राजनीतिक दलों के बाहुबली तय करेंगे। मुख्यमंत्रियों के लिए भी न्याय की रक्षा नहीं, जाति की रक्षा पहली प्राथमिकता होगी। फिर इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि सरकार किसकी है। धर्म के मामले में यह स्पष्ट रूप से होता दीख ही रहा था, अब इन छह सालों में ताकतवर जातियों के मामले में भी रहा-सहा संदेह खत्म हो रहा है। मुसलमानों के बाद दलितों को उनके हाथ में आई रही- सही राजनीतिक ताकत छीनने का वक्त लगता है,लाया जा चुका है।आदिवासी पहले ही लगभग किनारे हैं। मायावती भी कल मुख्यमंत्री बन गईं और मान लो,जिस उच्च कही जानेवाली जाति के साथ उनका उनका दीर्घकालिक गठबंधन का सफल-असफल प्रयोग चल रहा है,उस जाति के लडक़े,मान लो ऐसा कोई अपराध करेंगे तो वह भी थोड़ी चतुराई से सवर्णों को ही बचाएँगी।समाजवादी पार्टी ने अपने को यादवों का संरक्षक बना ही रखा है। थोड़ा-बहुत पर्दा है तो उसे भी तमाम दल हटा देंगे। भाजपा ने इसका राष्ट्रीय राजमार्ग खोल दिया है। फिर उत्तरप्रदेश क्या सारे भारत में यह और तेजी से होगा। सिर्फ अपराधी बचते रहेंगे। सभी जातियों की ताकत उन्हें बचाने में पूरी ताकत से लगेगी। आ गया रामराज्य, न्यू इंडिया, अच्छे दिन।
-सुदीप ठाकुर
मार्च के दूसरे हफ्ते में कोविड-19 महामारी के शुरुआती मामले आते ही प्रधानमंत्री मोदी ने अचानक ‘जनता कफ्र्यू’ का ऐलान किया था और उसके दो दिन-तीन बाद पूरे देश में लॉकडाउन लागू कर दिया गया था। इससे देशभर की सडक़ों पर जो दृश्य नजर आया था, उसे विभाजन के बाद की दूसरी बड़ी त्रासदी के रूप में दर्ज किया गया। बड़े शहरों और महानगरों से लाखों प्रवासी मजदूर जो भी साधन मिला उससे या पैदल ही अपने गांव-घर की ओर चल पड़े थे। विभाजन की त्रासदी और कोरोना से उपजे रिवर्स पलायन की पीड़ा को कोई एक कड़ी जोड़ती है, तो वह महात्मा गांधी हैं, जिनकी आज 151 जयंती है।
विभाजन के बाद जब पूर्वी तथा पश्चिमी पाकिस्तान से बेबस असहाय लोग भारी हिंसा के बीच शरणार्थी की तरह सडक़ों पर थे, तब बापू ही थे, जो उनकी पीड़ा में उनके साथ थे। वह दिल्ली के सत्ता केंद्र में नहीं बैठे थे, बल्कि सांप्रदायिक हिंसा को रोकने के लिए सडक़ों पर थे। तिहत्तर साल बाद वह भले ही हमारे बीच उपस्थित नहीं हैं, लेकिन कोरोना से उपजी मानवीय त्रासदी में गांधी हमें राह दिखाते हैं, बशर्ते की हम उन पर चल पाते।
दरअसल ऐसी हर त्रासदी से निपटने के सूत्र हमारे संविधान में हैं, जिसमें गांधी की प्रत्यक्षत: कोई भूमिका भले न हो, हमारे संविधान निर्माताओं ने उनके बताए रास्तों को पूरा ध्यान रखा। संविधान सभा, जिसको संविधान बनाने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी, उसकी बहसों में बार-बार आया गांधी का जिक्र इसकी तस्दीक करता है।
17 दिसंबर, 1946 को संविधान सभा की बैठक में बॉम्बे स्टेट से चुनकर आए एम आर मसानी या मीनू मसानी (वह मूलत: गुजरात के थे) ने संविधान निर्माण के लिए रखे गए प्रस्ताव पर कहा, ....मैं महात्मा गांधी का जिक्र करना चाहूंगा। ए वीक विथ गांधी में लुइस फिशर ने गांधी को यह कहते हुए उद्धृत किया, ‘सत्ता का केंद्र अब नई दिल्ली, या कलकत्ता और बाम्बे जैसे बड़े शहरों में है। मैं इसे भारत के सात लाख गांवों में बांटना चाहूंगा। इससे इन सात लाख इकाइयों में स्वैच्छिक सहयोग होगा, वैसा सहयोग नहीं, जैसा कि नाजी तरीकों ने उभारा है। इस स्वैच्छिक सहयोग से वास्तविक स्वतंत्रता उत्पन्न होगी। नई व्यवस्था बनेगी, जो सोवियत रूस की नई व्यवस्था से बेहतर होगी।’
संविधान सभा में गांव को प्रशासनिक इकाई बनाने पर जोर देते हुए मद्रास से चुनकर आए वी आई मुन्नीस्वामी पिल्लई ने भी आठ नवंबर, 1948 को गांधी को याद किया था। यह 30 जनवरी, 1948 को नाथुराम गोड़से द्वारा गांधी की हत्या किए जाने के दस महीने बाद की बात है। पिल्लई ने बहस में हिस्सा लेते हुए कहा, ‘इस संविधान को पढ़ते हुए किसी को भी दो अनूठी चीजें मिलेंगी, जो दुनिया के किसी भी संविधान में नहीं हैं: पहली है, अस्पृश्यता का निवारण। तथाकथित हरिजन समुदाय का सदस्य होने के नाते मैं इसका स्वागत करता हूं। अस्पृश्यता ने देश के प्रमुख अंगों को नष्ट कर दिया है, और हिंदू समुदाय के सारे गौरव और विशेषाधिकार के बावजूद बाहरी दुनिया हमारे देश को संदेह की नजर से देखती है।’
अनुसूचित जाति से ताल्लुक रखने वाले पिल्लई ने आगे कहा, ‘भारत में ऐसे लोग हैं, अस्पृश्यता को खत्म करने के लिए पर्याप्त प्रचार हो चुका है और ऐसे प्रचार की ओर जरूरत नहीं है। लेकिन मैं ईमानदारी के साथ स्वीकार करता हूं कि यदि आप गांवों में जाएं तो वहां बड़े पैमाने पर छुआछूत है और इसे खत्म करने के लिए संविधान में किए गए प्रावधान का स्वागत होना चाहिए। दूसरी चीज है, जबरिया मजदूरी (बेगार) का उन्मूलन। संविधान में ऐसे प्रावधानों से मैं आश्वस्त हूं कि इससे वह समुदाय ऊपर उठेगा जो कि समाज के हाशिये पर है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने देश के प्रमुख अंगों को खत्म करने वाले इस फफुंद की शिनाख्त की थी। उन्होंने (बापू) ने इन बुराइयों को खत्म करने के लिए महत्वपूर्ण सुझाव दिए थे और मैं खुश हूं कि ड्राफ्टिंग कमेटी ने छुआछूत तथा जबरिया मजदूरी को खत्म करने के लिए प्रावधान किए हैं।’
गांधी और अंबेडकर राजनीतिक रूप से दो छोर पर थे। मगर दोनों ही छुआछूत को खत्म करना चाहते थे। अंबेडकर तो खैर संविधान के वास्तुकार ही थे, लेकिन संविधान सभा की बहसों में गांवों को मजबूत करने और छुआछूत को खत्म करने के लिए गांधी का जिक्र बार-बार आता है। बंगाल से चुनकर आए मोनो मोहन दास ने 29 नवंबर, 1948 को बहस में हिस्सा लेते हुए कहा, ‘अस्पृश्यता से संबंधित उपखंड का प्रावधान मौलिक अधिकारों के लिहाज से अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह उपखंड कुछ अल्पसंख्यक समुदायों को विशेषाधिकार या सुरक्षा प्रदान नहीं करता, बल्कि 16 फीसदी भारतीय आबादी को उत्पीडऩ और हताशा से बचाने का प्रयास करता है। छुआछूत के रिवाज ने न केवल लाखों लोगों को गहरी हताशा और अपमान सहने को मजबूर किया, बल्कि इसने हमारे देश की चेतना को ही नुकसान पहुंचाया है।’
वी आई मुन्नीस्वामी पिल्लई की तरह मोनो मोहन दास भी एक दलित थे। उन्होंने आगे कहा, ‘इस नए युग के मुहाने पर कम से कम हम जैसे अस्पृश्य राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के शब्द सुन सकते हैं, जो कि इन उत्पीडि़त समुदाय के प्रति पूरी संवेदना और प्रेम से उनके संतप्त दिल से निकले थे। गांधी जी ने कहा था, मैं दोबारा जन्म नहीं लेना चाहता। लेकिन यदि मेरा पुनर्जन्म होता है, तो मैं चाहूंगा कि मेरा जन्म एक हरिजन, एक अस्पृश्य के रूप में हो ताकि मैं उनके निरंतर संघर्ष, उन पर हुए अत्याचार को समझ सकूं जिसने इन वर्गों पर कहर ढाया है।’
संविधान सभा में कुल 389 सदस्य थे, जिनमें पंडित जवाहर लाल नेहरू, वल्लभभाई पटेल, राजेंद्र प्रसाद, बी आर अंबेडकर, राजगोपालाचारी, सरोजनी नायडु, मौलाना अबुल कलाम आजाद जैसे दिग्गज थे। ऐसी विशिष्ट सभा में मीनू मसानी जैसे अल्पसंख्यक (पारसी) और मुन्नीस्वामी तथा मोनो मोहन दास जैसे दलितों और अपेक्षाकृत युवा नेताओं को अपनी पूरी बात कहने की आजादी है। यही उदारता संविधान सभा को विशिष्ट बनाती थी। हाल ही में संपन्न संसद के मानसून सत्र को देखें, जिसमें बिना बहस जिस ढंग से सारे बिल पारित किए गए, तो कहने की जरूरत नहीं कि हम कहां आ गए।
यह सवाल आजादी के बाद की तमाम सरकारों से किया जा सकता है कि उन्होंने गांधी को कितना माना और उनकी बातों पर कितना अमल किया। मौजूदा परिदृश्य में हालात और भी भयानक हैं। यह वह दौर है, जब गांवों को मजबूत करने के बजाए देश में पांच सौ नई स्मार्ट सिटी बनाए जाने की वकालत की जा रही है। अनुसूचित जाति या दलितों की आज भी क्या स्थिति है, यह हाथरस की घटना से समझा जा सकता है, जहां एक दलित लडक़ी के साथ बर्बरता की गई और जब उसे बचाया नहीं जा सका, तो रात के अंधेरे में संदिग्ध हालात में उसकी अंत्येष्टि कर दी गई!
गांधी को स्वच्छता अभियान के ‘लोगो’ तक सीमित कर दिया गया है, जरूरत इस लोगो में अंकित उनके चश्मे से दूर तक देखने की है।
अनियंत्रित गति केवल सडक़ पर ही हमें नुकसान नहीं पहुंचाती। जीवन, रिश्ते और आत्मीयता के पुलों को भी तोड़ती चलती है! इसलिए जरूरी है कि सबकुछ जल्दी-जल्दी हासिल करने के सपने के बीच हमें सुरक्षित गति का बोध रहे।
हम कितने भी परेशान क्यों न हों, कोई बस इतना भर कह दे, ‘मुझे तुम्हारी चिंता है’। इससे मन हल्का हो जाता है। मैं हूं ना तुम्हारे साथ, कोई जरूरत पड़े तो बेधडक़ मुझे याद करना। कितने कम शब्द हैं, और कितने प्रबल भाव! लेकिन हमने जिंदगी की गति इतनी अधिक बढ़ा दी है कि हमारे पास किसी चीज के लिए समय नहीं। स्पीड-ब्रेकर सडक़ों के साथ जिंदगी में भी होने चाहिए। इनसे जीवन में दूसरों के लिए हमदर्दी, स्नेह, आत्मीयता बनी रहती है! अनियंत्रित गति केवल सडक़ पर हमें नुकसान नहीं पहुंचाती। जीवन, रिश्ते और आत्मीयता के पुलों को भी तोड़ती चलती है! इसलिए जरूरी है कि सबकुछ जल्दी-जल्दी हासिल करने के सपने के बीच हमें सुरक्षित गति का बोध रहे।
यह जो गहरे भाव हैं मन के- ‘तुम्हारी फिक्र है। अपने को अकेला मत समझो। हम हर हालत में तुम्हारे साथ हैं।’ इन्हें केवल शब्द मत समझिए। हमसे पहले जो लोग धरती पर सुखी जीवन व्यतीत करके गए, जीवन के आनंद को साथ लेकर गए। उन्होंने इन्हें केवल शब्द नहीं समझा था। भावना से अलग होते ही शब्द अपना महत्व खो देते हैं। भावविहीन शब्दों का कोई अर्थ नहीं। हां, केवल औपचारिकता हैं। किसी भी रिश्ते की जड़ में अगर औपचारिकता समा जाए, तो हमें सजग हो जाना चाहिए कि रिश्ता कभी भी टूट सकता है। इसलिए सच्चे मन और हृदय से उपजे भाव को पहचानिए।
जैसे-जैसे हमारी आर्थिक क्षमता बढ़ती जाती है, असल में हम भीतर से उतने ही असुरक्षित, कमजोर और आत्मकेंद्रित होते जाते हैं। जबकि होना ठीक इसके उलट चाहिए। हमें आत्मविश्वासी, मजबूत और दूसरों के लिए तत्पर होना चाहिए। इसका परिणाम यह होता है कि भीतर निरंतर उथलपुथल चलती रहती है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप किस पेशे में हैं। किस पद पर हैं। सारा अंतर केवल इससे पड़ता है कि जीवन के प्रति हमारा दृष्टिकोण कैसा है। अगर हमारे मन में कोमलता है, तो दूसरों के लिए जगह अपनेआप बनती जाती है। अगर कठोरता है, तो एक अनुभव को हम पकड़े बैठे रहते हैं। किसी ने आपको धोखा दिया। रिश्ते को तोड़ा। प्रेमसंबंध टूट गए। नाजुक मोड़ पर रिश्ते छूट गए। यह जीवन का एक मोड़ है, जीवन नहीं!
अगर एक स्टेशन पर हमसे रेलगाड़ी छूट जाए, तो हम क्या करते हैं? उसके बाद हम रेल में सफर बंद कर देते हैं/ रेलवे स्टेशन जाना छोड़ देते हैं? नहीं, हम ऐसा कुछ नहीं करते। जिस वजह से समय पर रेलगाड़ी नहीं पकड़ पाए, उन वजहों को दूर करने की कोशिश करते हैं। जीवन, रेलगाड़ी से बहुत अलग नहीं है। मिलना-बिछडऩा, नाराजगी हमारे और रेल के रिश्ते जैसे हैं। व्यक्तिगत रूप से मुझे तो रेलयात्रा ने बहुत कुछ सिखाया है। एक-दूसरे को सहने की क्षमता। नाराजगी का प्रेम में बदलना, जबकि हम जानते हैं कि सफर में मिला साथ केवल कुछ ही घंटे का है। जीवन का अनुभव बताता है कि इस सफर में मिले लोग जीवन में बहुत कम मिलते हैं, क्योंकि दुनिया इतनी छोटी भी नहीं है।
इसलिए, जीवन संवाद में हम निरंतर सबसे अधिक जोर अपने मन की कड़वाहट, गुस्सा और हिंसा को दूर करने पर देते हैं। मन के असली मैल यही हैं। दूसरे की चिंता छोडि़ए, उसे बदल पाना हमारे वश में नहीं। हमारे बस में केवल इतना है कि हम खुद को बदल लें। अपने को दूसरे की मर्जी से न चलने दें। जिंदगी को बदलने के लिए इतना ही पर्याप्त है। भवानी प्रसाद मिश्र ने बड़ी सुंदर बात कही है, ‘हर व्यक्ति फूल नहीं हो सकता, लेकिन सुगंध सब फैला सकते हैं।’
अपने कहे गए शब्दों को निभाना, सुगंध फैलाने जैसा ही है। जब आप दूसरों की मदद कर रहे हैं, तो बिल्कुल मत सोचिए कि आप दूसरे की मदद कर रहे हैं, असल में आप अपने लिए दुनिया में थोड़ी-सी कोमलता बढ़ा रहे हैं। प्रेम का बीज गहरा कर रहे हैं! (hindi.news18)
-दयाशंकर मिश्र
कोरोना ने हमारी सोचने समझने और प्रेम करने की क्षमता को एक साथ प्रभावित किया है। कोरोना के कारण सब कुछ सीमित करने का भाव गहरा होता दिख रहा है। इसलिए मन के भीतर करुणा, प्रेम और आनंद की मात्रा जांचते रहिए।
हम सुख में अधिक खिलते हैं/ मुश्किल में ज्यादा मजबूत होते हैं/ उस समय साहस रखते हैं, जब इसे सहेजना मुश्किल हो/ करुणा और प्रेम से कभी दूर नहीं होते! इनमें से किन पलों में हम सबसे सुंदर, स्वस्थ और कोमल होते हैं। अपने-अपने सुझाव हो सकते हैं। मेरे ख्याल में वही पल सबसे बेहतर है, जब हम कठिनतम पलों में भी स्वयं को प्रेम, करुणा से दूर न करें। कोरोना के कारण ‘शरीर और मन’ दोनों पर एक साथ भारी संकट आ गया है।
कोरोना ने हमारी सोचने समझने और प्रेम करने की क्षमता को एक साथ प्रभावित किया है। कोरोना के कारण सब कुछ सीमित करने का भाव गहरा होता दिख रहा है। इसलिए मन के भीतर करुणा, प्रेम और आनंद की मात्रा जांचते रहिए। संवाद का दायरा बढ़ाते रहिए। कभी-कभी डॉक्टर जब बहुत अधिक भरोसे के होते हैं तो हम न चाहते हुए भी उनके कहने पर कुछ दवाइयां, परहेज कर लेते हैं। कुछ वैसा ही अपने मन के साथ करने का समय है।
मन को भरोसे में लेने का समय है। मन करुणा, स्नेह और प्रेम से दूर जाने को कह सकता है, लेकिन हमें संवाद बनाए रखना है। संवाद ही वह पुल है, जो जीवन को इनसे जोड़े रखता है। इस बात को समझने का समय है कि अगर इस समय कोई हमसे दूर चला गया तो उसकी भरपाई कभी संभव नहीं होगी। हम मानसिक रूप से कमजोर हो रहे हैं। निराशा दिमाग पर हावी होती जा रही है। अनिश्चितता का भाव कहीं गहरा होता जा रहा है।
अंतत: प्रेम ही बचाएगा। प्रेम मन में दूसरे के लिए नमी, कोमलता बनाए रखने से अधिक हमारे लिए करुणा की परत बिछाए रखता है। जिसके मन में जितना अधिक प्रेम बाकी रहेगा, उसके जीवन में कोमलता, स्नेह को उपलब्ध होने के उतने ही अधिक अवसर होंगे।
एक छोटी सी कहानी आपसे कहता हूं। संभव है, इससे मेरी बात अधिक स्पष्ट हो सके।
जापान के क्योतो प्रांत में ज़ेन गुरू कीचू से मिलने वहां के नए राजा पहुंचे। मठ के दरवाजे पर पहुंचकर राजा ने अपने सेवक को भीतर संदेश देने को भेजा। सेवक ने गुरू से कहा, क्योतो के राजा आपसे मिलने आए हैं। कीचू ने भोलेपन से कहा, लेकिन मुझे तो उनसे कोई काम नहीं। और न ही मैं राजा के किसी काम का हूं। इसलिए उनको आदरपूर्वक वापस भेज दीजिए।
घबराए सेवक ने लौटकर राजा से यह बात कही। राजा के मन में प्रेम की कोपलें फूटीं थी। राजा होने के बाद भी उसके भीतर अहंकार की बेल नहीं उपजी थी। उसने अपने सेवकों को मठ से दूर भेज दिया। अपनी भव्य सवारी से उतरा। नंगे पांव कीचू की झोपड़ी के बाहर पहुंचकर उसने आवाज दी। मैं कितागाकी (उसका नाम) हूं, आपसे मिलना चाहता हूं। ज़ेन गुरू ने प्यार से उत्तर देते हुए कहा, कितागाकी ! बाहर क्यों ठहरे हो मेरे भाई, भीतर आ जाओ!
अब थोड़ी देर ठहरकर, कितागाकी और अपने मन के बारे में सोचिए। हम कैसे-कैसे कवच अपने अहंकार को पहना देते हैं। न जाने क्या-क्या कहानियां अपने होने के बारे में पाल लेते हैं। अपने भीतर प्रेम बढ़ रहा है या अपने कुछ होने का अहंकार! इस बात को हमेशा जांचते रहिए। (hindi.news18)
-दयाशंकर मिश्र
-विष्णु नागर
हिंदी लेखक शायद भारत का एकमात्र ऐसा प्राणी है, जिससे सबको मुफ्त सेवा चाहिए। हाँ धन्यवाद या थैंक्स जरूर कभी-कभी उसके हिस्से आ जाता है। वह भी सामने वाले की इच्छा पर है। धन्यवाद नहीं दिया तो लेखक उस पर मुकदमा तो नहीं कर देगा! करेगा तो लालची से लालची वकील भी भगा देगा : कहेगा आपका दिमाग तो ठीक है? इस न्यू इंडिया में दिमाग को ठीक रखना, लिखने से बड़ी चुनौती है।
ताजा संदर्भ यह है कि कल मेरे पास एक साहित्य संपादिका का संदेश आया कि आप फलां लेखक पर दो हजारों शब्दों का संस्मरणात्मक लेख एक सप्ताह में भेज दीजिए। अपना परिचय और तस्वीर भी साथ में। हमारे लिए यह संस्मरण एक उपलब्धि होगी और आगे भी हमें आपसे इसी तरह के सहयोग की अपेक्षा रहेगी। मतलब सारी अपेक्षाएं उन्हें लेखक से हैं। उन्हें लेखक का मोबाइल नंबर जरूर कहीं से मालूम है मगर लेखक का परिचय तक मालूम नहीं है,न वे गूगल पर उसकी तस्वीर ढूँढ सकती हैं। उन्हें मेरा या अन्य जिन लेखकों के बारे में कुछ पता नहीं होगा। बस किसी साहित्यप्रेमी ने उन्हें मेरा नाम और मोबाइल नंबर दे दिया है।ऐसा पहले भी कई बार हुआ है।
ऊपर से आग्रह 2000 शब्दों का भी है और समय भी एक सप्ताह का है। सब कुछ हम उनकी थाली में परोस दें और वे जीमने का कष्ट अवश्य कर लेंगे।
पूरे पत्र में भुगतान का कोई उल्लेख नहीं था। मैंने लिखा सम्मानजनक भुगतान करेंगे तो अवश्य लिख देंगे। जवाब आया हम तो खुद इस पक्ष में हैं.. अखबार नया है, यह जो रविवारीय संस्करण हम आरंभ कर रहे हैं वगैरह यानी मुफ्त में आप लिख दीजिए और लिखते रहिए। मैंने क्षमा माँग ली। उन्होंने इतना अवश्य किया कि शुक्रिया दे दिया।
यह सही है कि मैं अवकाश प्राप्त हूँ मगर अवकाश प्राप्त का अर्थ इतना खाली होना भी नहीं होता कि तुम अखबार चलाओ, मुझसे एक हफ्ते में दो हजार शब्दों का आलेख भी चाहो और मैं फटाफट लिखने बैठ भी जाऊँ और मिलने के नाम पर ठनठन गोपाल! आखिर क्योंं किसी व्यावसायिक संस्थान के लिए मुफ्त लिखें? तुम्हारा अखबार नया है वगैरह, यह मेरी जिम्मेदारी नहीं। और न आप इससे पहले मुझे जानते थे,न अब जानते हैं, क्यों करूँ यह तकलीफ। इस समय में कुछ बेहतर पढ़ूँगा, लिखूँगा और हो सकता है, मित्रों और परिवारजनों से गप ही लड़ाऊँ या टीवी देखूँ या सोशल मीडिया देखूँ। आपको फलां लेखक पर लिखवाना है तो जो लिखे, उससे लिखवाइए। और वैसे भी उन पर लिखने में मुझसे सक्षम बहुत हैं।
हाँ मेरा फेसबुक या अन्यत्र लिखा, मेरे कुछ मित्र छाप लेते हैं पूछ कर, यह अलग बात है। एक लेखक के तौर पर नये पाठकों तक पहुँचने की इच्छा भी रहती है लेकिन आप कमाई करेंगे तो एक लेखक को उसका पारिश्रमिक भी तो मिलना चाहिए। आप सबको पैसा देंंगे, बस लेखक को नहीं! वैसे हमसब लेखक बिना किसी आर्थिक या अन्य अपेक्षा के भी लिखते रहते हैं मगर वह जो लिखने को मन करता है, वह लिखते हैं और उन्हें देते हैं, जिनसे हमारा किसी तरह का कोई साबका है। वैसे फेसबुक पर लगभग रोज लिखता हूँ तो कोई आर्थिक क्या कोई और अपेक्षा भी नहीं रहती। कुछ रचनात्मक लिखा और किसी ने कहा कि हमें कुछ दीजिए और मन किया कि इसे छपवा लेने में बुराई नहीं तो सादर दे दिया मगर किसी के आदेश पर उनके बताए विषय पर क्यों लिखें?और आप क्या हैं,कौन हैं, हम नहीं जानते। आप भी हमारे बारे में कुछ नहीं जानते।
लिखने के बदले पारिश्रमिक मिले, तब भी यह लेखक का चुनाव होगा कि वह लिखे या न लिखे। और कहाँ लिखें, कहाँ न लिखे।
हिंदी जगत में लेखक से हर कोई मुफ्तिया काम करने की अपेक्षा रखता है। कितने हैं,जो उसके बदले कुछ देना चाहते हैं?और देते भी हैं तो क्या वह अक्सर सचमुच सम्मानजनक होता है? प्रकाशक आमतौर पर रायल्टी देना नहीं चाहते। देते भी हैं तो मात्र बहलाते हैं, उस राशि बताते हुए भी शर्म आती है, जबकि उन्हें देते हुए शर्म नहीं आती। छोटी पत्रिकाओं के लिए आप कुछ लिखते हैं तो यह मानकर ही चलते हैं कि अंक की एक प्रति मिलेगी। वही आपका पारिश्रमिक है मगर कई लघु पत्रिकाएं इतना सार्थक काम कर रही हैं कि उनका सहयोग करने की इच्छा रहती है।और सहयोग करते ही हैं तमाम लेखक।इस तरह हिंदी का कोई भी लेखक काफी मुफ्त सेवा करता रहता है मगर इसका अर्थ यह भी नहीं कि हर कोई उसे लिखनेत्सुक समझ ले, टेकन फार ग्रांटेड ले ले!
एक तरह से लेखक को सामान्यत: उसके परिश्रम का कोई प्रतिदानतो नहीं ही मिलता, ऊपर से तोहमतें भी उसे ही सबसे ज्यादा मिलती हैं। ऐसा क्यों कर दिया, क्यों कह दिया,क्यों लिख दिया, वहाँ क्यों चले गए, वहाँ क्यों नहीं गए, उसकी प्रशंसा या निंदा क्यों कर दी। बाकी रचनात्मक काम करने वालों के बारे में तो मानकर चला जाता है कि उन्हें तो समझौते करने ही हैं मगर लेखक का जरा सा विचलन उसे जनवादी से कलावादी और कलावादी से अलेखक बना दे सकता है।
‘जीवन संवाद’ मनुष्य और मनुष्यता के बिना अधूरा है। अपनेपन के पराग के बिना जीवन का शहद तैयार नहीं होता। हमें ध्यान से देखना होगा कि हमारी बातचीत का कितना हिस्सा हमारी जरूरत और कितना हमारे मन से जुड़ा है!
हर वक्त हम किसी की मदद को उपलब्ध रहें यह जरूरी नहीं कि संभव हो पाए, लेकिन इतना तो किया ही जा सकता है कि उसके दर्द को महसूस कर पाएं। उससे कह सकें कि तुम अकेले नहीं हो! हम तुम्हारे साथ हैं, डूबते को तिनके का सहारा नहीं, बल्कि उसे नाव में बिठाने जैसा है। हमारे जीवन की गति इस समय इतनी तेज है कि हमदर्द होना भी आसान नहीं। जिंदगी की चाही-अनचाही जरूरतों के बीच हम उलझे हुए हैं। हमारा ध्यान केवल स्वयं पर केंद्रित है। दूसरों के मन को समझना, टटोलना भी भारी काम लगता है!
कोरोना के कारण पहले लॉकडाउन, उसके बाद घर पर अघोषित कैद से जिंदगी के दायरे बहुत सीमित हो गए हैं। सामाजिकता का रस हमारे जीवन का जरूरी हिस्सा था। पहले तकनीक और अपनी व्यक्तिगत व्यस्तता में फंसे होने के कारण हमारे पास सबके लिए समय नहीं था। अब समय तो बढ़ता दिख रहा है, लेकिन अवसर नहीं हैं। हर किसी का फोन व्यस्त है। हर कोई अपने संकट से अकेले-अकेले लड़ रहा है। संकट, हमारी समझ, क्षमता के मुकाबले कहीं गहरा है। अगर हम मिलकर इसका मुकाबला करते, तो संभव है कि इसे सरलता से पराजित किया जा सकता था, लेकिन अब अकेले-अकेले लडऩे के कारण हमारी क्षमता घटती जा रही है।
अगर हम सब एक मनोवैज्ञानिक प्रयोग के लिए तैयार हों, तो हम समझ पाएंगे कि हमारी जीवनशैली कहां जा रही है। हर दिन अपने स्मार्टफोन से होने वाली बातचीत का खुद ही एक ब्योरा तैयार कीजिए। आप जो कह रहे हैं। घंटों-घंटों बातचीत कर रहे हैं। उसकी विषयवस्तु क्या है? वह बातचीत क्या है! इससे हम समझ पाएंगे कि हमारा ध्यान पूरी तरह उन चीजों पर है जो हमें समझाई गई हैं कि हमारे जीवन के लिए उपयोगी हैं।
उदाहरण के लिए दो दोस्त अपनी नई कार पर एक घंटे तक बात करते हैं। बच्चों को किस तरह की चीजें पसंद हैं, इस पर खूब बात होती है। बहुत बात होती है बच्चों की पढ़ाई-लिखाई को लेकर। उनके स्कूल और कॉलेज को लेकर। यह सब जरूरी तो है, लेकिन यह अपनेपन से दूरी का संवाद है। यह जीवन संवाद नहीं। ‘जीवन संवाद’ मनुष्य और मनुष्यता के बिना अधूरा है।
अपनेपन के पराग के बिना जीवन का शहद तैयार नहीं होता। हमें ध्यान से देखना होगा कि हमारी बातचीत का कितना हिस्सा हमारी जरूरत और कितना हमारे मन से जुड़ा है!
अहमदाबाद से एक महीने पहले देवेंद्र शाह ने हमें लिखा कि दिनभर व्यापार के सिलसिले में लोगों से बातचीत करते रहते हैं। कोरोना के दौरान यह बातचीत कई गुना बढ़ गई, लेकिन तभी उनको एहसास हुआ कि कुछ ऐसा है जो छूट रहा है। मेरा सुझाव था कि उनको अपने कुछ मित्रों से नियमित रूप से अपने मन, जीवन और व्यापार से अलग विषयों पर बात करनी चाहिए। इससे मन के भीतर की पीड़ा बाहर आएगी। मन का ठीक तरह से स्नेहन (लुब्रिकेशन) करना होगा।
यह लिखते हुए प्रसन्नता हो रही है कि उन्होंने हर दिन होने वाली बातचीत में जबसे मन का हिस्सा बढ़ाया, तब से वह आनंदित हैं। खुश हैं। हम अपने मन, भीतर की घुटन को अक्सर ही टालते रहते हैं। आज नहीं, कल।
यह जानते हुए भी कि जो अभी नहीं हो सकता, उसका कभी होना तय नहीं। हमें अपने मन, जीवन को ऐसे लोगों का सहारा देना है जिनके भीतर हमदर्दी और करुणा का भंडार हो। जब तक हम दूसरों से प्रेम, करुणा और आनंद साझा नहीं करेंगे। हमारी ओर यह लौटकर नहीं आएगा।
हमदर्द, बनने में कुछ नहीं जाता। कुछ नहीं मिलता। बस, जीवन की जड़ों को वह शक्ति मिलती है, जिससे जीवन आस्था गहरी होती है। एक भी आदमी का हमदर्द होना अपने आसपास प्रेम की मात्रा का बढ़ जाना है। आइए, हमदर्द बनकर देखते हैं !
-दयाशंकर मिश्र
कोरोना वायरस ने हमें जहां लाकर खड़ा कर दिया है, वहां से हमारा अकेले सकुशल लौटना मुश्किल होता जा रहा है। हां, यह आसान हो सकता है, अगर हम साथ मिलकर खड़े हो जाएं।
हमारे ज्यादातर फ़ैसले परिवार के नाम पर होते हैं, लेकिन असल में वह परिवार के लिए नहीं होते। परिवार का अर्थ हर दिन छोटा होता जा रहा है। हम समय के उस टुकड़े में हैं, जहां एक भाई दूसरे भाई को ‘उनके’ परिवार की मंगलकामना के संदेश भेजते हैं। परिवार के दायरे को बढ़ाए बिना प्रेम, स्नेह, आत्मीयता को उपलब्ध होना संभव नहीं! संयुक्त परिवार का संबंध एक साथ रहने से नहीं, होने से है। हम एक जगह रहकर भी एक-दूसरे से अलग हो सकते हैं, अलग-अलग रहकर भी एक-दूसरे के बहुत करीब हो सकते हैं। कोरोना वायरस ने हमें जहां लाकर खड़ा कर दिया है, वहां से हमारा अकेले सकुशल लौटना मुश्किल होता जा रहा है। हां, यह आसान हो सकता है, अगर हम साथ मिलकर खड़े हो जाएं।
पश्चिम के समाज के मुकाबले हमारी सामाजिकता हमेशा से गहरी रही है। एक दशक पहले भारत में आए भीषण आर्थिक संकट में इसीलिए हम कहीं अधिक सुरक्षित रहे। हमारे पास बचत थी, लेकिन उससे भी अधिक महत्वपूर्ण था एक-दूसरे का साथ। एक दशक में परिवार हमारी कल्पना के मुकाबले कहीं अधिक तेजी से बिखर गए। हमने संयुक्त परिवार को केवल साथ रहने से जोड़ दिया। हम भूल गए कि बदली हुई परिस्थितियों में अब एक ही शहर में रह पाना परिवार के सभी सदस्यों के लिए संभव नहीं। एक ही शहर में रहते भी साथ रहना संभव नहीं। लेकिन अलग-अलग रहकर भी साथ निभाना मुश्किल नहीं।
हमारी अधिकांश मुश्किलें मानसिक होती हैं। जब तक हम मन से किसी चीज के लिए तैयार नहीं होते, उसका होना कठिनतम होता जाता है। हमें इस बात को समझने की जरूरत है कि संकट मुश्किल है, लेकिन हमारे साथ होने से उसकी शक्ति आधी हो जाती है।
मैं पिछले पंद्रह दिन में ‘जीवन संवाद’ को मिले एक अनुभव का जिक्र करना चाहता हूं। किस्सा है मध्यप्रदेश के इंदौर से विवेक वासवानी का। वहां पांच भाइयों के भरे-पूरे परिवार में एक भाई को कोरोना के कारण घाटा उठाना पड़ा। इतना अधिक कि उसे अपना सारा काम समेटना पड़ा। उसके बाद दूसरे शहर जाकर उसने अपनी यात्रा आरंभ करने का फैसला किया। उसे दूसरे शहर जाना ही इसलिए पड़ा, क्योंकि उसके परिवार ने उसकी किसी भी तरह की मदद से इंकार कर दिया। क्योंकि सभी का मानना है कि वह एक नहीं, पांच परिवार हैं। मदद तो दूर, उल्टे वह मुश्किल के समय भाई के साथ हिसााब-किताब करने से भी पीछे नहीं रहे, जबकि परिवार के सबसे छोटे सदस्य विवेक ने हमेशा दूसरों के लिए रास्ता बनाने में मदद की है!
विवेक के मन में ऐसे विचार आ रहे थे कि जब उन्होंने किसी का नुकसान नहीं किया तो उनके साथ यह क्यों हो रहा है। उस समय मैंने केवल उनसे इतना ही कहा था कि स्वयं को थोड़ा समय दीजिए। जल्दबाजी मत कीजिए, दुनिया के बारे में अपनी राय बनाने में! मुझे यह लिखते हुए बहुत प्रसन्नता हो रही है कि दूसरे शहर में विवेक के दोस्तों ने बाहें फैलाकर उनका स्वागत किया, क्योंकि उनका मानना है कि वह सब एक ही परिवार के हैं। परिवार की यह वही परिभाषा है, जिसका हमने आज के संवाद में जिक्र किया। विवेक की कहानी अपने ऊपर विश्वास, प्रेम और मनुष्यता की कहानी है। जिंदगी एक दरवाजा बंद करती है, अनेक खिड़कियां खोल देती है। हां, हमें खिड़कियों से नीचे उतरने का हुनर मालूम होना चाहिए। (hindi.news18)
-दयाशंकर मिश्र
-श्रवण गर्ग
सोच-सोचकर तकलीफ होती है, पर ऐसा हकीकत में हो रहा है और हम उसे रोक नहीं पा रहे हैं। अपनी इस असहाय स्थिति का हमें अहसास भी नहीं होने दिया जा रहा है। वह यह कि क्या लोगों को ठीक से जानने के लिए अब उनका चले जाना जरूरी हो गया है ? हम लोगों को, उनके काम के बारे में, उनके मानवीय गुणों के बारे में, जो कहीं दबे पड़े होंगे, उनके चले जाने के बाद ही क्यों जान पा रहे हैं ? हमें संभल पाने का मौक़ा भी क्यों नहीं मिल रहा है? एक शोक से उबरते हैं कि दूसरा दस्तक देने लगता है! हो सकता है कि हम जो अभी कायम हैं, हमारे बारे में भी कल ऐसा ही हो।
लोगों की जिंदगियाँ जैसे शेयर बाजार के सूचकांक की शक्ल में बदल गयी हैं। सूचकांक के घटने-बढऩे से जैसे बाजार की माली हालत की लगभग झूठी जानकारी मिलती है, लोगों के मरने-जीने की हकीकत भी असली आँकड़ों की हेरा-फेरी करके पेश की जा रही हैं। देखते ही देखते, जीते-जागते इंसान मौत के आँकड़ों में बदल रहे हैं। हमें सही खबर मिलना अभी बाकी है कि कितने शहर अब तक कितने खाली हो चुके हैं। अभी केवल इतना भर पता चल रहा है कि अस्पताल और उनके मुर्दाघर अब छोटे पडऩे लगे हैं।
कई लोग ऐसे हैं जिनसे हम मिलना चाहते थे पर महीनों से मिल नहीं पाए थे। फोन पर भी बात नहीं कर पाए जबकि हमारे और उनके भी फोन खाली पड़े थे। उन्हें ठीक से याद भी नहीं कर पाए क्योंकि हम बार-बार अपनी नकाबों को ही उतारते-चढ़ाते रहे या फिर अपने हाथों को माँजते रहे। हमारे हाथ इतने साफ पहले कभी नहीं रहे होंगे। अपमानित महसूस करने के कारण भी बनते हैं कि हमारे आसपास इतने सारे लोग जीती-जागती कविताओं और सत्य कथाओं के रूप में टहलते रहे और हमें पता ही नहीं चल पाया। वे दबे पाँव चले भी गए। अंतिम समय में भी कोई उनके पास नहीं था। उनके चेहरे भी ढके हुए थे।
दुनिया भर में महामारी के कारण मरने वालों का बताया जाने वाला आंकड़ा थोड़े दिनों में दस लाख को पार करने जा रहा है। मध्यम आकार के एक भरे-पूरे शहर जितने कुल लोग। चंडीगढ़ जैसे खूबसूरत शहर की आबादी लगभग इतनी ही है। कैसा लगे कोई सुबह-सुबह खबर करके बताए कि एक जाना-पहचाना शहर चार-पाँच महीनों के दौरान ही अपनी जगह से अचानक गायब हो गया है? किसी राज्य को ही अनुपस्थित होते देखना हो तो सिक्किम की आबादी सात लाख और मिजोरम की लगभग 11 लाख है। देश को देखना हो तो भूटान की आठ लाख के कऱीब है। हम अंदाजा ही नहीं लगा पा रहे हैं कि आखिरी हो क्या रहा है और हमें किस ओर धकेला जा रहा है।
जो हुकूमतों में हैं क्या उन्हें डर ही नहीं लग रहा है कि उनकी आबादी की गिनती लगातार कम हो रही है और जो लोग अभी कायम हैं मौत का खौफ अब एक साये की तरह उनका भी हर जगह पीछा कर रहा है ? पलक झपकते ही जगहें ख़ाली नजऱ आने लगती हैं ! एक भले डॉक्टर मित्र ने सलाह दी कि मुसीबत कब आ जाए कुछ पता नहीं। एक कागज पर कुछ डिटेल्स लिखकर हमेशा तैयार रखें कि कभी भी ऐसी कोई स्थिति बन जाए तो दस-पंद्रह सबसे ज़रूरी काम क्या करने हैं, सबसे पहले किन-किन से सम्पर्क करना है जो मदद के लिए तुरंत खड़ा हो जाएगा। दिन में ऐसा हो तो क्या करना है, और आधी रात हो जाए तो क्या करना है! लिखने बैठे तो पहला सबसे जरूरी काम और पहला नाम ही पूरे भरोसे के साथ ध्यान में नहीं आया।
हम इस खतरे को लेकर अभी भी पूरी तरह से सचेत नहीं हैं कि जनता के डर का इस्तेमाल दुनिया भर में कितनी चीजों के लिए उन प्रभावशाली लोगों के द्वारा किया सकता है जिन्हें लोगों के इस तरह से चले जाने, एक व्यक्ति, एक शहर, एक राज्य या एक देश की आबादी के नक्शे और गिनती से गायब हो जाने से कोई भी फर्क ही नहीं पड़ता। कहीं भी किसी तरह का दु:ख या शोक व्यक्त करने की सुगबुगाहट भी नहीं है। लोगों की जीवित स्मृतियों में तो गुजरे सालों में ऐसा कभी नहीं हुआ कि लोगों का भीड़ की तरह इस्तेमाल करने के बाद उन्हें अचानक से नितांत अकेले कर दिया गया हो, सांत्वनाओं के स्तर पर भी ‘आत्मनिर्भर’ बना दिया गया हो।
कहा जा रहा है कि धीरे-धीरे सब कुछ खुल जाने वाला है। पर लोगों को पता है कि अब पहले जैसे कुछ भी नहीं रहने वाला है। रह भी कैसे सकता है? वे अभागे जो असमय ही अपनी अनंत की यात्राओं पर रवाना हो चुके हैं, कैसे लौटकर आएँगे? वैसे तो हमें पहले से ही आगाह कर दिया गया है कि महामारी के बाद हमारे जीने का तरीका बदल जाने वाला है ।क्या इस बात की आशंका नजर नहीं आती कि कोरोना के बाद के जिस ‘बाद’ की बात कही गई है वह भी कभी आए ही नहीं! क्या ऐसा असम्भव है कि हमें जिस स्थान पर इस समय रोक दिया गया है वही अब हमारा पक्का ठिकाना भी घोषित कर दिया जाए जिसमें कि घर, दफ्तर ,दुकान, स्कूल, बाजार और अकेलेपन से जूझने की सारी सुविधाएँ भी कायम हो जाएँ। ऐसा होने भी लगा है और हम इस नई व्यवस्था के कितने अभ्यस्त हो चले हैं, हमें पता ही नहीं चल पाया।
क्या हमें इस बात का भी कोई डर नहीं है कि आगे चलकर नागरिकों के किसी भीड़ की शक्ल में शोक व्यक्त करने के लिए जमा होने को भी व्यवस्था के प्रति विद्रोह के षडय़ंत्र की आशंकाओं से देखा जाने लगे। हम जिस तरह की राजनीतिक गतिविधियों, सामाजिक-धार्मिक समारोहों और सार्वजनिक रूप से प्रसन्नता और आक्रोश व्यक्त करने के प्रति अभ्यस्त हो चुके हैं, क्या उसकी कोई कमी हमें महसूस नहीं हो रही है? हम शायद ठीक से जवाब नहीं दे पाएँगे कि इस समय हमें सबसे ज़्यादा डर किस बात का लग रहा है! महामारी के अलावा भी हम किन्ही और चीजों को लेकर भी चिंतित हैं पर बताना नहीं चाहते हैं। सभ्यताएँ जब समाप्त होने का तय कर लेतीं हैं तो सारी शुरुआतें इसी तरह से होती है।
और हाँ! हमें पता है न कि आज से ठीक 28 दिन बाद विजय दशमी और उसके बीस दिन बाद दीपावली का पर्व है? क्या हमारे ‘मन’ त्योहारों का सामना करने को पूरी तरह से तैयार हैं?